Tuesday, 28 January 2020

बदलती दुनिया

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अगर आप संगीत के शौकीन हैं तो वह फिल्मी गाना तो जरूर सुना होगा – जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह – शाम । अब अगर आप ज़िंदगी की डगर पर चलते जा रहे हैं तो ज़रूरी नहीं कि सड़क सीधी-सपाट ही मिले । राह कांटो भरी और टेढ़ी-मेढ़ी भी हो सकती है । अब अगर आप को अपनी मंज़िल तक पहुंचना है तो सड़क तो आपके हिसाब से ढलेगी नहीं – आपको खुद में ही बदलाव करने होंगे सड़क के आड़े-तिरछे मोड़ों के अनुसार । परिस्थितियों के अनुसार अपने-आप को ढाल लेने की काबलियत ही शायद जीवन को सफल और सरल बनाने का मार्ग है । अब मैं यह नहीं कह रहा कि बदलाव के नाम पर आप हर उस उल्टी-सीधी और गलत बात से भी समझौता कर लें जो सामने आ रही है । अगर ऐसा हो जाता है तब तो इंसान जी हुज़ूरी करने वाला, बिना रीढ़ की हड्डी का अवसरवादी, मौका-परस्त रंग बदलने वाला गिरगिट बन जाएगा । सही -गलत का फैसला तो आपको अपने विवेक के अनुसार ही लेना होगा । जिसे दिल गवाही दे वही सही है – बस अपने दिल की सुनिए औए इस कदर सुनिए कि कहीं किसी भी कोने से हल्की सी भी कोई विरोध की आवाज तो नहीं आ रही । जो भला लगे उसे बेझिझक कर डालिए और उसके लिए अपने आपमें कोई बदलाव भी लाना पड़े तो सोचिए मत । 
श्री पुरुषोत्तम कुमार 

अब इन बदलावों के बारे में बात करते हुए मुझे अपने दो दोस्तों की याद आरही है। दोनों ही मुझसे हर मामले में अत्यंत वरिष्ठ । उनके जीवन में परिवर्तन की श्रेणी भी बिलकुल अलग-अलग तरह की । पहले मित्र हैं पुरुषोत्तम कुमार जी – उन्हें किसी ज़माने में जीव-जंतुओं से कोई विशेष लगाव नहीं था । अपने इस स्वभाव और जीवन-शैली की वजह से उन्हें कोई समस्या भी नहीं थी । सब कुछ सामान्य रूप से चल रहा था । आज के ज़माने में अब ज़रूरी नहीं कि जिस रूप और आदतों के साथ हमने ज़िंदगी गुज़ार दी, हमारे बच्चे भी उसी रेल की पटरी पर चलें । कुमार साहब के बच्चे उस दुनिया से संबंध रखते हैं जिन्हें हम पशु-प्रेमी कहते हैं । ऐसे लोग अक्सर घरों में पालतू जानवर बहुत ही प्यार से रखते हैं । मेरे मित्र को शुरू में बच्चों की उस शौक से थोड़ी-बहुत हिचकिचाहट हुई पर बाद में उन्हें खुद लगा कि जीव-जगत की दुनिया से जुड़ने में कोई बुराई नहीं । यह तो एक प्रकार से आपके लिए अलग ही किस्म की खुशियों के दरवाजे खोल देता है। यह था कुमार साहब का आत्म-मंथन और सोच जिसे उन्होने समझदारी से खुशी-खुशी अपने जीवन में स्वीकार किया और लागू भी किया ।


 बच्चे भी खुश – कुमार साहब भी खुश और जीवन में एक अच्छे बदलाव के लिए उन्हें कोई विशेष प्रयत्न भी नहीं करना पड़ा । बस अपनी सोच बदली जोकि पूरी तरह से उन्हीं के हाथ में थी । 


अब बात उस दूसरी तरह के बदलाव की जो समस्या बन चुका है गुप्ता जी के लिए। देश के दवा-उद्योग से जुड़ी नामी-गिरामी कंपनी में वह अच्छी-ख़ासे ऊंचे ओहदे की नौकरी के करने के बाद आजकल रिटायर्ड जीवन बिता रहे हैं । बढ़ती उम्र के साथ जुड़ी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ धीरे-धीरे उनकी ज़िंदगी का हिस्सा बनती जा रहीं हैं । आज के दौर की बदलती टेक्नोलोजी को गुप्ता जी भी अपनाना चाहते हैं । वह ज्यादा की चाहत नहीं रखते – उन्हें बस आज के स्मार्ट फोन को इस्तेमाल करना सिखा दे – यही छोटा सा ख्वाब है । पर यह नेक काम करे तो करे कौन ? बच्चे अपने आप में व्यस्त हैं । सिखाने के लिए जो धैर्य और नम्रता चाहिए वह भी रेगिस्तान में पानी की तरह से गायब होती जा रही है । वह भूल जाते हैं कि जिन माँ-बाप और बुजुर्गों को नए ज़माने के इन गेजेट्स / उपकरण सिखाने के लिए उनके पास वक्त और इच्छा-शक्ति का अभाव है, उन्हीं माँ-बाप ने किसी समय उन्हें क-ख-ग और गिनती सिखाने में कितना धीरज रखा था । उन आज के नई पीढ़ी के युवकों को किसी ने  याद दिलाने की ज़हमत नहीं उठाई कि उनके बचपन में भी दिन में 24 घंटे, हफ्ते में सात दिन, माह में सात दिन और साल 365 दिनों का ही होता था । वक्त की कमी उनके माँ -बाप को भी रहती थी पर इस कमी को उन्होने कभी बच्चों के विकास के रास्ते में हावी कभी नहीं होने दिया ।  

