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Sunday, 13 October 2019

घर में सावन

इस संसार में कोई भी पूरी तरह से स्वाबलंबी नहीं है | हर किसी को किसी न किसी पर कुछ हद तक निर्भर तो रहना ही पड़ता है | एक तरह से यह भी कह सकते हैं कि बेशक आप कितने ही आला दर्जे के फन्ने खां क्यों न हों, कहीं तो आपको सज़दा करना ही पड़ेगा | अब किसी से अपना काम निकलवाना भी अपने आप में एक हुनर है जो हर किसी के बूते की बात नहीं | कुछ लोग इस कला में माहिर होते हैं तो कुछ फिस्सडी | पुराने से भी बहुत पुराने ज़माने में एक अत्यंत विद्वान व्यक्ति थे जिनका दिमाग चाचा चौधरी से भी तेज़ चलता था | उनके नाम से आप सभी भली- भांति परिचित होंगे – चाणक्य | वह भी लुकमान हकीम की तरह हर मर्ज़ की दवा बता गए थे – अब यह बात अलग है कि उनके बताये इलाज़ शारीरिक कष्टों से सम्बंधित न होकर, दुनियादारी, राजनीति और कूटनीति से ताल्लुक रखते हैं | हज़ारों वर्ष बीत जाने के बाद आज भी चाणक्य नीति के विचार आपको व्हाट्सेप के सुविचारों की दुनिया में उड़ान भरते नजर आ जायेंगे | किसी से भी काम निकलवाने के लिए चाणक्य नीति का एक बहुत ही कारगर और दमदार नुस्खा है – “ साम- दाम- दंड- भेद” | साम : समझा कर , दाम : लालच दे कर , दंड : धमका कर, भेद : कुटिल, तिकड़मबाजी और घाघ तरीके अपना कर ( जैसे ब्लेकमेलिंग ) | अब आप कहेंगे मैं यह सब आपको क्यों बता रहा हूँ | कारण केवल इतना है कि आज तक एक मजेदार घटना और चाणक्य नीति के बीच ताल-मेल नहीं बैठा पा रहा हूँ | 
यह किस्सा भी बहुत पुराना है और उस किस्से को मुझे सुनाने वाले मेरे ख़ास मित्र भी उतने ही पुराने हैं | उनका नाम भी बता ही देता हूँ - श्री रविन्द्र  निगम | देश -विदेश में सीमेंट उद्योग के तकनीकी क्षेत्र में एक तरह से भीष्म पितामह का रुतबा हासिल कर चुके हैं | विदेशों में भी अपने कार्य-कौशल के झंडे गाढ़ चुके हैं | इतिहास के पुराने पन्नों से निकाला यह किस्सा भी आज से तकरीबन तीस साल पुराना तो होगा ही | निगम साहब उन दिनों भारतीय सीमेंट निगम के हरियाणा में स्थित चरखी दादरी प्लांट में तैनात थे | लगे हाथ यह भी बताता चलूँ कि हमारे निगम साहब और सीमेंट निगम में कहीं से भी दूर-दूर तक कोई रिश्तेदारी नहीं है ठीक उसी तरह से जैसे प्राचीन गणितज्ञ -वैज्ञानिक आर्य भट्ट और आज की आलिया भट्ट में | चरखी दादरी जो आज के समय में अपने आप में एक जिला बन चुका है, रोहतक और भिवानी के साथ भौगोलिक रूप से सटा हुआ है | देश के सबसे पुराने सीमेंट कारखानों में से एक वहीं पर था| इसे उद्योगपति डालमिया ने वर्ष 1940 के दौरान बनवाया था | ज़ाहिर सी बात है , समय के साथ-साथ कारखाना पुराना और बीमार पड़ता चला गया और वर्ष 1980 के आते -आते एक तरह से दम ही तोड़ दिया | अब उस फेक्ट्री के बंद होने से सैकड़ों कर्मचारी बेरोजगार हो गए | तत्कालीन सरकार पर जब तरह-तरह के राजनैतिक दबाव पड़ने लगे तब उस बंद पुराने बीमार कारखाने को केंद्र सरकार के आधीन सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया (सी.सी.आई ) के सुपर्द कर दिया गया | एक पुरानी कहावत है – मरी गैय्या , बामन के नाम | बस कुछ उसी तर्ज़ पर उस फटे - पुराने ढ़ोल को सी.सी.आई के गले में लटका दिया गया कि बेटा बजाते रहो अगर बजा सकते हो तो | सी.सी.आई ने अपने जिन अनुभवी और प्रतिभाशाली अधिकारियों की टीम को उस मरियल बैल को हांकने की जिम्मेदारी सौपीं थी , हमारे निगम साहब भी उन्हीं में से एक थे | 
