Monday 30 December 2019

दरिंदगी

आपको आज की इस कहानी का शीर्षक शायद किसी हथोड़े की चोट की तरह से लगा होगा । लगना भी चाहिए और आप मेरी बात से पूरी तरह से सहमत भी हो जाएँगे इस पूरी कहानी को जानने के बाद । याद है कुछ समय पहले मैंने आपका परिचय भोलू से कराया था कहानी भोलू का दर्द के माध्यम से । इस तस्वीर को देखने के बाद आपको शायद उसकी कहानी याद आ जाए । भोलू नाम की छोटी सी मादा पिल्ले की बचपन में एक लापरवाह कार वाले ने सड़क पर उसकी टांग को कुचल दिया था । टांग में फ्रेक्चर हो गया था, प्लास्टर बंधा और आप सबने मेरे अनुरोध पर विशेष रूप से उसके जल्द ठीक होने की प्रार्थना की ।
भोली-  बचपन में जब चोट लगी थी 
भगवान ने आप सबकी सुनी भी और भोला उर्फ भोली जल्द ही तंदरुस्त होकर दौड़ती – भागती नज़र आने लगी ।
अभी कुछ पिछले कुछ दिनों से भोली गर्भावस्था में थी । उसके खाने-पीने का जितना हो सकता हम ध्यान रख सकते थे कोशिश कर ही रहे थे । कल सुबह देखा दर्द से कराहती सामने सड़क पर घूम रही थी । किसी बेरहम ने उसे भारी पत्थर मार कर अगला पाँव चोटिल कर दिया था । बात यहीं खत्म नहीं हुई – चोट का असर उसके पेट में पल रहे बच्चों पर भी पड़ा । सभी मर गए । अपने चारों नवजात मरे हुए पिल्लों को देख कर भोली बुरी तरह से विलाप करती रही । मुझ में इस बार में ज्यादा लिखने की भी शक्ति नहीं है । पशु कल्याण से जुड़ी एक सामाजिक संस्था ने भोली का प्राथमिक उपचार किया । फ्रेक्चर है या कंधे का डिसलोकेशन, जानने में अगले दो-तीन दिन लग सकते हैं । ठीक होने के लिए तो आप सबकी दुआओं की जरूरत पड़ेगी ही । 
दुख; की मारी फिर से घायल  भोली -आज 
हम सब अपने आप को इंसान कहते हैं । इंसानियत का मतलब भी समझना चाहिए । अपने अंदर की हैवानियत को निकालने के लिए किसी बेबस- बेजुबान जानवर को निशाना बनाना कहाँ तक न्याय-संगत आप खुद फैसला कीजिए । 
आप सब मुझे मतलबी, स्वार्थी इंसान भी कह सकते हैं जो आने वाले नव वर्ष के खुशनुमा माहोल का आनंद को दुखद घटनाएँ सुना कर कम करना चाहता है और केवल अनुरोध कर रहा है भोली के लिए दुआ करने की । मुझे आपका उलाहना मंजूर है , लेकिन मैं जानता हूँ आपकी शुभकामनाओं और दुआओं की ताकत को । मुझे उम्मीद है आप निराश नहीं करेंगे । साथ ही क्या मैं उम्मीद कर सकता हूँ कि नए साल के लिए आप  अपने आप से एक वायदा करें कि हम अपने आस-पास के पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशील रहेंगे जिससे किसी की भी हालत भोली जैसी ना हो जाए ।  

Thursday 26 December 2019

🎧🎧 🔊अड़ियल-गुड़हल 🔊 🎧🎧




सुनो कहानी 👆
बचपन से ही फूल -पौधे मेरी आत्मा का हिस्सा रहे हैं । ईश्वर की कृपा से नौकरी भी ऐसी मिली कि जीवन का अधिकांश समय प्रकृति की हरी-भरी वादियों में ही गुजारने का सौभाग्य मिला । अब वह बात अलग है कि मेरे बहुत से दोस्तों को वह भगवान की दी हुई हरी-भरी दुनिया भी किसी काले पानी की सज़ा से कम नहीं लगती थी । हाँ अलबत्ता मुझे इतने लंबे समय तक पेड़-पौधों का साथ मिला कि उनके साथ आज भी ख़ामोशी की भाषा में बातें कर लेता हूँ । इसीलिए बागवानी का शौक भी एक तरह से मेरी रग -रग में समाया हुआ है । आज का किस्सा भी कुछ हद तक उसी से जुड़ा है।

इस कहानी की शुरुआत होती है आज से तीन साल पहले । श्रीमती जी के साथ बाज़ार गया था । याद आया पास की नर्सरी से पौधों के लिए खाद-पानी का प्रबंध भी कर लूँ । मेरी आदत रही है कि जहाँ तक हो सके पौधे खरीदने ना पड़े । अक्सर नाते-रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ पौधों की अदला-बदली कर लेता हूँ । और हाँ, जब भी किसी नई जगह घूमने फिरने जाता हूँ तो वहाँ के स्मृति चिन्ह के रूप में कुछ पौधे भी ले आता हूँ जो बरस-दर-बरस उन दोस्तों और स्थानों की यादें ताज़ा कराते रहते हैं । नर्सरी से जरूरत का सामान खरीद कर बाहर निकल ही रहा था कि किनारे पर रखे गमले में लगे गुड़हल के छोटे से पौधे ने बरबस ही अपनी ओर ध्यान खींच लिया । गुड़हल के पौधे पर सुर्ख लाल रंग के फूल आते हैं लेकिन जो पौधा मैं देख रहा था उस पर पीले रंग का फूल था । वह छोटा सा पौधा एक नन्हें बच्चे की तरह से मानों मुझे एक निश्चल मुस्कान लिए ऐसे निहार रहा था कि मेरे बढ़ते कदम भी ठिठक गए । अपनी मूक भाषा में जैसे वह जिद कर रहा था मुझे अपने साथ ले चलो । पौधे नहीं खरीदने की भीष्म-प्रतिज्ञा एक तरह से टूटने की कगार पर आ गई थी । मन में चल रहे अंतर्द्वंद को श्रीमती जी अब तक भाँप चुकी थीं । वह सीधे काउंटर पर बैठे नर्सरी के मालिक से उस पीले-गुड़हल के लिए मोल-भाव करने लगीं । मैंने तो सारी ज़िंदगी सीमेंट बेचा इसलिए आपको शायद यह बात मज़ेदार लगे कि मैं किसी भी सामान को बेचने के मामले में उस्ताद हूँ पर जब बात ख़रीदारी पर आ जाए तो मेरी हवा निकल जाती है । कुछ ही देर में पूरे मोल-भाव के बाद श्रीमती जी ने उस पौधे का मालिकाना हक़ प्राप्त कर मेरे संरक्षण में दे दिया । इस तरह से उस पौधे को मेरे साथ आना ही था सो आया ।

अब घर पर उस पीले-गुड़हल के पौधे को विशेष दर्जा मिला – क्योंकि अपनी भीष्म प्रतिज्ञा तोड़ गाढ़े पसीने की कमाई से गांठ का पैसा खर्च करके जो लाये थे । घर आने वाले सभी मेहमानों को बड़े गर्व से उस पीले फूल को भी दिखाते । कुछ दिनों के बाद वह पीला फूल तो अपनी उम्र पूरी कर मुरझा कर चल बसा । अब नए फूल के आने का इंतज़ार बड़ी बेसब्री से शुरू हुआ । इंतज़ार की घड़ियाँ लंबी होती हैं यह तो पता था पर अच्छे दिनों से भी ज्यादा इंतज़ार करना पड़ेगा यह अंदाज़ा कतई नहीं था । फिर सोचा कि खाली हाथ पर हाथ धर कर बैठने से तो कुछ होने वाला नहीं सो इन्टरनेट पर लंबी चौड़ी रिसर्च कर डाली । तरह- तरह की खाद डाली , दवाइयाँ डाली, टोने-टोटके किए पर फूल को नहीं खिलना था तो नहीं खिला। उस पौधे के इतने नखरे देख कर गुस्सा भी बहुत आया और खीज भी । आज भी सोचता हूँ , इतनी रिसर्च अगर मैंने गंजी खोपड़ी पर बाल उगाने के लिए किसी तेल को ईजाद करने में की होती तो सफलता पाँव चूम रही होती । 

इसी दौरान वह पौधा कई बार बीमार भी हुआ , कभी पत्तों पर कीड़े लगे और कई बार तो इतना सूख गया कि लगा अब तो चल बसा । लेकिन कुछ उसका हठीला स्वभाव और कुछ मेरा इलाज़ – हर बार वह विजय-पताका फहराता फिर से मस्त मलंग हो कर प्रकट हो जाता और अपनी भाषा में मुझे चिढ़ाते हुए मानों कहता “ इतनी जल्दी तेरा पीछा नहीं छोड़ने वाला”। धीरे-धीरे मैं भी मायूस हो चला और उस पीले -गुड़हल को बिना फूल के ही स्वीकार करने में अपनी भलाई समझी । दिन बदलते गए महीनों में और महीने बदले साल में । इसी तरह पूरे तीन साल का समय निकाल गया और वह बिना फूल का पीला गुड़हल अब भी किसी उद्दंड बालक की तरह से मेरे सब्र का लगातार इम्तहान लिए जा रहा था । 

अभी कुछ दिन पहले की ही बात है - मेरे यहाँ साले साहब  का आना हुआ । घर के पास ही रहते हैं । उन्हें वह गमले में लगा गुड़हल का पौधा दिखाते हुए कहा कि आपके यहाँ तो अच्छा – खासा बगीचा है ,इसे ले जाइए । वहाँ अपनी जमीन पर लगा दीजिएगा तब हो सकता है यह और अधिक पनप सकेगा और फूल भी आ जाएँगे । व्यस्तता के कारण उन्होने उस समय पौधे को ले जाने में असमर्थता जताई लेकिन साथ ही भरोसा भी दिया कि जल्द ही आकर उसे ले जाएँगे । 

अभी कल की ही बात है , पौधों में पानी लगा रहा था । जब गुड़हल की बारी आई तो आश्चर्य से आँखें खुली की खुली रह गयीं । अड़ियल गुड़हल पर पीला फूल शान से लहरा रहा था । मेरी ओर बहुत ही शरारती मुस्कान बिखरते हुए कह रहा था – “क्या अब भी मुझसे छुटकारा पाना चाहते हो भैया जी”। मैंने भी उसी की भाषा में जवाब भी दे दिया “ नहीं रे – कतई नहीं”। 


गुड़हल खुश - मेरी माँ खुश - सब खुश 
मुझे ना जाने क्यों ऐसा महसूस होता है कि उस अड़ियल गुड़हल ने मेरी बात सुनी, समझी और जब लगा कि अब तो घर से विदा होने की नौबत आ गई है तो उसने भी एक समझदार बच्चे की तरह अपनी जिद छोड़ने में ही भलाई समझी। अकल आयी बेशक तीन साल के लंबे इंतज़ार के बाद ही । यह मात्र संयोग नहीं है – पर मेरी बात पर विश्वास करने के लिए आपको भी मेरी तरह प्रकृति-परिवार का आत्मीय सदस्य बनना पड़ेगा । कुछ गलत तो नहीं कहा मैंने ?

