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Sunday, 10 November 2019

मजबूर हूँ पर निराश नहीं : चंद्रभान

कबीर दास जी के एक दोहे की पंक्ति है : मन के हारे हार है, मन के जीते जीत | अर्थात सब कुछ आपके आत्म विश्वास पर निर्भर करता है | अगर आप हिम्मत हार बैठे तो सफलता नहीं मिल सकती | आज यह बात याद आने के पीछे भी एक विशेष कारण है | मेरी आदत है घर के पास बने पार्क में घूम कर आने की | वहीं पर कसरत करने की तरह -तरह की मशीनें भी लगी हैं जिन पर स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बच्चे, बूढ़े और जवान , सभी जोर-आजमाइश करते रहते हैं | मैं भी सामर्थ्य के अनुसार व्यायाम करता हूँ | आज का दिन भी और अन्य दिनों की तरह सामान्य ही था | पार्क में एक कोने में आवारा कुत्तों की टोली आराम फरमा रही थी | पेड़ों पर पक्षी चहचहा रहे थे | ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी | कसरत-मशीनों पर वही नियमित रूप से आने वाले पुराने जाने-पहचाने चेहरे पसीना बहाने में व्यस्त थे | एक नए चेहरे पर नज़र पड़ी | वह बड़ी तन्मन्यता से दीनो-दुनिया से बेखबर एक जिम मशीन पर कसरत कर रहा था |
कड़ी मेहनत - पक्का इरादा : चंद्रभान 
 एक बार सरसरी नज़र से देखने के बाद जब उस शख्स को दोबारा ध्यान से देखा तो अवाक रह गया - वह नेत्रहीन था | सफ़ेद कमीज़ और नीली जींस में उसका दुबला-पतला शरीर मानो कुछ अलग ही कहानी सुना रहा था |अपनी जिज्ञासा को मैं अधिक देर तक नहीं दबा सका और अंत में उस युवक के पास पहुँच ही गया - मन में उठ रहे तरह-तरह के सवालों के साथ | उस युवक ने जो कुछ भी अपने बारे में बताया वह मन को छू लेने वाला तो था ही , साथ ही प्रेरणादायक भी था | उस युवक जिसका नाम था चंद्रभान, की आपबीती कहानी को आप सब तक पहुंचाने के लोभ से मैं अपने आप को नहीं रोक सका हूँ | 
चंद्रभान का बचपन शुरू होता है उत्तरप्रदेश के इलाहबाद जिले के एक छोटे से गाँव – अकोढा से | बचपन के शुरुआती दिनों में वह बिल्कुल ठीक -ठाक था | चार साल की उम्र में उसे गंभीर बीमारी ने घेर लिया | सारे शरीर पर फुंसी -फोड़े निकल आये थे | गाँव के ही एक डाक्टर ने इलाज़ करना शुरू किया पर रोग था कि काबू में नही आ पाया | आँखों पर भी बहुत बुरा असर हुआ और धीरे -धीरे दिखना बंद होता चला गया | बाद में जब तक पता चला कि गाँव में इलाज करने वाला डाक्टर फ़र्जी – झोला छाप है, तब तक बहुत देर हो चुकी थी | आस-पास के शहरों में भी दूसरे डाक्टरों को दिखाने का कोई लाभ नहीं हुआ और इस तरह से नन्हे चंद्रभान की हंसती -खेलती दुनिया भयावह अंधेरों के आगोश में समा गयी | दुर्भाग्य की इतनी बड़ी मार उस छोटे से बच्चे के लिए कुछ कम नहीं थी | लगभग पूरा बचपन ही माता-पिता और रिश्तेदारों के इस दिलासे पर निकल गया कि इलाज चल रहा है – आँखे ठीक हो जायेंगी | सोचिए उस बच्चे की मनोदशा जिस के लिए सारी दुनिया गहन काली रात में बदल चुकी थी और जिसे हर दिन उस नयी सुबह का इंतज़ार रहता जिसमें वह फिर से देख पायेगा – अपनी मां , पिता , भाई-बहन , संगी -साथी, उगता सूरज, गाँव की पगडंडी और दूर तक फैले खेत | वह खुशनुमा सुबह कभी नहीं आयी और उसे अब इस अन्धेरा दुनिया में ही रहने की आदत डालनी पड़ेगी इसे स्वीकार करने में बहुत वक्त लगा |
