Tuesday 19 May 2020

आफ़त का बंदर

कॉलेज के दिनों  की याद 
दुनिया में आफ़त तीन तरह की होती हैं – पहली वह जिसे आप खुद बाकायदा न्योता देकर बुलाते हैं कि आ बैल मुझे मार । ऐसी आफत का नमूना आपको अभी कुछ दिनों पहले आपको सुनाया था अपनी कहानी “खुराफ़ाती सफ़र” में । याद आया कुछ – अरे वही किस्सा जिसमें रेल के इंजिन के आगे बैठ कर खतरनाक जानलेवा सफ़र किया था । चलिए वह किस्सा तो हो गया रांत गई – बात गई । अब बात करते हैँ दूसरी तरह की आफ़त की जो कोरोना की तरह बिन बुलाए मेहमान की तरह आपके दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती है । बल्कि एक तरह से कहा जाए तो सिर्फ दरवाजे पर खड़ी ही नहीं होती वह आपके सर पर ऐसे सवार हो जाती है कि जान छुड़ाना मुश्किल हो जाता है । लेकिन जो तीसरी तरह की आफत होती है उस कमबख्त का आपको पता ही नहीं चलता कि यह बिन बुलाए आई या इसके आगमन में आपकी भी कोई कारगुज़ारी या करतूत छिपी है ।आज एक ऐसी ही आफ़त का मजेदार किस्सा आपको सुनाता हूँ । 
कॉलेज का मेन गेट 
बात बहुत पुरानी है – आज से लगभग अड़तालीस साल पुरानी – फिर भी इस शैतानी खोपड़ी के यादों के पिटारे में बिल्कुल तरोताज़ा । उन दिनों में इन्टर जिसे आप बारहवी (12) भी कह सकते हैं , का छात्र था । कॉलेज था – सेठ मुकुंद लाल इंटर कॉलेज , गाजियाबाद जो कि उन दिनों अच्छे कॉलेजों में माना जाता था । अच्छे से मेरा मतलब है वहाँ पढ़ने वाले विद्यार्थी पढ़ाकू किस्म के होते थे जिनका पंगेबाजी, ऊधम और बदमाशी से दूर-दूर तक का कोई नाता नहीं होता था । इसके ठीक विपरीत – कुछ ही दूरी पर एक दूसरा कॉलेज भी था – (महानंद मिशन हरिजन कॉलेज) जिसे आम भाषा में एम. एम. एच. कॉलेज के नाम से जाना जाता था । आप दुनिया भर की सारी खुराफ़तें जोड़ लीजिए – उन्हे किसी सन्दूक में बंद कर किसी कॉलेज में छोड़ दीजिए – उसके बाद उस कॉलेज का जो स्वरूप होगा – वह उन दिनों का एम. एम. एच. कॉलेज ही होगा । वहाँ के छात्र बड़े गर्व से बाकायदा कमीज के कॉलर खड़े करके अपने कॉलेज के नाम का रूपांतरण महा मक्कार हरामी कॉलेज बताते । साल में ज्यादातर समय छात्रों की हड़ताल के कारण उनका कॉलेज बंद रहता था और इधर हमारे कॉलेज में गधों की तरह पिदाई होती रहती । कई बार हमें उस ऊधमी कॉलेज के मस्त-मलंग छात्रों के भाग्य से बड़ी ईर्षा भी होती । घर क्योंकि शाहदरा में था इसलिए गाजियाबाद आना-जाना दैनिक यात्री के रूप में ट्रेन से ही होता था । दूसरे ऊधमी कॉलेज के छात्र भी उस सफर के साथी होते और उनसे भी अच्छी -खासी दोस्ती हो गई थी । एक बार ऐसे ही किसी मौके पर मैंने उस कॉलेज के रेल-मित्र के सामने अपने दिल का गुबार निकाल दिया । ऊधमी दोस्त सुनकर बोला कुछ नहीं बस मुस्करा दिया और बात आयी -गयी हो गई । 

