Tuesday, 17 November 2020

फकीर बादशाह

यूं तो सलमान और नेमत दो सीधे-सादे नाम लगते हैं पर मेरे लिए इनमें एक मजेदार किस्सा छुपा है । एक ऐसा किस्सा जिसे सुनकर आपके होंठों पर भी एक मीठी से मुस्कराहट आ जाएगी । इस कहानी के तीन पात्र हैं – मेरा शरारती कुत्ता चंपू और उसके दो दोस्त – सलमान और नेमत । 
नेमत - सलमान ( फकीर बादशाह )
नोएडा में मेरे घर के सामने से गुजरती कॉलोनी की सड़क अक्सर व्यस्त ही रहती है । छोटी – मोटी मोटर गाड़ियों के अलावा रेहड़ी पर सब्जी – भाजी बेचने वालों का भी ताँता लगा ही रहता है । घर के भीतर बैठा मेरा कुत्ता चंपू यूं तो देखने में लगेगा जैसे आंखे बंद किए ध्यान मुद्रा में बैठा है पर उसके कान हमेशा रहते हैं चौकस । हर आवाज़ के प्रति सजग – चाहे वह घर के अंदर की हो या बाहर से आने वाली । अपने मतलब की आवाज पर चंपू की प्रतिक्रिया मौके के अनुसार ही होती है । जैसे किसी अनजान आदमी या किसी भिखारी की भनक पाते ही उसकी दहाड़ किसी शेर से कम नहीं होती । इसके विपरीत किसी परिचित व्यक्ति की आहट पर चंपू की कूँ – कूँ की स्वर ध्वनि में से मानों संगीत की स्वर – लहरी फूटती प्रतीत होती हैं । ऐसा ही कुछ हाल होता है चंपू का जब वह एक खास रेहड़ी वाले की आवाज़ सुनता है । उस आवाज़ पर मानों वह पागल सा हो जाता है । वृंदावन में कान्हा की बंसरी सुनकर गैया जैसे भाव विभोर हो उठती थीं कुछ -कुछ ऐसा ही हाल चंपू का हो उठता है । वह दौड़ कर मेरे पास आता है और अपनी पूँछ हिलाते हुए तरह - तरह की मार्मिक आवाजें निकालते हुए मानो विनती करता है कि दरवाजा खोल दो , मुझे बाहर जाने दो।दरअसल इस सब्जी की रेहड़ी से आने वाली आवाज़ें होती हैं चंपू के दो नन्हे दोस्तों की – सलमान और नेमत । दोनों भाई हैं और सब्जी बेचने में अपने परिवार की हाथ बांटते हैं । बड़े भाई सलमान की उम्र है दस वर्ष और छोटे नेमत की सात वर्ष । चंपू जैसे ही घर के सात तालों की कैद तोड़ता हुआ सलमान – नेमत के सब्जी ठेले पर पहुँचता है वहाँ उसका इतना जबरदस्त स्वागत होता है जितना शायद डोनाल्ड ट्रम्प का भी भारत आने पर नहीं हुआ होगा ।
चंपू की पार्टी 
चंपू के लिए मनपसंद मटर , आलू , टमाटर और फलों की पार्टी मानों इंतजार ही कर रही होती है । सारी दुनिया से बेखबर ये तीनों दोस्त एक अद्भुत संसार में रम जाते हैं । एक ऐसा संसार जिसमें कोई हिन्दू – मुस्लिम का भेद नहीं , अमीरी – गरीबी की ऊँच – नीच नहीं । इनकी दुनिया में अगर है तो केवल प्रेम – निस्वार्थ , निष्कपट प्रेम और मानवता । सबसे मज़ेदार बात यह कि हमें सब्जी – भाजी बेचने के वक्त वे दोनों नन्हे सौदागर किसी भी किस्म की रियायत नहीं देते हैं पर चंपू को पार्टी देते समय उनके लिए चंपू की पसंद की महंगी से महंगी फल- सब्जी सौ रुपये किलो के टमाटर की भी कोई अहमियत नहीं होती । खुद गरीबी के हालात में गुजर – बसर करने वाले बच्चों के दिल में बसी दरियादिली को देख कर टाटा और अंबानी की अमीरी भी एक बारगी जैसे पानी भरती प्रतीत होती है । फकीर होते हुए भी ये बच्चे किसी भी वैभवशाली बादशाह से कम नहीं । कहने को यह किस्सा छोटा सा है पर समझने वाले के लिए चंपू – सलमान और नेमत की दुनिया बहुत कुछ सीख दे रही है ।

Saturday, 31 October 2020

थक गया ख़ुदा !



वह भी था समय ,

महामारी  का था ना नामो - निशान ,

चारों ओर बस भीड़ , शोरगुल,

धूल - धुएं से परेशान इंसान ।


फिर आया कोरॉना,

जैसे फटा कोई बम,

पूरी दुनिया गई जैसे थम,

आदमी घरों  में कैद

हवा - नदियां हुई साफ़    ,

आसमां ने ओढ़ा नीला लिहाफ़ ।

साथ ही . . .  

शुरू हुआ आदमी का  सफ़ाया,
  
और कुदरत की सफाई।

एक तरफ दर्द - एक तरफ दवाई ।




बदले फिर हालात,

दिख रहा अब चारो ओर दर्द ही दर्द ,

आसमां में छाई धूल की गर्त,

जीवन बन रहा फिर से नर्क।

नहीं कोई राहत,

सर पर सवार कोराना की शामत ।


देख कर यह सब,

बात इतनी समझ आयी

थक चुका  ख़ुदा भी

कर कुदरत की सफाई ,

करता है अब  इंसान का सफाया ।

Saturday, 17 October 2020

यादों का सफर : अनिल डी शर्मा

 अनिल डी  शर्मा 
यादों के समंदर में गोते लगाना भला किसे अच्छा नहीं लगता – मुझे भी लगता है । मैं भी उम्र के उस पड़ाव पर हूँ जब सीनियर सिटीजन की उम्र की दहलीज को छू ही लिया है । यद्यपि अभी भी अपने आपको हर तरह से सक्रिय रखा हुआ है फिर भी जब कभी फुरसत के क्षणों में बैठ कर सोचता हूँ कि इस भाग-दौड़ की ज़िंदगी में अब तक क्या खोया और क्या पाया तब बीती हुई ज़िंदगी की कहानी किसी सिनेमा के परदे पर चल रही तस्वीरों की तरह बंद आँखों में सपने की तरह दौड़ने लगती है । यह आज की बात नहीं है – मेरे साथ पिछले दस सालों से यादों की आंधी कुछ ज्यादा ही झकझोर रही है । इन पुरानी यादों में सबसे करीब हैं वह मीठी यादें जो बचपन से जुड़ी हुई हैं । उन यादों ने दिल में कुछ ऐसी अमिट छाप और कसक छोड़ी हुई है कि आज भी मैं उन लम्हों को फिर से जीना चाहता हूँ । 

गुलधर रेलवे स्टेशन 
थोड़े में कहूँ तो मेरा जन्म वाराणसी में हुआ जहाँ मेरी ननसाल हुआ करती थी । एक तरह से आप मुझे बनारसी बाबू भी कह सकते हैं । पिता रेलवे में थे – कुछ यादें छुटपन की गाजियाबाद – मेरठ लाइन पर स्थित छोटे से रेलवे स्टेशन गुलधर से भी जुड़ी हैं । बाद में राजस्थान के कोटा में बस गए । मैं भी नौकरी के सिलसिले में काफ़ी घूमा -फिरा । भारत सरकार के सीमेंट कार्पोरेशन के मार्केटिंग विभाग में काफी समय तक जगह -जगह काम किया । आजकल कोटा के एक जाने-माने कोचिंग इंस्टीट्यूट में अपनी सेवाएं दे रहा हूँ । रोजमर्रा की काम – काज की व्यस्तता ही कुछ ऐसी रहती है कि दम मारने की फुरसत ही नहीं मिलती । लेकिन इतना जरूर है कि जब भी दो घड़ी सुकून के मिलते हैं तब भी यह कमबख्त दिमाग चैन से नहीं बैठ पाता । तब इस दिमाग पर दिल हावी हो जाता है जो ले जाता है मुझे पुरानी बचपन की प्यारी – प्यारी यादों में । 
मेरी नानी - प्यारी नानी 
इंसान को इस दुनिया में माँ से प्यारा कोई नहीं होता । ज़ाहिर सी बात है कि माँ की भी माँ यानि नानी तो दिल के सबसे प्यारे कोने में रहती है । मुझे भी अपनी ननसाल से इतना जबरदस्त लगाव और जुड़ाव रहा है जिसके आगे फेविकोल का जोड़ भी कुछ मायने नहीं रखता । मेरी उम्र तब रही होगी यही कोई आठ – नौ वर्ष की । अपने नाना को तो मैंने कभी नहीं देखा । उनका स्वर्गवास मेरी माँ की शादी से भी पहले ही हो चुका था । वह सही मायने में अंग्रेजों के जमाने के जेलर थे । माँ और नानी के मुंह से उनके राजसी ठाठ -बाट और रहन- सहन के किस्से सुनकर मैं अचंभित रह जाता । नानी के घर अक्सर छुट्टियों में जाया करता था ।

मेरे नाना  : सचमुच अंग्रेजों के ज़माने  के जेलर 



नानी का घर : अहमद मंजिल 
मेरी ननसाल थी बनारस के अर्दली बाजार इलाके में । वहाँ एक अंग्रेजों के जमाने की पुरानी सी दुमंजिला हवेलीनुमा शानदार इमारत थी जिसका नाम था – अहमद मंजिल । उस जैसी शानो-शौकत वाली इमारतें आजकल तो सिर्फ पुरानी फिल्मों में ही देखने को मिलती हैं । जहाँ तक मुझे याद आता है उसमें लगभग अट्ठारह - बीस कमरे थे – ऊंची – ऊंची छत वाले । गुसलखाने से लेकर रसोईघर तक सभी विशालकाय जिनके सामने आजके हाउसिंग सोसायटी के फ्लेट - मकान कबूतरखाने का आभास देते हैं । वह ज़माना था 1960 के दशक का । मेरी ननसाल में भरा-पूरा परिवार था – नानी , मामा , मौसी – सब तरफ से चहल-पहल से भरपूर । अपने जमाने में तब के बनारस में इतनी भीड़-भाड़ नहीं होती थी । घर के पास ही हनुमान मंदिर था । एक दुकान थी बालमुकंद की जहाँ जाकर चटपटी लेमनचूस गोलियां खरीदकर चटखारे ले-ले कर खाते । उन गोलियों का स्वाद और याद आज भी बचपन के झूले पर बैठा देता है । घर के पास ही बरना नदी का पुल था जहाँ तक जाने के लिए रिक्शा या तांगा मिलता था । यह बरना नदी वही है जो मध्य प्रदेश से लंबी दूरी तय कर अंत में बनारस में गंगा में विलीन हो जाती है । 
बरना नदी का पुल 
वक्त के साथ – साथ हालात भी बदलते चले गए । अर्दली बाज़ार की अहमद मंजिल किराये की रिहाइश थी सो एक दिन तो उसे विदा कहना ही था । नानी ने भी इस दुनिया से रुखसत ले ली और नानी की सुनाई कहानियाँ वक्त की धूल के नीचे धीरे -धीरे धूमिल होने लगीं । लेकिन यादों में बसा रही तो वही अहमद मंजिल की ननसाल जो मेरे दिलों-दिमाग पर कुछ इस कदर हावी थी कि समय – समय पर दिल में हूक मारती – चल उसी आशियाने में जहाँ बचपन के पंछी ने अपने छोटे- छोटे पंखों से उड़ान भरना सीखा । नौकरी की व्यस्तता और तरह-तरह की मजबूरियों के जंजाल में यह सब संभव नहीं हो पाया । पर कहने वाले कह गए हैं लाख टके की बात – अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो नीली छतरी वाला भगवान भी खुद आपकी मदद को हाज़िर हो जाता है । मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । कोटा के जिस कोचिंग इंस्टीट्यूट की प्रशासकीय जिम्मेदारी निभा रहा हूँ वहाँ के लिए अध्यापकों की नियुक्ति करने के सिलसिले में केम्पस सलेक्शन के लिए एक बारगी आई.आई.टी, वाराणसी ( इंजीनियरिंग कॉलेज – भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) जाने का कार्यक्रम बना । मुझे लगा भगवान ने मेरे अंतर्मन की पुकार आखिर सुन ही ली । शायद अर्दली बाजार और अहमद मंजिल भी उस मासूम बच्चे से मिलने को बेताब थी जिसके छोटे – छोटे कदमों की आहट और खिलखिलाहट से उसकी शान में भी चार चाँद लग जाते थे । मैंने मन में उसी क्षण ठान लिया कि इस सुनहरे मौके को मैं हाथ से व्यर्थ नहीं जाने दूंगा । अपनी पुरानी यादों के सपने को साकार करने का समय सचमुच आ चुका था । 
वाराणसी में आई. आई. टी के गेस्ट हाउस में ही ठहरा । सबसे पहले तो कॉलेज के जिस काम के लिए आया था उसे निपटाया । अब बारी थी अपने बचपन में लौटने की । वाराणसी में ही मेरा ममेरा भाई भी रहता है । स्थानीय व्यक्ति की मदद के बिना मेरे ननसाल खोजी अभियान की सफलता संभव नहीं थी इसलिए वाराणसी में ही रहने वाले अपने ममरे भाई से संपर्क साधा । आशा के मुताबिक वह भी तुरंत हाजिर हो गया और फिर निकाल पड़े हम दोनों भाई अपनी पुरानी यादों के सफर पर । 
पहले का शांत अर्दली बाजार अब भीड़भाड़ और शोरगुल का केंद्र बन चुका था । बालमुकुंद की टॉफी वाली दुकान अभी भी मौजूद थी पर नए रूप- रंग में जिसकी कमान अब नई पीढ़ी के हाथ में थी । मेरे बचपन की ननसाल रहे अहमद मंजिल के आसपास का इलाका भी काफी बदल चुका था । उस पुरानी इमारत का दरवाजा धड़कते दिल से खटखटाया । दरवाजा खोलने वाले एक मुस्लिम शख्स थे । हमने अपना परिचय दिया और अनुरोध किया कि हमें अपने बचपन की यादों से जुड़े इस घर को एक बारगी देखने का मौका दें । आज के इस हिन्दू- मुस्लिम के बीच अविस्वास के दौर में भी भले लोगों की कमी नहीं है । वह जनाब बड़ी इज्जत से हमें घर के अंदर ले गए । मैं अब एक नई ही दुनिया में आ चुका था – वह दुनिया जो आज भी मेरे सपनों में जिंदा थी । मैं एक के बाद एक उस इमारत के कमरों को देख रहा था – किसी कमरे में मुझे अपनी नानी बैठी नजर या रहीं थी तो किसी में अपने मामा – मौसी । उन अद्भुत क्षणों में मैं बिल्कुल बेबस था क्योंकि यादों पर किसी का वश नहीं चलता । शायद मुझे परखने के इरादे से ही मकान मालिक ने कहा कि आगे आप खुद जाएं क्योंकि आप जब यहाँ रह चुके हैं तब तो यहाँ के चप्पे – चप्पे से वाकिफ़ होंगे । उस दुमंजिला विशाल इमारत के अंदर और छत पर मैं मंत्रमुग्ध सा घूम रहा था और सही मायने में यादों के समंदर में गोते लगा रहा था । 