इतनी घोर विपत्ति के बावजूद अब एक बात तो उस बच्चे के मनो-मस्तिष्क में धीरे -धीरे घर करने लगी – और वह यह कि इस दुनिया में अगर भविष्य में उसका कोई सहारा होगा तो वह स्वयं | उसके लिए जरुरी होगा पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खुद खड़े होना | गाँव के सामान्य स्कूल में ही शुरुआती पढ़ाई की | बाद में इलाहबाद के एक संस्थान से ब्रेल लिपि का अध्ययन किया | नेत्रहीनों के लिए पुस्तकें ब्रेल लिपि में ही लिखी जाती हैं जिनके उभरे हुए विशेष प्रकार के बिंदुदार अक्षरों को उँगलियों से स्पर्श करके पहचाना और पढ़ा जाता है | इसे सीखने का लाभ यह हुआ कि अब किसी और से पाठ सुनकर याद करने की निर्भरता लगभग समाप्त ही हो गयी | इसके बाद दिल्ली की ओर रुख किया| चन्द्र ने किसी तरह से सी.बी.एस .सी, दिल्ली बोर्ड से इंटर पास किया | गाँव में घर के आर्थिक हालात ठीक नहीं थे | जैसे-तैसे दिल्ली विश्वविद्यालय में बतौर प्राइवेट छात्र के रूप में दाखिला लिया | तमाम समस्याओं के बावजूद कई प्रयासों में आखिरकार बी.ए पास कर ही लिया | 
चन्द्रभान 
अब चंद्रभान अपने लिए काम की तलाश में है | बहुत ही मायूसी में कहता है “ आज के ज़माने में जब अच्छे-भले लाखों लोग बेरोजगार घूम रहे हैं तो मुझे कौन पूछेगा | इसके बावजूद मेरे हौसले बुलंद हैं और मैंने हिम्मत नहीं हारी है |” मुझे सबसे अच्छी बात चंद्रभान की यह लगी कि वह अपने स्वास्थ के प्रति जागरूक है | वह कहता है – भगवान् ने मुझे जो कमी देनी थी वह तो दे ही दी, पर इस दिए हुए शरीर को मजबूत और ताकतवर रखना तो मेरी ही जिम्मेदारी है | यही कारण है कि जब भी मौका मिलता है चंद्रभान आसपास के पार्क में बने खुले जिम में कसरत करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते हैं | जैसे की आपको लेख के शुरू में ही आपको बताया था उससे मेरी पहली मुलाक़ात भी ऐसे ही एक पार्क में हुई | जीवन के प्रति भी वह बहुत ही जिंदादिल और सकारात्मक सोच रखता है | मैं आश्चर्यचकित रह गया जब उसने मुझे बताया कि वह व्हाट्स एप और फेसबुक के माध्यम से सोशल मीडिया पर भी सक्रिय है | इस काम में टेक्स्ट से स्पीच जैसे कई सहायक एप्लीकेशन मदद करते हैं | 
आजकल वह दिल्ली के नंदनगरी में स्थित नेत्रहीनों के लिए बने एक संस्थान में रह रहा है | चंद्रभान के सामने समस्याओं का पहाड़ है लेकिन उसे विश्वास है गिरजा कुमार माथुर के उस गीत पर “मन में है विश्वास , पूरा है विश्वास, हम होंगे कामयाब एक दिन” | नौकरी की तलाश जारी है ..... मुझे भी उम्मीद है उसे मंजिल जरुर मिलेगी | मेरा मानना है कि कठिनाई के दौर से गुजरने वाले के लिए सहायता का हाथ और हिम्मत बंधाने वाले दो मीठे बोल से बढ़ कर और कुछ नहीं | अपने सभी समर्थ और सवेंदनशील पाठको से मेरी अपेक्षा है अगर उनके प्रयास से किसी की मजबूर बीच मझधार में डूबती ज़िंदगी को सहारा मिल जाए तो हम समाज और ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्य को कुछ हद तक पूरा कर सकेंगे | अपनी इसी आशा और अपेक्षा के साथ मैं चंद्रभान का फोन नंबर 9599853201 उसकी सहमति से आप सभी से साझा कर रहा हूँ, इस अपील के साथ कि इस संघर्षरत नेत्रहीन लेकिन शिक्षित नौजवान को जीवन में स्थापित करने में मार्गदर्शन करें , सहायता करें अन्यथा कम -से- कम हिम्मत तो जरूर बढ़ाएं |