यह किसी एक गुप्ता जी की कहानी नहीं है – आपको भी अपने इर्द -गिर्द जान-पहचान के बहुत से बुजुर्ग गुप्ता जी , शर्मा जी या सिंह साहब मिल जाएँगे जो कुछ नया सीखना चाहते हैं पर किसी के पास सिखाना तो दूर , उनके पास बैठने का समय भी नहीं । स्मार्टफोन और इंटरनेट की टेक्नोलोजी से जुड़ कर वह अकेलेपन की समस्या से काफी हद तक छुटकारा पा सकते हैं । अपने समय का बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं । बिजली, गैस , फोन के बिलों को जमा करने की लाइनों में खड़े होने की दिक्कत से छुटकारा पा सकते हैं । सोशल मीडिया के माध्यम से अपने संगी-साथियों और दूर- दराज़ बसे बाल-बच्चों के निरंतर संपर्क में रह सकते हैं ।अपनी जानकारी में आए ऐसे किसी भी गुप्ता जी की तरह के बुजुर्ग के जीवन को आसान बनाने के लिए अगर हम अपना थोड़ा सा समय और धैर्य दे सकें तो इससे नेक काम और कुछ नहीं हो सकता । और हाँ - चलते-चलते एक सलाह अपने बुजुर्ग दोस्त बिरादरी से भी - इन्टरनेट और स्मार्टफोन की नई टेक्नोलोजी सीखें जरूर - पर अपने किसी भरोसे के संगी-साथी या व्यक्ति से ही । अनजान गुरु आपके लिए जी का जंजाल भी बन सकता है क्योंकि इस दुनिया में एक से ऊपर एक धोखेबाज भी बैठे हैं जो आपकी बैंक और निजी जानकारी का गलत इस्तेमाल भी कर सकते हैं 

मैं किसी को कुछ सीख देने की कोशिश कतई नहीं कर रहा हूँ – केवल अपने विचार रख रहा हूँ । हो सकता है शायद आप में कुछ को भी पसंद आ गए और उनके हाथों किसी एक ‘गुप्ता जी’ का भी भला हो गया तो मेरा लिखना सफल है ।

Sunday, 19 January 2020

हाथ की लकीरें : रमेश कुमार जोशी

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सुनते आए हैं - मुंबई की बरसात, अफ़सर की बात और घोड़े की लात का कुछ भरोसा नहीं होता । अभी कुछ है और अगले ही पल क्या रंग दिखा दें , आपके फरिश्ते भी नहीं जान पाएंगे । मुंबई मैं कभी गया नहीं और घोड़े की पिछाड़ी से भी दूर ही रहा सो मुंबई की बरसात और घोड़े की लात से मेरा भी पाला नहीं पड़ा । हाँ अफसरों की बातों के लपेटे में कई बार बुरी तरह से चकर -घिन्नी बना । कुछ इसी तरह इंसान के भाग्य का भी कुछ भरोसा नहीं होता । हाथों की लकीर की कुछ तासीर ही ऐसी होती है, चाहे तो बना देती हैं तकदीर या फिर लंगोटधारी फकीर । यह बात मुझे तब याद आई जब कभी श्री रमेश कुमार जोशी का जिक्र चला । भाग्य-चक्र, ज्योतिष शास्त्र और जोशी जी में उतना ही गहरा संबंध है जितना केजरीवाल जी और उनके गले में पड़े मफ़लर में है । आप पूछंगे - कैसे . . . . ? वह भी बताऊंगा , बस ज़रा सब्र कीजिए ।