उन दिनों के निगम साहब ( बाएं) के साथ मैं  मुकेश कौशिक 
अब जैसा कि आपको बता चुका हूँ वह सीमेंट प्लांट जितनी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था , वहां की रिहायशी कॉलोनी के मकानों की हालत भी उसी तरह की थी | वहां पर सिविल डिपार्टमेंट के प्रमुख थे श्री एच.सी.मित्तल | 
स्व० श्री एच.सी. मित्तल 
आज वह इस दुनिया में नहीं हैं – ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे | निहायत ही शरीफ़ और दीनो-दुनिया से दूर , अपने काम से काम रखने वाले | अब उन पुराने मकानों की मरम्मत करवाने से संबंधित तरह- तरह की शिकायतों का ढेर किसी पहाड़ से कम नहीं था | अब हालत यह कि इधर सीमेंट प्लांट की दिक्कतें और दूसरी ओर टाउनशिप के मकानों की टूट -फूट का रोज का रोना-पीटना और मित्तल साहब का दफ्तर में बैठना मुश्किल, सड़क पर चलना उससे भी ज्यादा मुश्किल | अपनी तरफ से जितना बन पड़ता करते पर कुल मिला कर मामला वही – एक अनार और सौ बीमार | 
ऐसी ही एक समस्या निगम साहब के घर में भी खड़ी हो गयी जब उनके फ्लेट में छत से ऊपर की मंजिल पर बने मकान का पानी टपक-टपक कर गिरना शुरू हो गया | निगम साहब ने भी अपनी फ़रियाद मित्तल साहब के डिपार्टमेंट में करवा दी| कुछ दिनों बाद एक-आध बार मित्तल साहब को याद भी दिलवा दिया | दिन बीतते गए और निगम साहब के फ्लेट में बेमौसम का सदाबहार सावन बदस्तूर जारी रहा | थक हार कर निगम साहब भी अपने दिल को तस्सली देकर चुप बैठ गए कि चेरापूंजी में भी तो लोग रहते ही हैं | समय एक सा नहीं रहता, आखिर एक दिन वक्त ने करवट ली और सड़क पर निगम साहब और सिविल डिपार्टमेंट के प्रमुख मित्तल साहब का आमना -सामना हो गया | मित्तल साहब खुद ही पूछ बैठे – आपके घर की जो प्रोब्लम थी वह ठीक हो गयी क्या ? निगम साहब थोड़ा सा मुस्कराए फिर बोले – “सर अभी तक तो नहीं | हाँ इतना जरूर है कि मैंने उस टपकती आलमारी के ठीक नीचे अपने पूजा घर के सभी देवी-देवता बिठा दिए हैं यह कह कर कि भगवन मैं तो अब मजबूर हूँ | जब तक मित्तल साहब की दया- दृष्टि नहीं होती तब तक इसी प्रकार से स्नान करते रहिए |हम से तो हो नहीं पाया, आप काम करवा सकते हैं तो करवा लीजिए |” सुनकर मित्तल साहब कुछ नहीं बोले , सिर्फ मुस्करा कर चल दिए और निगम साहब भी अपने काम काज में व्यस्त हो गए | 
अगले दिन जब रोज की तरह फेक्ट्री के लंच टाइम में निगम साहब अपने फ्लेट पर पहुंचे तो वहां का नज़ारा देख कर हक्के-बक्के रह गए | सुपरवाइज़र के साथ करीब दस -बारह मजदूर हल्ला बोल चुके थे | सभी उस टपकती छत के इलाज़ में मुस्तैदी से व्यस्त थे | उनके सुपरवाइजर ने बताया कि मित्तल साहब का आदेश है जब तक निगम साहब की ( या यूँ कह लीजिए देवी-देवताओं की ) शिकायत दूर नहीं होती है, वापिस मत लौटना | और इस प्रकार से निगम साहब के यहाँ से सदाबहार सावन की विदाई हुई | 
मैं आज तक यह नहीं समझ पाया हूँ कि इस सारे प्रकरण में “साम-दाम-दंड-भेद “ की चाणक्य नीति, या मित्तल साहब की शराफत या भक्ति-भाव  के कौन से फार्मूले ने काम कर दिया | अगर आप बता सकते हैं तो मुझे ज़रूर बताइयेगा |

