Tuesday, 30 June 2020

गयी भैंस पानी में

बात ज्यादा दिन पुरानी नहीं है जब आपको एक किस्सा सुनाया था अपने एक मित्र – जगजीवन प्रसाद यादव उर्फ जे पी की गाँव से जुड़ी यादों का ।पुरानी यादें मीठी होती हैं , बचपन से जुड़ी हुई हों तब तो कहना ही क्या । बचपन, गाँव और गाँव की भैंसों से जुड़ा यह किस्सा भी बड़ा मजेदार है जिसे आज भी अपने जेपी जनाब बड़े चटखारे ले कर सुनाया करते हैं । गाँव की मिट्टी की सौंधी -सौंधी गंध से सराबोर उन यादों की खुशबू का आनंद शायद आज की नई पिज्जा – बर्गर की पीढ़ी के नसीब में नहीं । इसमें उनका भी दोष नहीं – बदलते वक्त के साथ इंसान तो क्या पूरी दुनिया ही बदलती चली जाती है । हाँ – तो मैं बात कर रहा था भैंस की ।अपने जेपी उर्फ बबुआ किसान परिवार से थे , बचपन पूरी तरह से गाँव में ही गुजरा जो कि उत्तर प्रदेश में फैजाबाद के निकट ही था । खेत, खलिहान और मवेशियों के बीच ही पले- बढ़े । बड़ा अचंभा होता है आज भी यह सोच कर कि एक नामी गिरामी पब्लिक सेक्टर की कॉर्पोरेट दुनिया का दिग्गज रह चुका यह शख्स गाँव की मिट्टी में पूरी तरह धूनी भी रमा चुका है ।


बचपन का रूप 

जे पी यादव ( साहबों की दुनिया में )
 मवेशियों को चरा कर लाने की भी इस छोटे से बबुआ की जिम्मेदारी होती थी जिसे यह बखूबी निभाते भी थे । उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ जब अपनी मवेशियों का रेवड़ लेकर अपने किशन -कन्हैया चल पड़े जंगल की ओर । गाँव की सरहद को छूती हुई सरयू नदी बहती थी । नदी के विशाल तटबंध के आसपास ही सब मवेशी चरते रहे थे । नदी में अक्सर पानी का बहाव और जल-स्तर कम ही रहता था तो उनकी टीम भी नदी के बीच में स्थित उथले टापुओं तक भी पहुँच जाया करती । बबुआ और उनकी मंडली पूरे टापू पर खूब धमा-चौकड़ी मचा रही थी और उधर मवेशी अपनी भोजन व्यवस्था और स्नान -ध्यान में व्यस्त थे ।
कुछ ऐसा ही नज़ारा  होता था 
अचानक बबुआ का ध्यान नदी की ओर गया तो देख कर होश उड़ गए । नदी में पानी का बहाव तेजी पकड़ रहा था । उस वक्त तक तैरना आता नहीं था और छोटे से बच्चे के लिए उस गहरे पानी को पार करना एक जबरदस्त जानलेवा चुनौती बन चुकी थी । करें तो करें क्या यही चिंता आफत बन कर दिमाग को खाए जा रही थी । मरता क्या ना करता – आखिर बबुआ के शैतानी दिमाग की बत्ती जल उठी । बड़े बूढ़ों से सुना करते थे कि मृत्यु के बाद इंसान को स्वर्ग जाने के लिए गाय की पूंछ पकड़ कर वैतरणी नदी पार करनी पड़ती है। अब सामने गाय तो थी नहीं तो सोचा जब सवाल जीने -मरने का हो चुका है तो भैंस पर ही भरोसा किया जाए । फटाफट आव देखा ना ताव , सामने नदी पार कर रही भैंस की पूंछ ही पकड़ ली ओर चल निकले आगे । अब हाल यह कि आगे -आगे भैंस और पीछे -पीछे भैया । कुछ देर और दूर तक तो सब ठीक-ठाक रहा पर जब पानी की गहराई बढ़ चली तो भैंस रानी के नखरे भी बढ़ गए । शायद इंसानों की सोहबत में रहते हुए उसमे भी वक्त पर धोखा देने की कला कुछ हद तक आ गई थी । अब तक गुलबदन श्यामा सुंदरी पानी में जहाज़ की तरह तैरते हुए नदी पार कर रही थी और साथ ही उसकी पूंछ के सहारे लटके हुए छोटा भीम । उस भैंस ने बीच गहरी नदी में पानी के अंदर डुबकी लगा दी । अब वह जहाज़ रूपी भैंस पूरी तरह से पनडुब्बी बन चुकी थी और पूंछ- पकड़ छोटा भीम बन गया मुसीबत का मारा गोताखोर । अचानक आयी इस मुसीबत के लिए जेपी बबुआ कतई तैयार नहीं थे । गहरे पानी के अंदर सांस फूल रहा था, शरीर छटपटा रहा था लग रहा था शायद राम जी की तरह इसी सरयू में जल समाधि हो जाएगी । लग रहा था कि आज तो सही सलामत अपने घर पहुँचना भी नसीब में नहीं । ज़िंदगी और मौत के बीच सिर्फ भैंस , भैंस की पूंछ और भगवान का आसरा था । जब जान पर बन आती है तो इंसान ऐसे -ऐसे हैरतअंगेज़ कारनामे कर जाता है जिन्हें बाद में सोच कर उसे खुद अपने पर भी यकीन नहीं होता । यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ – बबुआ ने पानी के अंदर ही भैंस की पूँछ पर अपनी जोरदार पकड़ कायम रखते हुए मरोड़ना शुरू कर दिया। पनडुब्बी भैंस इस अचानक तारपीडो हमले के लिए तैयार नहीं थी । वह एक झटके के साथ पानी के ऊपर आ गई और उसके साथ ही अपना बबुआ । लेकिन इस बार यह बालक ज़रा ज्यादा ही फुर्तीला और चतुर निकला । अब वह दोबारा और जोखिम नहीं उठाना चाहता था । अपनी पूरी ताकत और ऐड़ी चोटी का जोर लगा कर वह भैंस के सींग पकड़ कर पीठ पर मजबूती से सवार हो चुका था । जैसे -तैसे करके भैंस और उसका बहादुर सवार नदी पार कर किनारे आ लगे । उसके बाद दोनों ही खुश – बबुआ की जान बची और गुलबदन, श्यामा सुंदरी भैंस का पिंड छूटा पूँछ मरोड़ बबुआ से । अब आप ही बताइए - क्या इस खालिस देसी किस्से का  इससे अधिक सुखदायक अंत और भी हो सकता है ?