गुज़रा हुआ ज़माना 
आजकल जोशी जी हिमाचल प्रदेश में शिमला के पास पहाड़ों और जंगलों के बीच मशोबरा में एक सुंदर सा होटल चला रहे हैं । आप कहेंगे इसमें क्या खास बात हो गई । अब मैं फिर से कहता हूँ – बहुत ही बेसब्र किस्म के इंसान हैं आप ।  मुझे अपनी बात पूरी तो करने दीजिए पहले । फिलहाल तो आपको टाइम मशीन में बैठा कर आज से 72 साल पहले की उस  दुनिया में पहुँचा देता हूँ हिमाचल प्रदेश के एक दूर-दराज़ के उस छोटे से गाँव में जहाँ बालक रमेश पैदा हुआ, बचपन बीता । आज़ादी से पहले  उनके पुरखे वहाँ की रियासत कियार कोटी के राजगुरु  थे । परिवार धन-वैभव से हर प्रकार से सम्पन्न था ।लेकिन  वक्त का घोड़ा किस समय दुलत्ती मार दे कुछ कहा नहीं जा सकता ।यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ ।  देश की आज़ादी के बाद राजे-रजवाड़े गए, उनका राज गया - ताज गया और साथ ही उन पर आश्रित राजघराने के दरबारी – कर्मचारी सभी एक तरह से आसमान से ज़मीन पर आ गए । कुछ समय बाद तो  बालक रमेश के घर में तो जैसे मनहूसियत ने और भी जबदस्त डेरा डाल दिया । अचानक एक के बाद एक कई मौते भी होने लगीं और घबरा कर परिवार हिमाचल प्रदेश छोड़ कर सहारनपुर मे आ कर बस गया । खुद जोशी जी के शब्दों में – कभी वह भी वक्त था जब हमारे घर में दो सौ गाय पलती थी, पर ऐसे दिन भी देखने पड़े जब  हमें दो -दो दिन तक खाना भी नसीब में नहीं था ।

युवावस्था में रमेश जोशी 
पढ़ाई – लिखाई में जोशी जी बचपन से ही तेज़ थे । इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया और नौकरी की तलाश में दिल्ली की ओर दौड़ लगाई ।बालीवुड तो क्या हालीवुड के भी अभिनेता शरमा जाएँ ऐसा अच्छा-खासा व्यक्तित्व था और तकनीकी योग्यता तो थी ही । दिल्ली के ही एक जाने-माने कालेज से शुरुआत की । काम था बतौर सुपरवाइजर रख-रखाव की सारी व्यवस्था देखना । बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़ गए – मेहनती तो थे ही , प्रमोशन्स की सीढ़ियों पर भी ऊपर चढ़ते जा रहे थे - असिस्टेंट रजिस्ट्रार के पद तक की ज़िम्मेदारी संभाली ।

ज्योतिष गुरु  - जोशी जी 
अब आता है कहानी में पहला ट्विस्ट यानी झटकेदार मोड़ । पुरखों से विरासत में मिले ज्योतिष ज्ञान के गुण ने ज़ोर मारा । शुरुआत शौकिया तौर पर हुई पर साथ ही साथ ज्योतिष शास्त्र का धीर -गंभीर अध्ययन भी चलता रहा । जोशी जी की शिक्षा की इमारत,  विज्ञान और इंजीनियरिंग की नींव पर टिकी थी अत: हर चीज़ को तर्क और विवेक की कसौटी पर परखने के बाद विश्वास करना  उनका स्वभाव बन चुका था । उनके लिए ज्योतिष महज़ एक तीर-तुक्के का अधकचरा तमाशा नहीं वरन गृह -दशाओं की जटिल गणनाओं पर आधारित भविष्यवाणियों  का समग्र विज्ञान है । सब कुछ निर्भर करता है आपकी इस विषय की विधिवत शिक्षा पर – ठीक वैसे ही जैसे डाक्टरी की पढ़ाई ही अंतर करती है एक झोला-छाप नकली डाक्टर और एम.बी.बी.एस प्रशिक्षित डाक्टर के बीच ।  जोशी जी ने भी ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड पंडितों के शिष्य रहे और अपने ज्योतिष ज्ञान को आसमानी ऊंचाई तक पहुंचाया ।  उनकी बताई अनेक भविष्यवाणियाँ आश्चर्यजनक रूप से सटीक साबित हुईं ।  इस सब का नतीजा यह  रहा कि कई राष्ट्रीय स्तर के समाचारपत्रों के लिए लेख  और टी. वी. चैनल्स पर कार्यक्रम  देने के लिए नियमित रूप से बुलावे आने लगे ।  प्रसिद्धि बढ़ने लगी – देश के कई जाने -माने उद्योगपति और फिल्म अभिनेता उनसे सलाह लेते । इन सबके बीच वर्ष 2007 में जोशी जी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति (V.R.S) ले ली और अपने आप को पूरी तरह से ज्योतिष विद्या के गहन  अध्ययन और इसके माध्यम से समाज की सेवा को समर्पित कर दिया । नाम – पैसा – शौहरत किसी चीज़ की कोई  कमी नहीं थी । सब कुछ जोशी जी के ज्ञान, भाग्य और ईश्वर की कृपा से  अच्छा चल रहा था – बल्कि दौड़ रहा था ।