Thursday 19 December 2019

📢प्रेम की भाषा 📢

सुनो कहानी : प्रेम की भाषा 📢

बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है । रोज़ की तरह अपने सदाबहार पालतू कुत्ते चंचल चंपू को घर के सामने के पार्क में सैर करवा रहा था । आप यह भी कह सकते हैं कि इसी बहाने खुद भी मार्निंग-वाक कर रहा था । पार्क के कोने की दीवार के साथ ही गड्ढेनुमा सुरंग बनी हुई थी । उस खोह में दो प्यारे-प्यारे पिल्ले रहते थे जो अक्सर खेलते-कूदते कभी-कभार बाहर भी नज़र आ जाते थे । उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ । मुझे देखते ही वो पिल्ले थोड़ा डरते थोड़ा सहमते मेरी ओर खेलने के लिए दुम हिलाते आगे बढ़ते और फिर डर कर वापिस लौट जाते । दूर से यह खेल देख रहे मेरे कुत्ते चंपू को लगा कि अब उसे अपनी चौधराहट या दादागिरी दिखाने का समय आ गया है । तुरंत ही उसने दूर से ही मेरे और उन पिल्लों की ओर गुर्राते हुए दौड़ लगा दी । मुझे चंपू की आदत का अच्छी तरह से पता है- शायद उसी को देख कर किसी ने यह कहा होगा कि जो भौंकते हैं वे काटते नहीं हैं । जब तक चंपू की दौड़ उन पिल्लों तक आकर समाप्त होती, उससे पहले ही उस पूरे सीन में ना जाने कहाँ से उन पिल्लों की माँ की अचानक एंट्री हो जाती है । वह थी कजरी, जो है तो कमज़ोर शरीर पर बहादुरी में किसी से कम नहीं । अपने पिल्लों पर तनिक सा भी खतरा महसूस होने पर वह कई लोगों के हाथ-पैरों में अपने नुकीले दांतों के इंजेक्शन बहुत ही कुशलता से लगाने का रिकार्ड कायम कर चुकी है । लेकिन यहाँ क्योंकि मैं और मेरे साथ चंपू -दोनों ही कजरी की अपनी ही टीम के मेम्बर रहें हैं तो उसके द्वारा हमारे इंजेक्शन वाले इलाज़ का तो सवाल ही नहीं उठता था । दौड़ लगाती कजरी सीधे आकर चंपू के रास्ते में ही सीधे कमर के बल लेट गई । इस तरह उसने न केवल रास्ता रोका बल्कि अपनी दुम हिलाते हुए बहुत ही अनुरोध भरी अपनी ही भाषा और इशारों से चंपू को समझा दिया कि मेरे बच्चों को परेशान मत करो । 
कजरी और  उसके बच्चे 
कई बार इंसान बेशक प्यार की भाषा ना समझे पर जानवर जरूर समझ जाते हैं । यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ – कुछ देर पहले तक अपने आप को फिल्म दबंग का सलमान खान समझने वाले चंपू पर कजरी के शांत और स्नेह से भरी अनुनय-विनय का ऐसा असर हुआ कि तुरंत ही शाहरुख खान की तरह निहायत शरीफ़ बंदे की शक्ल में बदल गया । यह सब दृश्य मैं बहुत ही अचंभे से देख रहा था - एक माँ के अपने बच्चों के प्रति सुरक्षा की भावना जिसके लिए चाहे कटखना इंजेक्शन लगाना पड़े या प्रेम से समझाना पड़े ।

Friday 13 December 2019

🎧 गंगा किनारे 🎧

📢सुनो कहानी - गंगा किनारे 🔊

हमें जीवन मेँ कदम-कदम पर तरह -तरह के अनुभव होते हैं – कभी खट्टे तो कभी मीठे । इन्ही अनुभवों से बहुत बार सीख भी मिलती है । हाल ही के दिनों में कुछ ऐसी घटना मेरे साथ घटी जो पूरी तरह से अप्रत्याशित और कल्पना से परे थी | सोचा जब अपने सब सुख – दु:ख आपसे बाँटता रहता हूँ तो यह हरिद्वार के गंगा घाट की आपबीती भी सही । 
हर की पौड़ी  - रात में 
अपने परिवार के दिवंगत बुजुर्ग सदस्य की याद में दीपदान के संस्कार को पूरा करवाने हेतु अपने साले साहब के साथ हरिद्वार गया था ।   अपने विशेष तीर्थ पुरोहित जी से पहले ही फोन पर बातचीत हो गई थी जिस पर उन्होने निश्चित समय पर घाट पर पहुँच कर मिलने को कहा | यद्यपि पंडित धीरज शर्मा जी से काफी अरसे पहले मेरी पहले भी मुलाकात हो चुकी थी पर उनका चेहरा स्मृति में थोड़ा धुंधला गया था । उन पर एक लेख भी लिखा था (गंगा मैया – पार लगाए सबकी नैया ) । नियत समय पर घाट पर पहुंचे और अपने तीर्थपुरोहित जी की खोज शुरू की। हर की पैड़ी पर पुरोहितों के तख्त एक लाइन में ही लगे रहते हैं । अपने पंडित जी का नाम लेकर उनके ठिकाने की पूछताछ वहाँ बैठे अन्य पंडितों ( जिन्हें आप पंडे भी कह सकते हैं ) से की । उन्हीं में से एक ने बगल के पड़ोसी तख्त की ओर इशारा कर दिया । वहाँ बैठे पंडित जी से जब मैंने बाकायदा नाम लेकर पूछा तो उन्होने अपना परिचय उसी नाम से दिया जिन्हे हम खोज रहे थे । संस्कार आदि का कार्य उन्होने सम्पन्न करवा दिए । दक्षिणा भी स्वीकार की और उसके बाद अतिरिक्त की भी माँग कर दी जिसे पूरा भी कर दिया गया । इस बार मुझे पंडित जी कुछ कमजोर भी लग रहे थे और उनके व्यवहार में भी वह पहले जैसी गर्मजोशी और अपनत्व महसूस नही हो रहा था | थोड़ी बहुत बातचीत करने की कोशिश भी की तो अनमने से ही लगे । खैर ... उसके बाद घाट पर ही श्री गंगा सभा के कार्यालय में अपने एक अन्य मित्र श्री संजय झाड़ से मिलने चला गया। वह बहुत ही प्यार से मिले । पता नहीं क्यों तब भी मेरे मस्तिष्क में रह- रह अपने पंडित जी का विचित्र व्यवहार घूम रहा था । जाने क्या सोच कर मैंने फिर से उन्हें फोन कर ही दिया । मेरी आवाज सुनते ही धीरज जी ने अपने उसी पुराने जाने-पहचाने अंदाज़ में सवाल किया कि आप हैं कहाँ , मैं तो आपके इंतज़ार मैं बैठा हूँ । अब चौंकने की बारी मेरी थी । सब कुछ बताया । धीरज जी बोले मैं अभी आपके पास पहुंचता हूँ । थोड़ी ही देर में वह आ गए, अत्यंत स्नेह से मिले । अब तक सारा मामला गंगा के जल की तरह ही साफ़ हो चुका था । दरअसल घाट पर मेरे तीर्थ पुरोहित धीरज जी के नाम पर कोई और ही श्रीमान अपना खेल खेल चुके थे । जितना दु:ख मुझे था उतना ही क्षोभ धीरज जी को भी था । यद्यपि हमारा संस्कार पूरा हो चुका था पर उसमें तीर्थ पुरोहित की अनुपस्थिति मुझे कहीं अंदर तक गहरी चोट दे गई । भारी भीड़ के बावजूद भी धीरज जी ने बहुत ही स्नेह से हमें माँ गंगा की आरती मे शामिल होने का विशेष प्रबंध कर दिया । 
पंडित धीरज पाराशर 
गंगा जी की आरती में आँखें बंद और हाथ जोड़े मैं ईश्वर से सभी के लिए मंगल कामना कर रहा था – उस नटवर लाल के लिए भी जो पंडित के रूप में बीच गंगा की धारा में भी झूठ का सहारा ले कर श्रद्धालुओं की भावनाओं से खिलवाड़ करता है | घाट पर जगह -जगह जेबकतरों और ज़हर खुर्रामों से सावधान रहने की चेतावनी देते बोर्ड मुझे किसी जमाने में चकित कर देते थे कि कोई इंसान इतना गिरा कैसे हो सकता है जो इस पवित्र स्थान पर भी इतने दुष्कर्म कर सकता है । अपने इस अनुभव के बाद मुझे उन जेबकतरों का अपराध भी बहुत छोटा प्रतीत होने लगा है । जहाँ गंगा घाट पर एक ओर धीरज जी जैसे सज्जन व्यक्ति मौजूद हैं वहीं जेबकतरों और ज़हर खुर्रामों के अलावा तीसरी श्रेणी के भी महानुभाव टकरा जाएँगे जिनसे सभी को सावधान रहने की आवश्यकता है |

इन सब छोटे -मोटे किस्सों के बावजूद भी इसमें कोई संदेह  नहीं कि गंगा मैया की महिमा अपरंपार  है। इसीलिए प्रेम सहित बोलिए :
                                                 जय गंगा मैया की 

Saturday 7 December 2019

🎧सुनो कहानी : मेरी जुबानी ( किशोरी )🎧

एक पहेली : अनसुलझी के शीर्षक से  कुछ समय पहले एक ऐसी घटना आप सबके साथ साझा की थी जिसे याद कर आज भी दिल उदास हो जाता है ।  उसी कहानी को आवाज़ की दुनिया के सहारे  भी आप तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूँ ( तकनीकी सहयोग प्रियंक कौशिक - मेड एंगिल फिल्म्स )। जानता हूँ  शुरुआती प्रयास हैं अत; बहुत से सुधार ज़रूरी हैं | मेरे वह सब दोस्त जिन्हें कहानी सुनने का शौक है अपनी सुझाव जरूर दें -मुझे इंतज़ार रहेगा | 
तो हाजिर है कहानी किशोरी की ;


Monday 2 December 2019

सुमित कुटानी : अद्भुत साज़ - अनोखा कलाकार

सुमित कुटानी 

मेरे बेटे प्रियंक का सिनेमेटोग्राफी का काम ही कुछ ऐसा है कि उसके पास विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े हुए कलाकारों का आना-जाना लगा ही रहता है | मेरी भी अक्सर उनसे मुलाक़ात हो जाती है | बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है | उस दिन प्रियंक के स्टूडियो से उमड़ती-घुमड़ती संगीत की बहुत ही मधुर धुन कानों में पड़ रही थी | कौतुहल से अपने को रोक नहीं सका, झाँक कर देखा तो एक शूटिंग चल रही थी, जिसमें एक नौजवान लड़का एक अनोखा सा वाद्य यंत्र बहुत ही तल्लीनता से बजा रहा था | उस वाद्य यंत्र से निकलने वाली स्वर लहरी अत्यंत अद्भुत दिव्य आनंद की अनुभूति करा रही थी | कुछ देर खडा मन्त्र मुग्ध सा उस आनंद लोक में खोया रहा और फिर मन में कई अनसुलझे सवाल लिए वापिस लौट चला | सवाल यही कि कौन है यह लड़का और क्या है वह विचित्र साज़ जिसे मैंने आज तक देखा-सुना ही नहीं था | पता चला वह लड़का था सुमित कुटानी, उत्तराखंड का रहने वाला और उस अनोखे साज़ का नाम है हैंगपैन | उस समय तो बात आयी- गयी हो गयी पर दिमाग की गहरी परतों में अठखेलियाँ खेलती रहीं और आज जब फिर से याद आयी तो दोनों के बारे में ही खोजबीन कर डाली | 
( वीडिओ क्लिप श्री प्रियंक कौशिक व मेड एंगिल फिल्म्स के सौजन्य से प्राप्त ) 
चलिए पहले बात शुरू करते हैं उस सुरीले वाद्य यंत्र से | अपने देश में इसे हैंग ड्रम, हैण्ड-पैन या हैण्डपैन के नाम से भी जाना जाता है | यह एक ख़ास तरह की स्टील से बने दो अन्दर से खोखले अर्ध-गोले हैं जो बीच में रिम से आपस में चिपके हैं | यह वाद्य यंत्र ज्यादा पुराना नहीं है, इसका आविष्कार बर्न , स्विटज़रलेंड में वर्ष 1999 में फेलिक्स रोहनर और सबीना स्केयर ने किया | अपने देश में भी यह साज़ ज्यादा प्रचलित नहीं हैं इसीलिए इसे बजाने वाले कलाकार भी बस गिनती के ही हैं | इस वाद्य यंत्र को गोदी में रखकर हथेलियों की थाप से बजाया जाता है | मांग कम होने के कारण, ज्यादातर इसे विदेशों से ही आयात किया जाता है जिसकी शुरुआती कीमत ही होती है लगभग डेढ़ लाख रुपये |
अब बात करते हैं अपने आज के कलाकार सुमित कुटानी की जिसकी कहानी भी कुछ कम दिलचस्प नहीं है | आप भी सुनिए उसी की जुबानी  : 

उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले में छोटा सा कस्बा है श्रीनगर, वहीं मेरा शुरुआती बचपन बीता | सेंट थेरेसस कान्वेंट स्कूल पढ़ाई की | दुर्भाग्य से पंद्रह वर्ष की उम्र में ही मां का निधन हो गया | बस उसके बाद मन ऐसा उचाट हुआ कि आगे पढाई-लिखाई से तौबा कर ली | संगीत से धीरे-धीरे लगाव होने लगा | यह लगाव इस हद तक बढ़ा कि शादी-ब्याह की बैंड-पार्टी में शामिल हो गया| अब बैंड पार्टी में घुस तो गया पर मुझे कोई भी बाजा बजाना नहीं आता था | बैंड-पार्टी के मालिक को आखिर तरस खा कर या अपना सिर पीट कर एक काम देना पड़ा - काम था कंधे पर गैस- लाईट रखकर बरात के साथ चलने का | इस तरह से मेरे दो शौक पूरे हो जाते थे – शादी के हल्ले-गुल्ले में बैंड-बाजे के संगीत का मज़ा लूटने का और साथ ही दावत में लड्डू- पूरी पर हाथ साफ़ करने का | कुछ दिन इसी तरह से मजबूरी में समय काटा और जब मन ज्यादा उचाट हुआ तो घर से ही भाग खड़े हुआ | भगवान भरोसे पहुँच गया बद्रीनाथ जहाँ रहने तक का कोई ठिकाना नहीं था | वहीं पर खोज निकाला अपने दादा के एक परिचित को जो शमशान में अघोरी थे | मैंने भी उसी शमशान में अपना डेरा जमा लिया | अब दिन कटता नदी किनारे बजरी निकालने और पत्थर तोड़ने की ठेकेदार के यहाँ मजदूरी का काम करने में और रात बीतती को अघोरी बाबा के पास शमशान के आसरे में | कल्पना कीजिए मेरी वह किशोर उम्र, जिसमें बचपन अभी पूरी तरह से गया नहीं था और जवानी शुरू हुई नहीं थी, मैं मन्त्र- मुग्ध सा, शमशान के वातावरण में समय गुजारता | शुरुआत में डर भी बहुत लगा करता पर किसी शायर की कही बात सच्ची भी हो गयी - "दर्द का हद से गुज़रना है दवा बन जाना" । पहली बार जाना कि इस नश्वर संसार में सब कुछ अस्थायी है । दिल से डर नाम की चीज़ का धीरे -धीरे नामों-निशान ही मिट गया | डर की जगह दिल में भोले-बाबा ने अपना बसेरा जमा लिया जो आज तक बरकरार है- मुझ में भी और मेरे संगीत में भी । हालात और वक्त की मार ने उस नाज़ुक कम उम्र में ही मुझे जैसे वक्त से पहले परिपक्व कर दिया | मेरी उम्र अब तक बीस साल की हो चुकी थी | कभी-कभी लगता मानो कोई अज्ञात दैवीय शक्ति बारबार कान में कह रही है “ बहुत हुआ, तेरी मंजिल कहीं और है , बस अब यहाँ से निकल चल |” 
बद्रीनाथ में मजदूर और शमशान के अघोरी बाबा के बीच झूलती जिन्दगी जब ज्यादा ही दूभर हो गयी तो एक बारगी फिर मैं बद्रीनाथ से भी भाग चला और पहुँच गया ऋषिकेश | रोजी-रोटी के लिए यहीं पर कॉटेज होटल में काम मिल गया | ऋषिकेश में विदेशी सैलानी भी बहुतायत में आते रहते हैं | कान्वेंट स्कूल की इंगलिश ने काफी सहारा दिया | सैलानियों से बातचीत और मेलजोल बढ़ाने में मुझे कोई कठिनाई नहीं आती | पर जब फितरत मेरी आज़ाद परिंदे की तो होटल की नौकरी में एक जगह बैठ कर मुझे चैन आये तो आये कहाँ से | ऋषिकेश में बहुत से सैलानी आस-पास की जगहों पर ट्रेकिंग का रोमांच लेने भी आते हैं | वहीं पर अपने एक दोस्त बिट्टू के माध्यम से ट्रेकिंग गाइड का काम पकड़ लिया | काम-काज सब मजे में चल रहा था | इस बीच ऋषिकेश में घूमते –फिरते एक दिन ईस्ट-वेस्ट कैफे जा पहुँचा | आज भी मुझे याद है वहां के मालिक नवीन जी थे | वहां सबसे पहले एक विशालकाय ड्रम जिसे जम्बे कहते हैं, मेरा पहली नज़र में ही मन मोह लिया | मैंने वह ड्रम बजाना वहीं पर सीखा और फिर अक्सर बजाया करता | कभी-कभी पास के ही फ्रीडम कैफे भी चला जाता जहां पर समय-समय पर अक्सर कई विदेशी संगीत प्रेमी आते रहते | अब मेरा मन उस ट्रेकिंग की दुनिया से निकल कर संगीत की आलौकिक दुनिया में खोने लगा था | प्यानो और जम्बे ड्रम तो मैं पहले से उन विदेशी सैलानियों के लिए कैफे में बजाया ही करता था लेकिन बाद में एक और अदभुत साज़ ने मुझे जैसे पागल ही कर दिया | शायद वह 2010 या 2011 का वर्ष था जब स्पेन से आये उस सैलानी के हाथ में मैंने उस साज़ को देखा जिसे मैं हैण्डपैन के नाम से ही पुकारता हूं | उसकी मधुर स्वर लहरी ने मुझ पर जादू ही कर दिया | इस साज़ को भी मैंने सीखा, देश-विदेश जगह-जगह पर होने वाले संगीत-समारोहों में अनेक कार्यक्रम करता रहता हूँ | प्रसिद्ध गायक कैलाश खैर जी के साथ भी मुझे कार्यक्रम प्रस्तुत करने का अवसर मिला चुका है | 
मुंबई की दुनिया में भी कदम: गुरु कैलाश खैर जी और सुमित - साथ मे अमेरिकन मित्र जान मेरी हूप्स 
अब मेरी इच्छा संगीत के ज्ञान को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने की है | हैण्डपैन को सिखाने के लिए मैं अब तक अनेक देश जैसे कजाकिस्तान, इंडोनेशिया, कम्बोडिया, नेपाल, थाईलेंड जा चुका हूँ | फिलहाल मैं अपनी छोटी सी संगीत की दुनिया में मस्त हूँ , व्यस्त हूँ | मैं केवल भगवान् से यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे इस काबिल बना दे कि मैं दूर पहाड़ों पर बसे अपने छोटे से गाँव में एक बेहतरीन स्कूल खोल सकूँ जहाँ समाज के कमजोर वर्ग का बच्चा भी अच्छी तालीम प्राप्त कर सके | 
जीवन एक सपना , सपने में हर कोई अपना : सुमित कुटानी 
तो यह कहानी थी संगीत के दीवाने उस नौजवान की जिसकी ज़िंदगी ने इतने उतार-चढ़ाव देखे कि कोई आम आदमी तो शायद हार मान जाता | पर यह सुमित तो किसी और ही मिट्टी का बना है | सुमित वह पौधा है जिसकी जड़े बहुत गहरी हैं | वह आज जो भी है, अपने दम पर है ,बिना किसी बाप-दादा के नाम और पैसे के सहारे | अपने सपनों के वट-  वृक्ष के बीज़ वह बो चुका है जिसमें से उसकी मनोकामना के पौधे का अंकुरण प्रारम्भ हो चुका है । ऋषिकेश में अद्भुत साज़ हैंग –पैन की विधिवत शिक्षा देने के लिए सुमित संगीत अकादमी की स्थापना कर चुका है ।  कौन यकीन करेगा कि कभी बारात में कंधे पर लाईट का हंडा लेकर चलने वाला एक  बच्चा शमशान भूमि में अघोरी और पत्थर तोड़ते मजदूर की जिन्दगी जीने के बाद आज संगीत की रुपहली दुनिया में देश विदेश में नाम कमा रहा है, दिल के कोने में एक छोटा सा सपना लिए – मुझे अपने उस छोटे से पहाड़ी गाँव के लिए कुछ बड़ा करना है

Wednesday 20 November 2019

🎧यूँ होता तो क्या होता 🎧


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यूँ होता तो क्या होता 
- करुण  शर्मा ,
सहायक महाप्रबंधक (से॰ नि॰ )- भारतीय स्टेट बैंक
  


हुई मुद्दत कि ‘गालिब’ मर गया पर याद आता है ,
वो हर बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता । 

मिर्ज़ा गालिब का यह शेर मुझे बरबस याद आ गया जब मुझे बरसों पहले की आपबीती याद आ गई । इस आपबीती से मुझे ज़िंदगी को एक अलग नए नज़रिये से देखने का मौका मिला | बात यह उन दिनों की है जब मैं कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर नया-नया नौकरी पर लगा था । एक नामी -गिरामी उद्योगपति के औद्योगिक समूह के मुख्यालय के कंप्यूटर डिवीजन में तैनाती थी । यह आज से लगभग छत्तीस साल पुराना वह ज़माना था जब देश में कंप्यूटर किसी अजूबे से कम नहीं समझा जाता था । यहाँ तक कि कंप्यूटर के क्षेत्र से जुड़े सभी नौकरी – पेशा लोगों को वह सम्मान हासिल होता था जैसे वह इस धरती का नहीं वरन स्वर्ग-लोक से उतरा कोई आलौकिक प्राणी है । पूरे दफ्तर में अलग ही रुतबा होता था । और हो भी क्यों ना, जब ऊँचे से ऊँचे ओहदे के आला अफसरों को भी एयर कंडीशनर की सुविधा आसानी से उपलब्ध नहीं होती थी , हम गद्देदार रिवोलविंग कुर्सी पर बैठ कर ए॰ सी॰ आफिस का मज़ा लूटा करते थे । अब यह बात अलग है कि वह ए॰ सी॰ हमारे लिए नहीं वरन उन देवलोक से उतरी मशीनों के लिए होता था जिन्हें सब कंप्यूटर के नाम से जानते थे । सब कुछ मज़े में चल रहा था पर दिल के किसी कोने में कहीं कुछ कसक भी बाकी थी । वह कसक थी ज़िंदगी में कुछ कर गुज़रने की, कुछ ऐसा करने की जिसे दुनिया लंबे समय तक याद रखे । लेकिन मुझे यह भी पता था कि ऊँची, उन्मुक्त उड़ान भरने के लिए खुला आकाश चाहिए । उन दिनों भी प्राइवेट सेक्टर की नौकरी चाहे जितनी भी लुभावनी हो, घूम- फिर कर कहलाती तो लाला की नौकरी ही थी । सरकारी नौकरी का तिलिस्म तब भी सर चढ़ कर बोला करता था । 

शाहरुख खान ने किसी फिल्म में सही डॉयलाग मारा था – अगर किसी चीज़ को शिद्दत ( दिल) से चाहो तो पूरी कायनात (सृष्टि) आपको उससे मिलाने में जुट जाती है । मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में अपने मतलब की नौकरी का विज्ञापन देखा । तुरंत आवेदन भर कर भेज दिया । उम्मीद के अनुसार जल्द ही बैंक के मुख्यालय से साक्षात्कार के लिए बुलावा भी आ गया। इंटरव्यू मुंबई में ही होना था सो ट्रेन का रिज़र्वेशन करवाने में भी कतई देर नहीं की । इंतज़ार की घड़ी लंबी हो चली थीं । अब मेरा सपना था देश के सबसे बड़े बैंक के कंप्यूटर विभाग का सर्वोच्च अधिकारी बनने का । आखिर मुंबई जाने का नियत दिन भी आ ही गया । हाथ में एक अदद सूटकेस थामें नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गया । प्लेटफॉर्म पर पूछताछ कर ट्रेन के डिब्बे में बैठ गया और तुरंत ही ट्रेन चल भी पड़ी । अचानक ही पास बैठे दो यात्रियों की बातचीत से पता चला कि यह तो मुंबई जाने वाली ट्रेन नहीं है । मुझे तो जैसे चार सौ चालीस वोल्ट का करेंट लग गया । लगा जैसे किसी ने सर पर हथोड़ा दे मारा हो । उछल कर सीट से खड़ा हो गया और भागा दरवाजे की ओर । तब तक ट्रेन ने धीर-धीरे रफ्तार भी पकड़नी शुरू कर दी थी । किसी ने ठीक ही कहा है – ऐसे आपात काल में इंसान का दिमाग भी काम करना बंद कर देता है । मेरे एक हाथ में भारी-भरकम सूटकेस था फिर भी ट्रेन की खतरे की जंजीर खीच कर रोकने की चेष्टा करने के स्थान पर मैंने आव देखा ना ताव चलती ट्रेन से प्लेटफार्म पर सीधे छलांग लगा दी । मेरे उस खतरनाक कारनामे को देख रहे प्लेटफार्म पर खड़े प्रत्यक्षदर्शी यात्रिओं के हुजूम में खलबली सी मच गई । सब की साँसे एक पल के लिए मानो रुक सी गयीं । वह क्षण विशेष जब मैं डिब्बे से छलांग मार चुका था और प्लेटफार्म पर कदम पड़ने से पहले स्लो मोशन में हवा में तैर रहा था, आज भी मेरी यादों के पर्दे पर जैसे फ्रीज़ हुआ पड़ा है। वह ख़ास लम्हा ही मेरी ज़िंदगी का वह मुक़ाम था जहाँ से मेरी ज़िंदगी और भविष्य का फैसला होना था ठीक ग़ालिब के उसी शेर की तर्ज़ पर कि यूँ होता तो क्या होता । नहीं समझे – चलिए ज़रा तफ़्सील से समझाता हूँ । 
अब चलती गाड़ी से हाथ में सूटकेस लिए मैं भारी जोखिम उठाते मैं प्लेटफार्म पर कूद तो गया पर उस दिन ईश्वर और भाग्य मेरे साथ था जिसके कारण मैं सॉफ्ट लेंडिंग करने में सफल रहा । ज्यादा सोचने का समय था नहीं, भागते -दौड़ते मुंबई जाने वाली सही गाड़ी में बैठा । मुंबई पहुँच कर नौकरी के लिए साक्षात्कार देकर वापिस दिल्ली लौट आया । 