Wednesday, 26 December 2018

ऊँची उड़ान ( भाग चार ) : परिश्रम और भाग्य की श्रंखला

जिन्दगी में किस चीज़ का ज्यादा महत्त्व है – मेहनत का या भाग्य का, यह सवाल अरसे से मेरे दिमाग में घूमा करता था और हो सकता है मेरी तरह से आप भी बहुत से लोगों को यह सवाल परेशान करता हो | इस सीधे से पर टेढ़े सवाल का जवाब खोजने में लोगों को बरसों लग गए पर आज भी सवाल वहीं का वहीं है, बिना किसी भी जवाब के, ठीक उसी तरह जैसे कोई पूछे कि मुर्गी पहले आयी या अंडा ? कुछ-कुछ इसी तरह के जलेबी की तरह गोल सवाल के इर्द-गिर्द घूमती है आज की कहानी – एक जीते –जागते इंसान की सच्ची आपबीती | 

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जिले बुलंदशहर के लगभग नामालूम से कस्बे खुर्जा से शुरू होती है यह कहानी | यह कहानी घूमती है एक ऐसी मेधावी छात्रा के इर्द –‍‍‍‍‍ गिर्द     जिसकी अब तक की उथल-पुथल से भरी ज़िंदगी में लगातार जंग होती रही, समय – समय पर टकराने वाली मुसीबतों से, जिनकों को पार करने के लिए कभी सामना किया मेहनत से और कभी सहारा मिला किस्मत का | बस यही तो है आज की दिलचस्प कहानी का छोटा सा परिचय | संघर्षों से लड़ने वाले जिन किरदारों से आपको ‘उड़ान’ श्रंखला के अंतर्गत अब तक आपसे मिलवाया है, आज का किरदार उम्र में उन सबसे छोटा है | मज़े की बात यह कि इस किरदार का नाम भी श्रंखला ही है – जी हाँ, श्रंखला पालीवाल, एक कुशाग्र छात्रा, जो एम.बी.बी.एस की पढाई कर रही हैं –जवाहर लाल नेहरु राजकीय मेडीकल कालेज, अजमेर से | अगर अपनी कहानी खुद श्रंखला ही सुनाए तो शायद ज्यादा अच्छा रहे | तो शुरू होती है श्रंखला की कहानी खुद उसी की ज़ुबानी : 
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      मैं : श्रंखला पालीवाल 

नाम तो अब तक आप मेरा जान ही चुके हैं, दोबारा दोहराने से कोई लाभ नहीं | मुझे खुद यह कभी नहीं लगा कि अब तक जिन्दगी में कुछ ऐसा ख़ास घटा है जिससे मैं स्वयं को विशेष समझ पाऊं | वजह केवल यही रही कि होने वाली हर घटना को बहुत ही सामान्य तरीके से लिया | मेरी बाल-बुद्धि बस यही कहती है कि अपने आप को जितना आम ( खाने वाला नहीं ) समझेंगे, यह जीवन उतना ही सरल रहेगा | मेरा बचपन एक बहुत ही छोटे से शहर खुर्जा में बीता | बहुत ही साधारण पर अनोखी पारिवारिक पृष्ठभूमि, जिसमें शिक्षा और खेती-बाड़ी, कस्बे और ग्रामीण संस्कृति का अद्भुत संगम था | 