कुछ दिनों के बाद की ही बात है – कॉलेज की क्लास में पूरे जोर-शोर से पढ़ाई चल रही थी । हम सबका ध्यान सामने ब्लेकबोर्ड और मास्टर जी पर था । अचानक बाहर से हल्ला-गुल्ल और शोर-शराबे की आवाजें आने लगीं । यह शोर धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था – अब इस शोर में नारे-बाजी की आवाजें भी साफ़ तौर पर सुनाई देने लगी थीं । जब तक हम कुछ ठीक से समझ पाते तब तक हमारी क्लास के आगे एक भारी -भरकम भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी । यह भीड़ उसी ऊधमी कॉलेज के हड़ताली छात्रों की थी जो गला फाड़ आवाज में छात्र एकता के नारे लगा रहे थे । उस भीड़ के नेता ने मास्टर जी और सारे पढ़ाकू बच्चों को क्लास में ही आकर धमका दिया “ निकलो बाहर फिर देखते हैं तुम्हें । हम हड़ताल पर हैं और तुम सब यहाँ किताबी कीड़े बन रहे हो । ” इसके बाद तो पूछो मत क्लास में क्या गदर मचा – जिसके जिधर सींग समाए उधर ही पूँछ दबा कर भागता नजर आया । मैं भी सरपट भागा पर गलत दिशा में । कहते हैं ना जब गीदड़ की मौत आती है तो शहर की तरफ भागता है – लेकिन मैं भागा कॉलेज की छत की ओर जहाँ हमारी बायोलॉजी की प्रयोगशाला थी । सीढ़ियों पर रॉकेट की गति से दौड़ता जा रहा था । छत पर बनी उस प्रयोगशाला भवन की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि मुख्यद्वार में घुसने से पहले एक पिंजड़ें जैसा कमरा था । ठीक वैसा ही जैसा आप चिड़ियाघर में देखते हैं जिसमें बंदर उछल-कूद मचाते हैं । उस विशाल पिंजड़े-नुमा कमरे की तीन तरफ की दीवारें लंबी-लंबी सलाखों से बनी हुईं थी । वहीं पर दो-तीन मेज भी रखी हुई थीं । दरअसल उस कॉलेज की स्थापना वर्ष 1955 में ,सेठ मुकुंद लाल द्वारा दान की गई जमीन और हवेली पर हुई थी । इसीलिए उस कॉलेज बिल्डिंग का कुछ हिस्सा पुरानी हवेलीनुमा डिज़ाइन का एहसास कराता था । अब मेरी हालत उस बंदर जैसी हुई पड़ी थी जिसकी दुम में किसी ने आग लगादी हो । नीचे खड़ी ऊधमी कॉलेज की रावण सेना से जान कैसे बचे यही सोच -सोच कर कलेजा मुँह को आ रहा था । ज्यादा सोचने का व्यक्त था नहीं – सीधे उस पिंजड़े की ओर दौड़ा – अंदर जा कर देखा तो प्रयोगशाला भवन का दरवाजे पर ताला लटका हुआ था । अंदर जा नहीं सकता था और नीचे ग्यारह मुल्कों की पुलिस डॉन को गिरफतार करने के इंतजार में खड़ी थीं । अभी सोच ही रहा था कि इतने में खाली बोतल पास ही छत पर आकर फूटी । नीचे खड़ी भीड़ में से किसी ने फैंक के मारी थी पर निशाना चूक गया था । मैं घबरा कर तुरंत पास की बड़ी सी मेज के नीचे दुबक कर छिप गया । पर यह क्या – वहाँ तो पहले से ही एक ओर शरणार्थी दुबका माथे से पसीना पूछ रहा था । ध्यान से देखा तो पहचाना – यह तो मेरे बायलॉजी के ही मास्टर जी थे जो मेरी तरह ही अपनी जान बचाने के लिए भाग कर ऊपर आए तो थे पर चाभी लेब असिस्टेंट के पास होने की वजह से बीच