कुछ समय बाद मुझे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से अपने सफल होने की सूचना के साथ नियुक्ति-पत्र भी मिल गया । पुरानी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर मैंने बैंक के आई ॰ टी डिवीज़न से जुड़ गया । लगभग चौंतीस साल का कार्यकाल कोई थोड़ा समय नहीं होता है । उस कार्यकाल की एक अपनी ही अलग कहानी है जो भरी पड़ी है ढेरों खट्टे -मीठे अनुभवों , संघर्षों, जगह -जगह हुए ट्रान्सफर, उपलब्धियों और समय-समय पर मिलने वाले प्रमोशन्स के किस्सों से । सपने काफी हद तक पूरे हुए जब मेरी अतिरिक्त महाप्रबंधक के पद से सेवा-निवृत्ति हुई । 
पर इस कहानी का एक दूसरा पहलू भी है जो जा कर अटकता है उन लम्हों में जब मैं गलत डिब्बे में जा बैठा था । क्या होता अगर मैं चलती ट्रेन से नहीं कूदता ? ज़ाहिर सी बात है मैं मुंबई नहीं पहुँच पाता । उसी तरह अगर डिब्बे से कूदते वक्त कोई हादसा हो जाता, तब भी मुंबई की नौकरी पाना तो दूर की baat- ज़िंदगी , हाथ- पाँवों और लगी-बधीं लाला की नौकरी के भी लाले पड़ जाते । मैं ट्रेन से कूदा, मेरे कदम नहीं डगमगाए, अपने सही-सलामत हाथ-पाँवों के साथ सही गाड़ी में बैठ कर मुंबई पहुँचा, इंटरव्यू दिया, सफल हुआ – सिर्फ इसलिए तब वक्त और भाग्य मेरे साथ था । हाँ उसके बाद बैंक की नौकरी के दौरान कड़ी मेहनत, मधुर व्यवहार, मिलन-सारिता और संघर्षों ने अपना पार्ट अदा किया जिसका मुझे आत्मसंतोष की हद तक फल भी मिला । इसीलिए ग़ालिब गलत नहीं हैं जब वह कहते हैं : यूँ होता तो क्या होता ।
( प्रस्तुति : मुकेश कौशिक )
(तकनीकी सहायता : मेड एंगिल फिल्म्स  )

Thursday 14 November 2019

बाल सखा : मान सिंह

मेरी यादों का पिटारा दरअसल एक बाबा आदम के जमाने का डिब्बा- कैमरा है | वही डब्बेनुमा तिपाई के ऊपर टिका काले कपड़े से ढ़का कैमरा जिसे पुरानी पीढ़ी के लोगों ने अक्सर सड़क किनारे या नुमाइशों – मेलों में देखा होगा और हो सकता है खुद फोटो खिचवाई भी हो | उसी कैमरे के अंदर झाँकने पर मुझे कभी -कभी यादों के ढ़ेर में बहुत ही पुरानी और धुंधली सी कुछ ऐसी तस्वीरें नज़र आ जाती हैं जो आज भी दिल में एक गहरी सी टीस छोड़ जाती हैं | ऐसी भावुक स्मृतियाँ जिन्होने दिल की गहराइयों में उतर कर गहरी जड़ें जमा लीं हों, वह तो सारी ज़िंदगी आपके कंधों पर सवार रहकर हर क्षण अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाती रहेंगी ही | मान सिंह भी मेरे बचपन से जुड़ी एक ऐसी ही याद है जिसे आज आप सबसे साझा कर रहा हूँ |

मान सिंह से मिलने के लिए आपको मेरे साथ वक्त की पटरी पर बहुत ही पीछे चलना पड़ेगा | मेरठ – रुड़की -सहारनपुर रेल मार्ग पर एक नन्हा सा स्टेशन है – डौसनी | वह आज से साठ साल पहले भी तन्हा और वीरान था और आज भी उसी हालत में है | शायद वह भी आज तक अच्छे दिनों का इंतज़ार ही कर रहा है | सभी मेल और एक्सप्रेस गाडियाँ अभी भी तूफानी गति से उस स्टेशन पर बिना रुके धूल उड़ाते गुज़र जाती हैं | उस स्टेशन की हमदर्द हैं केवल कुछ गिनी -चुनी मरियल पेसेंजर गाडियाँ जो अपनी मर्जी से लखनवी अंदाज़ में शरमाती-सकुचाती आती हैं, आराम से ठहरती हैं और फिर किसी बूढ़े गठिया के मरीज की तरह कलपती -कराहती होले-होले विदा हो जाती हैं | मेरे नाना वहीं पर स्टेशन मास्टर थे यानी एक तरह से सर्वे-सर्वा | मेरे बचपन की प्राचीनतम यादें वहीं से जुड़ी हुई हैं | रेलवे के क्वाटर में रहते थे | उस समय मेरी उम्र होगी यही कोई चार –पाँच साल की | सारे दिन घर के आसपास और उस वीरान से स्टेशन पर ही खेलकूद में व्यस्त रहता | मुझे वह शाम अभी भी अच्छी तरह से याद है – शाम के तीन-चार बजे का सा समय था | मैं अपनी नानी के साथ रेलवे क्वाटर के सामने बैठा धूप सेक रहा था | तभी स्टेशन पर ही काम करने वाला एक कर्मचारी आया | उसके साथ एक बच्चा था जिसकी उम्र लगभग दस साल होगी| बच्चे के हाथ में एक झोला था जिसमें दो-चार कपड़े थे | पूछने पर बच्चे ने अपना नाम मान सिंह बताया |उसके पिता बहुत ही बेरहमी से मारपीट किया करते थे इसलिए तंग आकर पौड़ी गढ़वाल के गाँव के घर से भाग लिया | स्टेशन पर आवारा भटकते उस बच्चे पर जब रेलवे कर्मचारी की नज़र पड़ी वह उसे लेकर हमारे घर आ गया | बहुत समझाने –बुझाने पर भी वह वापिस अपने घर लौटने को तैयार नहीं था | आखिरकार नानी का दिल पसीज ही गया और इस तरह उस बेसहारा बच्चे को मिला बसेरा और मुझ एकल और तन्हा बच्चे को मिला अपने जीवन का पहला दोस्त – बालसखा मान सिंह |

 पिकनिक : बाएँ से - मैं , पिता, बहन, भाई, माँ और अंत में मान सिंह  

अब मेरा समय और ज्यादा मस्ती कटने लगा – मान सिंह का साथ जो मिल गया था | घर के काम -काज में भी मानसिंह नानी का हाथ बटा देता था | घर में जल्द ही एक परिवार के सदस्य की तरह से घुल-मिल गया | मैंने तो यहाँ तक सुना कि एक बार किसी परिचित ने नाना के सामने मान सिंह का ज़िक्र एक नौकर के रूप में कर दिया | इतना सुनना भर था कि नाना  ने गुस्से में  रौद्र रूप दिखलाते हुए दहाड़ मारी कि मेरे  बच्चे को नौकर कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई | यह था मेरे नाना -नानी के मान सिंह से आत्मीय लगाव की पराकाष्ठा जिससे उस बच्चे के मन में पारिवारिक सदस्य होने की भावना के शुरुआती बीज पनपे | जहां कहीं भी हम जाते मान सिंह हमारी टीम का स्थायी हिस्सा होता | अगर किसी रिश्तेदारी में भी जब कभी जाते तो वह बच्चा वहाँ भी अपनी मिलनसारिता से सभी में ऐसे घुल-मिल जाता जिसे दूध में बताशा |

कुछ समय बाद डौसनी स्टेशन से बदली होकर पास के स्टेशन पथरी भी रहे | यह वही पथरी है जिसके बारे में पूरी कहानी बचपन की बहार: पथरी की पुकार में पढ़ी होगी | अगर नहीं तो दिये गए लिंक पर क्लिक करके फिर से याद ताज़ा कर सकते हैं |  मानसिंह का साथ बना रहा | खेलकूद में तो वह साथ रहता ही, मुझे अपने रोज़मर्रा के कामों में भी शामिल कर लेता जिसमें मुझे भी बहुत मज़ा आता | लालटेन की चिमनी साफ करना, अँगीठी सुलगाना, कोयले वाली प्रैस से कपड़ों पर इस्तरी होते अचरज से देखना मेरे लिए एक तरह से खेल और मनोरंजन का साधन बन चुके थे | 

पथरी आने के कुछ ही साल बाद वक्त ने बड़ी ज़बरदस्त करवट ली | मुझे अपने माता-पिता के पास उड़ीसा जाना पड़ा | नाना का कैंसर से आकस्मिक निधन हो गया | नानी और मान सिंह को मेरे मामा- जो नेवी में लेफ्टिनेंट थे, अपने पास दिल्ली ही ले आए | कुछ साल बाद मेरे पिता भी उड़ीसा छोड़ कर दिल्ली आ गए थे | यहीं पर मुझे अपना बाल- सखा दोबारा मिला | मान सिंह  के साथ हम सभी भाई -बहन मिल कर जो हल्ला -गुल्ला और शोर शराबा मचाते थे उन सभी शरारतों की मिठास आज भी मेरी ज़िंदगी में मौजूद है | इस धमा-चौकड़ी में शामिल होने में मामा भी तब पीछे नहीं रहते |

बाएँ से : आगे ; मैं , मामा और पीछे भाई, माँ , बहन और मान सिंह  

बाएँ से :  मान सिंह, मैं, भाई -राकेश जी , सबसे आगे बहन पारुल 
उसी दौरान दिल्ली में ही नेवी वाले मामा की शादी हुई- वह भी बहुत ही धूम-धाम से | मान सिंह जो तब किशोरावस्था में प्रवेश कर चुका था, शादी की तैयारियों और प्रबंध करने में घर के किसी बड़े- बुज़ुर्ग की सी ज़िम्मेदारी दौड़-दौड़ कर निभा रहा था | यह घर उसका है – यह ख्याल बहुत अंदर तक उसके मन में घर कर चुका था | घर के सभी सदस्यों को रिश्तों के नाम से ही संबोधित करना उसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार लगता था | शादी के बाद मामा दिल्ली से ट्रान्सफर हो कर अपनी पत्नी , माँ और मानसिंह के साथ बंबई ( आज की मुंबई) चले गए | बाल-सखा फिर बिछड़ गया |

समय अपनी रफ्तार से दौड़ रहा था | मैं स्कूल की पढ़ाई में व्यस्त था | फिर एक दिन खबर आई मान सिंह बंबई में घर छोड़ कर कहीं चला गया | ऐसी क्या बात हुई जिसने उसके दिल को इतना झकझोर दिया यह बात लंबे समय तक रहस्य ही रही | इस मुद्दे पर कहानी से जुड़े सभी पात्र लंबे समय तक खामोश ही रहे कभी कुछ बताया नहीं |