Monday, 24 June 2019

साहब का पाजामा बनाम हाथी के दांत ( सत्य घटना से प्रेरित लघु कथा )



हा कर निकला ही था पर पहनने के लिए पाजामे का अता-पता ही नहीं | तौलिया बांधे पागलों की तरह से अलमारी खंगाल रहा था कि  पीछे से  श्रीमती जी ने आकर खोज निकाला और मुस्कराते हुए कहा – क्यों आसमान सर पर उठा रखा है | तुम्हारा पाजामा न हो गया मानों कोहनूर हीरा हो गया | बिना बहस किये चुपचाप  खिसिया कर  पाजामा ले लिया और वहां से  खिसक लिया  | अब उन्हें कौन समझाए कि किसी भी चीज़ की अहमियत को कम कर के नहीं आंकना चाहिए | इस बात को मुझसे ज्यादा कोई नहीं समझ सकता , आखिर भुक्तभोगी जो ठहरा | वह घटना आज तक मुझे अच्छी तरह से याद है |
यह बात उन दिनों की है जब मैं देहरादून में कार्यरत था | एक दिन सूचना मिली कि बड़े साहब का निरीक्षण दौरा होने जा रहा है | आनन-फानन में सारी तैयारियां मुक्कमल करीं गयी |  आखिर वह नियत दिन आ पहुँचा | शहर के एक बड़े होटल में मीटिंग का प्रबंध किया गया | दफ्तर के सभी महत्वपूर्ण अधिकारी अपनी पूरी तैयारी के साथ धड़कते दिल से और राम-नाम जपते हुए हाज़िर हो गए | मीटिंग शुरू हुई और हर अधिकारी के काम-काज की समीक्षा और चीर-फाड़ शुरू हुई | अब साहब का हाल यह कि वह किसी से भी खुश नहीं | हर किसी को  धमकाते  और लताड़ते | सभी के लिए एक ही उपदेश – सुधर जाओ | मार्केटिंग के आदमी हो, कभी दफ्तर से भी बाहर निकला करो | अपने दफ्तर के खर्चे कम करो | फालतू के टी.ए बिल पसंद नहीं , वगैरह ...वगैरह | सभी बंद दिमाग से कान दबा कर महापुरुष के सत्य वचन  सुन रहे थे और  दम साधे  इस प्रवचन सभा की सकुशल समाप्ति का इंतज़ार  कर रहे थे |  खैर हर बुरे वक्त की तरह उस सर्कस मजमें का भी अंत हुआ | देर रात हो चुकी थी |खाना-पीना हुआ और इसके बाद साहब का फरमान जारी हुआ..... “बाहर से आये सभी अफसर अपनी –अपनी नियत जगहों के लिए अभी  रवाना हो जाएँ | रात को कोई होटल में नहीं ठहरेगा | सरकारी खर्चे कम करिए |”  अब यह बात अलग है कि खुद  साहब तो  खा-पी कर सारी मीटिंग  बिरादरी को धकिया कर, लतिया कर  , रोता कलपता छोड़, खुद उस आलीशान होटल के शानदार कमरे में खर्राटेदार नींद का लुत्फ़ लेने के लिए सिधार गए |
अगले दिन सुबह का नाश्ता-पानी करने  के बाद साहब बहादुर  फ्लाईट से वापिस दिल्ली उड़ चले | आयी बला के टलने  पर इधर मैंने भी चैन की सांस ली |  शाम के समय साहब के पी.ए का फोन आया – साहब बात करेगें | साहब लाइन पर आये | दो-चार मिनिट इधर-उधर की बातें करने के बाद बोले – “मेरा पाजामा होटल में रह गया है | जरा देख लेना |” अब इस देख लेना के क्या मायने होते हैं यह मुझे देखना था | अब यह कोई ब्लाक-बस्टर पिक्चर बाहुबली  का पाजामा तो था नहीं जो थियेटर में जा कर देख आता | अपने स्वर्गीय पूज्य पिताश्री की अक्सर दोहराए जाने वाली कहावत याद आ गयी  : गूंगे की बात गूंगा जाने, या जाने उसकी मैय्या | साहब की बात का मतलब समझ में आ गया कि जनाब जान की सलामती चाहते हो तो पजामा तुरंत खोजो और हाज़िर करो | दफ्तर बंद होने का समय हो चला था पर तुरंत आपातकालीन मीटिंग बुलाई गयी | एक शख्स को फटाफट मौका-ए-वारदात यानि उस होटल को रवाना किया गया इस हिदायत के साथ कि ग्राउंड जीरो से पूरी तफ्शीश करके रिपोर्ट भेजी जाए | कुछ देर बाद रिपोर्ट भी मिल गयी – साहब का पजामा मिल गया | सुनकर सचमुच इतनी खुशी हुई जितनी शायद नासा को मंगल गृह पर पानी मिलने पर भी नहीं हुई होगी | पसीने में लथपथ, हांफता-कांपते वापिस लौटे हनुमान जी ने संजीवनी बूटी की तरह से पजामा हाज़िर कर दिया | समय कम था, तुरंत सुन्दर सी पेकिंग में उस पजामे को विराजमान करने के बाद एक अन्य कर्मचारी की तैनाती हुई इस हिदायत के साथ कि भाई रात्री बस सेवा से दिल्ली के लिए रवाना हो जाओ और मुर्गे की पहली बांग से पहले, ब्रह्ममुहूर्त में   साहब  के दौलतखाने में इस आफत की बला से छुटकारा पा आओ | एक्शन प्लान पर सर्जिकल स्ट्राइक की तर्ज पर निहायत ही बारीकी से अमल किया गया और बिना किसी जान-माल के नुक्सान के, हमारा बहादुर सेनानी, साहब ( जान के दुश्मन) के खेमे से सुरक्षित वापिस लौट आया | 
हर युद्ध के लिए कुछ कीमत भी चुकानी पड़ती है | यह पजामा अन्वेषण अभियान भी कोई अपवाद नहीं था | जब उन बिलों पर साइन करने बैठा तो जो इस अभियान से जुड़े थे, तो पता चला खर्चा आया लगभग साढ़े तीन हज़ार रुपयों का | उस समय दिमाग में एक और कहावत याद आ रही थी : हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और |