पर कहने वाले ठीक ही कहते हैं – रमता जोगी, बहता पानी, इनकी माया किसने जानी । अपनी मर्जी के मालिक होते हैं ये । ठीक ऐसा ही कुछ हुआ जोशी जी के जीवन में – और अब आता है इस कहानी में दूसरा झटकेदार मोड़ । जोशी जी अब रुख करते हैं उन्हीं पहाड़ों और उस गाँव की ओर जिसे किसी ज़माने  में मजबूरीवश छोड़ कर आना पड़ा था । पर इस बार मन में एक विचार था, संकल्प था , उद्देश्य था – अपने पुरखों के गाँव के लिए ऐसा कुछ करने का जो उस क्षेत्र के विकास और स्थानीय निवासियों को रोजगार उपलब्द्ध कराने में मददगार  साबित हो । अपनी अब तक की जमा-पूंजी से उन्होने सुंदर सा होटल बनाया और उसी की देखरेख में व्यस्त हैं । जय जवान -जय किसान की तर्ज़ पर वह महसूस करते हैं कि आज के नए ज़माने की माँग है – जय करदाता – जय रोजगार दाता ।
खुशहाल जोशी परिवार 
श्री रमेश कुमार जोशी का हँसता-खेलता परिवार है- पत्नी और दो बेटियाँ- प्राची और मनु ।  सभी गुणवान, शिक्षित और आत्मनिर्भर । जोशी जी विशेष रूप से ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि उनकी अब तक की उपलबद्धियों में पत्नी श्रीमती वीणा जोशी का बहुत बड़ा योगदान है । श्रीमती जोशी एक मल्टी-नेशनल कंपनी में प्रतिष्ठित पद पर कार्यरत हैं ।              

जोशी जी से संबन्धित अनेक रोचक किस्से  उनकी बिटिया प्राची से सुनने को मिले ।उनके ज्योतिष ज्ञान की परीक्षा लेने के लिए किसी ने झूठ बोल कर  मृत व्यक्ति की जन्मकुंडली सामने रख दी जो पहले ही राम को प्यारा हो चुका था ।  फिर तो पूछिए मत, जोशी जी तो कुंडली सरसरी रूप से तुरंत देखते ही भाँप गए .... उसके बाद तो पूछिए मत क्रोध में जैसे उनमें साक्षात शिव का रूप आ गया और जो तांडव शुरू हुआ तो उस छलिया बाबू ने वहाँ से भागने में ही अपनी भलाई समझी । एक और मज़ेदार बात – जोशी जी संगीत के बहुत शौकीन हैं । गाना बहुत अच्छा गाते हैं । एक बार किसी चौकस पड़ोसन ने श्रीमती जोशी से चुगली कर दी कि आपके आफिस जाने के बाद घर पर कोई महिला घर आकर  आपके पति के सुर में सुर मिला कर गाने गाती है । श्रीमती जी ने खबरी जासूस की विश्वसनीय चुगली के आधार पर एक दिन घर पर अचानक छापा मार दिया । जो देखा अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ – हाय दैया ! बड़े छुपे रुस्तम निकले हमारे सैया । इतना बड़ा राज़ पति ने अब तक छुपा कर रखा था । दरअसल जोशी जी अपने गले से पुरुष और महिला दोनों की ही आवाज़ खुद ही बखूबी निकाल कर आँखें बंद कर तल्लीनता से गा रहे थे ।यह तो वही बात हुई – खोदा पहाड़ निकला, निकला चूहा और वह भी मारा हुआ । इधर घर के अंदर श्रीमती जोशी की हँसी नहीं रुक पा रही थी और बाहर उनकी चुगलखोर जासूस सहेली कान लगा कर, दम साधे इंतज़ार में खड़ी थी कि जोशी जी के घर से अभी तक किसी बम धमाके की आवाज़ क्यों नहीं आई । 
यह कहानी थी उस इंसान की और उसकी घुमावदार झटके लेती तकदीर की जो एक इंजीनियर को कभी विश्वविद्यालय का  व्यस्थापक बना देती है, तो कभी ज्योतिष शास्त्र के समुद्र में गहरे गोते लगवाती है और अंत में पहुँचा देती है हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों में बसी पुरखों की ज़मीन पर  – जहाँ उन के मन में संतोष है- अपने होटल के माध्यम से प्रदेश के पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने का, स्थानीय निवासियों को रोजगार देने का और खुद भी प्रक़ृति की सुंदरता को निहारने का।    


विंडसर पेलेस : मशोबरा -शिमला 

Tuesday, 14 January 2020

अंतिम नसीहत : भोली की


मैं हूँ भोलू बचपन में 


कार वाले अंकल ने मुझे चोट लगाई 



मैं ठीक भी हो गया 
इस बार मुझे पत्थर से मारा - अंतिम बार 
अपने पिछले लेख भोली की भोली सीख में एक प्यारी सी भोली के ज़िंदगी की दुख:भरी दास्तान की हल्की सी झलकी दिखाई थी । संक्षेप में बस यह समझ लीजिए कि उस प्यारी सी डॉगी को तीस दिसंबर को किसी ने इतनी बुरी तरह से पाँव को चोटिल कर दिया उसका चलना फिरना मुश्किल हो गया और उसके पेट में पल रहे बच्चे भी मर गए । उसके जल्दी ठीक होने की आप सबने भी अपनी तरफ से दुआ की । इस दौरान जब भी उसके इलाज़ के लिए एंबुलेंस गाड़ी में डाक्टर आता , भोली अगर कहीं बाहर सड़क पर भी होती तो अपने -आप मेरे घर में आकर अपनी पट्टियाँ बँधवा लेती , इंजेक्शन भी बिना किसी शोर-शराबे के, आराम से लगवा लेती । उसके इस व्यवहार से सीख मिली थी : भले-बुरे के बीच फर्क करना सीखो । जो आपका शुभचिंतक है हमेशा उसके साथ खड़े रहो – बेशक दुनिया उसके खिलाफ़ हो ।