तब तक मैं आठवीं कक्षा में आ गया था | दिल्ली में मानसरोवर पार्क में रहा करते थे | एक दिन मान सिंह घर पर अचानक आ पहुंचा | मेरी खुशी का मानो ठिकाना ही नहीं था | इतनी खुशी कि उस दिन स्कूल का भी चुपचाप बहिष्कार कर दिया | माँ अध्यापिका थी , रोजाना की तरह से  तब तक घर वापिस लौटी नहीं थी | अब घर पर कोई रोकने वाला था नहीं सो उनकी अनुपस्थिति का पूरा फायदा लेते हुए  उठाई साइकिल और पास के ही सिनेमाघर में पहुँच गए पिक्चर देखने मानसिंह के साथ | पिक्चर के बाद इधर-उधर घूमते रहे | शाम को जब वापिस घर पहुंचे तब हमारी खुद की जो पिक्चर बनी वह आज तक मुझे याद है | मानसिंह तो कुटाई से बच गया पर मेरी जो कान खिचाई हुई….. तौबा-तौबा | उसने माँ को बताया कि वह दिल्ली में ही किसी डाक्टर के यहाँ काम कर रहा था |उसके बाद लंबे अरसे तक मान सिंह से कोई संपर्क नहीं रहा | मां को वह जीजी कहा करता था | नानी –मामा के घर को वह मुंबई में बहुत पहले ही छोड़ चुका था इसीलिए शायद उसने सोच समझ कर ही दूरी बना कर रखी थी | वह दोनों परिवार के बीच किसी भी प्रकार की गलतफहमी संभवत: नहीं चाहता होगा |
कई बरस इसी प्रकार बीत गए | मैं भी कॉलेज की पढ़ाई के सिलसिले में दिल्ली से बाहर चला गया | जब वापिस लौटा – शायद वर्ष 1977 चल रहा था | मेरे उम्र भी तब तक बीस साल की रही होगी | घर के आँगन में बैठा कुछ पढ़ रहा था | दरवाजे पर ठक-ठक हुई| जा कर दरवाजा खोला – आँखे आश्चर्य से खुली की खुली रह गईं | सामने मान सिंह था | लेकिन दूसरे ही पल मुझे लगा मैं चक्कर खा कर नीचे गिर पड़ूँगा | मानसिंह बैसाखियों के सहारे खड़ा था | उसकी बड़ी -बड़ी आँखे मुझे बरबस निहार रहीं थी | उसके होठों पर अपने बचपन के बाल –सखा को देख कर वही पुरानी मुस्कान होठों से निकलने का मानों भरसक असफल प्रयास कर रही थी | मैं उसे सहारा देकर अंदर घर में लाया | उसकी हालत को याद करके आज भी मेरे आँसू निकल आते हैं | जब वह बैठा तब मुझे पता चला उसकी गरदन भी पूरी तरह से जकड़ चुकी थी | टांग में बुरी तरह से जख्म हुआ पड़ा था | उसे हड्डियों की तपेदिक हो चुकी थी | पाँव का आपरेशन हुआ था जिसमें हड्डी को काटना पड़ा जिसके कारण एक पाँव छोटा हो गया और बैसाखियों का सहारा लेना पड़ा | वह मान सिंह जिसके साथ मैं बचपन में खेला करता था, जो कभी तीन पहिये की साइकिल पर मुझे बैठा कर पीछे से धक्का लगाता था और मेरी खिलखिलाहट आसमान को छूती, उसी बाल- सखा को आज बैसाखियों का सहारा लेने की मजबूर हालत में देख कर दिल पता नहीं कैसा-कैसा हो चला था | मेरे आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे | उसने काँपते हाथों से अपनी जेब से कुछ रुपये निकाल कर मेरी माँ को दिये, बोला जीजी अभी तो रखो , वक्त जरूरत पर मांग लूँगा | माँ ने तभी घर के पास के पोस्ट ऑफिस में उसका खाता खुलवा दिया | बातों ही बातों में उस दिन मान सिंह ने बताया कि तपेदिक होने के बाद, उस डाक्टर के यहाँ से भी काम छूट गया | फिलहाल वह नई दिल्ली में ही विकलांगों के लिए बने सरकारी पुनर्वास केंद्र में सिलाई का काम करता है | वहीं से जो थोड़ी-बहुत आमदनी हो जाती है उसी की पाई-पाई जोड़ कर यहाँ जमा करवाने आया है | मैं चुपचाप बैठा सोच रहा था कि यह वही मान सिंह है जिसके हाथों में किसी समय पूरे घर की चाबियाँ होती थीं | वक्त ने उस अच्छे –भले इंसान की क्या दुर्दशा कर दी | 
मैं उसके बाद फिर अपनी नौकरी के सिलसिले में घर से दूर चला गया | मान सिंह से मेरी फिर कोई मुलाक़ात नहीं हुई , कोई संपर्क नहीं हुआ | माँ ने बताया वह वापिस अपने उसी गाँव चला गया जहां से बचपन में किसी समय अपने निर्दयी पिता की मार से बचने के लिए भाग आया था | शायद जीवन के शेष दिन अपनी उसी मिट्टी में बिताना चाहता हो |
अब अंत में बात उस कड़वे सच की जिससे उस किशोर वय मानसिंह का जीवन ही उलट-पुलट कर रख दिया | पहले दिन से ही नाना –नानी ने उसे हमेशा घर का सदस्य ही माना | यही बात उसके मन में अंदर तक घर कर चुकी थी | नाना के निधन के बाद उसे नानी अपने नेवी वाले अफसर बेटे यानी मेरे मामा के पास चली गईं | मामा की शादी भी अत्यंत प्रभावशाली और ऊंचे खानदान में हुई थी | उस बदले परिवेश में मानसिंह को शीघ्र ही महसूस होने लगा अब वह परिवार का सदस्य नहीं है – बस रह गया है महज़ एक खानदानी नौकर | डाट-डपट के माहोल को वह सह नहीं पा रहा था | जिन नाना –नानी ने घर से भागे उस आठ साल के बेसहारा बच्चे को आसरा दिया, उनके परिवार को छोड़ने का निर्णय कोई आसान काम नहीं था | पर यहाँ प्रश्न आत्म सम्मान का था जिसने उसे हिम्मत दी यह सोच कर कि अगर नौकर बनना ही है तो किसी गैर के यहाँ बनो, कम से कम दिल तो नहीं दुखेगा | और इस तरह मेरा दोस्त चल पड़ा आत्म –सम्मान की डगर पर – निडर और निर्भीक हो कर | इस आत्म-सम्मान की लड़ाई में उसने बहुत कुछ गवायाँ भी लेकिन विपरीत परिस्थितियों के आगे उसने आत्म- समर्पण नहीं किया | 
मुझे नहीं पता मेरा बाल-सखा मान सिंह आज कहाँ है, किस हाल में है , और है भी या नहीं | उसका आधा अधूरा पता आज भी किसी डाक टिकट की तरह मेरे ज़हन के लिफाफे पर  चिपका है: 
मान सिंह बिष्ट, 
गाँव व पोस्ट ऑफिस : दुगड्डा
जिला: पौड़ी गढ़वाल 
उत्तराखंड 
मुझे आज भी यह आस है शायद कोई तो चमत्कार मुझे उससे फिर से मिला दे और मैं उसके गले से चिपट कर एक बार फिर उसी साठ वर्ष पहले की दुनिया में पहुँच जाऊँ जब वह मुझे डौसनी स्टेशन पर पहली बार मिला था |
( इस आपबीती कहानी के लिए सादर आभार आदरणीय विमल कुमार जी  और घर के बड़े-बूढ़ों का जिन्होने मेरी यादों के चश्में से धूल हटा कर इस संस्मरण को प्रामाणिकता दी )     

Sunday 10 November 2019

मजबूर हूँ पर निराश नहीं : चंद्रभान

कबीर दास जी के एक दोहे की पंक्ति है : मन के हारे हार है, मन के जीते जीत | अर्थात सब कुछ आपके आत्म विश्वास पर निर्भर करता है | अगर आप हिम्मत हार बैठे तो सफलता नहीं मिल सकती | आज यह बात याद आने के पीछे भी एक विशेष कारण है | मेरी आदत है घर के पास बने पार्क में घूम कर आने की | वहीं पर कसरत करने की तरह -तरह की मशीनें भी लगी हैं जिन पर स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बच्चे, बूढ़े और जवान , सभी जोर-आजमाइश करते रहते हैं | मैं भी सामर्थ्य के अनुसार व्यायाम करता हूँ | आज का दिन भी और अन्य दिनों की तरह सामान्य ही था | पार्क में एक कोने में आवारा कुत्तों की टोली आराम फरमा रही थी | पेड़ों पर पक्षी चहचहा रहे थे | ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी | कसरत-मशीनों पर वही नियमित रूप से आने वाले पुराने जाने-पहचाने चेहरे पसीना बहाने में व्यस्त थे | एक नए चेहरे पर नज़र पड़ी | वह बड़ी तन्मन्यता से दीनो-दुनिया से बेखबर एक जिम मशीन पर कसरत कर रहा था |
कड़ी मेहनत - पक्का इरादा : चंद्रभान 
 एक बार सरसरी नज़र से देखने के बाद जब उस शख्स को दोबारा ध्यान से देखा तो अवाक रह गया - वह नेत्रहीन था | सफ़ेद कमीज़ और नीली जींस में उसका दुबला-पतला शरीर मानो कुछ अलग ही कहानी सुना रहा था |अपनी जिज्ञासा को मैं अधिक देर तक नहीं दबा सका और अंत में उस युवक के पास पहुँच ही गया - मन में उठ रहे तरह-तरह के सवालों के साथ | उस युवक ने जो कुछ भी अपने बारे में बताया वह मन को छू लेने वाला तो था ही , साथ ही प्रेरणादायक भी था | उस युवक जिसका नाम था चंद्रभान, की आपबीती कहानी को आप सब तक पहुंचाने के लोभ से मैं अपने आप को नहीं रोक सका हूँ | 
चंद्रभान का बचपन शुरू होता है उत्तरप्रदेश के इलाहबाद जिले के एक छोटे से गाँव – अकोढा से | बचपन के शुरुआती दिनों में वह बिल्कुल ठीक -ठाक था | चार साल की उम्र में उसे गंभीर बीमारी ने घेर लिया | सारे शरीर पर फुंसी -फोड़े निकल आये थे | गाँव के ही एक डाक्टर ने इलाज़ करना शुरू किया पर रोग था कि काबू में नही आ पाया | आँखों पर भी बहुत बुरा असर हुआ और धीरे -धीरे दिखना बंद होता चला गया | बाद में जब तक पता चला कि गाँव में इलाज करने वाला डाक्टर फ़र्जी – झोला छाप है, तब तक बहुत देर हो चुकी थी | आस-पास के शहरों में भी दूसरे डाक्टरों को दिखाने का कोई लाभ नहीं हुआ और इस तरह से नन्हे चंद्रभान की हंसती -खेलती दुनिया भयावह अंधेरों के आगोश में समा गयी | दुर्भाग्य की इतनी बड़ी मार उस छोटे से बच्चे के लिए कुछ कम नहीं थी | लगभग पूरा बचपन ही माता-पिता और रिश्तेदारों के इस दिलासे पर निकल गया कि इलाज चल रहा है – आँखे ठीक हो जायेंगी | सोचिए उस बच्चे की मनोदशा जिस के लिए सारी दुनिया गहन काली रात में बदल चुकी थी और जिसे हर दिन उस नयी सुबह का इंतज़ार रहता जिसमें वह फिर से देख पायेगा – अपनी मां , पिता , भाई-बहन , संगी -साथी, उगता सूरज, गाँव की पगडंडी और दूर तक फैले खेत | वह खुशनुमा सुबह कभी नहीं आयी और उसे अब इस अन्धेरा दुनिया में ही रहने की आदत डालनी पड़ेगी इसे स्वीकार करने में बहुत वक्त लगा |
इतनी घोर विपत्ति के बावजूद अब एक बात तो उस बच्चे के मनो-मस्तिष्क में धीरे -धीरे घर करने लगी – और वह यह कि इस दुनिया में अगर भविष्य में उसका कोई सहारा होगा तो वह स्वयं | उसके लिए जरुरी होगा पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खुद खड़े होना | गाँव के सामान्य स्कूल में ही शुरुआती पढ़ाई की | बाद में इलाहबाद के एक संस्थान से ब्रेल लिपि का अध्ययन किया | नेत्रहीनों के लिए पुस्तकें ब्रेल लिपि में ही लिखी जाती हैं जिनके उभरे हुए विशेष प्रकार के बिंदुदार अक्षरों को उँगलियों से स्पर्श करके पहचाना और पढ़ा जाता है | इसे सीखने का लाभ यह हुआ कि अब किसी और से पाठ सुनकर याद करने की निर्भरता लगभग समाप्त ही हो गयी | इसके बाद दिल्ली की ओर रुख किया| चन्द्र ने किसी तरह से सी.बी.एस .सी, दिल्ली बोर्ड से इंटर पास किया | गाँव में घर के आर्थिक हालात ठीक नहीं थे | जैसे-तैसे दिल्ली विश्वविद्यालय में बतौर प्राइवेट छात्र के रूप में दाखिला लिया | तमाम समस्याओं के बावजूद कई प्रयासों में आखिरकार बी.ए पास कर ही लिया | 
चन्द्रभान 
अब चंद्रभान अपने लिए काम की तलाश में है | बहुत ही मायूसी में कहता है “ आज के ज़माने में जब अच्छे-भले लाखों लोग बेरोजगार घूम रहे हैं तो मुझे कौन पूछेगा | इसके बावजूद मेरे हौसले बुलंद हैं और मैंने हिम्मत नहीं हारी है |” मुझे सबसे अच्छी बात चंद्रभान की यह लगी कि वह अपने स्वास्थ के प्रति जागरूक है | वह कहता है – भगवान् ने मुझे जो कमी देनी थी वह तो दे ही दी, पर इस दिए हुए शरीर को मजबूत और ताकतवर रखना तो मेरी ही जिम्मेदारी है | यही कारण है कि जब भी मौका मिलता है चंद्रभान आसपास के पार्क में बने खुले जिम में कसरत करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते हैं | जैसे की आपको लेख के शुरू में ही आपको बताया था उससे मेरी पहली मुलाक़ात भी ऐसे ही एक पार्क में हुई | जीवन के प्रति भी वह बहुत ही जिंदादिल और सकारात्मक सोच रखता है | मैं आश्चर्यचकित रह गया जब उसने मुझे बताया कि वह व्हाट्स एप और फेसबुक के माध्यम से सोशल मीडिया पर भी सक्रिय है | इस काम में टेक्स्ट से स्पीच जैसे कई सहायक एप्लीकेशन मदद करते हैं | 
आजकल वह दिल्ली के नंदनगरी में स्थित नेत्रहीनों के लिए बने एक संस्थान में रह रहा है | चंद्रभान के सामने समस्याओं का पहाड़ है लेकिन उसे विश्वास है गिरजा कुमार माथुर के उस गीत पर “मन में है विश्वास , पूरा है विश्वास, हम होंगे कामयाब एक दिन” | नौकरी की तलाश जारी है ..... मुझे भी उम्मीद है उसे मंजिल जरुर मिलेगी | मेरा मानना है कि कठिनाई के दौर से गुजरने वाले के लिए सहायता का हाथ और हिम्मत बंधाने वाले दो मीठे बोल से बढ़ कर और कुछ नहीं | अपने सभी समर्थ और सवेंदनशील पाठको से मेरी अपेक्षा है अगर उनके प्रयास से किसी की मजबूर बीच मझधार में डूबती ज़िंदगी को सहारा मिल जाए तो हम समाज और ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्य को कुछ हद तक पूरा कर सकेंगे | अपनी इसी आशा और अपेक्षा के साथ मैं चंद्रभान का फोन नंबर 9599853201 उसकी सहमति से आप सभी से साझा कर रहा हूँ, इस अपील के साथ कि इस संघर्षरत नेत्रहीन लेकिन शिक्षित नौजवान को जीवन में स्थापित करने में मार्गदर्शन करें , सहायता करें अन्यथा कम -से- कम हिम्मत तो जरूर बढ़ाएं |