बचपन की मेरी पहली यादें जाकर पहुँचती हैं मेरे दादा जी- श्री शिव चरण पालीवाल जी पर जो आज इस दुनिया में नहीं हैं, पर जिनका प्रभावशाली व्यक्तित्व आज भी मेरी स्मृति में पूरी तरह से स्पष्ट है | उनकी दी हुई नसीहतें और समझदार सोच आज तक मुझे समय-समय पर रास्ता दिखाती हैं | मेरे दादा अपने ज़माने के लखनऊ विश्वविद्यालय से इंग्लिश और मनोविज्ञान में डबल एम.ए थे | आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र के वह जाने-माने रेडिओ-एनाउंसर थे | मेरी दादी भी इस मामले में कम नहीं रहीं, वह भी मेरी मां की तरह, आगरा यूनिवर्सिटी से एम.ए हैं | अब खुर्जा एक छोटा सा कस्बे-नुमा दकियानूसी शहर जहाँ लड़के और लड़कियों की पढ़ाई में अभी भी भेद-भाव किया जाता है | वह तो भला हो मेरे दादा-दादी के प्रगतिशील विचारों का जो अड़ गए कि पोती भी वहीं दाखिला लेगी जहाँ पोता | इस तरह भारी-भरकम कमर तोड़ फीस के बावजूद मेरे भाई के साथ मुझे भी शहर के जाने-माने महंगे पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलवा दिया गया| यह किस्मत की परी की मेरे लिए पहली सौगात थी जो इतने समझदार दादा-दादी और माँ - पापा के रूप में मेरी जिन्दगी में आए |




                               दादा -दादी

अब मैनें भी उसी स्कूल में जाना शुरू कर दिया जहाँ मेरा बड़ा भाई रजत जाता था | मैं तब सबसे छोटी क्लास के.जी. में थी| सुबह-सुबह रोज की तरह स्कूल बस में बैठ कर स्कूल के लिए जा रही थी | तबियत कुछ खराब सी थी और रास्ते में ही बस में ही मुझे उल्टी आ गयी | स्कूल पहुँच कर जब सब बच्चे बस से उतर रहे थे, मैं अपनी पानी की बोतल से बस के फर्श पर उस फ़ैली हुई गन्दगी को साफ़ करने में लगी हुई थी | तब तक सब बच्चे बस से उतर चुके थे और मेरी मौजूदगी से अनजान ड्राइवर ने बस आगे बढ़ाना शुरू कर दिया| बस चलती देख कर मैं बुरी तरह से घबरा गयी और अपने नन्हे-नन्हे कदमों से लगभग दौड़ते हुए ही बस के दरवाजे तक पहुँची और नीचे उतरने का प्रयत्न किया | इस सब हड़बड़ाहट में, बस के पायदान पर मेरा संतुलन लड़खड़ा गया और मैं धड़ाम से नीचे गिर गयी जहाँ एक नुकीली ईंट सीधे मेरी आँख से कुछ ऊपर माथे में बुरी तरह से घुस गयी | खून का एक जोरदार फव्वारा मेरे माथे से फूट निकला और जैसे बेहोशी के अंधे कुँए में अपने आप को मैंने गिरते हुए महसूस किया | इतनी छोटी सी बच्ची होने के बावजूद भी मुझे इतना होश था कि बस आगे बढ़ रही है और मैंने अपने बचाव में तुरंत एक करवट ली वरना पिछला टायर मेरे ऊपर से निकल जाता | इसके बाद मुझे कुछ होश नहीं रहा | जब होश आया तो मैंने अपने आप को एक अस्पताल में पाया | बाद में पता चला कि उस भयानक हादसे के बाद मुझे मुझे स्कूल वाले ही शहर के ही अस्पताल ले गए जहाँ उन्होंने प्राथमिक उपचार के बाद हाथ खड़े कर दिए और सलाह दी कि जान बचाने के लिए तुरंत दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में शिफ्ट कर दिया जाए | दिल्ली में सर गंगा राम अस्पताल में मेरे चेहरे के एक के बाद कई आपरेशन किए गए | जख्म इतने गंभीर थे कि आंख और दिमाग तक पर असर पड़ने के आसार थे | डाक्टरों ने साफ़ कह दिया कि अव्वल तो जान ही खतरे में है, अगर जान बच भी गयी तो आँखों की रोशनी जा सकती है, साथ ही याददाश्त भी जा सकती है | मैं उस समय एक छोटी सी नन्ही सी जान, आपरेशन के बाद पट्टियों में लिपटा चेहरा, हड्डियों तक को दर्द से पिघला देने वाला दर्द और उन सबसे ऊपर मेरे दुःख से ज्यादा दुखी मेरे मम्मी-पापा | खैर ..... थोड़े में अगर कहूँ तो, डाक्टरों की लगातार बारह साल की मेहनत और भगवान की कृपा से मुझ पर किये गए सभी आपरेशन और प्लास्टिक सर्जरी सफल रहे, मेरी जान , मेरी आँख और मेरी याददाश्त सभी बच गयी | यह किस्मत की परी की मेरे लिए दूसरी सौगात थी जिसने मुझे एक नई जिन्दगी दी |