आज 14 जनवरी 2020 को तमाम कोशिशों के बावजूद भोली के प्राण बचाए नहीं जा सके । आज उस एंबुलेंस वाले डाक्टर भैया के पहुँचने से पहले ही भोली दुनिया छोड़ चुकी थी । 

बीमारी के दिनों में भोली के लिए घर के बरामदे में ही एक सुरक्षित स्थान पर बिस्तर लगवा दिया था जहां वह आराम करती थी । सुबह से ही भोली काफी कष्ट में थी । कुछ भी खा-पी भी नहीं रही थी । दोपहर तक अपने नियत स्थान पर बिस्तर पर ही थी । मैं डाक्टर के आने की प्रतीक्षा कर रहा था । बाहर निकल कर देखा तो भोली अपने बिस्तर पर नहीं थी । गेट के बाहर एक और टाट बिस्तर भी रखवाया हुआ था । इस पर रात के समय इस कड़क सर्दी के मौसम में दूसरे कुत्ते अपना आसरा कर लेते हैं । देख कर मैं हक्का-बक्का रह गया – उसी बाहर के बिस्तर पर भोली सो रही थी – हमेशा की गहरी नींद में । उसकी अधखुली आँखें इस बार फिर मुझे कह रहीं थी – देखा दोस्त – चलते -चलते भी मैंने तुम्हें कोई तकलीफ नहीं दी । मैंने तुम्हारे घर में अपने प्राण नहीं त्यागे । अपने अंतिम समय में, उखड़ती हुई साँसों के बावजूद खुद अपने पाँवों से चलकर घर से बाहर आई थी । अब आगे का सफर तो मुझे खुद ही तय करना है । 

यह वही भोली थी जिसके पाँव को बचपन में भी कोई कार वाला बुरी तरह से कुचल कर चला गया था । तब भी अपने इन्ही हाथो से प्लास्टर चढ़वा कर लाया था । जब वह ठीक हो गई तो उसे उछलते -कूदते देखकर खुशी से मैं फूला नहीं समाता था । पर लगता है तकलीफ़ों और भोली का चोली-दामन का साथ रहा । खैर अब भोली इन सब से मुक्त हो चुकी है । बहुत दूर चली गई है ...... शायद नए जन्म में किसी और रूप में उसे खुशहाल ज़िंदगी मिले – यही मेरी प्रार्थना है । 

रही बात भोली की अंतिम नसीहत की जो भोली जाते -जाते भी दे गई : अपने शुभचिंतकों को कभी तकलीफ मत दो – अंतिम समय में भी नहीं ।

Sunday, 12 January 2020

भोली की भोली सीख

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दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं । पहली किस्म उनकी जिन्हें यह गलत-फ़हमी होती है कि बस दुनिया में जितना भी ज्ञान का कोटा है, वह सारा उन्हीं के हिस्से में ही आया है । उनकी ज़िंदगी का सीधा सा मूल-मंत्र होता है – मैं उसे समझूँ हूँ दुश्मन, जो मुझे समझाए है । ज़ाहिर सी बात है, उनका कुछ नहीं हो सकता क्योंकि उनकी सोच के अनुसार – मैं जैसा भी हूँ, बस ठीक हूँ । कोई भी मुझे और अधिक सुधारने की कोशिश न करे । ऐसे लोग कुएं के मेंढक की तरह जहां के तहां रह जाते हैं । वह यह नहीं समझ पाते कि परिवर्तन का दूसरा नाम ही तो जीवन है । परिवर्तन भी वह जो जीवन को सकारात्मक या भलाई के रास्ते पर चलने को प्रेरित करता हो । जब हम स्वयं ही सकारात्मक सोच की बात कर रहें हैं तो ऐसे कूपमंडूक-नुमा व्यक्तियों की बात ही क्यों करें जिनकी जीवन-शैली पर हमें चलना ही नहीं । 
दूसरी प्रकार के इंसान वह होते हैं जिनका जीवन एक बहती हुई नदी की तरह से होता है – अविरल बहती धारा, नए – नए विचारों से ओत-प्रोत । किसी भी उम्र में , कुछ भी नया और अच्छा सीखने से कतई परहेज़ नहीं । सीख देने वाला चाहे कोई भी हो, किसी भी उम्र का हो – उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता । आपने भी महसूस किया होगा – ऐसे ही व्यक्ति स्वयं भी फूलों की तरह से महकते रहते हैं और अपने आस-पास का वातावरण भी ख़ुशनुमा रखते हैं । ज्ञान प्राप्त करने के लिए कुछ तो जाते हैं गुरु की शरण में या फिर माता-पिता,बड़े-बूढ़ों से मार्ग-दर्शन लेते हैं । आपने कभी सोचा है कि कई बार जीव-जंतुओं से भी हम बहुत कुछ समझदारी की बातें सीख सकते हैं । हाँ - इसके लिए आपको अपनी दृष्टि और दिमाग दोनों में ही पैनापन रखना पड़ेगा । चलिए आज आपको एक छोटा सा रोचक किस्सा बताता हूँ । 
घायल भोली 