हर सुनहरे सपने का एक अंत होता है – मेरे सपने का भी हुआ । वापिस चलने का समय आ गया । यहाँ की यादों को हमेशा के लिए मैं अपने साथ समेट कर अपने साथ ले जाना चाहता था । मकान मालिक से वहाँ के फ़ोटो खींचने की अनुमति मांगी । अहमद मंजिल इमारत की विरासत मुकदमेबाज़ी में फंसी होने के कारण उन्होंने फोटोग्राफी के मामले में अपनी असमर्थता जताई । वैसे तो मैं निहायत ही शरीफ़ किस्म का इंसान हूँ पर कुछ मौकों पर थोड़ा-बहुत दाएं – बाएं भी हो जाता हूँ । यहाँ भी कुछ ऐसा ही मामला था सो इज्जत का फ़लूदा होने का खतरा उठाते हुए भी आँख बचा कर कुछ फ़ोटो खीच ही डाले । यह बात अलग है कि वे फ़ोटो आज मेरे पास से भी गुम हो चुके हैं क्योंकि पुरानी कहावत है ‘चोरी का माल मोरी में’। 

पत्नी के साथ 

मेरी माँ और बच्चे 


                      (फ़ोटो सौजन्य : श्रीमती संगीता और श्री  राजीव कुमार)

वापिस कोटा आकर यादों को अपने परिवार के साथ बाँटा । माँ की आँखों में जो खुशी की चमक आई थी उसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है ।  आज जब भी फुरसत के लम्हों में उन पुरानी यादों की जुगाली करता हूँ वह गीत अक्सर होंठों पर आ ही जाता है : 

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन🎵🎵🎵🎵🎵

                                                                (प्रस्तुतकर्ता : मुकेश कौशिक) 




Monday, 5 October 2020

मॉनीटर मित्र : श्याम लाल

मॉनीटर मित्र : श्याम लाल 
पुरानी कहावत है – सैयाँ भए कोतवाल अब डर काहे का । मतलब यही कि जब कोई दोस्त या रिश्तेदार किसी ऊंचे पद पर बैठा हो तो फायदा मिलने की पूरी संभावना होती है । स्कूल के दिनों में मुझे भी कुछ ऐसा ही महसूस होता था – क्योंकि श्याम लाल मेरा दोस्त था और दोस्त होने के साथ वह क्लास का मॉनीटर भी था । स्कूल खालिस सरकारी था । जब भी कभी क्लास में मास्टर जी नहीं होते या खाली पीरियड होता तब हमारी मस्ती की बात ही कुछ अलग होती । जबान पर लगा ताला मानो टूट जाता और संगी – साथियों के साथ हल्ला – गुल्ला उस स्तर पर पहुँच जाता कि पार्लियामेंट भी एक बारगी शर्म से पानी – पानी हो जाए । बातों का सिलसिला भी ऐसा जो रुकने का नाम ना ले । अब ऐसे समय में जब हम सब बातों के रस में पूरी तरह से सराबोर हो रहे होते थे तब अचानक ब्लेकबोर्ड पर लिखने वाले चॉक के टुकड़े बंदूक से निकली गोलियों की तरह शरीर से टकराती । नजर उठा कर देखता – ब्लेकबोर्ड के ठीक सामने मास्टर जी की जगह क्लास के मॉनीटर – यानी श्याम लाल को पाता । ब्लेकबोर्ड साफ़ करने का लकड़ी का डस्टर मेज पर ठकठका कर मॉनीटर की चेतावनी का नगाड़ा पूरी क्लास में गूंज उठता । पलक झपकते ही क्लास रूम मानों कोर्ट रूम में बदल जाता जहाँ के जज साहब अपना श्याम लाल होता । उसकी पैनी निगाह क्लास के बच्चों पर रडार की तरह नज़र रखती । इतने पर ही बात निबट जाए तब भी गनीमत समझो , वह तो शरारत करने वाले बच्चों के रोल नंबर एक -एक करके सामने ब्लेकबोर्ड पर लिखना शुरू कर देता । दिमाग का वह तेज था इसीलिए केवल नाम ही नहीं क्लास के सभी बच्चों के रोल नंबर तक उसे रटे पड़े थे । उसके द्वारा ब्लेकबोर्ड पर नाम लिखा जाना ठीक वही डर पैदा कर देता जैसा अमरीका द्वारा किसी देश को आतंकवादी घोषित करने पर होता है । मास्टर जी का जब क्लास में अवतरण होता तब उनके लिए ब्लेकबोर्ड ही गीता – बाइबिल – कुरान होता । उस पर आतंकवादियों के रोल नंबर वेद वाक्य की तरह अटल , शाश्वत सत्य माने जाते । उन आतंकवादी – शरारती – बातूनी बच्चों की किसी भी फ़रियाद पर कोई सुनवाई नहीं होती । हाँ- बतौर सज़ा, कुटाई होगी, मुर्गा बनना है या छड़ी से पिछाड़ी की सिकाई होनी है , यह मास्टर जी के मूड पर निर्भर होता । यह थी ताकत मेरे मॉनीटर मित्र श्याम लाल की जिससे क्लास के सारे बच्चे हद दर्जे की खौफ खाते थे । जहाँ तक मेरा सवाल है – पूरी क्लास का गब्बर मेरा तो दोस्त था , बल्कि एक तरह से कहूँ तो सही मायने में लँगोटिया यार था । यारी का फर्ज निभाने में कभी भी कतई पीछे नहीं रहा । जब शोर मचाती क्लास में आतंकवादियों के रोल नंबर ब्लेकबोर्ड पर लिखे जा रहे होते थे , तब मुझे वह केवल आँखे तरेर, अपने मुँह पर उंगली रख चुप होने का इशारा करता हुआ चाक का टुकड़ा मिसाइल की तरह खींच कर दे मारता । मास्टर जी की कुटाई – पिटाई के मुकाबले मैं भी उस चॉक के टुकड़े की गोली खाकर अपने को धन्य समझता कि चलो सस्ते में छूट गए । उसकी इस रहमदिली का कारण बहुत बाद में पता चला । दरअसल मेरी माँ भी उसी स्कूल में अध्यापिका रहीं थी और श्याम लाल किसी जमाने में उनका छात्र रह चुका था । 

स्कूल था मेरा दिल्ली – यमुना पार इलाके के झिलमिल कॉलोनी में । श्याम लाल भी नजदीक की ही कच्चे – पक्के मकानों की बस्ती विस्वास नगर में रहता था । जब भी मौका मिलता मैं अपने एक और दोस्त चंद्रभान- जो श्याम का पड़ोसी भी था , के साथ उसके घर चला जाता । यद्यपि वह समाज के उस वर्ग से था जिसे आर्थिक और सामाजिक नजरिए से अविकसित माना जा सकता है लेकिन उस बंदे में गजब का आत्मविश्वास भरा हुआ था । दिमाग का तेज था, क्लास का मॉनीटर था, एन.सी.सी का अच्छे केडेट्स में से एक था । खेल-कूद में भी बढ़-चढ़ कर भाग लेता । लिखाई इतनी सुंदर जैसे मोती जड़ दिए हों । उस कच्ची उम्र में भी जिम्मेदारी का इतना एहसास था कि अपने पिता का हाथ बटाने के लिए उनकी किरियाने दुकान की जिम्मेदारी संभालनी शुरू कर दी थी । 

स्कूल के बाद रास्ते अलग -अलग हो गए । लंबे समय तक एक दूसरे की कोई खोज -खबर नहीं रही लेकिन मॉनीटर मित्र दिलों-दिमाग की तिजोरी में महफ़ूज रहा । पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी के कोल्हू में जुत गए और रिटायर होते -होते कब जवानी ने विदा ली और बुढ़ापे ने दस्तक दी समय का पता ही नहीं चला । बचपन से बुढ़ापे तक के सफ़र में दुनिया ने भी बहुत तरक्की कर ली थी । सोशल मीडिया और मोबाइल का ज़माना आ चुका था । उसी के जरिए श्याम लाल की खोज खबर ली गई । असली दोस्ती वही होती है जिसका रंग समय के साथ फीका नहीं पड़ता वरन और भी पक्का होता जाता है । श्याम के साथ भी ऐसा ही था । वह भी नौकरी के बाद रिटायर हो चुका था । उसे भी मेरे तरह दोस्ती के उसी कीड़े ने काटा हुआ था जो हालचाल पता करने के लिए समय-समय पर फोन करता रहता । 

अब सिर्फ फोन पर बात करने से मन तो भरता नहीं । सो एक दिन प्रोग्राम बना कि अपने उसी झिलमिल कॉलोनी के स्कूल में श्याम लाल और चंद्रभान के साथ जाकर पुराने दिनों की यादें ताज़ा की जाएं । समय का फेर कुछ ऐसा रहा कि किसी न किसी कारणवश यह स्कूल दर्शन और मित्र मिलन का कार्यक्रम टलता ही रहा – कभी हारी- बीमारी, कभी व्यस्तता तो कभी दिल्ली का प्रदूषण । आखिर में रही सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी जब दिल्ली तो क्या सारी दुनिया ही ठहर गई । 