Friday 8 November 2019

खुशहाली का प्रतीक : सिरमौर की माता ला -देवी

इस पोस्ट को पढ़ कर मेरे कुछ दोस्त मुझ पर दक़ियानूसी और अंधविश्वासी का ठप्पा लगा सकते हैं | मेरी आज की बातें ही कुछ ऐसी हैं | अपने बचाव में इतना ही कहूँगा कि धर्म, भक्ति और ईश्वर एक आस्था का विषय है | इसमें क्यों, कैसे, तर्क और वाद-विवाद के लिए कोई जगह नहीं है | इन्हें वैज्ञानिक तर्कों की कसौटी पर परखना अपेक्षित नहीं होता | आज भी ऐसे अनगिनत अनसुलझे रहस्य हैं जिनका इतनी उन्नति के बावजूद विज्ञान के पास कोई स्पष्टीकरण नहीं है |ब्रह्मांड और जीवन का रहस्य भी कुछ ऐसा ही है – इंसान कहाँ से आता है, कहाँ जाता है -आज भी विज्ञान इस पर केवल माथा-पच्ची ही कर रहा है | इंसान की फितरत में है – चाहे खुशी में याद आए या न आए, पर जब संकट में गाड़ी रेत में फँस जाती है तब ईश्वर, अल्लाह और जीसस सब एक साथ याद आ जाते हैं | इसी लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और गिरजाघर उसी आदि-शक्ति तक पहुँचने की कोशिश के रास्ते इंसान ने खोज रखे हैं | आज आपको एक ऐसे मंदिर के दर्शन करवाता हूँ जिसके बारे में बहुत ही कम लोगों ने सुना होगा | पर जिन लोगों को इसके बारे में पता है उन सबका इस पर अटूट आस्था, विश्वास और मान्यता है | मैंने इस मंदिर में एक से ऊंचे एक अनेक दिग्गज हस्तियों को श्रद्धा से माथा टेकते और मनौती माँगते देखा है | यह छोटा सा लेकिन सादगी से परिपूर्ण मंदिर हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर की तहसील पाँवटा साहिब के निकट राजबन के एक सुनसान पहाड़ी जंगल में स्थित है | यह माता ला- देवी का मंदिर है | यह लेख मेरे स्वयं के राजबन निवास के लंबे अनुभव और वहाँ के निकटवर्ती गांवों में बसे मेरे अनेक दोस्तों और स्थानीय निवासियों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है |
इस मंदिर के इतिहास की जड़ें प्राचीन सिरमौर राज्य के राजा तक पहुँचती हैं | ज्यादा जानकारी मेरे ब्लाग की राजबन और सिरमौर पर लिखी पोस्ट (राजबन : राजा का बन और उजाड़ नगरी) में मिल जाएगा जिसका लिंक साथ ही दिया गया है | समय निकाल कर वह भी पढ़ लेंगे तो इस लेख का भी और अधिक आनंद उठा पाएंगे | संक्षेप में कहें तो किसी समय प्राचीन सिरमौर राज्य की राजधानी रहे इस राजबन क्षेत्र में भारी तबाही हुई थी | सब कुछ नष्ट हो गया था – राजा का महल भी | समय बीतता गया .... बरसों बाद उधर के घने जंगल में जिन्हें राजबन के नाम से जाना जाता था, एक सुनसान पहाड़ी पर तेंदु के पेड़ (जिसके चौड़े पत्तों से पत्तल और बीड़ियाँ भी बनती हैं ) के नीचे कुछ प्राचीन पत्थरों की प्रतिमाएँ पायी गईं | ये पत्थर पर खुदी मूर्तियाँ थीं जिन पर किसी अज्ञात प्राचीन लिपि में कुछ लिखा भी हुआ था | आज की बुजुर्ग हो चली पीढ़ी भी अपनी यादों को ताज़ा करते हुए कहती है कि अब से साठ वर्ष पहले राजबन के जंगलों में वे भेड़ चराया करते थे तब भी उस पहाड़ी पर तेंदु के पेड़ के नीचे रखी उन मूर्तियों को देखा करते थे |


प्राचीन मंदिर 




प्रस्तर प्रतिमाएँ -प्राचीन मंदिर 



प्राचीन मंदिर - पुरातन अवशेष 
( ऊपर के सभी चित्र - सौजन्य : श्री अनिल शर्मा - राजबन ) 

इन मूर्तियों के बारे में उनके गाँव के बड़े-बूढ़े भी बताया करते थे कि ये भी राजा के समय के प्राचीन मंदिर के अवशेष हैं | गाँव के लोगों के जब मवेशी गुम हो जाते थे तब वे यहाँ आकर मनौती मांगते थे जो पूरी भी हो जाती थी | इस मंदिर के इतिहास से आस्था और विश्वास की यहीं से शुरुआत हुई जो समय के साथ -साथ बढ़ती गई| बहुत ही कम लोगों को यह ज्ञात है कि असली प्राचीन ला देवी का मंदिर वास्तव में आज भी वही छोटा मंदिर है जो तेंदु के पेड़ के नीचे बना हुआ है | वहाँ तक जाने के लिए तब कच्ची पहाड़ी पगडंडी होती थी | इसके ठीक सामने कुछ ऊंचाई पर बना बड़ा मंदिर बाद की सरंचना है | पुराने समय में यहाँ आस-पास जंगली जानवर भी घूमते-फिरते आ जाते थे | रात को कई बार शेर भी देखा गया | शायद यही कारण है आज भी शेर की प्रतिमा मंदिर परिसर के प्रवेश द्वार पर विद्यमान है | 

( नीचे के सभी चित्र श्री श्याम सुंदर माहेश्वरी के सौजन्य से )

मंदिर परिसर मुख्य द्वार 



मंदिर  की 108 सीढ़ियाँ 


अब देखिए चमत्कार - यह पूरा क्षेत्र बहुत ही पिछड़ा हुआ और गरीबी की मार झेल रहा था | उस पहाड़ी गाँव में सिवाय छोटी-मोटी खेती-बाड़ी और मवेशी पालने के और कोई जीवन बसर करने के अलावा कोई अन्य साधन नहीं था | भारत सरकार द्वारा 1970 के आरंभिक दशक में एक निर्णय लिया गया- देहारादून जो कि उस समय उत्तर प्रदेश में आता था , के निकट एक सीमेंट फेक्टरी लगाने का | तब हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री यशवंत सिंह परमार ने अपने प्रभाव से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि वह सीमेंट कारख़ाना देहरादून के बजाय हिमाचल प्रदेश में लगाया जाए | परमार साहब क्योकि खुद सिरमौर जिले से थे अत: उन्होने जोड़-तोड़ करके राजबन में फ़ैक्टरी लगवाने का जुगाड़ पक्का कर दिया | अब यह चमत्कार नहीं तो क्या था – जहां पर रेल लिंक आज तक नहीं पहुँच पाया है – उस जगह पर हिमाचल प्रदेश में सीमेंट उद्योग की पहली फ़ैक्टरी ने अपने पैर जमाये | अब सीमेंट फ़ैक्टरी बननी शुरू हुई , स्थानीय लोगों को रोजगार मिला | गाँवों में खुशहाली आनी शुरू हुई | 

फ़ैक्टरी बनने के दौरान एक दिलचस्प वाकया हुआ | फ़ैक्टरी  से लेकर चूना पत्थर की खानों तक लगभग तेरह किलोमीटर का रोप-वे बनाने का ठेका कलकत्ता की जेसप एंड कंपनी को दिया गया था | दुर्गम पहाड़ी रास्तों और नदी के ऊपर से जाता रोप-वे के निर्माण में बहुत दिक्कते आ रहीं थीं | रोप-वे का रस्सा बार-बार टूट जाता था | हार कर उस कंपनी के अधिकारियों ने उसी माता ला देवी के मंदिर में सफलता के लिए मन्नत माँगी | मुराद पूरी हुई – रोपे- वे बना भी , कामयाब भी हुआ और उसी जेसप एंड कंपनी ने माता ला देवी की श्रद्धा में पक्के मंदिर का निर्माण करवाया | उन दिनों मेरे पोस्टिंग राजबन में ही थी इसलिए घटनाएँ कानों- सुनी नहीं वरन आँखों- देखी हैं | 



नया मंदिर : माता ला - देवी 




देवी प्रतिमा (नवीन )