में ही फँस गए । अब मैं और मेरे श्रद्धेय गुरु जी – दोनों ही उस मुसीबत के क्षण में एक ही नाव में सवार थे । अब नीचे से कोल्ड ड्रिंक और सोडा वाटर की बोतलों की जैसे मिसाइल – बरसात शुरू हो चुकी थी । हमारे कॉलेज के सामने हापुड़ रोड़ से गुजरने वाले एक कोल्ड ड्रिंक ले जा रहे ट्रक को उपद्रवी छात्रों ने लूट लिया था । उन बोतलों को ही अब वे दुष्ट हथगोलों की तरह से कॉलेज में यहाँ -वहाँ फेंक रहे थे । उन्हीं में से कुछ बोतलें हमारे हिस्से में आ रहीं थी । उड़ती हुई बोतलें आकर सीधे उस लोहे के पिंजड़े से टकरातीं – विस्फोट की आवाज होती – कोकाकोला की बरसात होती और साथ ही साथ टूटी बोतल के काँच के टुकड़े हवा में उड़ते यहाँ वहाँ बिखरते नजर आते । एक बार तो लगा कि वे सब मैंढ़क जिन पर मैंने इसी प्रयोगशाला में चीर-फाड़ की , शायद उन्हीं की आत्मा के श्राप का यह सब नतीजा है । कुछ देर तक बोतलों के हथगोले बरसते रहे – और इस भीषण युद्ध में घिरा हुआ मैं खुद को किसी खंदक में छुपे फौजी की तरह महसूस कर रहा था । उन फूटती हुई बोतलों से हवा में उड़ती काँच की किरचियाँ बंदूक की गोलियों की तरह दनदना कर बरस रही थी । वो तो भगवान भले करे उन मेजों का, जिनके नीचे हमने आसरा लिया हुआ था , वह हमारे लिए किसी फौजी बंकर से कम नहीं थी । क्या खतरनाक नजारा था – आज भी याद करता हूँ तो शरीर में सिहरन दौड़ जाती है । कुछ देर बाद बोतल वर्षा बंद हुई । गुरु जी को प्रणाम कर दबे पाँव वापिस सीढ़ियों से नीचे उतर कर आया । आस-पास देखा , ऊधमी वानर सेना अभी भी मौजूद थी । नजर बचा कर मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा बन गया । यहाँ तक तो गनीमत थी पर सभी मेरे कॉलेज और उसके प्रिंसिपल के खिलाफ़ हाय -हाय और मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे । मुझे कोई पहचान ना ले , इस डर से मैं भी उस नारेबाजी में जोर-शोर से शामिल हो गया । अब दूसरी तरफ दिल में धुकधुकी भी थी कि मेरे किसी मास्टर जी ने मुझे जिन्दाबाद – मुर्दाबाद करते देखा तो अगले ही दिन और कुछ हो या ना हो – पर जिंदा मुर्गा जरूर बना दिया जाऊंगा । बस यह समझ लीजिए – इधर कुआं और उधर खाई – जैसी हालत थी । अपने ही कॉलेज की हाय-हाय करता हुआ मैं उस भीड़ में पीछे खिसकता जा रहा था और जैसे ही किनारे पर पहुँचा सर पर पाँव रख कर बाहर भाग खड़ा हुआ । सीधे स्टेशन पहुँचा – गाड़ी पकड़ी और घर पहुँच कर ही दम लिया । 
नज़ारा  कुछ -कुछ ऐसा ही था 
असली पिक्चर तो अभी बाकी है दोस्त । उस दिन के बाद से कॉलेज में बायलॉजी के मास्टर जी मुझ पर खास मेहरबान रहने लगे । अरे वही गुरुजी जो मेरे साथ उस दिन मेज के नीचे छिपे बैठे थे । मुझे प्रेक्टिकल परीक्षा में दिल खोल कर नंबर देने में उनका विशेष योगदान था । उनकी वीरता के किस्से को खामोशी से अपने तक ही सीमित रखने का शायद यह ईनाम / रिश्वत थी । 