श्याम लाल के फोन हमेशा की तरह आते रहते – गपशप होती ।स्कूल के दिनों से आज तक उसमें कोई अंतर नहीं आया था सिवाय एक बात के – अब वह मुझे नाम के साथ जी भी लगा कर संबोधित किया करता । अभी कुछ दिन पहले की बात है – मोबाइल पर दोस्त चंद्रभान का संदेश था जिसमें श्याम लाल के आकस्मिक दु:खद निधन की सूचना थी । दिल को गहरा धक्का लगा । श्याम के घर फोन लगाया – बच्चों से बात की – जो पता लगा वह और भी कष्टकारी था । अचानक तबीयत खराब होने पर गंभीर हालत में श्याम को एम्बुलेंस में कई अस्पतालों के चक्कर लगाने पड़े पर किसी ने भी उसे भर्ती तक नहीं किया । सब एक दूसरे पर टरकाते रहे और अंत में इलाज के अभाव में श्याम लाल के प्राण पखेरू एम्बुलेंस में ही उड़ गए । वह श्याम लाल जो बचपन में ही मॉनीटर बन कर पूरी क्लास की अनुशासन व्यवस्था संभाला करता था , अस्पतालों की अनुशासनहीनता से उसके प्राणों की रक्षा इस दुनिया का मॉनीटर नहीं कर पाया । ऊपर वाले से यह शिकायत मुझे ताउम्र रहेगी और साथ ही खुद अपने से भी – मिलने का वादा नहीं निभा पाया । 

अलविदा मॉनीटर मित्र 🙏

Thursday, 24 September 2020

भक्ति की राह - नहीं आसान : चरन जी


भजन की राह पर चरन  जी 

इंसान चाहता कुछ है लेकिन तकदीर किसी ऐसे रास्ते पर धकेल देती है जिसे उसने खुद चुना है । अपना ही उदाहरण देता हूँ – मेरा बचपन से ही रेडियो एनाउंसर बनने का सपना था । पिताश्री स्वयं साहित्यकार होने के कारण कलाकारों की कमजोर आर्थिक मजबूरियों से भली-भांति परिचित थे । उन्होंने मुझे डाक्टर बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी पर जब किस्मत में सीमेंट बेचना लिखा था तो रेडियो जॉकी और डाक्टरी के पटाखे हो गए फुस्स । हम में से बहुत कम ऐसे खुशनसीब होते हैं जिन्हें नौकरी , काम-धंधा , व्यवसाय भी अपनी पसंद और रुचि के अनुसार मिलता है । पिछले दिनों मुझे एक ऐसे ही अत्यंत दिलचस्प व्यक्तित्व से संपर्क हुआ । आमने – सामने मुलाकात तो नहीं हुई पर फोन पर ही लंबी बातचीत हुई । इस शख्स की ज़िंदगी बहुत ही उतार – चढ़ाव वाली रही पर मजे की बात यही कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हिम्मत नहीं हारी । इन सबके बावजूद उसे आखिर में हासिल क्या हुआ – वह भी बताऊँगा । 

चलिए बात बचपन से ही शुरू करते हैं – उस बच्चे का नाम था गुरप्रीत सिंह । इस नाम का अर्थ है गुरु से प्रेम करने वाला । पता नहीं इस नाम में ही ऐसा क्या जादू डाला उस बच्चे पर कि कम उम्र से ही आध्यात्म और भक्ति की ओर झुकाव शुरू हो गया । जिस उम्र में बच्चे कंचे खेलते, पतंग उड़ाते, वह किसी और ही दुनिया में लीन रहता । गुरु नानक जी महाराज की जीवनी कई बार पढ़ी । माँ को बड़ी शांति मिलती । गुरुद्वारे की संगत में शबद – कीर्तन सुनने में उसे अद्भुत आनंद मिलता । अगर यह कहें कि पढ़ाई से ज्यादा उसे आनंद भक्ति की दुनिया में मिलता तो कुछ गलत नहीं । गुरुद्वारे में जाकर खुद भी शबद गाने लगा । उसके पिता एक ठेठ व्यवसायी थे । हर पिता की तरह उनकी भी चाहत थी कि अपने दूसरे भाई की तरह गुरप्रीत भी फेक्टरी के काम में हाथ बटाए । यहीं से शुरू होता है दोनों के बीच विचारधारा का टकराव । पिता को हमेशा यही लगता कि ईश्वर भक्ति के द्वारा रोज़ी -रोटी का इंतजाम करना कठिन ही नहीं – नामुमकिन है । दूसरे शब्दों में कहें तो – काम-धंधा अपनी जगह और भक्ति – भावना अपनी जगह । 

पिता-पुत्र की इस विचारधारा में टकराव ही कई बार घर में कटुता का वातावरण ला देता । पिता भी अपनी जगह ठीक थे – इस दुनिया में माँ – बाप से बढ़कर अपनी औलाद का भला सोचने वाला और कौन हो सकता है । समझदारी गुरप्रीत में भी कुछ कम नहीं थी - 16 - 17 वर्ष की आयु में भी अपने हमउम्र साथियों से ज्यादा परिपक्वता थी । उसकी सोच थी कि जिंदा रहने के लिए जितनी जरूरी रोज़ी -रोटी है उससे भी कहीं ज्यादा आवश्यक है कि पैसा कमाने का तरीका भी सात्विक होना चाहे । अब आप खुद ही सोचिए – कितना कठिन रास्ता चुना गुरप्रीत ने । घर के अच्छे -खासे पारिवारिक फेक्टरी -व्यवसाय को छोड़ कर निकल पड़े मन की शांति की खोज में गौतम बुद्ध की तरह । गुरुद्वारे में भक्ति की – वहाँ भी चैन नहीं मिला । एक तरह से कहा जाए तो जगह – जगह धक्के खाए । एक से एक बुरे दिन भी देखने पड़े । उधर पिता नाराज और इधर रोटियों के भी लाले पड़ रहे थे । कभी – कभी मन में निराशा का भाव भी आता – कहीं ऐसा ना हो कि ना खुदा ही मिला , ना विसाले सनम , ना इधर के रहे ना उधर के रहे । पर दिल के किसी कोने में विश्वास भी था – ऊपर वाला सब भला ही करेगा । हुआ भी कुछ ऐसा ही । खुद उनके ही शब्दों में “ सारा जीवन शांति की तलाश में अलग-अलग रास्ते खोजता रहा । रास्ता सादगी और सहज ध्यान में था जिस पर कभी ध्यान ही नहीं दिया ।“ खोजते -खोजते आध्यात्मिक पंथ सहज मार्ग के संपर्क में आए । पुराना सब कुछ भुला – नाम ही नया अपना लिया – “चरन जी” । तब से संगीत और भजन – यही दुनिया है चरण जी की । अब उन्हें अपना संगीत का शौक, ईश्वर के प्रति भक्ति और आजीविका सब एक ही माध्यम से अपनाने का भगवान ने सुनहरा मौका दिया । अपनी मेहनत ,लगन , सुरीली आवाज और ईश्वर के आशीर्वाद की बदौलत आज चरन जी भजन गायकी के क्षेत्र में चमकता हुआ सितारा हैं ।

बाएं  से अभिनेता  विवेक वासवानी, संगीतज्ञ  विश्व मोहन भट्ट,  चरन जी 
देश विदेशों में ढेरों कार्यक्रम कर चुके हैं । आज भगवान का दिया सब कुछ वह पा चुके हैं । अपनी सोच को वह हकीकत में बदल चुके हैं – आप समाज सेवा करिए पर उसमें दिया जाने वाला धन भी वही हो जो सात्विक तरीके से कमाया गया हो । यह असल ज़िंदगी का जीता -जागता किस्सा हमें यही बताता है कि अगर भावनाएं पवित्र हैं तो भगवान स्वयं हमें मंजिल तक पहुंचाता है ।


आपका क्या ख्याल है ?

Tuesday, 8 September 2020

मर जावां गुड़ खा के

पंजाबी में एक कहावत है – मर जावां  गुड़ खा के । सही मायने में इसका अर्थ आज तक नहीं समझ पाया । भला गुड़ खा कर कोई शख्स कैसे मर सकता है । गुड़ तो बहुत ही स्वादिष्ट और स्वास्थ के लिए लाभकारी पदार्थ है । मैं तो जब भी गुड़ खा कर मरने वाली बात सुनता हूँ तो एक मजेदार किस्सा याद या जाता है जब इस गुड़ ने सही मायने में जान आफत में डाल दी थी । तो चलिए शुरू करता हूँ इस गुड़ की गाथा को । 


इस कहानी की भी शरुआत होती है हिमाचल प्रदेश में स्थित राजबन सीमेंट फेक्टरी में जहाँ मैं उन दिनों काम कर रहा था । जैसा कि मैंने शुरू में ही बताया गुड़ खाने के बहुत ही फायदे होते हैं । जो मजदूर सीमेंट उद्योग, स्टोन क्रशिंग आदि धूल भरे वातावरण में कार्य करते हैं, उनके गले, फेफड़े व सांस के सारे रोगों से गुड़ बचाव करता है। सीमेंट फेक्टरी के कुछ हिस्सों में सीमेंट का धूल भरा वातावरण कुछ ज्यादा ही होता है इसलिए वहाँ काम करने वाले मजदूरों को गुड़ नियमित रूप से बांटा जाता है । गुड़ खरीदने की प्रक्रिया में सही मायने में मेरा खुद का तेल निकल जाता था । गुड़ का कोई कंपनी - ब्रांड तो होता नहीं जो आर्डर दिया और मँगवा लिया । ऊपर से तुर्रा यह कि हमारी कंपनी भी सरकारी थी जहाँ गर्मियों के लिए घड़े और मटके की खरीद - फरोक्त ठीक उन्हीं सरकारी नियमों के तहत होती थी जिन के अंतर्गत भारत सरकार अरबों रुपयों की राफेल विमानों को खरीदती है । सो जनाब इस गुड़- खरीद के काम के लिए भी बाकायदा कमेटी बनती , उस कमेटी को सरकारी वाहन उपलबद्ध कराया जाता । कमेटी के माननीय सदस्य आस-पास के गावों में जाकर कोल्हू – कोल्हू भटकते , निरीक्षण करते , बनने वाले गुड़ का परीक्षण करते और खरीद के लिए कोटेशन लेते । उसके बाद इधर कमेटी की मीटिंग पर मीटिंग , मीटिंग पर मीटिंग और गुड़ वितरण में हुई देरी की वजह से उधर यूनियन और मजदूरों का हल्लागुल्ला । जैसे तैसे करके जब गुड़ ट्रेक्टरों में भर कर फेक्टरी में आता तो ऐसा लगता जैसे मंगल यान अपना मिशन सफलता पूर्वक पूरा कर मंगल ग्रह पर उतर लिया ।


उस बार भी सब कुछ उसी प्रकार से हुआ । ट्रेक्टर भर गुड़ की रसद आई – मजदूरों में बटवाने के लिए उसे टाइम ऑफिस के एक खाली कमरे में भरवा दिया । नोटिस निकलवा दिया गया कि गुड़ का स्टॉक आ चुका है , सभी मजदूर अपने – अपने हिस्से का गुड़ ले जाएँ । असली खेल अब शुरू हुआ । कुछ मजदूर नेता पहले से ही गुड़ की एवज़ में पैसे लेने की समय - समय पर मांग उठाते रहते थे । उधर कंपनी का कहना था कि जरूरी नहीं कि पैसे लेकर अगर मजदूर ने गुड़ खरीद कर नहीं खाया तो सेहत के लिए गंभीर खतरा हो सकता है । इसलिए यह मांग नामंजूर कर दी जाती थी । इस बार उन्ही नेताओं की शह पर मजदूरों ने गुड़ की क्वालिटी पर सवाल उठाते हुए लेने से मना कर दिया । नेताओं को लाख समझाया , उन्हें समझाने के चक्कर में पता नहीं किलो के हिसाब से कितना गुड़ खुद खा कर दिखाया । वह तो भला हो भगवान ने पहले ही मुझे मीठे का शौकीन पंडत बनाया था सो खाया -पिया सब हजम कर गया वरना आज की बिरादरी का छुई मुई होता तो डायबिटीज का मरीज पक्का बन चुका होता । नेता, महबूबा और घोड़ा इनकी यही खासियत है – अगर अड़ गए तो बस अड़ गए , इन्हे समझाना और ऊंट को हेलीकॉप्टर में चढ़ाना एक बराबर मुश्किल । नेताओं ने नहीं मानना था तो नहीं माने और इस चक्कर में गुड़ भी नहीं बाँटा जा सका । ऑफिस के कमरे में पड़ी उस गुड़ की हालत उस घर जमाई से भी बदतर हो चली थी जिससे पिंड छुड़ाने के सभी तरीके फेल हो चुके हों । 