लोगों का मानना है की इस मंदिर ने इस पिछड़े इलाके को गरीबी से उबारा, संपन्नता दी, हजारों लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार दिया | बात केवल यहीं तक नहीं रुकी – राजबन के निकट ही पांवटा साहिब में सिक्खों का पवित्र गुरुद्वारा है | आज उस स्थान ने भी भरपूर प्रगति की है | पास में ही तारुवाला जो कभी ग्रामीण इलाका होता था आज औद्योगिक क्षेत्र में बदल चुका है | अब इधर यह सब विकास हो रहा था – उधर ला- देवी के भक्तों और श्रद्धालुओं की संख्या भी बढ़ती जा रही थी | सीमेंट फ़ैक्टरी के कर्मठ कर्मचारियों और प्रबंधन ने एक तरह से देखा जाए तो इस मंदिर को अपने सरंक्षण में ले लिया | समय-समय पर भक्तों के सहयोग से इस मंदिर का जीर्णोद्धार और काया-कल्प भी होता जा रहा है । यहाँ समय-समय पर भंडारे होते हैं जिन में हजारों की संख्या में आस-पास के गांवों के निवासी आते हैं | फ़ैक्टरी की सुख-शांति और सफलता के लिए हवन-पूजा भी होती रहती है | एक समय ऐसा भी आया कुछ लोगों की सलाह पर ला-देवी मंदिर के स्थान पर फ़ैक्टरी के टाउनशिप में बने मंदिर में ही भंडारे किए जाने लगे | अब इसे संयोग कहिए या कुछ और – इसके नतीजे बड़े घातक और दुर्भाग्यशाली रहे | अंत में उसी पुरानी परंपरा पर लौटने में ही सबने भलाई समझी | 
अभी कुछ वर्षों पहले ला देवी मंदिर के परिसर में ही भगवान शिव के मंदिर की भी स्थापना हुई है | 
वक्त के साथ सीमेंट फ़ैक्टरी भी उम्र दराज़ हो चली है | अन्य सरकारी उपक्रमों की तरह इसे भी अनेक बीमारियों ने जकड़ लिया है | यह धीरे-धीरे काल के गर्त में समाती जा रही है | सुनने में यह बुरा जरूर लगता है पर वास्तविकता से मुँह भी तो नहीं मोड़ा जा सकता | अब हुआ दूसरा चमत्कार – ठीक सीमेंट फ़ैक्टरी के सामने ही भारत सरकार ने इसी इलाके में रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत बहुत विशाल संस्थान की स्थापना कर दी है | डी०आर०डी०ओ के अधीन उस संस्थान का महत्व केवल इसी बात से समझा जा सकता है कि यहाँ से गुज़रने वाली पतली सी टूटी-फूटी सड़क भी अब फर्राटेदार चोड़े राष्ट्रीय राजमार्ग में बदल चुकी है | कुल मिला कर बदलती परिस्थितियों में भी दैवीय शक्तियों ने इस स्थान पर अपना आशीर्वाद बनाए रखा है | मेरा मानना यह भी है कि देवी की कृपा केवल उन मेहनतकश कर्मयोगी इन्सानों तक ही सीमित रही है | जहाँ मेहनत का स्थान आलस, बेईमानी और भ्रष्टाचार ले लेता है, देवी का आशीर्वाद भी रूठ कर चला जाता है | 

इस लेख के माध्यम से मैं उन सब श्रद्धालुओं की प्रशंसा और आभार प्रकट करना चाहूँगा जो निस्वार्थ भाव से इस मंदिर की देखरेख में अपना हर प्रकार से योगदान कर रहे हैं | 

अब आप मुझे अंध-विश्वासी कहें या मोटी बुद्धि वाला बेवकूफ, मेरा मानना है कि इस मंदिर में कुछ तो विशेष जरूर है जिसने इस पिछड़े गाँव और इसके आस-पास के क्षेत्रों को गरीबी के दलदल से बाहर निकाल कर खुशहाली के दिन दिखाये | यह तो मैं पहले ही कह चुका हूँ कि आस्था के पीछे वैज्ञानिक तर्क नहीं होते |
(आभार : सर्व श्री श्याम सुंदर माहेश्वरी, जिगरी राम चौधरी, खेम राज शर्मा , अनिल शर्मा, नारायण सिंह पौखरियाल जी का जिनके अमूल्य योगदान के कारण यह लेख आप तक पहुँच पाया है )   

Friday 1 November 2019

एक पहेली - अनसुलझी



इस बार की कहानी के ज़्यादातर मुख्य पात्र उस दुनिया के हैं जो इंसानी दुनिया से संबंध नहीं रखते | रिश्तों के उलझे ताने-बाने, मानवीय संवेदना और सबसे ऊपर घूमते कुटिल भाग्य -चक्र के इर्द-गिर्द यह कहानी घूमती है जो अभी कुछ दिन पहले ही घटी| उस घटना ने मुझे अंदर तक कुछ इस कदर झकझोरा कि अभी तक उसके सदमें से उबर नहीं पाया हूँ |
मेरी कॉलोनी के आवारा कुत्तों को मेरे घर के मेन गेट के सामने अड्डा बना कर बैठने में बहुत मज़ा आता है | वे सब वहाँ बैठ कर उतना ही सुरक्षित महसूस करते हैं जितना दाऊद कराची में और जनरल मुशर्रफ दुबई में | उनके झुंड का अपना ही एक अलग किस्म का साम्राज्य है | घर को इतना ज़बरदस्त सुरक्षा कवच प्रदान कराते हैं कि देश के प्रधानमंत्री की ज़ेड प्लस सिक्योरिटी भी उसके सामने पानी भरती प्रतीत होती है | मेरा पालतू कुत्ता चंपू उन सब आतंकवादियों का उसी किस्म का स्व-घोषित लीडर है जैसे अल-बगदादी या बिन लादेन | क्या मजाल है कोई भी ऐरा-गैरा घर की कॉल -बेल भी बजा दे | उन सबका इतने लंबे समय से साथ बना हुआ है कि मैं भी किसी गाँव के बुजुर्ग की तरह उनकी कई पीढ़ियों का गवाह हूँ | कौन कुत्ता किसका नाना है , किसका पोता है , धेवता है- सबका बहीखाता हरिद्वार के किसी पंडे की तरह से मैं बना सकता हूँ | सहूलियत के लिए उस मित्र-मंडली के हर सदस्य का मैंने नाम रख छोड़ा है  | उसी टीम की एक नई मेम्बर थी किशोरी जिसकी उम्र भी रही होगी यही कोई डेढ़ साल के आस-पास | काले-सफ़ेद रंग की , छोटे से कद-काठी की और स्वभाव से बहुत ही चंचल डॉगी | वह उन गिने- चुने वरीयता प्राप्त रेंप बिरादरी की सदस्यों में से एक थी जिन्हें गेट से अंदर आने का भी अधिकार प्राप्त था | जब से यह बात पता चली कि किशोरी गर्भावस्था में है , तब तो उसकी खातिर तवज्जो में और भी इजाफ़ा हो गया | उसके भोजन-पानी का भी ख़ास ही ध्यान रखा जाने लगा | रेंप बिरादरी के दूसरे सदस्यों को बहुत ही ईर्षा होती जब किशोरी कटोरा भर दूध चट कर जाती और बाहर गेट के पार बाकी सब ललचाई नज़रों से जीभ लपलपाते रह जाते | 
मेरे मकान के बगल में ही एक खाली प्लाट है, उसी में किशोरी ने अपना बसेरा कर लिया था | आखिर वह दिन भी आया जब किशोरी ने इकलोते नवजात पिल्ले को जन्म दिया | उस पिल्ले की शरीर पर तेंदुए जैसी चितकबरी पट्टियाँ थीं इसलिए उसका नामकरण भी उसी अनुसार कर दिया - तेंदुल | अब ज़्यादातर समय किशोरी अपने उस नन्हें तेंदुल की देख-रेख में ही व्यस्त रहती| अपने बच्चे की सुरक्षा के प्रति अत्यंत सचेत रहती | पहले की शांत स्वभाव किशोरी, अब आक्रामक हो चली थी | जरा सा भी संदेह होने पर वह रास्ता चलते लोगों को काट खाती | इसी वज़ह से कुछ लोगों के मन में किशोरी के खिलाफ जबर्दस्त गुस्सा भरा पड़ा था | हमारे प्रति उसका स्वभाव अभी भी वही प्रेम भरा था, हम उसके बच्चे को बिना किसी डर के प्यार से सहला भी देते थे और वह बहुत ही भरोसे की नज़रों से हमें टकटकी लगाए निहारती रहती | 
इन्हीं दिनों दिवाली का त्योहार भी आ गया| दिवाली की रात, पटाखों और आतिशबाज़ी के शोर से मेरे इस विशेष रेंप निवासी मित्र मंडली के सदस्यों के साथ, किशोरी भी बहुत परेशान थी | कई बार भाग-भाग कर घर के अंदर सीढ़ियों पर छुपने का प्रयत्न करते | यह सब देख कर बहुत दया भी आती पर मैं भी क्या कर सकता था | दिवाली से अगला दिन था गौवर्धन पूजा का | रोज़ की तरह किशोरी सुबह -सुबह आठ बजे मिलने आ गई | बदकिस्मती से उस समय घर पर दूध नहीं था सो उसके नाश्ते-पानी का प्रबंध नहीं हो सका | बेचारी मन-मार कर वापिस अपने तेंदुल के पास चली गई | अभी एक घंटा ही बीता होगा कि पड़ोस का एक बच्चा भागता हुआ आया और बोला “अंकल मेरे साथ आइये” | वह मुझे घर के बगल के उसी खाली प्लाट में ले गया| वहाँ पर लेटी हुई किशोरी की ओर इशारा करते हुए वह बोला “यह हिल-डुल नहीं रही हैं” | पहली नज़र में देखने में मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगा| किशोरी का प्यारा सा पिल्ला तेंदुल बड़ी व्याकुलता से अपनी माँ का दूध पीने का जतन कर रहा था | पास जा कर ध्यान से देखा तो महसूस हुआ किशोरी के शरीर से प्राण पखेरू उड़ चुके थे | उसकी खुली निस्तेज आँखें मानों मुझ से कह रहीं थी – “मेरे दोस्त तुम क्या समझते हो सुबह मैं दूध पीने आई थी | मैं तो लंबे सफर पर जाने से पहले तुम सबसे हमेशा के लिए विदा लेने आई थी |” तेंदुल तब भी अपनी माँ के पेट से चिपटा दूध पीने के प्रयास में व्यस्त था | मैं इससे अधिक झटका झेलने की हालत में नहीं था सो तुरंत लौट कर घर आ गया | 

 घर आकर मन और व्याकुल हो रहा था | दिल में उठ रही उथल-पुथल ने मुझे चैन से नहीं बैठने दिया और कुछ ही देर बाद मैं वापिस फिर उसी जगह पहुँच गया| अब का दृश्य और भी अधिक मार्मिक हो गया था | नन्हें तेंदुल- जिसकी अभी तक आंखे भी नहीं खुल पायी थीं, केवल स्पर्श के सहारे ही अपनी माँ को पहचान पाता था | वह निश्चेष्ट पड़ी अपनी माँ की कोई हरकत नहीं पाकर अब उसके गले और चेहरे से चिपट कर बुरी तरह से रो रहा था | शायद पहली बार उसे अपनी माँ का दुलार नहीं मिल पा रहा था जो उसके लिए बहुत ही अचंभे की बात थी | यह सब देख कर मेरा कलेजा मुँह को आ रहा था | समझ नहीं पा रहा था कि इस दारुण स्थिति मे क्या करूँ | कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा था | आखिरकार पता नहीं क्या सोच कर उस छोटे से पिल्ले तेंदुल को सावधानी किशोरी से अलग किया और अपनी गोद में उठा कर घर ले आया | आँगन में ही छोटी सी चादर बिछा कर तेंदुल को लिटा दिया | डाक्टर से फोन पर ही आवश्यक हिदायतें लीं | पास की दुकान से गाय का दूध ला कर सिरिन्ज से तेंदुल को पिलाया | भूखे से बेहाल तेंदुल पेट भर जाने के बाद फिर से गहरी नींद में सो गया | मेरा पालतू कुत्ता चंपू जो बड़ी देर से यह सब अचरज से देख रहा था, तेंदुल के पास आया,प्यार से उसे सूंघा और फिर खामोशी से उसके पास ही बैठ गया | ऐसा अमूमन होता नहीं है क्योंकि चंपू को हर उस चीज़ से एक तरह से नफरत है जो उसकी सल्तनत में किसी भी तरह की दखलंदाजी करती है | मैं भी कुछ देर तेंदुल के पास बैठ कर अपने कमरे में चला गया | कुछ देर बाद कुछ आहट होने पर मैं बाहर निकला – देखा अधखुले फाटक से एक और परिचित कुत्ता ( सही शब्दों में – डॉगी) अंदर आ रहा था | गौर से देखने पर पहचाना, वह तेंदुल की माँ की भी माँ थी – यानि नानी  | वह भी चंपू के ही अंदाज़ में तेंदुल के पास आई , सूँघा फिर शरीर को चाटने लगी | उसके शरीर की भाव-भंगिमा को देख और सोच कर कि आखिर है तो तेंदुल की नानी, अब तक मैं भी थोड़ा निश्चिंत हो चला था | पता नहीं अचानक क्या हुआ .... नानी ने तेंदुल को जबड़े में भर लिया और बाहर जाने लगी | मेरे मुँह से भय-मिश्रित चीख निकली और दौड़ कर नानी की गरदन से तेंदुल को छुड़ाना चाहा | एक झटके से तेंदुल नानी के मुँह की गिरफ्त से बाहर नीचे फर्श पर गिरा | लेकिन तब तक नानी अपने पैने दांत तेंदुल के शरीर में गड़ा चुकी थी | नीचे फर्श पर गिरे नन्हें तेंदुल के तड़पते शरीर से खून की महीन धार फव्वारे की तरह फूट पड़ी | ऊंची आवाज देकर अपने बेटे को पुकारा | खून में सने नन्हें तेंदुल को अपने सीने से चिपका कर, गाड़ी में तुरंत डाक्टर के पास भागे | बदकिस्मती शायद अब भी हम सब का पीछा कर रही थी | डाक्टर का क्लीनिक तब तक बंद हो चुका था | डाक्टर को फोन किया, उसने शाम को दिखाने के लिए कहा और तब तक के लिए बीटाडिन लगाने की सलाह | तड़पते हुए तेंदुल का दर्द मुझसे देखा नहीं जा रहा था | बार-बार अपनी छोटी सी जीभ मुँह से बाहर निकालता और फिर बेहोश हो जाता | हम भी वापिस घर की ओर लौट चले | काँपते हाथों से बीटाडिन रुई पर लगा कर उसके शरीर को देखा, चोट से निकलता खून अब रुक कर जम चुका था | तेंदुल भी अपने प्राण छोड़ चुका था |