एक दिन उस उत्पाती कॉलेज का वही रेल-मित्र भी मिल गया जिसके आगे कभी मैंने अपने कॉलेज की कमरतोड़ पढ़ाई का जिक्र किया था । उसने मुस्करा कर आँख मारते हुए कहा – “अब तो तुम्हें कोई शिकायत नहीं । हड़ताल का बंदर आखिर तुम्हारे पढ़ाकू कॉलेज में हमने एक बारगी तो पहुंचा ही दिया । अब आगे तुम्हारी मर्जी –चाहे तो पालो या उसे भगा दो ।” 

आज तक अक्सर अपनी खोपड़ी खुजा – खुजा कर सोचता रहता हूँ – उस बोतल फोड़ आफ़त को क्या मैंने खुद न्योता दे कर बुलाया था ?

Saturday 9 May 2020

खुराफ़ाती सफ़र

आम इंसान की फितरत में ही कुछ ऐसी बात है कि अपने को किसी भी तुर्रमखां से कम नहीं समझता । कुछ तो ऐसे होते हैं कि अपनी शेखी बघारने के चक्कर में इतनी लंबी -लंबी छोड़ेंगे कि आप चक्कर खाकर धाराशाही हो जाएंगे । हमारी देसी भाषा में इस तरह के सत्पुरुषों को शेखचिल्ली कहा जाता है । कभी आप इनकी संगत में थोड़े समय के लिए भी बैठ जाइए – यह खुद अपनी झूठी प्रशंसा इस सीमा तक करेंगे कि आपको अपने आप से शर्म आने लगेगी कि काश हम भी इतने काबिल हो पाते । अपनी नौकरी के दौरान मैंने पाया कि जितना बड़ा अफसर – उतना ही बड़ा गपोड़िया । अब अफसर के नीचे काम करने वाला वह बेचारा अदना सा मातहत – बेचारे की क्या औकात कि साहब को उनके गप्प-पुराण के बीच में टोक दे । भैया अगर साहब से दस तरह के फ़ायदे लेने हैं तो उनकी जी-हुजूरी तो करनी ही पड़ेगी । चलिए छोड़िए इन सब शेखचिल्लियों की गाथा को , मेरा तो मानना है कि इंसान को अपनी उपलब्धियों से ज्यादा अपनी गलतियों पर ध्यान देना चाहिए । अपनी किसी भी ऊटपटाँग कारगुजारी को केवल याद ही नहीं रखना चाहिए वरन दूसरों को जब भी मौका मिले बताना भी चाहिए कि हमने तो ऐसी नालायकी करदी पर तुम मत करना । बरसों पुराना एक ऐसे किस्से को आज आपको सुना रहा हूँ जिसे आज तक मैंने सबसे छुपा कर रखा । वजह – जबरदस्त कान-खिचाई और डाट-डपट के डर से माँ -बाप तक को बताने की हिम्मत ही नहीं पड़ी । पिता जी आज इस दुनिया में हैं नहीं और माँ खुद इतनी बुजुर्ग हैं कि आज मेरी उस कारगुजारी को सुन कर गुस्सा तो जरूर होगी पर अपने इस सफेद बालों वाले रिटायर्ड बालक की पिटाई तो हरगिज नहीं करेगी । 

बात यह तब की है जब मैं बारहवीं कक्षा का छात्र था – वर्ष 1972 । घर दिल्ली-शाहदरा में था और कॉलेज – सेठ मुकुंद लाल इंटर कॉलेज, गाजियाबाद में । रोज़ का आना-जाना ट्रेन से ही हुआ करता था ।




 समय पर कॉलेज जाना और समय पर वापिस घर लौटना यही दिनचर्या थी । मुंबई की लोकल ट्रेन की तरह से उन दिनों भी भीड़-भड़क्का काफ़ी होता था पर मजबूरीवश उस धक्का-मुक्की का आदी हो चुका था । उस दिन जब घर वापिस जाने के लिए कॉलेज से स्टेशन पहुँचा तो भीड़ पूरे उफ़ान पर थी । दरअसल अगले दिन ही होली का त्योहार था इसलिए भी स्टेशन पर कुंभ के मेले का नज़ारा दिख रहा था । प्लेटफ़ार्म पर पैर रखने की भी जगह नहीं थी । दम साध कर ट्रेन के आने का इंतजार कर रहा था । साथ में एक अन्य दोस्त भी था जो मेरी ही क्लास में पढ़ता था और साथ में शाहदरा से ही आता था । थोड़ी देर बाद ही ट्रेन भी आ गई – लेकिन उस ट्रेन की भीड़ को देखकर मेरे छक्के छूट गए । 1947 में भारत -पाकिस्तान के विभाजन के समय पाकिस्तान से आने वाली रेलगाड़ियों में भेड़ -बकरियों की तरह शरणार्थी लोगों का हुजूम खचाखच ठुसा रहता था । ऐसा ही मुझे इस शाहदरा जाने वाली ट्रेन को देख कर लग रहा था । जितने यात्री डिब्बे के अंदर थे उससे कहीं अधिक छत पर सवार थे ।