(*इस सत्य कथा के सभी पात्र काल्पनिक हैं ....... किसी भी प्रकार की समानता संयोगवश हो सकती है , पर संयोग भी इसी दुनिया का सच है | अब आप सच-झूठ का फैसला करते रहिए , मैं तो चला |)


Saturday, 9 March 2019

लैला, मजनूं और कर्नल


लैला, मजनूं और कर्नल - लगता है ना बड़ा ही अजीबो-गरीब जोड़-तोड़ | आप भी सोच रहे होंगें इन तीनो का क्या मेल | यह तो बिलकुल ऐसा ही लगता है जैसे तोता-मैना और बंदूक का आपस में हिसाब-किताब हो | आपका सोचना भी अपनी जगह ठीक हो सकता है पर कभी-कभी असल ज़िंदगी में जब ये आपस में टकरा जाते हैं तो वाकई में ऐसी परिस्थिति पैदा हो जाती है कि न उगलते बनता है और न निगलते | चलिए अब बात को और न उलझाते हुए सीधे किस्से  पर आते हैं| 

तो हुआ कुछ यूँ कि एक दिन बैठे-बिठाए अपने एक मित्र से मिलने का मन कर आया जो कि एक नामी –गिरामी अस्पताल में अच्छे-खासे ऊँचे ओहदे पर काम करते हैं | पहुँच गए उनसे मिलने | बहुत ही व्यस्त रहते हैं – सो इससे पहले कि उनके आफिस तक पहुंचता, वे अस्पताल की लॉबी  में ही चहल-कदमी करते नज़र आ गए | आदत के अनुरूप, तपाक से बड़ी गर्मजोशी से मिले और अपने आफिस की और ले चले | लाबी से दफ्तर तक के रास्ते में अनगिनत नमस्ते और सलामों की बारिशों का अपनी मुस्कान से उत्तर देते हुए अपने कमरे तक पहुंचे | सीट पर बैठते ही चपरासी ने चाय पेश कर दी | चाय की चुस्कियां लेते हुए इधर-उधर के हाल-चाल पूछते हुए अचानक उनसे सवाल कर बैठा – “गुरु , यह बताओ आखिर आप इस अस्पताल में करते क्या हो ? मैं आज तक तुम्हारे काम-काज के बारे में आज तक नहीं जान पाया हूँ |” चाय की चुस्की लेते हुए उन्होंने जवाब दिया - बस यह समझ लो कि हर किसी के पंगे का निपटारा करने की मुसीबत मेरे ही सर पर है | मैंने कहा समझा नहीं तो बोले आप चाय पीजिए , जल्द ही समझ भी जायेंगे और खुद देख भी लेंगें | 