Tuesday, 9 June 2020

आम का बाग - गाँव की याद और जगजीवन प्रसाद यादव

अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है गर्मी अपने पूरे जोर पकड़ चुकी थी । ठंडे पानी के लिए फ्रिज का सहारा लेना शुरू किया । लेकिन बात कुछ बनी नहीं – गला पकड़ कर बैठ गया । एक दिन घर के बरामदे में बैठा हुआ था । सामने सड़क से एक कुम्हार अपने ठेले पर घड़े बेचता जा रहा था । खरीद लिया । अब जो उस घड़े का ठंडा-ठंडा , सोंधी सी महक लिए पानी पिया – लगा जैसे अपने बचपन के दिनों में वापिस चला गया । वे सब यादें जो बचपन और खास तौर पर मिट्टी की महक से जुड़ी होती हैं, उनकी बात ही कुछ और ही होती है । मेरे परिचित दोस्तों में भी उन मित्रों का अलग ही स्थान है जो दिखावट और आडंबर से कोसों दूर, सादगी की चादर लपेटे अपनी ही दुनिया में व्यस्त और मस्त हैं । अक्सर समय मिलता है तो ऐसे ही अपने पुराने साथियों और वरिष्ठ सहयोगियों से फोन पर बातचीत करता रहता हूँ । कुछ उनकी सुनता हूँ और कुछ अपने दिल का हाल सुनाता हूँ – बस इसी हाल और चाल के लेन -देन में दिन भी अच्छा-खासा गुजर जाता है, पुरानी खुशनुमा यादें ताज़ा हो जाती हैं और मैं भी तरोताजा हो जाता हूँ । मेरी नजर में दुनिया में खुशहाल और मस्त ज़िंदगी गुजारने का यह एक आजमाया हुआ नुस्खा है । कई बार बातचीत के दौरान ऐसे -ऐसे मनोरंजक किस्सों का आदान-प्रदान होता है जिनसे कभी आपको सीख मिलती है तो कभी आप अंदर तक हँसी  से सराबोर हो जाते हैं । आज एक ऐसे ही दिलचस्प व्यक्तित्व से आपको मिलवाता हूँ – नाम है श्री जगजीवन प्रसाद  यादव जिन्हे सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (सीसीआई) में फाइनेंस डिपार्टमेंट के जाने -माने संकट -मोचक अधिकारी के रूप में आज भी याद किया जाता है । बड़ी से बड़ी कठिनाई के समय जब कंपनी के चेयरमेन भी परेशान हो जाते थे तब उन्हे भी बस एक ही दर्द निवारक दवा याद आती – जे. पी. यादव जिन्हें हम सब यादव जी के नाम से पुकारा करते हैं । सीसीआई में लंबी और शानदार नौकरी से रिटायरमेंट के बाद आजकल यादव जी नोएडा में परिवार के साथ स्वस्थ और मस्त जीवन बिता रहे हैं । 
श्री जगजीवन प्रसाद यादव 
आप मुझसे पूछ सकते हैं कि इन यादव साहब में ऐसी क्या खास बात है जिस वजह से उन्हें आज की कहानी का नायक चुना गया । दरअसल यादव जी की जड़े भी बहुत गहराइयों से गांवों से जुड़ी हैं जिसे वह पूरे गर्व से और बिना किसी झिझक के स्वीकार करते हैं । उत्तर प्रदेश में फैजाबाद के पास के ही एक गाँव के किसान परिवार से संबंध रखते हैं । बचपन का माहौल कुल मिलाकर ऐसा था कि बड़े-बूढ़े कहते कि अपना पूरा ध्यान शरीर को बलशाली बनाने में रखो । उसके बाद अगर हिम्मत और ताकत बचती है तो पढ़ाई के बारे में सोच सकते हो । नतीजा यही रहा कि हमारे बबुआ लग गए दंड पेलने , कुश्ती और अखाड़े के शौक में । इसके अलावा लट्ठ-बाजी का भी उन्होनें बाकायदा गाँव में ही गुरु – शिष्य परंपरा से प्रशिक्षण लिया । आज के दिन में भी अगर मैं गलत नहीं हूँ तो उनमें इतनी क्षमता है कि अकेले ही तीन-चार हमालवरों पर भारी पड़ सकते हैं । उनके सिवाय मुझे आज तक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसकी दफ्तर में कलम पर जितनी महारत हो उतनी ही पकड़ लट्ठ पर भी हो । है ना मजेदार बात । इस सबके पीछे वजह केवल यही कि हमारे बबुआ पढ़ाई में भी बहुत ही तेज रहे लेकिन उसके लिए मेहनत भी बहुत की । गाँव से स्कूल आने - जाने के लिए रोज़ चौदह किलोमीटर का पैदल सफर करना पड़ता । 