गुड़ की खासियत ही कुछ ऐसी होती है कि उसे लंबे समय तक भंडार करके नहीं रखा जा सकता । मेरे उस बदनसीब गुड़ की दुर्दशा भी घर जमाई की तरह शुरू हो चुकी थी । गरमी का मौसम आया तो उस गुड़ के पहाड़ के ग्लेशियर ने पिघलना शुरू कर दिया । उस कमरे के सीमेंट के फर्श पर सुनहरी गुड़ की महकती परत एक अद्भुत नज़ारा प्रस्तुत कर रही थी । कमरे के रोशनदान से ततैये और मधुमक्खियों ने अपनी खुराक का नया खजाना ढूंढ लिया था । यहाँ तक भी गनीमत थी पर वो कमबख्त आते -जाते टाइम ऑफिस के कर्मचारियों के हाथ -गाल पर डंक मारकर अपनी हाजरी भी दर्ज कराने लगे । हर दूसरे दिन मेरे पास रोते-पीटते कर्मचारियों की शिकायतें आतीं और मैं परेशान । सरकारी महकमों में यही खासियत होती है – यहाँ घुसना जितना कठिन होता है और यहाँ से छुटकारा पाना उससे भी मुश्किल । गुड़ का हाल भी कुछ – कुछ ऐसा ही था । 

बदलते मौसम की तरह गुड़ भी अपनी रंगत बदल रहा था । मौसम करवट ले चुका था और बरसात भी आ गई । मौसम की सीलन ने उस गुड़ के ग्लेशियर को कुछ ज्यादा ही पिलपिला बना डाला । किसी जमाने में अच्छे – खासे रहे उस गुड़ में सड़ने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई । रही सही कसर बरसात से टपकती उस छत ने पूरी कर दी जो गुड़ के कैलाश पर्वत पर शिवलिंग पर टपकते पानी की धारा का रूप ले चुकी थी । नतीजा वही हुआ जो सपने में भी नहीं सोचा था । लगा जैसे कैलाश – मानसरोवर झील में अचानक बाढ़ या गई और उस गुड़ रस की लहरें उस कमरे की सीमा तोड़ कर बाहर टाइम ऑफिस के कॉरीडोर तक दर्शन दे रही थीं । हालत यह कि मैं देखूँ जिस ओर सखी री – सामने मेरे साँवरिया ( गुड़ की चाशनी )। टाइम ऑफिस तक पहुँचने के लिए उस चाशनी के समंदर को पार कर के जाना पड़ता । शायद अपनी ज़िंदगी में इतना मिठास भरा वातावरण मैंने कभी नहीं देखा । कुछ ही दिनों में उस चिपकती चाशनी से सराबोर कमरे और कॉरीडोर से बदबू के झोंके इस कदर उठने लगे कि ऑपरेशन टेबिल पर लेटा बेहोश मरीज भी घबरा कर होश में आ जाए । मैं रात दिन ऊपर वाले से यही दुआ करता कि या तो इस मुसीबत से मुझे छुटकारा दिलवा वरना मैं मर जाऊँ इसी गुड़ को खाकर । 

सब तरफ से हिम्मत हार कर आखिर एक दिन फेक्टरी के महाप्रबंधक के आगे यह सारा दुखड़ा सुनाया । काबिल थे , समझदार थे – उन्होंने समस्या का हल भी सुझा दिया । उस गुड़ के कैलाश पर्वत के निपटारे के लिए फिर से एक कमेटी का गठन हुआ । कमेटी ने पूरे गुड़-कांड का गहराई से विश्लेषण करते हुए सर्वसम्मति से उस दुर्गंध युक्त पदार्थ के – जिसे किसी जमाने में गुड़ के नाम से जाना जाता था – सफ़ाई का सुझाव दिया जिसे महाप्रबंधक ने तुरंत स्वीकार भी कर लिया । पास के ही गाँव से कोई किसान अपना ट्रेक्टर लेकर आया – उस कीचड़ बन चुके गुड़ को भर कर ले गया – अपने खेत में खाद बना कर डालने के लिए या मवेशियों को खिलाने के लिए । ट्रेक्टर जैसे ही फेक्टरी गेट से बाहर निकला मेरी खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था । लग रहा था आज तो पप्पू सच में पास हो गया ।

Sunday, 16 August 2020

जिन खोजा तीन पाइया

यह जो नीली छतरी वाला है – बहुत ही अव्वल दर्जे का कहानीकार है । दुनिया के हर बंदे के जीवन और भाग्य - कहानी का ताना-बाना इस चतुराई से बुनता है कि उस गोरखधंधे को अच्छे -अच्छे नहीं समझ पाते । इस सबका नतीजा कई बार वही होता है जैसा मेरी कहानी – “कौन है वह" के बाद पाठकों से मिली कुछ प्रतिक्रियाओं से पता लगा । ( अगर उस कहानी को अभी तक आपने नहीं पढ़ा तो उसे एक बार पढ़िएगा जरूर ) उस किस्से में एक ऐसे अनजान, अनदेखे शख्स का जिक्र था जो अंधेरी बियाबान रातों में, जब सारी दुनिया नींद के गहरे आगोश में सो रही होती है –अपनी बड़ी सी गाड़ी में सड़कों पर घूमता रहता । कड़कती सर्दी, घनघोर बरसात , भीषण गर्मी – कुछ भी हो उसकी राह और उद्देश्य में रुकावट नहीं बन पाती है । हर रात उसका एक खास मकसद होता है – सड़क किनारे बैठे बेसहारा कुत्तों ,  और पशु-पक्षियों के लिए खाना , दाना -पानी का शानदार इंतजाम करना । 
कुछ ऐसी ही प्रतीक्षा होती है रात के देवदूत की 
उसके इस नेक कार्यकलाप को मैं पिछले एक साल से महसूस कर रहा हूँ पर कभी उस बंदे को देखा नहीं क्योंकि वह तो ठहरा रातों का देवदूत । अब ज़िंदगी की असलियत को तो मैं बदल नहीं सकता । किस्सा पढ़ने के बाद मेरे दोस्त , मेरे सुधि पाठक सब मेरा कान पकड़ रहे हैं उस कहानी के लिए क्योंकि उस किस्से का नायक ही अदृश्य और गुमनाम है । सब का सिर्फ एक ही सवाल – वह कौन है , इसका जवाब भी चाहिए । झूठ मैं लिख नहीं सकता और उम्र के  इस दौर में जासूसी का काम मेरे बस का नहीं । पर जब आपने सवाल किया है तो खोजबीन और जवाब देने की जिम्मेदारी भी तो मेरी ही है । बस यह समझ लीजिए कि पता नहीं कितने पापड़ बेलने पड़े इस काम में । पूरी – पूरी रात जागा – कान सड़क पर हर आती -जाती गाड़ी की आवाज पर । एक रात साढ़े तीन बजे खटका होने पर तीर की तरह बाहर की ओर भागा । सामने वही काली गाड़ी और यह लीजिए वह शख्स भी जिसके बारे में जानने के लिए सभी उत्सुक । इसी को तो कहते हैं : जिन खोजा तिन पाइया । 

वह सज्जन- एक उम्रदराज सरदार जी , बड़ी तसल्ली से सड़क किनारे बेसब्री से इंतजार कर रहे कुत्तों की टोली को बिस्किट्स की दावत कराने में व्यस्त थे । सरसरी निगाह से उनकी बड़ी सी काले रंग की  एस.यू.वी गाड़ी की डिक्की में नजर दौड़ाई जो खाने पीने के सामान से ठसाठस भरी हुई थी । मैंने सरदार जी को अभिवादन कर अपना परिचय दिया । थोड़ी बहुत इधर -उधर की बातें हुईं । अपने मन में उमड़ रहे ढेर सारे सवालों के जवाब भी जानना चाह रहा था । दिक्कत यही थी कि उन्हें अभी और भी आगे जाना था, बातें करने का समय भी नहीं था और सही वक्त भी नहीं था । उन्होनें मेरा फोन नंबर लिया और चलते – चलते यह वायदा किया कि जल्द ही मेरे से मिलने आएंगे और तब जी भर कर बातें भी करेंगे । मेरे देखते -देखते उनकी गाड़ी रात के अंधेरे में गुम हो गई । 
देवदूत  की रसद गाड़ी 
इसी बीच दो दिन निकल गए । दोपहर का वक्त था – यही कोई तीन बज रहे होंगे - कॉल बेल बजी । झाँक कर देखा बाहर वही सरदार जी खड़े थे । गोरा -चिट्टा रंग, मजबूत कद – काठी, चलने – फिरने का अंदाज  देखकर यकीन नहीं हुआ कि यह इंसान 78 वर्ष की उम्र का है । चेहरे पर गोल्डन फ्रेम का चश्मा, हाथ में बेशकीमती घड़ी, ब्रांडेड - सलीकेदार कपड़े उनकी शख्सियत को और भी प्रभावशाली और गरिमामय बना रहे थे । नेक काम करने का प्रभाव ही कुछ ऐसा होता है कि सम्पूर्ण व्यक्तित्व में एक अनोखा ही तेज आ जाता है । ऐसा ही कुछ उस रातों के देवदूत को देख कर भी लगा । कोरोना संक्रमण के समय में हर आदमी नए अनजान शख्स से मिलने से डरता है – पर वह तो ठहरा देवदूत, दिल ने कहा – उससे डर कैसा । उनसे घर पर बैठ कर तसल्ली और आत्मीयता से बातचीत हुई । 

सबसे पहले उन्होनें बहुत ही विनम्रता से अपनी पहचान उजागर नहीं करने का अनुरोध किया । इसीलिए उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए अब मैं उन्हें एक काल्पनिक नाम से ही संबोधित करूँगा – ‘सिंह साहब’ । उनका मानना है कि जिस दिन इंसान प्रसिद्धी के घोड़े पर सवार हो जाता है उसमें घमंड आने की पूरी संभावना होती है । उन्हें गुमनामी के अंधेरे में रह कर ही सेवा करने में आत्म संतोष मिलता है । लोग बेशक तरह-तरह की बातें बनाते रहें पर रात में जीव – जगत की सेवा पर निकलने के पीछे यही कारण है । इस प्रकार से कुत्ते -बिल्लियों से जन्मजात दुश्मनी रखने वाले कुछ लोगों की फ़िजूल टोका- टाकी से भी बच जाते हैं । यद्यपि मेरे घर के आस-पास उन्होंने विगत एक साल से ही आना शुरू किया है पर यह सेवा वह पिछले दस वर्षों से करते आ रहे हैं । अपने स्वभाव की विनम्रता के अनुसार के ही अनुकूल सिंह साहब कहते हैं वह जो भी कर रहे हैं उसमें उनका निजी स्वार्थ है । यह स्वार्थ है सेवा के बाद मिलने वाले संतोष का ।अपने जीवन में मिली सफलताओं और आज  ज़िंदगी के जिस मुकाम पर वह  खड़े हैं व वहाँ तक पहुँचने में शायद इन बेजुबान प्राणियों की दुआएं ही काम कर रही हैं । इस सेवा के कारण इंसान की मदद करने में वह कई बार धोखा खा चुके हैं क्योंकि मदद के हकदार सच्चे इंसान को पहचानने के मामले में कई बार भूल भी हो जाती है । नतीजा यही होता है कि कपटी और चालबाज लोग गलत फायदा उठाने में सफल हो जाते हैं और सिंह साहब के पास बाद में पछताने के सिवाय कोई चारा नहीं रहता । इसीलिए वह कहते हैं कि पशु -जगत की सेवा में कम से कम खुद के ठगे जाने का खतरा तो नहीं होता । जितनी भारी -भरकम खाने की रसद की खरीद सिंह साहब करते हैं उसे देख कर तो यही महसूस होता है कि उनका नाम दरियादिल सिंह होना चाहिए । 