अभी चाय ख़त्म भी नहीं हुई थी कि अचानक उनके फोन की घंटी बजी | फोन सुनकर कहा- अभी आता हूँ| मेरी तरफ देखते हुए बोले - चलिए कौशिक जी , मोर्चे पर | अपने दफ्तर से निकल कर जैसे ही वार्ड की तरफ चले, रास्ते में ही मित्र को नमस्कार करते हुए एक सज्जन मिले और बोले मैंने ही आपको फोन किया था | मेरा नाम कर्नल गुप्ता है, फिलहाल बड़ी परेशानी में हूँ, मदद कीजिए | पहली नज़र से देखने से ही कर्नल साहब के पसीने छूटते साफ़ महसूस किये जा सकते थे | वे बार-बार एक ही बात दोहरा रहे थे, मेरा मोबाइल वापिस करवा दीजिए | पूरी बात सुनने पर एक अजीब ही कहानी सामने आयी | दरअसल कर्नल साहब, जिनकी उम्र होगी यही कोई सत्तर साल के आस-पास , अपनी कार में कहीं जा रहे थे | कार उनका ड्राइवर चला रहा था | अचानक एक तेज़ गति से आ रही मोटर-साइकिल ने धड़ाम से कार की पिछाड़ी में इतनी जोरदार टक्कर मारी कि पूरी कार इस बुरी तरह से धमाके से हिल उठी जैसे सर्जिकल स्ट्राइक की बमबारी हो गयी हो | कार के अन्दर बैठे कर्नल साहब भी एक क्षण को भौंचक रह गए कि हुआ तो हुआ क्या | बाहर निकल कर देखा तो पाया उनकी कार की पिछाड़ी का रखवाला बम्पर, मोह-माया से मुक्त योगी की भांति, कार से अपने सभी सम्बन्ध तोड़ कर, सड़क पर दंडवत मुद्रा में पड़ा था | उस बम्पर की बगल में ही वह कबाड़ पड़ा था जिसे कुछ समय पहले तक मोटर साइकिल के नाम से जाना जाता था पर जो सड़क पर हवाई करतब दिखा रही थी | और उन सबसे कुछ दूर सड़क पर ही टूटी-फूटी हालत में पड़ा था डेढ़ पसली का जां-बाज हीरो जो सड़क को अपनी खानदानी मिल्कियत की हवाई पट्टी और अपनी मोटर साइकिल को फाइटर प्लेन समझ कर सड़क पर ही उड़ा रहा था| अब कर्नल साहब ने अपनी फ़ौजी परम्परा और मानवता का परिचय देते हुए उस घायल युवक की सहायता को तुरंत पहुंचे | अपना फोन दिया कि अपने घर वालों को सूचित कर दो | अपनी कार में लेकर अस्पताल तक लाये , भर्ती करवाया | कुछ ही देर में उस घायल युवक के कुछ दोस्त और पिता भी अस्पताल पहुँच गए | कर्नल साहब ने यहाँ भी मानवता का परिचय देते हुए कहा कि हालांकि उनकी कोई गलती नहीं है फिर भी वह इलाज़ में भी रुपये-पैसे से मदद करने को तैयार हैं | इस अफरा-तफरी में अब कर्नल साहब को अपने मोबाइल का ध्यान आया जो कुछ समय पहले उन्होंने उस घायल युवक को सड़क पर आपातकालीन अवस्था में पकड़ाया था | जब उन्होंने उस युवक से अपने फोन को वापिस मांगा तो बन्दे ने यह कह कर साफ़ मना कर दिया कि मुझे आपने कोई फोन कभी दिया ही नहीं था | अब कर्नल साहब की सिट्टी-पिट्टी गुम | कहते हैं आदमी बदमाशी की जंग तो बहुत आसानी से जीत लेता है पर इन्सानियत की लड़ाई में अकसर हार जाता है | यहाँ भी मामला काफी कुछ ऐसा ही लगा रहा था और इस परेशानी में कर्नल साहब को मेरा अस्पताली  मित्र याद आया | मित्र ने सबसे पहले यह बात साफ़ करी कि अस्पताल