कभी मूड में होते हैं तो अपने बचपन के गाँव के किस्सों और शरारतों को बड़े ही मजेदार ढंग से चटखारे ले-ले कर सुनाते हैं । एक बार रात को अपने दोस्त के साथ गाँव में आम के बाग में चुपचाप पहुँच गए चोरी -चोरी आम तोड़ने । अब भला आम की चोरी भी कोई चोरी होती है – लेकिन उसके लिए भी हिम्मत और कलेजा चाहिए । वजह - अगर चोरी पकड़ी गई तो माली भी छिताई करता और घर पर होती डबल कुटाई । उस वक्त कोई उस दलील को सुनने के लिए तैयार नहीं होता कि एक ही अपराध के लिए दो बार सज़ा नहीं दी जा सकती । अब ज़रा कल्पना कीजिए – घनघोर अंधेरी रात, बाग में दो शरारती बच्चे , सूखे पत्तों पर नंगे पाँव चलने से होती सन्नाटे को चीरती खड़खड़ाहट और इन सबसे ऊपर डर के मारे धड़कते दिल की धुकधुकी । माना उन दिनों अपने जे पी बाबू बच्चे थे , शक्ल से भोले और अकल के कच्चे थे पर इतना तो तब भी जानते थे कि डर के आगे जीत है और जीत के आगे मीठे मीठे आम हैं । उन मीठे आमों के मीठे सपनों में डूबे हुए होशियारी से छोटे-छोटे कदमों से बाग की जमीन नाप रहे थे । पेड़ पर चढ़ने की बजाय जमीन पर टपक कर गिरे आमों को उठाना इनके लिए हर तरह से सुरक्षित सौदा था । अचानक पैर में बबुआ को तीखा दर्द महसूस हुआ । लगा किसी ने काट खाया है । थोड़ा ध्यान से देखा तो होश उड़ गए - पता लगा कि खून निकल रहा है और पास से ही सरसराता हुआ सांप निकल कर जा रहा है । बस अब तो ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे – डर के आगे ना तो उन्हें जीत नजर आ रही थी और ना ही मीठे -मीठे आम । उस वक्त सिर्फ एक ही चीज़ नजर आ रही थी – जीती-जागती मौत । अपने दोस्त को बताया और दोनों ने ही घर की तरफ दौड़ लगा दी । अभी कुछ दूर ही पहुंचे होंगे कि चक्कर खा कर गिर पड़े । पैर धीरे-धीरे सुन्न होने लगा था । बालक बुद्धि थी पर फिर भी दूसरों के मुकाबले तेज़ थी । तुरंत ही अपनी कमीज उतार कर फाड़ कर पट्टियाँ बना डालीं और पाँव पर जगह जगह कस कर बांध लिया । चलना तो बस की बात नहीं थी सो दोस्त ने दोस्ती के फर्ज को निभाया और कंधे पर विक्रम-बेताल की तरह लाद कर गाँव के घर तक पहुँचा दिया । इस हालत में देख कर घर के सभी बुजुर्गों के होश उड़ गए । सारी हालत जानकर – पिटाई का कार्यक्रम तो हो गया स्थगित और इलाज के इंतजाम में सभी व्यस्त हो गए । झाड़ -फूक करने वाले ओझा को भी बुलाया गया । ओझा अपने ढंग से इलाज करना चाहता था – और जे पी बबुआ था कि अपने पाँव पर बंधी पट्टियों को खोलने को तैयार नहीं । बच्चे की जिद के आगे ओझा भी हार मान कर कान दबा कर चुपचाप निकल लिया । पूरी रात अंगीठी पर पाँव रख कर सिकाई करी गई और तब कहीं जा कर आराम मिला और जान बची । 
आम को सभी फलों का राजा कहते हैं । अगर मैं गलत नहीं हूँ तो आज भी यादव जी कभी रसीले आम खाने बैठते होंगें तब उन्हें यह खालिस गाँव का किस्सा जरूर याद आ जाता होगा ।

भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...