समस्या गहन थी कि घर वापिस कैसे पहुंचेंगे । घर वाले क्योंकि ट्रेन का मासिक पास बनवा कर दे देते थे इसलिए जेब में अलग से कोई खर्चा -पानी भी नहीं होता था । अब सवाल करो या मरो का आ पड़ा था । । प्लेटफ़ॉर्म पर गाड़ी के एक छोर से दूसरे छोर तक चक्कर लगा डाला पर अंदर घुसने का कहीं कोई जुगाड़ नहीं लग पाया । अब ट्रेन के छूटने का टाइम हो चुका था, सिग्नल डाउन था – लाइन क्लियर थी और गार्ड साहब ने सीटी बजा कर हरी झंडी दिखानी शुरू करदी थी । अचानक पता नहीं दिमाग में क्या आया – अपने दोस्त का हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए इंजिन की अगाडी बने चबूतरे पर चुपके से सवार हो गया । ड्राइवर का ध्यान उस समय पीछे गार्ड की हरी झंडी देखने में केंद्रित था इस लिए वह हमारी हरकत को नहीं देख पाया । इंजिन ने जबरदस्त कानफोडू अंदाज में सीटी मारी और जबरदस्त हिचकोले खाता चल पड़ा । यह उन दिनों की बात है जब अधिकतर गाड़ियां काले -कलूटे भाप के इंजिन से चला करती थीं । उन कोयले पानी से चलाने वाली रेल गाड़ियों को आज तक छुक -छुक गाड़ी के नाम से भी याद किया जाता है । 


जब उस इंजिन पर चुपके से सवार हुए थे तब दिल मे एक तरह की खुशी थी जैसे किला फतह कर लिया हो । पर यह खुशी ज्यादा देर तक बरकरार नहीं रह पायी । धीरे-धीरे इंजिन रफ्तार पकड़ता जा रहा था । गाड़ी की रफ्तार के हिसाब से ही दिल की धड़कनें और साँसे बढ़ती जा रहीं थी । रही सही कसर कमबख्त इंजिन की सीटी पूरी कर देती थी । रह - रह कर जब भी ठीक सिर के ऊपर बजती, लगता कान के परदे फट जाएंगे , कलेजा मुंह को आ रहा था । हम दोनों ही दोस्त पालथी मार कर कस कर एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बैठे हुए थे । इंजिन पूरी तूफ़ानी रफ्तार पर आ चुका था । कमर तोड़ भयानक हिचकोले खतरनाक ढंग से शरीर को हिला रहे थे । कभी लगता था जैसे शरीर में मिर्गी का दौरा पड़ रहा हो – और कभी लगता रेगिस्तान में किसी दौड़ते हुए ऊंट की सवारी कर रहे हैं । सामने से आती आती तेज हवा में आँखे खोल कर रखना मुश्किल हो रहा था । कमर के पीछे इंजिन की धधकती कोयला भट्टी की गर्मी से इतनी तेज हवा के झोंकों के बीच भी शरीर पसीने से नहा रहा था । सामने से आती धूल भरी गरम आंधी नुमा तेज हवा, इंजिन का काला धुआँ , यहाँ -वहाँ बिखरी कोयले और राख की कालिख ने हमारा ऊपर से लेकर नीचे तक ऐसा काला -कलूटा मेकअप कर दिया था कि कोई भी ब्लेक केट कमांडो समझने की भूल कर सकता था । डर के मारे एक तरह से घिग्गी बंध गई थी । किताब – कापियाँ तेज हवा और झटकों की वजह से हाथ से छूट – छूट कर इधर उधर फिल्मी गाना गाते हुए भाग रहीं थी – मुझे रोको ना कोई मैं चली , मैं चली । उन किताब कापियों को संभालता था तो उस तेज रफ्तार में खुद का संतुलन बिगड़ने लगता था । लगता जैसे साक्षात ईश्वर प्रश्न कर रहे हों – “ वत्स तुझे ज्ञान प्यारा है या प्राण”? बार -बार अपने सभी देवी – देवताओं से मनौती मना रहा था – बस इस बार सही सलामत घर के दर्शन करवा दो प्रभु – इसके बाद कभी ऐसा पंगा हरगिज नहीं लूँगा । शाहदरा स्टेशन – जहाँ मुझे उतरना था , वह भी अब पास ही आ रहा था । हम दोनों दोस्त ही अब थोड़े निश्चिंत हो चले थे और सोच रहे थे कि ईश्वर ने हमारी प्रार्थना सुन ली है । पर नहीं रे नहीं – अभी तो उस ऊपर वाले ने अभी इस किस्से का क्लाइमेक्स भी दिखाना था । तो हुआ कुछ यूँ , कि रेल की पटरी के साथ -साथ कुछ शरारती स्कूल के बच्चों का झुंड गुजर रहा था । उन्होंने जब इस तेज रफ्तार इंजिन के आगे बैठे हम अजूबों को दूर से ही देखा तो उन्होंने आव देखा न ताव – हो – हो की आवाजें कर मचाने लगे शोर । इतने पर भी गनीमत थी – उन दुष्टों ने पास पड़े पत्थर उठा लिए और हो गए शुरू – दे दनादन । अब आप खुद सोचिए – तेज रफ्तार दौड़ते इंजिन पर बैठे किसी इंसान को अगर एक छोटा सा भी पत्थर लग जाए तो कपाल क्रिया की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी । कुछ हमारे पुण्य कर्म रहे होंगे और कुछ उस ऊपर वाले की मेहरबानी , उस पत्थर -वर्षा से हम सकुशल बच गए । हाँ , हमारी मौजूदगी से अनजान, उस इंजिन के ड्राइवर उन पत्थर बरसाते शरारती बच्चों के बर्ताव पर जरूर अचंभा कर रहे होंगे। 