का इस मामले में कुछ लेना-देना नहीं है , यह आप दोनों के बीच का मसला है फिर भी देखता हूँ कि क्या कर सकता हूँ | उस युवक के पिता जी हक्के -बक्के खड़े थे, मानो उन्हें कुछ समझ ही नहीं आ रहा हो | इस बीच मेरे मित्र ने जोर से सबको सुनाते हुए कर्नल साहब को सुझाव दिया कि आप मोबाइल के बारे में पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवा दीजिए | पुलिस यहीं अस्पताल में मौजूद है, सारी तहकीकात हो जायेगी और सच भी सामने आ जाएगा | इतना सुनते ही उस घायल सड़क छाप हवाई पायलट के चेहरे पर मानों आफत के तीतर-बटेर एक साथ उड़ने लगे | कभी वह अपने दोस्तों की मंडली को देखता तो कभी अपने अब्बा को | इतने में उसके एक दोस्त ने मेरे अस्पताली मित्र का हाथ पकड़ कर एक कोने में ले गया और धीमे स्वर में लगभग फुसफुसाती आवाज में कहा – “ सर , हाथ जोड़ता हूँ , यह पुलिस का झमेला मत करिए | मोबाइल आप को वापिस मिल जाएगा| बस आप बात समझिए |” अब गुर्राने की बारी कर्नल की थी, लगभग धमकी के अंदाज़ में बोले “ साफ़-साफ़ बात बोलो,इससे से पहले कि कुछ और गलत हो जाए |” युवक के दोस्त ने अब जो बताया उसने पूरी कहानी को एक नया ही मोड़ दे दिया | दरअसल अब इस किस्से में एक लैला की भी एंट्री हो चुकी थी | उस दिन मौसम बहुत ही सुहावना था और वह युवक जिसे हम अब मजनूं  भी पुकार सकते हैं, अपनी फटफटी पर लैला को लेकर निकल पड़े थे  सड़क पर तूफानी रफ़्तार से | उस ट्रेफिक से भरपूर सड़क पर लैला-मजनूं  का दुपहिया जहाज़ मानों उड़ा ही चला जा रहा था | उस रफ़्तार को देख कर एक बारगी तो भारतीय वायुसेना को भी लग रहा था कि उन्होंने राफेल हवाए जहाज़ के आर्डर देकर शायद गलती कर दी | जब उस मजनूं  की मोटर साइकिल अनियंत्रित होकर कर्नल की कार की पिछाडी से जा कर भिड़ी तब कर्नल से मिले मोबाइल को उसने अपनी लैला को सौप दिया क्योंकि वह खुद फोन करने की हालत में नहीं था | अब लैला ठहरी नए ज़माने की | पुराने ज़माने की होती तो मजनूं  का सर सड़क पर ही अपनी गोद में रख कर दुपट्टे से हवा कर रही होती | यहाँ तो उसने जैसे ही भीड़ जुटती देखी, मोहतरमा हो गयीं तुरंत ही नौ-दो- ग्यारह | अब लैला फुर्र और लैला के साथ कर्नल का मोबाइल भी फुर्र | अब इधर अस्पताल में भर्ती मजनूं  की हालत अपने बाप के जूते के डर से और भी पतली | अपने बाप से कहे भी तो कहे क्या – यही कि बापू, कर्नल का मोबाइल आपकी होने वाली बहू के पास है जिसे साथ बिठा कर मैं सड़क पर हवाई जहाज़ उड़ा रहा था| अब अगर लैला नए ज़माने की थी तो यह मजनूं  भी शर्तिया उसी की टक्कर का था | पुराना मजनू नहीं डरा था पत्थरों के वार से , पर इस मजनूं की तो बत्ती बंद हो गयी थी बापू की मार से | यही सोचकर उस मजनूं की डर के मारे सच बताने की हिम्मत नहीं हो रही थी | कुल मिला कर इस दास्ताने लैला-मजनूं का हर किरदार परेशान : 