अब अचंभे की बात सुनिए । ज़िंदगी में जितने उतार -चढ़ाव सिंह साहब ने देखे हैं वह भी किसी फिल्मी कहानी की तरह कुछ कम दिलचस्प नहीं है । पुरखों का किसी जमाने में धन- दौलत से भरपूर , सम्पन्न परिवार था। आजादी के बाद भारत – पाक विभाजन के कारण सब कुछ छोड़ कर शरणार्थी बन कर हिंदुस्तान में कदम रखना पड़ा । लेकिन उस समय के बालक सिंह साहब के पिता जी का इतना रुतबा तो था ही कि वहाँ से हवाई जहाज से आए थे और उनका पहला ठिकाना अंबाला रहा । गर्दिश के दिनों ने दस्तक देनी शुरू कर दी । जमा -पूंजी की नैया भी धीरे -धीरे डूबने लगी और जल्द ही ऐसे हालात बन गए कि 12 साल के उस बच्चे को पटियाला की सड़कों पर दही- भल्ले बेचने की भी नौबत आ गयी । लेकिन उस बच्चे में भी गजब की हिम्मत थी । हर छोटे-बड़े काम में हाथ आजमाता रहा । कभी स्कूल के बस्ते बेचे तो कभी बनाए, और तो और ऑटो रिक्शा तक चलाया । किसी भी काम को छोटा नहीं समझा – मेहनत करने में कोई कोताही नहीं की । उम्र के साथ -साथ तजुर्बा भी बढ़ता गया । छोटी – मोटी मशीनों से शुरुआत की, काम धीरे -धीरे बढ़ाना शुरू किया । अब उस नीली छतरी वाले भगवान की भी इस नेकदिल और मेहनती इंसान पर नजर पड़ी और उसके बाद तो सिंह साहब ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा । इनकी नोएडा-सूरजपुर में लंबी – चौड़ी फेक्टरी हैं जिसमें 450 लोगों को रोजगार मिलता है ।अपने भरे -पूरे परिवार के साथ सिंह साहब नोएडा के पॉश इलाके में वैभवशाली कोठी में सुख शांति का जीवन व्यतीत कर रहे हैं । जीवन के भौतिक सुख के साथ -साथ आत्मिक शांति से परिपूर्ण जीवन बिरलों को ही नसीब होता है – सिंह साहब भी उन्हीं में से एक हैं । अब तो आप भी मुझ से सहमत होंगे कि नेक नीयती से की गए निस्वार्थ सेवा कार्य कभी बेकार नहीं जाते । 

और हाँ चलते -चलते – जिस इंसान को हम संदेह और शक की निगाह से देख रहे थे उसकी असलियत जानकार क्या हमें आत्म- निरीक्षण की जरूरत नहीं है ?        

Tuesday, 11 August 2020

कौन है वह ????


मैं आपको कोई डरावनी कहानी नहीं सुना रहा । पर यह सच है कि रात के सन्नाटे में साढ़े तीन बजे अक्सर मेरी नींद उचट जाती है । बाहर सड़क पर किसी गाड़ी के रुकने की आवाज आती है । कुछ ही मिनिट रुकने के बाद उस गाड़ी के इंजिन की धीर-धीरे मंद होती आवाज बताती है कि वह गाड़ी फिर कहीं आगे की ओर चली गई है । उस खामोशी में कुत्तों के लगातार भौंकने की आवाज पूरे वातावरण को और अधिक रहस्यमयी , भूतहा और कुछ हद तक डरावना बना देती है । यह लगभग रोज का ही किस्सा है । उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ । समय वही था जाना – पहचाना रात के साढ़े तीन बजे का । वही बाहर गाड़ी रुकने की आवाज – कुत्तों के भौकने का शोरगुल और मैं अपनी उचटती नींद में दिमाग में उठ रहे कई सवालों की पहेली को सुलझाने की कोशिश में उलझा हुआ – आखिर यह सब माजरा है क्या ? सोचा आज तो हिम्मत जुटा कर इस रहस्य पर से परदा उठाने की कोशिश करनी ही चाहिए । कमरे की बत्ती जलाई ,मेन गेट की चाभी लेकर बाहर निकला । ताला खोला – सामने बड़ा अजीब नजारा था । मेरे घर के बाहर बने रेंप पर कुत्तों का भरा - पूरा जमावड़ा लगा हुआ था । जमावड़ा भी क्या – आप यह भी कह सकते हैं कि उनकी महासभा चल रही थी । इस कुत्ता-महासभा के आयोजन का कारण जल्द ही समझ भी आ गया । घर के बाहर सड़क किनारे कुत्तों के खाने के स्वादिष्ट बिस्किट्स बिखरे पड़े थे । उन्हीं बिस्किट्स की पार्टी का मज़ा लेने के लिए कुत्तों के झुंड में लूट-खसोट मची हुई थी । यहाँ तक तो सब ठीक था पर यह समझ नहीं आया कि आखिर इतने महंगे बिस्किट्स आखिर कहाँ से आ गए – कौन डाल गया ? बाहर सड़क पर ही दूर तक नजर दौड़ाई – अपने सवाल का कुछ हद तक जवाब मिल गया । कुछ ही दूरी पर अंधेरे में सड़क पर खड़ी एक बड़ी सी काले रंग की (एस यू वी ) कार की टेल -लाइट की लाल रोशनी चमक रही थी । उस गाड़ी का शीशा खुला और अंदर से ही ढेर सारे बिस्किट्स की बौछार पास के चबूतरे पर हुई । आसपास के कुत्ते दौड़ कर उस जगह पहुंचे और अपनी पार्टी शुरू कर दी । इतनी देर में वह गाड़ी आगे चल दी और उसकी टेल लाइट की लाल रोशनी को धीरे - धीरे मानों अंधेरे ने निगल लिया । उस गाड़ी में कौन बैठा है मैं नहीं देख पाया । 

अगले दिन इस बारे में मैंने आस-पड़ोस के कई लोगों से बात की – जानकारी चाही । सारी कहानी धीरे-धीरे साफ़ होने लगी । इस बारे में पक्के -तौर पर कोई भी सटीक और विश्वसनीय जानकारी नहीं दे पाया । सबने केवल सुनी-सुनाई बात का ही अलग-अलग तरीकों से बखान किया । उस गाड़ी में कौन होता है – यह किसी ने नहीं देखा । इतना सभी को पता था कि वह गाड़ी पिछले एक वर्ष से लगातार आ रही है । वह गाड़ी कहीं दूर से आती है । रास्ते में जिधर भी कुत्तों की पलटन नजर आती है – उसी जगह पर बिस्किट्स की भरपूर बौछार करती जाती है । सर्दी , गरमी, बरसात – किसी भी मौसम की कोई भी रुकावट उस रहस्यमयी गाड़ी को रोक नहीं सका । 

मैंने उस इंसान को कभी नहीं देखा । लोग उसके बारे में तरह-तरह के अनुमान लगाते हैं । रात के साढ़े तीन बजे के अजीबोगरीब समय में बिस्किट्स खिलाने के पीछे उसकी मंशा पर सवाल भी खड़े हो रहे हैं । यह दुनिया और पुलिस का दस्तूर है – जब तक सबूत न मिले तब तक हर इंसान संदेह के घेरे में होता है । कुछ लोगों की नज़रों में वह शातिर चोर है तो कुछ उसे आतंकवादी समझ रहे हैं जो किसी बड़ी घटना को अंजाम देने से पहले इलाके के कुत्तों से दोस्ती गांठ रहा है । जहाँ तक मेरा सवाल है – तो मुझे भी लगता है सड़क पर घूमते आवारा, निरीह , भूखे-प्यासे कुत्तों की शानदार – जॉयकेदार पार्टी का रोज़ इंतजाम करने वाला शख्स निश्चित रूप से कोई असामाजिक तत्व ही हो सकता है । जब समाज के अधिकांश तथाकथित दयावान सदस्यों के सेवा-भाव पर निजी स्वार्थ का चश्मा चढ़ा हो तो इन बेसहारा, दर -दर भटकते और पानी की दो बूंदों के लिए भी तरसते मासूम कुत्तों का भला सोचने वाला इंसान उस कठोर समाज का हिस्सा नहीं हो सकता । नेक इंसान को सिरफिरा , पागल और असामाजिक समझने की भूल करना हमारी आदत में शुमार हो चुका है ।

Saturday, 1 August 2020

फटफटिया झूला

सिनेमा के शौकीन पुरानी पीढ़ी के लोगों को शायद याद हो - एक जमाने में राज कपूर साहब की फिल्म आई थी – मेरा नाम जोकर । फिल्म तो खास चली नहीं पर प्रख्यात कवि और गीतकार नीरज जी का एक गाना जरूर चला – 
ऐ भाई ज़रा देखा कर चलो , आगे ही नहीं पीछे भी ,
दाएं ही नहीं बाएं भी , ऊपर ही नहीं नीचे भी ।
नीरज जी तो आज इस दुनिया में नहीं हैं पर उनका यह यादगार गीत अभी भी रेडियो पर कभी - कभार सुनने को मिल जाता है । मैं जब भी इस गीत को सुनता हूँ तो इस गीत के साथ जुड़ी यादें भी ताज़ा हो जाती हैं । यादें उस दौरान की जब मैं अपनी बुलेट फटफटिया को फर्राटे से सड़कों पर दौड़ाते हुए इस गीत को गुनगुनाया करता था । आज का किस्सा उसी बुलेट फटफटिया और इस गीत से जुड़ा है । 

ज़माना वर्ष 1994 के आस-पास का था ।  उन दिनों मेरी पोस्टिंग हिमाचल प्रदेश के पाँवटा साहिब के निकट स्थित राजबन नाम की जगह में सीमेंट फैक्ट्री में थी । मार्केटिंग विभाग में होने के कारण समय -समय पर आस-पास की जगहों पर सरकारी दौरे पर भी जाता रहता था । उम्र का तकाजा और कुछ जवानी का जोश - ऐसे अवसरों पर सार्वजनिक यातायात के साधनों के बजाय अधिकतर अपनी भारी -भरकम बुलेट मोटर साइकिल का ही प्रयोग करता था । दफ्तर का काम भी हो जाता था और फटफटिया पर मस्ती -भरा सैर -सपाटा भी – और वह भी सरकारी खर्चे पर । ऐसे ही किसी मौके पर पास की एक जगह विकास नगर जाने का कार्यक्रम बना जो कि लगभग 20 किलोमीटर दूर थी । हिमाचल प्रदेश का मौसम तो हमेशा ही सुहावना रहता है – उस दिन भी कुछ ऐसा ही था । सुबह का वक्त था ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी और ऐसे ही सुहावने मौसम में फटफटिया धकधक की आवाज करती सरपट दौड़ती चली जा रही थी । अब उसे मेरे अकल का फेर कहिए या कुछ और , मुझे उस आवाज़ में भी मानो : माधुरी दीक्षित की फिल्म का गाना सुनाई देरहा था – “धक-धक करने लगा , ओ मेरा जियरा डरने लगा ।“ पर मुझे डर काहे का जब - सड़क बिल्कुल साफ थी और भीड़-भाड़ का दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं था । मेरी मंजिल अब नजदीक ही थी । सड़क के दोनों और हरे-भरे खेत और आम के पेड़ों की भरमार थी । आम के पकने का मौसम आ चुका था और पेड़ों पर लगे पके आमों की महक उस दौड़ती मोटर साइकिल पर भी एक अलग ही किस्म का मदहोश करने वाला अनुभव करा रही थी । अचानक एक झटका सा लगा और महसूस हुआ कि सड़क से ऊपर उठ कर मोटर साइकिल ने रनवे पर दौड़ते हुए हवाई जहाज की तरह उड़ान लेनी शुरू कर दी । मेरी मोटर साइकिल सड़क से पंद्रह फीट की ऊंचाई तक पहुँच गई और उसके बाद वापिस उलटी दिशा में आकर सड़क पर ही बहुत धीमे से झटके से उतर भी गई । मेरा संतुलन बिगड़ चुका था और मैं भी मोटर साइकिल के साथ सड़क पर लमलेट हो चुका था । अब तक आसपास के खेतों में काम कर रहे लोग तुरंत मेरी सहायता के लिए आ गए । सहारा देकर मुझे खड़ा किया – भाग्यवश कोई गंभीर चोट मुझे नहीं आई थी । दायें हाथ की कलाई में मामूली सी खरोंच भर लगी जो बाद में पता चला छोटा सा फ्रेकचर था । यह सब इतना पलक झपकते हुआ कि इस कांड को मैं तुरंत समझ नहीं पाया । बाद में जब इधर-उधर नजर दौड़ाई तो सारा मामला साफ़ हुआ । 