भोली नाम की मादा पिल्ला पिछले कई दिनों से कष्ट में है । उसके पाँव में चोट लगी है । चलने फिरने में उसे काफी दिक्कत होती है । अपने घर के बरामदे में ही उसके लिए छोटा सा बिस्तर लगा दिया था जहाँ वह आराम करती रहती थी । उसके इलाज़ के लिए कुछ ऐसा इंतजाम कर दिया है कि नियमित रूप से पशु-चिकित्सक अपनी एंबुलेंस गाड़ी में आता है । उस एंबुलेंस गाड़ी का कॉलोनी में आना ही एक तरह से हड़कंप मचा देता है । 


सारे कुत्ते उस गाड़ी को देखते ही शोर मचाना शुरू कर देते हैं । मुझे उस वक्त वह फिल्मी गाना ज़रूर याद आ जाता है – मच गया शोर सारी नगरी में- आया बिरज का बांका- संभाल तेरी गगरी  रे । यकीन मानिए चारो तरफ़ इतना हल्ला-गुल्ला मच जाता है कि एक बारगी तो सड़क पर ही संसद भवन में बहस के दौरान नेताओं की चिल्ल-पौं का नज़ारा हू-ब-हू सामने पेश हो जाता है । दरअसल उन सब कुत्तों को पिछली कई घटनाएँ याद आ जाती हैं जब उनके ही बिरादरी के कई साथी बीमार कुत्तों को इलाज के लिए उस एंबुलेंस में बने पिंजड़े में जबरन अस्पताल ले जाना पड़ा था ।ठीक भी है , पुरानी यादें मिटाये -नहीं मिटती , चाहे इंसान हो या जानवर। अब उस दिन भी जब एंबुलेंस आई तो भोली मेरे घर से निकल कर, सड़क पर ही आसपास चहलकदमी के लिए गई हुई थी । अब डाक्टर तो एक तरह से मेरे सिर पर ही खड़ा हो गया कि कहाँ है तुम्हारा मरीज़ ? अब ऐसी स्थिति में मेरी हालत हो गई बहुत ही अटपटी – ठीक उस जेलर की तरह जिसकी जेल से कोई कैदी फ़रार हो जाए । बाहर सड़क पर कुत्तों के झुंड ने शोर मचा-मचा कर उस एंबुलेंस के इर्द-गिर्द एक तरह से तांडव मचा कर रखा हुआ था । दरअसल उस वक्त भी उस एंबुलेंस के पिंजड़े में एक बीमार कुत्ता मौजूद था, जिसे देखकर सड़क के कुत्ते बुरी तरह से घबराए भी हुए थे पर बाहर इकट्ठे होकर एक तरह से नैतिक समर्थन दे रहे थे । यह सब ठीक ऐसा ही था जैसा जेल जाते नेता जी को विदाई देती समर्थकों की भीड़ नारे लगाती है – नेता जी तुम आगे बढ़ो , हम तुम्हारे साथ हैं । खैर उस हालात में भी अपने इष्ट देवी-देवताओं को याद करते हुए अपने मरीज भोली की तलाश में सड़क पर ही दूर तक नज़र दौड़ाई । भाग्य से वह पास ही सड़क किनारे धूप सेकती मिल गई । दूर से ही भोली को आवाज देकर बुलाया । मेरी आवाज सुनकर, कमजोर शरीर भोली लड़खड़ाते कदमों से उठ खड़ी हुई और धीरे -धीरे मेरी ओर बढ़ने लगी । अचंभे की बात यह कि जब सड़क पर मौजूद कुत्तों का झुंड एक तरह से शोर मचा कर चेतावनी दे रहे थे, भोली इन सब को पूरी तरह से नज़र-अंदाज करती मेरे घर और उसके सामने खड़ी एंबुलेंस की ओर अपने कमजोर डगमगाते पैरों से बढ़ती आ रही थी । शायद यह उसका विश्वास था मेरे ऊपर, सामने खड़े उस डाक्टर पर और उस एंबुलेंस गाड़ी पर भी । भोली बरामदे में आकर चुपचाप शांत भाव से अपने बिस्तर पर बैठ गई । डाक्टर ने एक के बाद एक तीन इंजेक्शन लगा दिए और वह भी उसने बड़े आराम से लगवा लिए । सड़क पर शोर और उत्पात मचाते साथियों के झुंड से भोली बिलकुल बेपरवाह थी। 
भोली - बचपन में