मजनूं परेशान कहीं बापू को पता न चल जाए,
लैला परेशान कहीं इस सारे लफ़ड़े में बदनामी न हो जाए ,
कर्नल परेशान हाय कहाँ गया मेरा मोबाइल,
और सबसे ज्यादा परेशान मेरा अस्पताल वाला मित्र यह सोच कर कि ये सारे बेमतलब के पंगे सुलटाने के लिए मेरे ही हिस्से में क्यों आते हैं |

खैर सारी कहानी का अंत इस आश्वासन के साथ हुआ कि कर्नल को उसका मोबाइल गुपचुप तरीके से वापिस करवा दिया जाएगा | अब यह सचमुच हो पाया या नहीं यह मैं आप सबकी कल्पना पर छोड़ता हूँ क्योंकि उस दिन के बाद मैनें भी अपने अस्पताली मित्र की कोई खोज-खबर नहीं ली है |

Saturday, 22 December 2018

चमचे की चित्रकारी



22 साल की उम्र में वर्ष  1978 में सीमेंट कॉर्पोरेशन आफ़ इंडिया के हिमाचल प्रदेश स्थित  राजबन फेक्ट्री में नयी-नयी नौकरी लगी थी | उम्र और तजुर्बा, दोनों के ही मामले में पूरी तरह से अपरिपक्व | यह उम्र का वह दौर था जब बचपन पूरी तरह से गया नहीं था और जवानी पूरी तरह से आयी नहीं थी | बस यह समझ लीजिए कि बीच की दहलीज पर थे | मेरा मानना है कि नौकरी के लिहाज से उम्र की वह दहलीज बड़ी खतरनाक होती है क्योंकि उस समय तक दुनियादारी की पूरी तरह समझ आयी नहीं होती है और दफ्तर में भी कालेज जैसी शरारतें इस हद तक कर दी जाती हैं कि अगर नौकरी सरकारी है तो सालाना रिपोर्ट खराब हो सकती है, ट्रांसफ़र हो सकता है| बदकिस्मती से अगर प्राइवेट सेक्टर या लाला  की नौकरी है तब तो ऐसी नादान कारस्तानियाँ घर बिठाने की नौबत भी ले आती हैं| एक बारगी ऐसे ही किसी खुराफ़ाती लम्हें में अपने एक दक्षिण भारतीय सहकर्मी की  नेम प्लेट के नीचे चुपके से बड़ा सुंदर सा चमचे का चित्र बना दिया था | कारण सिर्फ इतना था कि वह सहकर्मी तत्कालीन महाप्रबंधक का खासम-खास मुंह लगा सिपहलसार था | यानी पल पल की चुगलखोर खबरें  बिजली की भी तेज रफ़्तार से मास्टर कंप्यूटर तक पहुंचाने वाला उस ज़माने का वाई-फाई | इन हरकतों की वजह से बस यह समझ लीजिए कि ‘ सारी दुनिया - सारा जहान, सारे दुखी- सारे परेशान’ | अब नज़ारा देखने लायक था – जो भी कारीडोर में उस मित्र के कमरे के आगे से गुजरता, नेम प्लेट पर नज़र पड़ते ही जबरन मुस्कराहट को रोकने का प्रयत्न करता | कारगिल पर हुई पाकिस्तानी घुसपैठ की हरकत की तरह  बाहर की हलचलों से अनजान हमारा जासूस  मित्र अन्दर कमरे में अपने काम -काज में व्यस्त था जब तक कि उस जासूस के भी जासूस ने उसे बताया कि मी लार्ड ! कोई अनाम हिन्दुस्तानी सिरफिरा क्रांतिकारी आपको सरे आम  बाकायदा चमचे की पदवी से सम्मानित कर चुका है | मित्र सब काम छोड़ कर झटपट तुरंत दरवाजे की और लपके | दरवाजे पर लगी नेम प्लेट पर बना सुंदर सा चमचा मानों गागर में सागर भरे उन्हें मुंह चिढ़ा रहा था |  उन्होंने भी शायद अपने जीवन काल में नेम प्लेट पर नाम के साथ सम्पूर्ण चरित्र-चित्रण का इतना संक्षिप्त परिचय शायद ही कभी देखा हो | यह देखते ही मित्र की त्योरियां चढ़ गयीं, पहले से ही सांवली रंगत वाला चेहरा गुस्से से तमतमा कर और काला पड़ गया | लगभग दौड़ते हुए साथ लगे हुए कमरे में आए और अपनी पतली सी कांपती आवाज में मदरासी लहज़े में सभी को सुनाते हुए  चीख कर बोले- ‘किसने किया है ये सब | मैं छोडूंगा नहीं |’ इतना धमाका करने के बाद दिवाली के