दरसल जैसा मैंने पहले बताया जिस सड़क से मैं गुजर रहा था वह यातायात के हिसाब से बिल्कुल साफ थी – मेरे आगे -पीछे आधा किलोमीटर तक तक कोई नहीं था । पर उस सड़क के किनारे लगे पेड़ों पर कुछ लोग चढ़ कर आम तोड़ रहे थे । उन्होंने रस्सी का फंदा बनाया हुआ था जिससे ऊपर की टहनियों पर लगे आम झटका देकर नीचे गिरा रहे थे । वह रस्से का फंदा उनके हाथों से फिसल कर नीचे सड़क तक झूले की तरह लटक आया । अचानक नीचे से गुजर रही मेरी मोटर साइकिल उस झूले की चपेट में आकर बुरी तरह से उलझ गई । झूले के आकार का वह रस्सी का फंदा सीधे मेरी गरदन पर उलझने वाला ही था पर उससे पहले ही मोटर साइकिल के हेंडल पर दोनों ओर लगे मजबूत रियर व्यू मिरर में अटक गया । दौड़ती मोटर साइकिल की रफ्तार ने अचानक पेड़ से लटकते रस्सी के झूले में उलझ कर वहाँ सर्कस का खतरनाक करतब दिखा दिया । बिना सावन के ही मेरी फटफटिया अपने सवार समेत पेंडुलम की तरह हवाई झूले का भरपूर मज़ा ले गई । एक और अचंभे की बात यह कि रस्सी का एक अन्य सिरा मोटर साइकिल के तेजी से घूमते हुए पहिए में उलझ कर उसे हवा में ही पूरी तरह से जाम कर चुका था । इस कारण जब मेरा हवाई घोड़ा वापिस जमीन पर अवतरित हुआ तो बहुत ही शांत भाव से – बिना इसी प्रकार की खतरनाक उछल-कूद मचाए । 
बाद में जब ठंडे दिमाग से सोचा तो महसूस हुआ कि बहुत बड़ी विपत्ति थी जो बगल से निकल गई । शायद कुछ अच्छे कर्मों का और कुछ दोस्तों की शुभकामनाओं और बड़े -बूढ़ों के आशीर्वाद का प्रताप रहा होगा । रस्सी का फंदा उस वक्त मेरी गरदन तोड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार था - पर मेरी किस्मत में आपको यह किस्सा सुनाना बाकी जो था । इस किस्से का सार यही है कि कई बार मुसीबत आपको ऐसे कोने में आकर घेर लेती है जहाँ बिल्कुल उम्मीद नहीं होती । सड़क पर आप जा रहे हैं – मौसम साफ है - आगे कोई नहीं – पीछे कोई नहीं – अब आप सपने में भी नहीं सोच सकते कि आपकी ऐसी-तेसी करने के लिए मुसीबत आसमान के रास्ते उतर आएगी । नीरज जी ने तभी ठीक ही लिखा – ऐ भाई ज़रा देख के चलो – नीचे ही नहीं – ऊपर भी । 
इस किस्से का सबसे दुखद पहलू मेरे लिए यही रहा कि पूज्य पिताश्री का आदेश हुआ – “ तुम्हारी बुलेट फटफटिया मनहूस है । तुम्हारी जान जाते-जाते बची है । इसे घर में मत रखो – तुरंत बेच डालो । दुपहिए से नाता तोड़ो , कार से रिश्ता जोड़ों ।” मैं उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता हूँ जिनके लिए बुजुर्गों की इच्छा और आदेश सर्वोपरि होता है अतः आज्ञा का पूरा पालन हुआ । जान से प्यारी बुलेट फटफटिया को भारी मन से अपने घर ही नहीं अपनी ज़िंदगी से भी निकाल दिया । अब तो बस कभी -कभार अपने बेटे की बुलेट पर दिखावटी सवार होकर शौकिया फ़ोटो खिंचवा लेता हूँ । इस तरह पिताश्री की इच्छा का सम्मान भी हो जाता है और मेरे दिल के अधूरे अरमान भी कुछ हद तक पूरे हो जाते हैं।

Monday, 27 July 2020

संगीत - शौक - सेवा : दिलीप कुमार राव

मेरे दिवंगत पूज्य पिता श्री रमेश कौशिक बहुत ही विद्वान और प्रख्यात कवि थे । उनसे अक्सर बड़े ज्ञान की नसीहतें सुनने को मिला करती थीं । मैं भी उन्हें गांठ बांध लेता । आज भी उन्हें याद करता हूँ तो जीवन के किसी न किसी मोड़ पर सहारा मिल जाता है । वह कहा करते थे अगर तनाव मुक्त जिंदगी गुजारनी है तो इंसान कम से कम ऐसा एक अच्छा शौक जरूर पाले जिसका उसके काम-धंधे से दूर-दूर तक कोई संबंध ना हो । बागवानी, खेलकूद , सैर सपाटा , फोटोग्राफी , पढ़ना -लिखना , खाना पकाना , समाज सेवा जैसे अनगिनत शौक हैं जिनमें मैंने अपने बहुत से दोस्तों को व्यस्त और मस्त देखा है । जिनका कोई शौक नहीं है उसका नौकरी का समय तो जैसे-तैसे रो-धो कर कट जाता है पर रिटायरमेंट के बाद बुढ़ापे में उनकी हालत भूतपूर्व मंत्री जैसी हो जाती है जिसकी ना तो मूंछ बाकी है और ना ही पूंछ ।
दिलीप कुमार राव : किसी हीरो से कम नहीं 
मेरे एक करीबी दोस्त हैं – दिलीप कुमार राव । फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार की तरह वह भी मुंबई में ही रहते हैं । बड़ा शानदार और प्रभावशाली व्यक्तित्व है उनका । हो सकता है उनके नामकरण के पीछे भी फिल्मी दिलीप साहब का ही प्रभाव रहा हो । उनके प्रशंसकों और दोस्तों की बहुत लंबी लिस्ट है जिनमें मैं भी शामिल हूँ । किसी जमाने में उसी कंपनी – सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया – में काम करते थे जिसमें मैं भी लंबे अरसे तक रहा । बहुत ही मिलनसार हैं – जिसे हम चलती भाषा में कहते हैं – यारों के यार । उन्हें कभी फोन कीजिए तो वर्ष 1956 के मशहूर फिल्मी गाने की मस्त कॉलर ट्यून सुनाई पड़ेगी – ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ , ज़रा हटके -ज़रा बचके – ये है बॉम्बे मेरे जाँ । सुनकर हंसी भी आती है और आश्चर्य भी होता है कि आज से 64 साल पहले भी बॉम्बे के ये हालात थे और आज के दिन भी कोरोना के मारे मुंबई का वही रोना है । हाँ तो मैं बात कर रहा था अपने मित्र दिलीप की । वैसे वह बंदा है गुणा -भाग वाला यानी फाइनेंस डिपार्टमेंट में काम करने वाला । इस लाइन में काम करने वालों को दुनिया अक्सर एक अलग ही नजर से देखती है – बहुत ही रूखे -सूखे , तेज-तर्रार जिन्हे हर छोटी बड़ी चीज़ को नफ़े – नुकसान की तराजू में तोलने की आदत होती है । लेकिन यह दुनिया तो उस भगवान की बनायी हुई है जिसने पाँचों उंगलियों को भी एक समान नहीं बनाया । सबसे हट कर अनोखे लोग हर जगह होते हैं और दिलीप भी उन्हीं में से एक हैं । संगीत का शौक उन्हें जुनून की हद तक है । बहुत तरह के साज़ बड़ी ही निपुणता से बजा लेते हैं जैसे – ढोलक, कीबोर्ड, हारमोनियम , माउथ ऑर्गन । जितनी गंभीरता से नौकरी कर रहे हैं उतनी ही जिम्मेदारी से समय निकाल लेते हैं जगह -जगह होने वाले संगीत कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए।
संगीत -साथियों की टोली 
 हुनर तब और रंग लाता है अगर उसे दुनियादारी से दूर रखा जाए । असली कलाकार एक अलग ही दुनिया के वासी होते हैं और दिलीप भी उसी श्रेणी में हैं । फिल्मी दुनिया के बहुत से प्रसिद्ध कलाकारों में उठना -बैठना है पर खुद किसी भी तरह के दिखावे से बहुत दूर । 
परिचय की जरूरत नहीं : फ़ोटो खुद बोलता है 
दिलीप की मुझे जो सबसे अच्छी बात लगी – जिसने यह छोटी सी कहानी लिखने को मजबूर किया – वह है उनका संगीत के प्रति निस्वार्थ प्रेम । इतनी काबलियत होते हुए भी दिलीप ने संगीत को कमाई का जरिया नहीं बनाया । जगह -जगह जा कर अपने इस हुनर और शौक का इस्तेमाल करता है लोगों का मनोरंजन करने में । केवल जन-साधारण ही नहीं वह अस्पतालों में तकलीफें झेल रहे मरीजों का मन बहलाते हैं , उनके चेहरे पर मुस्कराहट लाते हैं । आप एक बारगी नीचे दी गई तीन मिनिट की वीडिओ क्लिप पूरी देख जाइए । मेरी तरह आपके चेहरे पर होगा एक सुकून, होंठों पर मुस्कराहट और दिल में एक प्यारे से गीत की याद : 
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार , किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार , जीना इसी का नाम है । 




इस दुनिया को तुम से बहुत कुछ सीखना बाकी है दिलीप ।


Monday, 20 July 2020

दास्ताने टिंकू

बड़ा प्यारा से नाम है टिंकू । सुनते ही दिलो दिमाग में किसी खूबसूरत से शरारती बच्चे की तस्वीर कौंध जाती है । मुझे तो इस नाम से खास ही लगाव है । बारह - तेरह वर्ष की उम्र रही होगी मेरी जब घर पर एक शाम पिता जी प्यारा सा भूरे रंग का पिल्ला ले कर आए । जहाँ तक मुझे याद पड़ता है उसका नामकरण – टिंकू हम तीन सदस्यीय भाई-बहन की टीम द्वारा सर्व सम्मति से ही हुआ होगा । मेरे ज़िंदगी का वह पहला जीता जागता खिलौना आज भी मुझे अक्सर याद आता है । इतिहास के मुगल वंश के शासकों के नाम बेशक मुझे कभी याद ना हो सके लेकिन अपने घर पर समय -समय पर पाले गए पिल्लों के नाम मैं एक ही सांस में उंगलियों पर गिना सकता हूँ – टिंकू – बंटी – शिमलू – टिंकू ( द्वितीय) – केरी – टैडी - चंपू । स्कूल के मास्टर जी अक्सर कहा करते थे कि याद वही चीज रहती है जिसे आप दिल से प्यार करते हैं – अब चाहे वह किताब का पाठ हो या कोई इंसान । ज़ाहिर सी बात है कि मुगलिया सल्तनत के इन बादशाहों में मेरी कोई रुचि नहीं रही , इसीलिए कितने ही रट्टे मारने के बाद आज भी दिमाग से सफाचट है कि कौन किसका बाप था और कौन बेटा । 
टिंकू का इकलौता फ़ोटो - माँ के साथ 

हाँ तो मैं बात कर रहा था टिंकू की – जिसका हमारे घर में पदार्पण इसलिए नहीं हुआ कि उस जमाने में उसे हम बच्चों की ख्वाहिश पूरी करने के लिए लाया गया हो – या हमारे माँ-बाप का शौक हो । हमारा मध्यम वर्ग का बहुत ही साधारण सा ऐसा परिवार था जहाँ कुत्ता -बिल्ली पालने की बच्चों की मनुहार को यह कह कर दरकिनार कर दिया जाता है कि पहले तुम तो पल जाओ । हम लोग उन दिनों दिल्ली शाहदरा – मानसरोवर पार्क में रहा करते थे । भीड़-भाड़ से दूर सुनसान इलाके में बस्ती थी । पिता दफ्तर और माँ स्कूल के लिए सुबह ही निकल जाते । पहली शिफ्ट के स्कूल में पढ़ा कर जब तक दोपहर को माँ वापिस घर आती उससे पहले ही हम अपने स्कूल के लिए रवाना हो जाते । कुल मिलाकर चोरी-चपाटी के डर से घर को सुरक्षा की जरूरत थी और उसके लिए हमारी हैसियत और बजट कुत्ते पर ही आकर रुक जाता था । टिंकू क्योंकि एक साधारण देसी पिल्ला था इसलिए मेरी समझ से वह चाहे जहाँ से भी आया हो , पर आया मुफ़्त में ही । इंसान की सोच यहीं आकर चक्कर खा जाती है जब कहा जाता है कि पैसा बोलता है । अरे भाई – जरूरी नहीं कि हर अच्छी चीज के लिए आपको अंटी ढीली करनी पड़े । कई बार आपको कचरे के ढ़ेर में भी खजाना मिल जाता है । हमारे टिंकू का मामला भी कुछ ऐसा ही था । 