किशोरी और तेंदुल की असमायिक मौत ने मुझे बुरी तरह से हिला दिया | इस दुखद कांड से मेरे दिमाग में कई अनसुलझे सवाल एक के बाद एक आकर परेशान कर रहें हैं | क्या यह सब नियति थी – मृत माँ किशोरी की आत्मा ने दूध पीते नन्हें तेंदुल को चार घंटे के भीतर ही अपनी दुनिया में बुला लिया ? क्या नानी को अपनी बेटी किशोरी के जाने का इतना दुख: था कि गुस्से में तेंदुल को ही जिम्मेदार ठहराते हुए चोट पहुंचाई ? क्या नानी अपने तेंदुल को किसी अन्य सुरक्षित स्थान पर लेजाने के प्रयास में गलती से दाँत चुभ गए ? 

किशोरी की अचानक हुई मौत भी अभी तक अनसुलझा रहस्य है | सुना है किसी ने उस मासूम को शायद ज़हर दे दिया था | अंत में माँ -बेटे की जोड़ी किशोरी और तेंदुल के लिए केवल इतना ही कहूँगा – अगले जन्म में उन्हें किसी धोखे का सामना नहीं करना पड़े | ॐ शांति

Tuesday 22 October 2019

राजबन का हनुमान : अनिल शर्मा

अपनी नौकरी के कार्यकाल के दौरान मैंने महसूस किया कि अन्य स्थानों की तुलना में फेक्ट्रियों के टाउनशिप की अलग ही दुनिया होती है | सब लोग मिल-जुल कर साथ रहते हैं | एक दूसरे के हर सुख- दुःख के साथी | सब त्यौहार मिल जुल कर एक साथ मनाते हैं | हालाकि मुझे रिटायर हुए अरसा बीत चुका है पर आज भी हिमाचल प्रदेश के राजबन से दुर्गापूजा और रामलीला का निमंत्रण हर वर्ष आता है | मौक़ा मिलने पर मैं भी शामिल हो जाता हूँ | इस रामलीला की विशेष बात यह है कि इसके सभी कलाकार फ़ैक्टरी के ही  कर्मचारी होते हैं जो दिन भर की ड्यूटी करने के बाद भी पूरी भक्ति, शक्ति और उत्साह के साथ इसमें भाग लेते हैं |अगर मैं ठीक से याद कर पा रहा हूँ तो यह परम्परा विगत चालीस से भी अधिक वर्षों से अनवरत चलती आ रही है | समय के साथ -साथ पुराने कर्मचारी रिटायर होते गए, नए-नए आते गए और इसके साथ ही रामलीला के कलाकारों की भी नई पीढ़ी अवतरित होती गयी | राम, लक्ष्मण , हनुमान , रावण जैसे सभी पात्रों का नया संस्करण | लेकिन इन सब परिवर्तनों के बावजूद भी रामलीला की मूल आस्था और भक्ति भावना वही बरकरार रही| 
राजबन  की रामलीला : नीचे बैठी तत्कालीन जी॰एम  सुश्री सरस्वती देवी 
इस मौके पर पर मुझे आज की रामलीला के आज के हनुमान और उसकी कहानी बरबस याद हो आयी | अनिल शर्मा नाम है उसका | यादों की डोरी पहुँचती है उसके दिवंगत पिता श्री रामानंद शर्मा तक जो फ़ौज से रिटायरमेंट लेने के बाद, किसी ज़माने में उसी राजबन फ़ैक्टरी में नौकरी करते थे | मुझे वह समय भी याद है जब मेरे मकान के लॉन में लगे पेड़ से अमरूद तोड़ने आये बच्चों की टोली में शामिल नन्हा अनिल भी शामिल रहा करता था | इस अनिल की ज़िंदगी भी बहुत ही उथल-पुथल भरी रही है | आइये आप को भी उसकी ज़िंदगी का छोटा सा फ़िल्मी ट्रेलर दिखा देता हूँ | 

बचपन में अनिल पढ़ाई में ठीक- ठाक ही रहा | स्कूल भी अच्छा था लेकिन नौवीं क्लास तक आते-आते जैसे शरारतों के झूले की पींग ऊँची उठती गई, पढ़ाई की बैटरी डाउन होती गई | अंगरेजी स्कूल से हिन्दी मीडियम के सरकारी विद्यालय में पधारना पड़ा पर कुछ समय बाद उसे लगा पढ़ाई बस की बात नहीं | पिता भी तब तक नौकरी से रिटायर हो चुके थे| उन्होंने उम्मीदें तो बहुत पाली हुई थी अनिल से, मगर मन मसोस कर रह जाते | आखिर कर भी क्या सकते थे | इसी बीच दुर्भाग्य ने उस हँसते -खेलते परिवार पर जैसे कोई बम छोड़ दिया | पिता को बीमारी ने जकड़ लिया और बीमारी भी कोई छोटी-मोटी नहीं – वह थी साक्षात मौत का दूसरा नाम – कैंसर | पूरा परिवार मानों एक तरह से हिल गया | इलाज के खर्चों से घर की आर्थिक व्यवस्था चरमराने लगी | दिन में तारे दिखना किसे कहते है ज़िंदगी में पहली बार अनिल ने यह भी जान लिया था |
अधूरी पढ़ाई के साथ नौकरी की तलाश में पता नहीं कहाँ -कहाँ धक्के खाने पड़े | दिल में पहली बार यह ख्याल भी आया कि काश अपनी पढ़ाई में ध्यान लगाया होता तो शायद आज यह वक्त नहीं देखना पड़ता | उधर पिता की तबीयत दिन पर दिन खराब होती जा रही थी | आखिरकार उसी सीमेंट फ़ैक्टरी में  जहाँ पर उसके फ़ौजी पिता अच्छी-ख़ासी नौकरी करते थे वहीं पर ठेके के मजदूरों में भर्ती होकर काम करना पड़ा | पिता की इच्छा थी जीते जी अपनी आँखों के सामने ही अनिल का घर बसते देखने की सो विवाह भी जल्द ही कर दिया | कुछ समय बाद ही दबे कदमों से आती मौत ने भी पिता को अपने बेरहम शिकंजे में ले ही लिया | इधर पिता की मौत का सदमा और उधर पिता की फौज से मिलने वाली पेंशन भी बंद | सिर पर भरे -पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी आ गई जिसमें थे माँ, बहन , भाई, पत्नी और बेटा | खुद की कमाई इतनी कम जैसे ऊंट के मुंह में जीरा | अनिल आज भी उस वक्त को याद करते हुए कहते हैं वह शायद मेरे ज़िंदगी के सबसे बुरे दिन थे | खाने तक के लाले पड़ गए थे | दस रुपये का मेगी का पेकट लाते थे – मेगी परिवार के अन्य सदस्यों को खिला कर उसके बचे हुए पानी में ही रोटी डूबा कर खा लेते | कई बार तो रोटी भी  खेत से तोड़कर लायी प्याज में नमक -मिर्च डाल कर खाने की नौबत रहती 
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हर बुरे वक्त का कभी तो अंत होता है | अनिल के बुरे वक्त ने भी विदाई लेनी शुरू कर दी – बेशक धीरे-धीरे ही सही | खेत की ज़मीन पर मोबाइल टावर लगा तो किराये की आमदनी से कुछ सहारा लगना शुरू हुआ | दिवंगत पिता की पेंशन का मामला सुलझा और माँ को पेंशन मिलनी शुरू हुई | किसी ने सच ही कहा है – अच्छे वक्त में भाग्य और बुद्धि भी साथ देती है | अनिल ने अपनी अधूरी पढ़ाई की तरफ भी ध्यान देना शुरू किया |पत्राचार के माध्यम से पहले मेट्रिक पास किया और उसके बाद बारहवीं | किस्मत का खेल देखिए – फ़ैक्टरी की सरकारी नौकरी के लिए आवेदन मांगे गए और फार्म भरने की अंतिम तिथि पर ही बारहवीं कक्षा का परीक्षा परिणाम घोषित हुआ | भागते-दौड़ते आवेदन पत्र भरा | प्रवेश परीक्षा और साक्षात्कार के कड़े मापदण्डों पर खरा उतरने पर आखिरकार सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया  में मिलर की नियमित पक्की नौकरी मिल पायी| सीमेंट उद्योग में मिलर का पद अत्यंत तकनीकी और महत्वपूर्ण होता है | बस वह दिन है और आज का दिन , अनिल ने कभी वापिस पीछे मुड़ कर नहीं देखा | जीवन में जो चाहा मिल गया – अच्छी नौकरी, मोटी तनख़्वाह, भली से पत्नी और दो भोले-भाले प्यारे से बच्चे |
अनिल शर्मा :: मिलर के रूप में 

आज का सुखी परिवार : पत्नी और बच्चों के साथ 
अनिल का मानना है की इस सारी सफलता में उसके परिवार का पूरा सहयोग है विशेषकर पत्नी का | पत्नी स्वयं स्नातक हैं जिसका अनिल की अधूरी पढ़ाई को पूरा करवाने में उल्लेखनीय योगदान है | इन सबसे ऊपर वह विशेष कारण जिसकी वजह से भाग्य भी मेहरबान रहा – वह है ईश्वर पर अटूट आस्था | अनिल हनुमान भक्त है और राजबन सीमेंट फेक्टरी  की रामलीला में विगत बारह वर्षों से हनुमान का पार्ट सफलता पूर्वक अदा कर रहा है | हनुमान की भूमिका निभाने के दौरान अनिल को अपने शरीर में अद्भुत शक्ति का संचार महसूस होता है | एक हाथ से ही रसोई गैस का भरा हुआ सिलेन्डर अपने कंधे पर रखने की ताकत आ जाती है जो सामान्य दिनों में संभव नहीं होती |  वह रामलीला का एक मँजा हुआ कलाकार है और आवश्यकता पड़ने पर जोकर से लेकर मंथरा और राजा जनक से लेकर रावण सेना के गण  तक का रोल बखूबी निभा लेता है | रामलीला के एक से बढ़ कर एक मज़ेदार किस्से-कहानियों का भंडार है अनिल के पास- पर उन सब के लिए एक अलग से ही ब्लाग कभी लिखना पड़ेगा |
अनिल - हनुमान रूप में 
सिगरेट शराब जैसे व्यसनों से दूर अनिल की  भविष्य के प्रति सुनहरी योजनाएँ हैं | सबसे पहले अपने आपको ग्रेजुएट होते हुए देखने का इरादा  | एक बड़ी सी गाड़ी खरीद कर परिवार को सैर -सपाटा करने का सपना | मुझे विश्वास है राम जी इस रामलीला के साक्षात हनुमान की मनोकामना अवश्य पूरा करेंगे |
यह थी रामलीला के हनुमान अनिल  के उथल - पुथल भरे जीवन  की एक छोटी सी बानगी जो हमें याद दिलाती है एक बहुत ही पुराने गीत की :

गर्दिश में हो तारे, ना घबराने प्यारे ,
गर तू हिम्मत ना हारे तो होंगे वारे-न्यारे |

भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...