भोली का यह सब व्यवहार मैं बहुत ध्यान से नोट कर रहा था । गहराई से सोचने पर मुझे लगा कि भोली भी शायद यह बताना चाह रही है कि भले-बुरे के बीच फर्क करना सीखो । जो आपका शुभचिंतक है हमेशा उसके साथ खड़े रहो – बेशक दुनिया उसके खिलाफ़ हो । लेकिन इंसान की फ़ितरत ही कुछ ऐसी हो चुकी है कि वह इन बातों को भूल चुका है । आप किसी के सौ काम कर दीजिए – आपकी वाह -वाह होगी , लेकिन जिस दिन किसी एक काम के लिए मना कर देंगे – बस समझ लीजिए आपसे बुरा कोई नहीं । ऐसी सोच ठीक नहीं । ठीक वही है जैसी भोली की सोच है । आज की यह कहानी उन दोस्तों के लिए है जो हमेशा अच्छी बातों और विचारों को खुले दिमाग से न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि उन्हें अपने जीवन में भी उतारने का भरसक प्रयत्न करते रहते हैं । भोली के व्यवहार और सोच की वह ज़रूर प्रशंसा करेंगे ........... ठीक कहा ना मैंने ।

Friday, 3 January 2020

🎧 माँ

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अक्सर समय -समय पर मैं अपने दोस्तों और परिचितों से अनुरोध करता रहता हूँ कि मुझे इस ब्लाग में लिखने के लिए कुछ मसाला दो । मसाले से मेरा मतलब है – कुछ अनुभव, कुछ किस्से -कहानी । ज़्यादातर मामलों में भाई-लोग खामोश ही रहते हैं जिसका कारण मैं आज तक समझ नहीं पाया। हो सकता है वे व्यस्त हों या किसी प्रकार का संकोच हो । नतीजा यह होता है कि मेरा काफी समय सोचने में ही निकल जाता है कि अब किस विषय पर लिखा जाए । उस दिन भी दिमाग में कुछ इसी प्रकार की उधेड़-बुन चल चल रही थी । उसके साथ ही बिजली की चमक की तरह विचार कौंध उठा - अरे जिस तरह के प्रेरणादायक व्यक्तियों  को मैं दुनिया भर में खोजता फिरता हूँ उनमें से एक तो ठीक मेरे घर में ही मौजूद है – मेरी अपनी माँ । आज की कहानी मेरी माँ । 