खैर , जैसे -तैसे कर अपनी मंजिल के स्टेशन पर पहुँचे । जितनी चालाकी और चोरी से सबकी आँख बचा कर उस इंजिन रूपी शेर पर सवार हुए थे उतनी ही चतुराई से चुपचाप उतर गए । सिर्फ उतरे ही नहीं – कान दबा कर सिर पर पाँव रख कर भाग खड़े हुए । सीधे घर पहुँच कर ही दम लिया । माँ ने देखते ही आश्चर्य से सवाल किया- “यह क्या हुलिया बनाया हुआ है ? क्या हुआ ? ज़रा शीशे में अपनी शक्ल देखो । ” जब सचमुच शीशे में अपनी शक्ल देखी तो सामने शोले फिल्म का काला -भुजंग साक्षात कालिया नजर रहा था । उलझे हुए चीकट बाल, चेहरे पर कोयले की कालिख, कपड़ों पर धूल, ग्रीस और कालिख से बने दुनिया के सभी देशों के नक्शे । माँ के सवाल का लड़खड़ाती जुबान से यही जवाब निकला : “कोयले के ढेर पर फिसल कर गिर गया था । ” भगवान का शुक्र है उसके बाद आगे सवाल -जवाब नहीं हुए । 

चलते -चलते सबको एक सलाह – जो बेवकूफी मैंने की , आप मत करिएगा । भगवान हर इंसान पर हर वक्त मेहरबान नहीं होता ।