मेरी जिन्दगी स्कूल की पढाई और अस्पतालों के बीच घड़ी के पेंडुलम की तरह घूम रही थी | शायद उस समय ही सफ़ेद कोट पहने डाक्टरों को देख कर दिमाग के किसी कोने में में खुद एक डाक्टर बनने का सपना पाला| बस पढाई में और ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया | इसी बीच मेरे दादा बहुत ही गंभीर रूप से बीमार हो गए |तमाम प्रयत्नों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका| कहीं कुछ लगा कि इलाज मे शायद लापरवाही हुई है | डाक्टर बनने की इच्छा ने और मजबूती से संकल्प का रूप ले लिया| मेरी माँ ने हर वक्त मेरी हिम्मत बंधाई| 



अपनी दादी और माँ -पापा के साथ

इसी बीच हालात कुछ ऐसे बने कि खुर्जा छोड़ कर जयपुर बसना पड़ा | अगर ऐसे समय में हमें अपनी पुरवा बुआ जी का सहारा न मिला होता तो आज शायद कहानी ही कुछ और ही होती | जयपुर आ कर  स्कूल की पढाई के साथ मेडीकल कॉलेज के दाखिले के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की भी शुरुआत कर दी | ऐसे समय में मेरे अपने फूफा जी, जिनका खुद का अपना कोचिंग सेंटर था, मेरे लिए मानों साक्षात भगवान के रूप में अवतरित हो गए | उनकी निगरानी में मेरी तैयारी और अधिक व्यवस्थित हो गयी | यह किस्मत की परी की मेरे लिए तीसरी सौगात थी जिसने मुझे छोटे से शहर खुर्जा से जयपुर पहुंचाया और अपने कोचिंग सेंटर वाले फूफा जी से मिलवाया जिन्होंने मेरी पढाई को एक निश्चित दिशा दी| अक्सर यह सोचती हूँ कि यहाँ साक्षात किस्मत की परी मेरी बुआ जी  श्रीमती पुरवा और देवदूत के रूप में विशाल  फूफा जी ही थे | 
किस्मत की परी और देवदूत - मेरी पुरवा बुआ और विशाल फूफा जी 
पढाई मेरी लगातार पूरी मेहनत से हो रही थी | सभी परीक्षाओं में नंबर भी अच्छे आ रहे थे पर मेरा लक्ष्य तो था मेडीकल में दाखिले का | वह मेडीकल जिसमें केवल एक प्रतिशत प्रतियोगी ही दाखिले के लिए सफल हो पाते हैं | वर्ष 2015 में केवल एक फ़ार्म भरा राजस्थान के कालेजों के लिए | परीक्षा हुई पर जब रिजल्ट आया तो मेरा नाम सफल छात्रों की लिस्ट में नहीं था जो कि एक बहुत गहरा आघात था मेरे लिए | सारी आशा, सारे सपने, सारा आत्म-विश्वास  मानों पल भर में चकनाचूर हो गए | कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ | अचानक एक दिन पता चला कि उस दाखिले की परीक्षा में पेपर लीक होने की शिकायत के कारण, पूरा रिजल्ट ही कैंसिल  कर दिया गया है और दाखिले की परीक्षा दोबारा से होगी | मेरे लिए यह खबर किसी संजीवनी बूटी से कम नहीं थी | पिछली बार के अनुभव से सबक लेते हुए इस बार और अधिक पढाई, और अधिक मेहनत और जब रिजल्ट आया तो .... हुर्रा .... इस बार मैं सफल थी | मैंने अपने सपने के महल में पहला कदम रख दिया था | मेरी मेहनत तो थी ही पर किस्मत की परी ने इस बार मुझे चौथी बार ऐसा अनौखा उपहार दिया था जो हर किसी को नसीब नहीं होता | असफल होने पर पूरी परीक्षा का ही केंसिल होकर दोबारा सफल होने का मौक़ा भला कितनों को नसीब हो पाता है |