बिखेरे खुशियाँ जो हर पल - वही तो है माँ 
माँ किसी की भी हो , हमेशा माँ हमेशा ख़ास होती है । उसकी हर बात ख़ास होती है ।हर किसी को अपनी माँ प्यारी होती है, मुझे भी है । ज़िंदगी की पढ़ाई की पहली शिक्षक माँ ही तो होती है । बहुत कुछ उससे सीखने को मिलता है अब यह आप पर निर्भर है कि आप क्या और कितना ग्रहण कर पाते हैं । बदनसीब हैं वह जो इस लाड़ -दुलार और स्नेह की देवी को वह सम्मान, आदर और प्यार नहीं देते जिसकी वह हकदार है । 
फूल ने भी सीखा मुस्कराना - माँ से 
आज मेरी माँ की उम्र 85 वर्ष है । इतनी उम्रदराज होने बावजूद पूरी तरह से सक्रिय । गठिया की परेशानी के कारण चलने-फिरने की दिक्कत है – व्हीलचेयर का सहारा लेना पड़ता है । इतना सब होने पर भी खुश- मिजाज़ । अभी भी पढ़ने का इतना शौक कि आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे । रोज़ चार घंटे का समय पढ़ने में लगता है जिसकी शुरुआत हर सुबह के अँग्रेजी समाचारपत्र हिंदुस्तान टाइम्स से होती है । उनके लिए नियमित रूप से पुस्तकालय से पाँच किताबें लाता हूँ जिन्हें दो हफ्ते में पढ़कर मुझे वापिस थमा दिया जाता है । बाकी समय अपने स्मार्ट फोन से पसंद के बेहतरीन गाने – गज़ल सुनने में व्यतीत होता है । और हाँ, इंटरनेट टेलीविज़न पर अच्छे कार्यक्रम या फिल्म्स तो ढूँढ -ढूँढ कर देख लेती हैं । कुल मिला कर अपना कीमती समय बहुत ही समझदारी और आनंददायक तरीके से बिता रहीं हैं । ना किसी से कोई नौंक -झौंक , ना ही किसी किस्म की शिकवा -शिकायत । आत्म-संतोष की एक तरह से जीते-जागती मिसाल, जिसे आप कह सकते हैं - कछु लेना ना देना, मगन रहना । 
कछु लेना ना देना-  मगन रहना 
तीन बातों का मैं विशेष रूप से ज़िक्र करना चाहूँगा । पहली – हर किसी की सहायता को हमेशा तैयार- चाहे वह अंध- विद्यालय के लिए नियमित रूप से चंदा हो, या गरीब विद्यार्थियों के लिए आर्थिक मदद । किसी जमाने में दिल्ली में 1984 में हुए सिक्ख विरोधी दंगों के दौरान शरणार्थी शिविर के लिए घर से ही खाना-पीने का सामान खुद ले जाती थीं । इतना सबके बावजूद भी मैंने आज तक उन्हें किसी भी प्रकार का कर्म-कांड या पूजा-पाठ करते नहीं देखा । दूसरा आश्चर्य – मैंने उनको आज तक गुस्सा करना तो दूर, किसी से ऊँची आवाज़ में बात करते भी नहीं देखा ।हर समय साथ रहने वाला अगर एक बेटा यह बात कह रहा है तो इस बात में कितना दम है आप अच्छी तरह से समझ सकते हैं । यही दो विशेष दो बातें हैं जो बहुत कम ही देखने को मिलती हैं । शायद आज की इस कहानी को आप तक पहुंचाने की वजह भी यही है । 
माँ - हर हाल में खुश 
तीसरी विशेषता है – जीवन की समस्याओं से हार नहीं मानना बल्कि संघर्ष करते हुए उन पर जीत हासिल करना । इस के बारे जानने के लिए उनकी जीवन यात्रा की एक छोटी सी झलक ही काफ़ी होगी । जैसे कि पहले ही आपको बता चुका हूँ, उनका जन्म आज से लगभग 85 वर्ष पूर्व हुआ – उत्तरप्रदेश के जिला बुलंदशहर के एक छोटे से गाँव कतियावली में ।उनके  पिता एक योग्य शिक्षित वैद्य थे । अच्छा -खासा नाम और प्रेक्टिस थी । दुर्भाग्य ने दस्तक दी – महज़ 28 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही चल बसे । पत्नी के साथ पीछे छोड़ गए तीन छोटे-छोटे बच्चे – जिनमें सबसे बड़ी थी सात वर्ष की पुष्पा ( यानी मेरी माँ ), उनसे छोटे दो भाई एक की उम्र पाँच वर्ष और दूसरे की सिर्फ नौ माह । अचानक सर पर टूटे इस दु:ख के पहाड़ को विधवा नानी ने बहुत ही हिम्मत से झेला ।
मेरी माँ - अपनी माँ के साथ 
हालात इतने कठोर हुए कि ना चाहते हुए भी आर्थिक मजबूरियों के चलते, पालने -पौसने के लिए एक प्रकार अपने तीनों बच्चों का भी बंटवारा करना पड़ गया । इस तरह मेरी माँ – पुष्पा का बचपन अपनी बुआ -फूफा के पास बीता । उनके सबसे छोटे नौ माह के भाई को मौसी ने गोद ले लिया । केवल मझला भाई ही अपनी माँ यानी मेरी नानी के पास रह सका । कठिन परिस्थितियों में नानी ने किस प्रकार अपनी पढ़ाई पूरी की , उसके बाद खुद टीचर बन कर अपने पाँव पर खड़ी हुई यह अपने आप में अलग ही कहानी है । 
पिता और माँ 
मेरी माँ का विवाह तभी हो गया था जब वह मेट्रिक में पढ़ रही थी। जिस परिवार में शादी हुई वहाँ के गुज़र -बसर के हालात भी बस काम – चलाऊ ही थे । पढ़ने -लिखने में माँ का दिमाग शुरू से ही तेज़ रहा । बस थोड़े में यह समझ लीजिए कि जीवन में आने वाली हर कठिनाई को सहज भाव से चुनौती देते हुए, आने वाले समय में उन्होने पढ़ाई जारी रखी । बुरे दिनों में ऐसे मौके भी आए जब परीक्षा की फीस भरने को भी पैसे नहीं थे । एक के बाद एक सीढ़ी - इंटर , बी०ए, बी०एड और एम०ए तक पहुँचने पर ही दम लिया ।

पढ़ाई में अव्वल - मेरी माँ 
और हाँ एक विशेष बात – माँ एक बहुत ही प्रभावशाली अध्यापिका रही हैं और उनके पढ़ाए विद्यार्थी अपने जीवन और विभिन्न कार्य क्षेत्रों में नाम कर रहे हैं । घर-परिवार और बाहर दोनों जगहों की ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई और वह भी माथे पर बिना कोई शिकन डाले । सुबह की शिफ्ट का स्कूल होता था जहां जाने से पहले सुबह पाँच बजे उठ कर ब्रह्म मुहूर्त में हम सब के लिए नाश्ता -खाना तैयार करना और दोपहर को वापिस आकर घर के बाकी काम काज में जुट जाना ।
स्कूल में मेरी अध्यापिका माँ 
अध्यापन का उनका लगभग 35 वर्षों का गौरवशाली इतिहास रहा है और दिल्ली प्रशासन के शिक्षा विभाग से बतौर सीनियर लेक्चरार रिटायर हुई । आजकल वह अपने अवकाश प्राप्त जीवन का भरपूर आनंद ले रही हैं जिसकी झलक मैं आपको पहले ही दिखा चुका हूँ ।

मुझे ज़िंदगी में माँ से बहुत कुछ सीखने को मिला है । हो सकता है आपको भी इस कहानी को पढ़ कर अपनी माँ की याद आए और मिलती जुलती कुछ बातें भी मिल जाएँ । तभी तो कहते हैं सब माँ एक जैसी होती हैं पर माँ जैसा कोई नहीं ।

भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...