स्वभाव से बड़ा ही सीधा -सरल प्राणी था टिंकू । सभी से मिलजुल कर प्यार से रहता । इस मामले में कुछ ज्यादा ही मस्त -मौला था । हालत यह कि कोई अजनबी भी घर आता तो बड़े प्यार से पूँछ हिलाते हुए गले मिलने वाला भव्य स्वागत करता । कभी सड़क पर भी जा रहा होता तो वही नजारा पेश हो जाता – जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए । गरीब घर के बच्चे ज्यादातर सभी प्रकार के उद्दंड व्यवहार से दूर बहुत ही अनुशासित और संकोचशील जीवन जीते हैं । टिंकू भी कुछ - कुछ ऐसा ही था । उसकी बस एक ही मनपसंद शरारत होती । गरमी के दिनों में हम सब खुले आँगन में कतार में खाट बिछा कर सोया करते । सुबह सूरज निकलने के बाद देर तक सोने वाले हम बच्चों की खटिया पर ही चढ़ कर वह मुँह के ऊपर से चादर खींच कर अपनी ही भाषा में जय राम जी की कर देता । इस हरकत में उसे परोक्ष रूप से हमारे माता -पिता का ऐसे ही समर्थन मिलता जैसा पाकिस्तान को चीन का – इसलिए उसमें हेकड़ी और हिम्मत दोनों ही आ जातीं । 

उसका एक शौक और भी था – घर में आने वाले मेहमानों की चप्पलों से उसे खास ही प्यार था । इधर मौका लगा और उधर चप्पल ऐसे गायब जैसे बैंक से कर्जा लेकर विजय माल्या । बहुत खोजबीन के बाद जूते -चप्पल मिल तो जाते पर इतनी क्षत -विक्षत और घायल अवस्था में कि पहचान करना ही मुश्किल हो जाता । उन दिनों टिंकू के दांत निकल रहे थे सो दांतों में हो रही खुजली और कसक मिटाने के लिए वह कभी कुर्सियों के पाए कुतर डालता तो कभी अच्छी-खासी ऊंची एड़ी की सैंडिल को नोच-नोच कर हवाई चप्पल में बदल देता । नतीजा यही होता कि इस तरह की करतूतों के लिए उसकी चपत-परेड और कान-खिचाई भी होती । पर उसे भी अपनी इज्जत बहुत प्यारी थी इसीलिए ऐसे मौके पर होने वाली ज़लालत से बचने के लिए वह अक्सर पहले ही बिन लादेन की तरह भाग कर हमारी पहुँच से दूर किसी दुर्गम जगह जैसे तख्त या सोफ़े के नीचे शरण ले लेता । कठिन परिस्थितियों में आत्म-रक्षा के लिए भूमिगत होने का पहला पाठ मुझे टिंकू से ही सीखने को मिला । 

हमारे मकान में काफी खाली जगह भी थी जिसमें पेड़ -पौधे और सब्जियां उगाते रहते थे । वह खाली जगह टिंकू का खेल का मैदान भी था । कई बार टिंकू को उस बगिया से हमने गाजर – मूली उखाड़ कर खाते हुए रंगे हाथों भी पकड़ा । वह उसके मस्ती के दिन थे । 

घर में खुले में रखे खाने -पीने के सामान पर वह कभी मुँह नहीं मारता था । समझदार इतना कि सारे घर में घूमता -फिरता बस रसोई घर को छोड़ कर । रसोई में केवल तभी अंदर घुसता जब गलती से दूध उबल कर नीचे फर्श पर बहने लगता । अपने अनुभव से वह इतना जानता था कि उस जमीन पर बहने वाले दूध पर उसका जन्मसिद्ध अधिकार था जिसे लेने के लिए उसे किसी पासपोर्ट या अनुमति की आवश्यकता नहीं थी । 

घर में सभी की आँखों का तारा था । मेरी नानी खुर्जा में रहा करती थीं । जब भी हमारे पास मिलने आतीं तो टिंकू के हिस्से के लड्डू अलग से लातीं । उन लड्डुओं को बड़े प्यार से अपने हाथ से उसे सहलाते हुए खिलाती जाती और कहतीं – “खा टिंकू खा । तू मेरे बच्चों की रक्षा करता है ।“ उनकी बात सच भी थी क्योंकि रात के समय घर की चौकीदारी टिंकू पूरी मुस्तैदी से निभाता । 

टिंकू का पालन पोषण भी कुछ हद तक गोकुल की गैया की तरह ही होता था । समय -समय पर उसे घर से बाहर घूमने-फिरने के लिए छोड़ देते । वह आस-पास चहल कदमी कर कुछ देर बाद अपने आप ही घर वापिस लौट आता । एक दिन तो कमाल ही हो गया – वह गया तो ऐसा गया कि देर शाम तक वापिस नहीं आया । चिंता हुई – सारी कॉलोनी छान मारी पर टिंकू नहीं मिला । थक -हार कर घर पर सभी उदास होकर बैठ गए । उस रात परिवार में कोई ढंग से खाना भी नहीं खा पाया । गर्मियों के दिन थे – हमेशा की तरह सभी आँगन में खात बिछा कर सो रहे थे । देर रात अचानक दरवाजे पर आहट हुई । दरवाजा खोला तो सामने टिंकू बैठा था । देखते ही उसने सीधे घर के अंदर दौड़ लगा दी और कूँ -कूँ करते हुए सभी के पाँव से चिपट गया । वह बहुत घबराया हुआ था – उसके गले में एक टूटी हुई रस्सी बंधी हुई थी । उसे कोई अपने साथ जबरदस्ती ले गया था पर मौका देख कर वह उस रस्सी को तुड़ा कर भाग निकला । 

इस कहानी को ब्लॉग पर  पोस्ट करने के बाद एक टिंकू के बारे में एक ऐसा कमेन्ट आया जिसे मैं मूल रूप में उद्धृत  कर रहा हूँ ।  ब्लॉग लेखन के दौरान मेरे साथ ऐसा पहली बार हुआ है जब  प्रकाशन के बाद भी उसमें कहानी में ही  पाठक प्रतिक्रिया / संदेश को समाहित किया हो । यह संदेश था इस कहानी के ही एक पात्र - मेरी छोटी बहन पारुल  का जिसने लिखा :   
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"दास्ताने टिंकू पढ़ते हुए यादों के गलियारों में घूम रही थी ।बचपन की बहुत सी यादें ताज़ा हो गईं ।जब हम तीनों भाई-बहन नींद से जूझते हुए परीक्षा की तैयारी कर रहे होते थे, टिंकू कमरे के बीचों बीच आराम से फैल कर सो रहा होता था । उस समय हमें उससे बहुत ईर्ष्या होती थी । कम से कम मैं तो उस समय यही सोचती थी --अगले जनम मोहे-------।"
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समय पर किसी का ज़ोर नहीं चलता । मैं बचपन से किशोरावस्था में जा रहा था और टिंकू अपने बुढ़ापे की ओर । बुजुर्ग ठीक ही कहते हैं – बुढ़ापा खुद अपने आप में एक लाइलाज बीमारी है । टिंकू को भी धीरे -धीरे बीमारियों ने जकड़ना शुरू कर दिया । वह आज से पचास बरस पहले सत्तर के दशक का वह ज़माना था जब पशु तो दूर , इंसानों के इलाज की व्यवस्था भी आज जितनी उन्नत और सुलभ नहीं थी । ले -देकर घर से चार किलोमीटर दूर एक सरकारी पशु डिस्पेंसरी थी । टिंकू को भी कभी पैदल तो कभी अपनी गोद में बिठा कर रिक्शे में लेजाता । वह बेचारा धीरे -धीरे कमजोर होता जा रहा था । चलने फिरने में उसे दिक्कत होती, खुराक कम हो गई। शरारत तो क्या कर पाता बस घर के एक कोने में पड़ा बस सोता रहता । अब उसे बेहोशी के दौरे भी पड़ने लगे थे । उसको ऐसी हालत में तड़पते हुए देखना भी मेरे लिए अपने आप में बहुत बड़ी सज़ा थी । उसे शायद दमा या ऐसी ही कोई फेफड़ों की बीमारी हो चुकी थी जिसके लिए डिस्पेंसरी का डाक्टर भी हाथ खड़े कर चुका था । 

उस दिन तब दोपहर के बारह बजे थे । दरवाजे की घंटी बजी – बाहर जो व्यक्ति खड़ा था उसके आने के बारे में पिता जी दफ्तर जाने से पहले मुझे पहले ही बता चुके थे । वह उनके दिल्ली परिवहन निगम के दफ्तर का मेडीकल ऑफीसर था । मुझसे उसने टिंकू के बारे में पूछा और देखने की इच्छा ज़ाहिर की । टिंकू हमेशा की तरह घर में अपने पसंदीदा जगह - तख्त के नीचे बेसुध होकर सो रहा था । मैंने उसे जगाया और घर के पीछे के बरामदे में ले गया जहाँ डॉक्टर उसका इंतजार कर रहा था । डॉक्टर ने अपने बैग से इंजेक्शन निकाला और टिंकू को लगा दिया । इंजेक्शन लगते ही टिंकू बहुत जोर से झटके से छटपटाया , तड़पा और धीरे -धीरे शांत हो गया । डॉक्टर ने धीरे से मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोला – “बच्चे ! इसकी बीमारी का कोई इलाज नहीं था । समय के साथ इसकी तकलीफें बढ़नी ही थी । इसको आराम दिलाने का बस यही एक रास्ता था ।“ डॉक्टर की बातें मेरी बाल -बुद्धि की समझ से बाहर थीं । मैं तो सिर्फ अपनी डबडबाई आँखों में आँसू रोकने की कोशिश करते हुए चिरनिद्रा में सोए अपने उस खिलौने को देख रहा था जो कुछ समय पहले तक बूढ़ा, लाचार और बीमार ही सही पर था तो जीता जागता । 

मुझे पता नहीं उसके बाद कब वह डॉक्टर वापिस गया – कब माँ स्कूल से आयीं । माँ को उस बारे में शायद पहले से ही पता था । वह कमरे में उस तख्त पर बैठीं हुई थी जिसके नीचे सुबह टिंकू आराम कर रहा था । उन्होनें अपनी धीमी आवाज में सिर्फ इतना ही पूछा – वह कहाँ है ? मैं माँ को उस जगह ले गया – माँ ने निश्चल पड़े टिंकू को एक नजर देखा । जब सहन नहीं हुआ तो उस को एक बड़ी सी चादर से ढक कर वापिस कमरे में उसी तख्त पर आकर धम से बैठ गयीं और दोनों हाथों से अपना चेहरा ढाँप लिया । मेरी माँ यूं तो मजबूत दिल वाली है पर उसे सुबकते हुए मैंने तभी देखा था । घर के पास की ही एक खाली जगह पर टिंकू को प्यार और सम्मान के साथ गहरा गड्ढा खोद कर अंतिम संस्कार कर दिया । बूढ़े टिंकू की दर्द और रोग से सदा के लिए मुक्ति का तरीका और औचित्य आज पचास साल बाद भी मुझे परेशान कर देता है – आँखों में आँसू ला देता है । 

टिंकू ने अपनी शरारतों और प्यार से जो हम सबके दिलों में जगह बनायी वह कभी खाली नहीं हो सकती । यद्यपि इतने प्यारे दोस्त की हमेशा के लिए विदाई दिल को चीर कर रख देती है पर उससे मिलने वाला निश्चल स्नेह  उसके  जाने के बाद भी आपको उनकी दुनिया से जोड़े रखता है । यही कारण है टिंकू ही समय समय पर अलग – अलग नाम से मेरे पास आता रहा –शिमलू , टिंकू ( द्वितीय) , केरी , टैडी  , चंपू सब में उसी का ही तो रूप है । उनके साथ खेलते समय मैं फिर से वही छोटा बच्चा बनता रहा हूँ  – टिंकू का नन्हा दोस्त । इस सब के बावज़ूद दिल के किसी अंजान कोने में आज भी एक दबी हुई ख्वाहिश है - काश फिर कभी देर रात दरवाजे पर आहट हो और सामने टूटी रस्सी गले में बांधे टिंकू बैठा मिले ।