खैर मेडीकल कालेज में दाखिला हो गया | हर साल प्रतिभागी छात्रों के समग्र व्यक्तित्व और बुद्धि-कौशल के मानक माप-दंडों पर कालेज में नई छात्राओं में से मिस फ्रेशर का चुनाव किया जाता है| वर्ष 2015  की मिस फ्रेशर मैं चुनी गयी| कौन यकीन करेगा कि एक छोटे से कस्बे की साधारण सी वह लड़की जिसका कभी दुर्घटना में चेहरा  बुरी तरह से बिगड़ चुका था, याददाश्त बचने की कोई उम्मीद नहीं थी, वह लड़की अपनी अब तक पाली गयी सभी हीन-भावनाओं को पूरी तरह से नकार कर, गौरव से अपना सर ऊँचा कर तालियों की गड़गड़ाहट के बीच पुरस्कार ले रही थी | उस दिन पहली बार मुझे महसूस हुआ कि मेहनत और किस्मत की परी के साथ-साथ , मुझे यहाँ तक पहुंचाने का श्रेय जाता है मेरे दादा-दादी, मम्मी-पापा, फूफा जी और सभी गुरुजनों को | इन सभी को मेरा सादर नमन |                  
फिलहाल मैं मेडीकल के तीसरे वर्ष में हूँ | इंतज़ार है पढाई पूरी करने के बाद, सफ़ेद कोट को पहन कर लोगों की जान बचाऊं, ठीक उसी तरह जैसे किसी ने मेरी जान बचाई थी |

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श्रंखला की इस आपबीती कहानी सुनकर क्या आपको भी मेरी तरह  ऐसा नहीं लगता कि किस्मत की परी भी उसी के पास आती है जो संघर्षों के रास्ते पर चल कर मेहनत के पसीने की कीमत जानता है |