Friday 1 May 2020

ज्ञान की गंगा

क्या बताऊँ अपने दिल के दर्द को । परेशान हूँ पिछले एक महीने से । दिमाग है कि काम ही नहीं करता । हाल बिल्कुल फिल्मी गानों के मुखड़ों जैसा हो गया है -मेरी नींदों में तुम – मेरे ख्वाबों में तुम , जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है , भूल गया सब कुछ – याद नहीं अब कुछ – बस एक बात ना भूली - - - - हाय कोरोना, हाय कोरोना , हाय कोरोना – सगरे बैठे इस इंतजार में – कब जाएगो कोरोना । टी. वी में , सोशल मीडिया में , अखबारों में – जहाँ देखो- जिसे देखो - लगा है कमबख्त का मारा डराने मेँ कि ससुरे तू कोरोना से मरे या ना मरे, उससे पहले हम तुझे डरा -डरा कर ही मार डालेंगे । भाई जी ये हालात हो गई है कि रामसे ब्रदर्स की भूतों की खौफनाक फिल्म देखने की जरूरत ही नहीं रह गई है । आप कभी भी किसी भी न्यूज़ चेनल पर खबरे देखिए – कसम उड़ान झल्ले की, दिल ऐसे -ऐसे झटके मारेगा कि बिना हार्ट अटेक के ही जन्नत की राह नजर आने लगेगी । टी. वी बंद कर आप मोबाइल में व्हाट्सएप संदेश खोलते हैं तो लगता है इस ब्रह्मांड के सबसे अज्ञानी पुरुष हम ही बचे हैं । जिधर देखो ज्ञान की गंगा पूरे प्रचंड वेग से पूरे उफान पर बह रही है - जिसे देखो वही कोरोना ज्ञान बाँट रहा है, सलाह पर सलाह । कोई कहता है कोरोना से बचने के लिए करेला खाओ तो कोई कहे च्यवन प्राश । हे मेरे राम , मेरा बस चले तो इन सब सलाहकारों को हवाई जहाज़ में चढ़ा कर सीधे चीन के वुहान का टिकट काट दूँ कि जाओ भाइयों जाओ वहाँ की चमगादड़ प्रयोगशाला में आप सबकी ज्यादा जरूरत है । हद तो तब हो जाती है जब पौराणिक युग के भूले-बिसरे परिचित भी फोन करके हाल -चाल पूछते हैं । मुझे अच्छी तरह से पता है – हाल-चाल पूछना तो सिर्फ एक बहाना है , दरअसल जानना तो वह यह चाहते हैं कि भाई साहब अभी तक इस दुनिया में टिके हुए हो या खर्च हो गए । बाई गॉड की कसम, सोचा न था कभी ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे - मन करता है शर्म के मारे उसी ज्ञान की गंगा में डूब मरूँ जो चारों ओर बह रही है । पहले शेरो-शायरी में दर्दे -दिल बयां करते थे – मुद्दत हुई है यार के दीदार किए हुए । अब यार की जगह नाई ने ले ली है । नतीजा अच्छे -भले हीरो थे – पर बालों की खेती ने धीरे-धीरे हिप्पी बनाया – किसी तरह उसे भी बर्दास्त किया । यही हिप्पीकट जब औगढ़ बाबा की जटाओं में बदल गया तो घर के बच्चे भी डरने लगे । ये भी जीना कोई जीना है लल्लू - घर वाले रात को भूत समझ बैठते हैं और दिन में अड़ोसी -पड़ोसी भिखारी । मरता क्या न करता – भाई जी , मैंने तो उठा कैंची – कंघी , घर पर ही खोपड़ी पर सीधे ट्रेक्टर चला दिया । यह जो नया स्टाइल आया उसे कोरोना कट कहते हैं जो आजकल का लेटेस्ट फैशन ट्रेंड बन चुका है । कुछ लोग कहा करते हैं – मजबूरी का दूसरा नाम महात्मा गांधी, पर मेरे लिए तो यह कोरोना कट है । आइए, चलते-चलते अपने और अपनी मित्र -मंडली के कुछ ऐसे ही मजबूर बिरादरी के बंदों के दर्शन करवा देता हूँ ।

परेशान परिंदा  - मुकेश कौशिक 

बंगाली बाबू -श्री देबाशीष गुप्ताभाया 

आकर्षक - श्री आदित्य शर्मा 
दोस्तों , ये सारी दिक्कतें अपनी जगह है , मैं तो केवल यही कहूँगा आप सब सब स्वस्थ  रहें - मस्त रहें , सावधान रहें पर जरूरत से ज्यादा परेशान ना हों । ज्यादा सलाह बिल्कुल नहीं क्योंकि ज्ञान की गंगा में पहले से ही बहुत बाढ़ आयी  हुई है । 

भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...