Monday, 13 July 2020

मासूम पुकार

आज की आपको जो किस्सा सुनाने जा रहा हूँ वह उसी कहानी का एक तरह से हिस्सा है जो आज से तकरीबन दो साल पहले सुनाई थी ; मैं जिंदा हूँ । इसमें एक जीप दुर्घटना का वर्णन था । अगर आपकी याद के पिटारे से वह कहानी गायब हो चुकी है तो फिर से याद ताज़ा कर सकते हैं दिए गए कहानी के लिंक पर क्लिक करके :  मैं जिंदा हूँ अभी । 

19 अगस्त - वर्ष 1996 – दिन सोमवार – समय लगभग सुबह सवा नौ बजे का – स्थान हिमाचल प्रदेश में सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया की राजबन फैक्ट्री । ड्राइवर कर्म चंद मेरे आफिस में बैठ कर विभाग के कर्मचारियों के साथ बतिया रहा था । कुछ ही देर बाद उसे अपनी जीप में लेडी डॉक्टर – शैल सहगल को 15 किलोमीटर दूर बसे खदान के इलाके में ले जाना था । वहाँ पर भी भरी -पूरी कॉलोनी है जिसमें रहने वाले कर्मचारियों और उनके परिवार के सदस्यों को डिस्पेंसरी में इलाज की सुविधा दी जाती है । कर्म चंद की खिलखिलाती आवाज मेरे कमरे तक आ रही थी । वह अपने कुछ ही महीने बाद होने वाले अपने रिटायरमेंट की योजना बना रहा था । बता रहा था कि इस खटारा जीप को भी कंपनी से खरीद कर अपने साथ ही ले जाएगा । मैं उसकी इन भोली बातों को सुन कर मंद – मंद मुस्करा रहा था । चलते -चलते बोला अभी तो जा रहा हूँ – वापिस लौट कर दोपहर को घर पर लंच में बैंगन की सब्जी बनाई हुई है वही खाऊँगा । अपने आफिस की खिड़की से मैं उसकी बूढ़ी- जर्जर जीप को शोर-मचाते - धुआँ उड़ाते आँखों से ओझल होते देखा । 
अब आगे की आपबीती डॉक्टर शैल सहगल के मुंह से : 
 लाड़ली वसुधा और  माँ  डॉ ० शैल (9  जनवरी 1997)

"मैं कॉलोनी के अपने क्वाटर में बैठी इंतजार कर रहीं थी जीप का जिसे आज की ड्यूटी के लिए माइंस कॉलोनी लेकर जाना था । जीप का हॉर्न सुन कर घर से बाहर निकलने लगीं । जाने से पहले एक बारगी अपनी छ: माह की छोटी से बच्ची -वसुधा को प्यार से पुचकारा और जीप की ओर तेजी से कदम बढ़ा दिए । मेरे पति - डाक्टर संजीव सहगल भी राजबन में ही कार्यरत थे । हम लोगों का मिलनसार व्यवहार की वजह से सभी स्नेह और सम्मान करते थे । ऊबड़ -खाबड़ धूल भरे पहाड़ी रास्तों पर हिचकोले खाती जीप मानल खदान की डिस्पेंसरी की ओर ले चली । वहाँ पहुँच कर लगभग एक घंटे तक मरीजों को देखने का काम चला । काम निपटा कर वापिस राजबन की ओर चल पड़े । 

सरकारी जीप अपनी मंद गति से चली जा रही थी । टूटी-फूटी सड़क के गड्ढे उस जीप को बुरी तरह से झकझोर रहे थे । खड़खड़ाहट की आवाज इतनी तेज हो रही थी कि उसके आगे हॉर्न की आवाज भी बेमानी लग रही थी । ड्राइवर कर्म चंद इस सबका अभ्यस्त था । उस खटारा गाड़ी में रोज-रोज आने वाली दिक्कतों और खराबियों की आला अफसरों से शिकायत करने के अलावा वह कर भी क्या सकता था । वो शिकायतें जो हमेशा अनसुनी रह जातीं । मन मसोस कर वह खुद को दिलासा देता – एनी हाऊ . . . . काम चलाओ । लेकिन आज मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा था । गाड़ी की चाल कुछ ज्यादा ही अजीब तरीके से हो रही थी । ड्राइवर की ओर देखा – वह अपने आप में ही मगन , दीनो-दुनिया से बेखबर । उसकी तरफ का दरवाजा लॉक खराब होने के कारण बार -बार खुल जाया करता था इसलिए तार से ही बांध कर जुगाड़ बना हुआ था । उस खतरनाक जुगाड़ को देख कर मेरे मन में आश्चर्य , खीझ और अनजाने डर की मिश्रित भावनाएं उठ रहीं थी । कई बार हालात इस तरह के बन जाते हैं कि मजबूरी में इंसान को अन्याय भी सहना पड़ जाता है । नौकरी और जिम्मेदारी से बड़ी लाचारी और मजबूरी शायद दूसरी कोई नहीं । जीप जिस रास्ते पर वापिस राजबन की ओर जा रही थी उस मोड़दार सड़क के एक तरफ़ पहाड़ थे और दूसरी ओर गहरी खाई , घाटी और बहती हुई गिरी नाम की नदी । अचानक पता नहीं क्या हुआ मैंने नोट किया– जीप अनियंत्रित होकर सड़क से उतर कर खाई की ओर के कच्चे कटाव पर दौड़ रही हैं । तुरंत ड्राइवर को सचेत भी किया पर कर्म चंद खामोश रहा । शायद वह उस खतरनाक हालात पर काबू करने में व्यस्त था । होनी को कुछ और ही मंजूर था - भरसक कोशिशों के बावजूद जीप पागल हाथी बन चुकी थी जिस पर महावत का कोई भी जोर नहीं चल पा रहा था । उन खतरनाक लम्हों में भी मेरे दिमाग में तब भी अडिग विश्वास था कि कुछ भी अनहोनी नहीं होगी – जो भी होगा सब ठीक ही होगा । इसके बाद कुछ और सोचने का मौका ही नहीं मिला – जीप पूरी तरह से बेकाबू होकर सड़क किनारे की कच्ची मिट्टी को काटते हुए गहरी खाई की ओर बढ़ चली थी । जीप अपना संतुलन खो चुकी थी और लगातार पलटियाँ खाते हुए गहरी खाई में नीचे – और नीचे लुढ़कती जा रही थी । हर पलटी के साथ मैं और ड्राइवर भी अंदर ही चक्कर खा रहे थे । गिरती हुई जीप की छत से सिर टकराया और मैं बेहोश । उसके बाद मुझे कुछ पता नहीं । मौके पर मौजूद चश्मदीदों के अनुसार खाई में गिरने तक जीप ने चार पलटियाँ मारी ।इस दौरान नीचे गिरते हुए जगह -जगह पेड़ों से भी टकराती रही और हर टक्कर पर जीप के परखचे हवा में उड़ते रहे । ऐसी ही किसी पेड़ की टक्कर के जबरदस्त धक्के ने मुझे बेहोशी की हालत में ही जीप के पिछले टूटे दरवाजे के रास्ते हवा में उड़ाते हुए पास की जमीन पर ला पटका । कितनी देर तक उस हालत में रही आज भी पता नहीं । भाग्य साथ दे रहा था – जहाँ मैं खून से लथपथ बेहोश पड़ी थी वहाँ पर पास में ही पहाड़ी झरना बह रहा था । उससे छिटक कर आती पानी की बौछार ने मानों अमृत का काम किया । कुछ ही देर बाद मुझे होश या चुका था । शरीर असहनीय पीड़ा से छटपटा रहा था । शरीर कीचड़ और खून से लथपथ था । कर्म चंद को आवाज दी – पर जीप और उसका कुछ पता नहीं था । शायद वह नीचे खंदक की और गहराइयों में समा चुकी थी । सिर में लगी गहरी चोट की वजह से सोचने – समझने की शक्ति एक तरह से गायब हो चुकी थी । मेरे सिर में गहरे घाव की वजह से लगातार खून रिस-रिस कर चेहरे पर आ रहा था । पाँच जगह से हड्डियाँ टूट चुकी थी ।लेकिन मेरा अवचेतन मन ( subconscious mind) पूरी शक्ति से काम कर रहा था । वह अवचेतन मन जो बार बार मेरे कान में कह रहा था कि तुम्हें अभी और जीना है – तुम्हें किसी भी कीमत पर अपनी जान बचानी है । तुम्हारी मौत किसी भी हालत में इस जगह और इस वक्त नहीं लिखी है । गहरी खाई से ही ऊपर की ओर नजर दौड़ाई - देखा जहाँ से होकर सड़क गुजर रही थी । पता नहीं किस अदृश्य शक्ति ने शरीर में इतनी ताकत भर दी मैंने धीरे -धीरे डगमगाते कदमों से आगे ऊपर चढ़ना शुरू किया । सहारे के लिए पहाड़ पर उगी लंबी घास और पेड़-पौधों की टहनियों पर अपने घायल हाथों की पकड़ बनाते हुए ऊपर चढ़ती जा रही थी । जीवन की उत्कंठा ने शरीर के असहनीय दर्द को मानों गायब ही कर दिया था । जैसे -तैसे करके सड़क तक पहुंची । आती -जाती गाड़ियों को हाथ देकर रोकना चाहा पर मेरे खून और कीचड़ से सने घायल शरीर को देखकर कोई भी गाड़ी रुकने को तैयार नहीं थी । इसी बीच में वहाँ से गुजरते हुए एक ट्रक – ड्राइवर ने मुझे पहचान लिया । वह राजबन के पास के ही किसी इलाके का रहने वाला था । उसने तुरंत ट्रक रोका - उसी ट्रक से मैं राजबन के लिए चल पड़ी । ड्राइवर से पानी मांगा – अपने चेहरे को धोया जो शायद मुझे होश में रखने के लिए जरूरी भी था । राजबन की सीमा पर पहुंचते ही सबसे पहले ड्राइवर को फेक्टरी के मेन गेट पर ट्रक रोकने को कहा । वहीं पर सिक्योरिटी स्टाफ को मैंने उस दुर्घटना के बारे में सूचित किया और बताया कि कर्म चंद के बारे में तुरत पता किया जाए । ट्रक मुझे आगे कॉलोनी में घर पर छोड़ने ले चला । मुझे सहारा देकर नीचे उतार गया और घर पहुंची । वहाँ पहुंचते ही इस हादसे की खबर आग की तरह से फैल गई । दुर्घटना -स्थल पर आपातकालीन सहायता टीम दौड़ाई गई । पता चला कर्म चंद मेरे जितना भाग्यशाली नहीं रहा – उस दुर्घटना में उसके प्राण नहीं बच सके । ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे । 

 मेरा लंबा इलाज चला । मन की शक्ति ने तन की शक्ति वापिस लाने में पूरा साथ दिया । आज मैं उस ईश्वर पर पूरी आस्था रखते हुए उस हादसे की डरावनी यादों से पूरी तरह से मुक्त हूँ । डॉक्टर के रूप में जो भी सेवा इस समाज की कर सकती हूँ वह आज भी कर रही हूँ ।" 
आज : सुखी  सहगल परिवार 
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डॉक्टर शैल ने तो अपनी कहानी कह दी पर चलते -चलते उनकी इस आपबीती पर मैं अपना नज़रिया जरूर रखना चाहूँगा । जहाँ तक दिवंगत कर्म चंद ड्राइवर का प्रश्न है – वह भी बहुत ही भला और प्यारा इंसान था पर जीवन और मृत्यु उस विधाता के द्वारा ही निश्चित है । फिर भी आपके शुभ कर्म और लोगों से मिली शुभकामनाएं भी रक्षा कवच बन कर विपत्ति में साथ निभाती हैं । डॉक्टर शैल के साथ उनके मरीजों की दुआएं तो थी हीं , उसके अलावा उस 6 माह की छोटी बिटिया – वसुधा की मासूम पुकार भी थी जो उस संकट की घड़ी में सुरक्षा प्रदान कर रही थी । अब आप मानो या ना मानो – मैंने अपनी बात कह दी क्योंकि नजरिया अपना -अपना होता है । हैं ना ?
                                        🌺श्रद्धांजली 🌺


दिवंगत कर्म चंद 

भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...