Saturday, 27 October 2018

इंसानियत का सांता क्लाज

दावत की तैयारी 
सुबह-सवेरे घर के सामने सड़क पर एक अजीबो-गरीब नज़ारा रोज़ ही नज़र आ जाता है | गली-मौहल्ले के सारे कुत्ते बड़ी बेसब्री से पीपल के पेड़ के नीचे झुण्ड में खड़े होकर मानों किसी का इंतज़ार कर रहें हों | वे सब सच में इंतज़ार ही कर रहे होते हैं जो पूरा होता है जब वे देखते हैं कि दूर से एक साइकिल ठेला धीरे-धीरे सड़क पर आरहा है | उस ठेले पर दो-तीन बड़े-बड़े कचरे के थेले लदे होते हैं | ठेले वाले की हालत भी लगभग ठेले  और उस पर लदे कचरे जैसी ही होती है | कमीज़-पतलून पहने  दुबला-पतला शरीर जिस पर  सर्दी-गरमी से बचने के लिए  सिर पर  साफ़े की तरह से  बाँधा हुआ कपड़ा और सबसे अलग चेहरे  पर अत्यंत आकर्षक,निर्मल, मनमोहक  मुस्कान | पीपल के पेड़ के नीचे पहुँचते ही सारे कुत्ते पूँछ हिलाते उसके कचरा-ठेले को घेर लेते हैं | यह शख्स धीरे से से अपने साइकिल ठेले की गद्दी से उतरता है और आस-पास की जगह पर बिखरा हुआ कूड़ा ठेले में रखे थेलों में भरना देता है | इस बीच इक्कठे हुए कुत्तों की जमात का सब्र का बाँध जैसे टूटना शुरू हो जाता है और सब दबी हुई आवाज़ में कूँ-कूँ करते एक अनोखे राग को  गा कर मानों ध्यान खींचने की कोशिश करने लगते हैं | अब उस शख्स का एक नया ही रूप नज़र आने लगता है | वह अपने उन थेलों  में से उस एक थेले में हाथ डालता है जिसमें उसने कूड़ा नहीं वरन लोगों का फेंका हुआ बचा-कुचा खाने का सामान, रोटियाँ,दाल-सब्जी वगैरा भरा हुआ है | बड़े प्यार से अपने हाथ से वह उस खाने को इन निरीह भूखे-प्यासे जानवरों को खिलाता है जिसे हम तथाकथित सभ्य और पढ़े-लिखे होने का दंभ भरने वाले समाज ने बर्बाद करके फेंक दिया | ऐसे लगता है जैसे  भूख के मारे कुत्तों की मानों दावत हो रही है और मेरी बात तो छोडिए, शायद उन कुत्तों को उस इंसान में सांता क्लाज का रूप नज़र आता होगा | अगर वे बोल सकते तो शायद उनके यही शब्द होते : अन्नदाता सुखी भव : ( मुझे भोजन देने वाले तू सुखी रह)| 
हमारा सांता क्लाज - श्रीपत 

नकली सांता क्लाज तो 
उपहार देने के लिए क्रिसमस के मौके पर ही में एक ही बार आता है  पर यह इंसानी फ़रिश्ता  तो रोज़ ही हाज़िर हो जाता है एक ऐसा उपहार देने के लिए जो अनमोल है | भूख से बढ़ कर कोई कष्ट नहीं, जो उस कष्ट को हरे उससे बढकर कोई इंसान नहीं | जो भी यह कष्ट मिटाता है भूखे-प्यासे, दुनिया के ठुकराए मूक-निरीह जीव जंतुओं का, मेरे मानना है कि  वह इंसान से भी ऊपर देवताओं की श्रेणी में आता है | हममें से शायद ही कुछ लोग होंगें जो खुद के  बचे-कुचे खाने को भूखे-प्यासे जानवरों तक पहुंचाने की कोशिश करते हों | यह इंसान तो हालाँकि अपनी सहूलियत के अनुसार उस खाने को सीधे बड़े कचरे घर में भी डाल सकता है पर गरीब अशिक्षित सांता  क्लाज की सोच परोपकार से भरी हुई है | आज के जमाने में जब लोग पशु कल्याण के नाम पर अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं, अखबारों में फोटो छपवाने के लिए राजनीति कर रहे हैं, पशुओं का चारा तक हजम कर रहें हैं,  बड़े-बड़े एन.जी. ओ. चला रहे हैं और मिलने वाली सहायता राशि डकार रहे हैं , हमारा सांता क्लाज खामोशी से अपनी नेकी की राह पर अकेला चला जा रहा है | उसे कोई आस नहीं किसी प्रचार की, किसी पुरस्कार की | उसका जीवन संघर्ष केन्द्रित है अपना खुद का  पेट भरने में और सड़क पर आवारा  घूमते-फिरते इन भूखे-प्यासे कुत्तों को खाना खिलाने में |आज उस प्यारे इंसान से बात करने पर पता चला कि उसका नाम श्रीपत है जो रोजी-रोटी की तलाश में सुदूर गोरखपुर से नोएडा आया है | हम सब को बहुत कुछ अभी भी सीखना बाकी है इस सांता क्लाज से – अपने  श्रीपत से | हम सब को प्रार्थना करनी चाहिए ईश्वर से कि श्रीपत और उसके जैसी पशु-पक्षियों के लिए भली सोच रखने वाले हर इंसान का भला हो |   
अन्न दाता सुखी भव:

भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...