अनार की तरह जितनी जल्दी वह आये उतनी ही  जल्दी दनदनाते हुए मिसाइल की तरह नदारत भी  हो गए| कमरे में बैठे लोग, जिसमें इस सारे खुराफ़ात की असली जड़ - मैं भी शामिल था, उस अचानक हुए हवाई हमले के लिए तैयार नहीं थे| कुछ देर तक उस कमरे में बिलकुल पिन ड्राप सन्नाटा छा गया | धीरे-धीरे कमरे की चहल-पहल फिर से लौट आई और लोग चटकारे ले-ले कर उस घटना का मज़ा लेते हुए उस अज्ञात वीर सेनानी की  ( यानी मेरी ) हिम्मत की तारीफ़ में जुट गए जिसने सीधे –सीधे इतने मजाकिया अंदाज़ में कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह दिया था | अब एक कोने में चुपचाप बैठे हुए मुझे उस बातचीत में कोई दिलचस्पी नहीं थी | मेरी हालत तो उस सींकिया पहलवान से भी बदतर हो रही थी जो भांग के  नशे में शेर के  ऊपर सवार तो हो गया पर नशा उतरने पर यही सोच कर अधमरा हुआ जा रहा था कि अपने हिस्से का काम तो मैंने कर दिया अब बाकी का काम शेर जी के हवाले | कहने वाले सच ही कह गए हैं कि चोर के पाँव नहीं होते | अन्दर ही अन्दर हालत पतली हो रही थी | अब जिसका डर था वही हुआ | अब अगर हमला इजराइल पर होगा तो शिकायत तो अमरीका तक जानी ही थी | कुछ ही देर बाद जनरल मेनेजर का चपरासी हाजिर हो गया इस फरमान के साथ कि चलो बुलावा आया है, जी.एम ने बुलाया है | जहाँ तक मुझे याद पड़ता है उस समय जी .एम  भूटियानी साहब थे, जो कि एक अच्छे-खासे डील-डोल के गोरे – चिट्टे सिंधी व्यक्ति थे | बहुत ही शांत स्वभाव के मधुर भाषी इंसान | पर भाई, जी.एम तो आखिर जी.एम ही होता है, यानी पूरी फेक्ट्री का एक तरह से खुदा तो खुदा से खौफ़ तो लाज़मी ही था | सो उस खुदा की दरगाह में मन ही मन राम-राम कहते दाखिल हुआ | दरगाह के एक कोने में वही मद्रासी  फरियादी रुआंसी चमचेनुमा शक्ल बनाए खड़ा था | अब तक मैं भी समझ चुका था कि लगता है मास्टर कंप्यूटर में मेरी शिकायत पहले ही वाई –फाई द्वारा अपलोड की जा चुकी है | चमचे की चित्रकारी से सजी मित्र की नेम-प्लेट सामने मेज पर अपराध के सबूत के रूप में रखी थी जो मुझे तिरछी नज़रों से देख कर इशारों में ही मानों पूछ रही थी कि गुरु मुझे पहचाना या नहीं ? हम भी मन में ठान चुके थे ,कुछ भी हो जाए, चाहे तो डी.एन.ए टेस्ट हो जाए इस नामुराद नेम प्लेट का, इस नामाकूल को हम भी मरहूम  एन.डी तिवारी की तरह से कतई अपना नहीं मानेंगे | जी.एम साहब की दबी हुई मुस्कान से यह तो जाहिर हो रहा था कि  मामला की असल वजह तो जान चुके थे पर अमरीका और इज़राइल के बीच की रिश्तेदारी की भी तो इज्जत मजबूरीवश ही सही पर  निभानी तो  पड़ेगी ही , बेशक सरसरी तौर पर ही सही | सो उन्होंने मुस्कराते हुए ही मुझसे पूछा इस नेम प्लेट को देखा है | मैनें नेम प्लेट और मित्र दोनों को ही एक नज़र से देखते हुए कहा – सर बहुत बार देखा है , पर यह चमचा पहली बार देखा है | अब साफ़ लगने लगा कि हँसी रोकना उनके लिए भी भारी सा पड़ने लगा था | फिर से पूछा कि यह तुम्हारा काम है ?  मुझे अच्छी तरह से पता था कि मेरी कारस्तानी का कोई भी चश्मदीद गवाह नहीं है, सो बे-धड़क कहा ‘नहीं सर , चाहे तो मेरी हेंड-राइटिंग मिल लीजिए’ | जवाब सुनकर भूटियानी साहब ने मुस्कराते हुए अपने सर पर हाथ फेरते हुए एक ठंडी सांस छोड़ी और कहा यही तो दिक्कत है, तुम्हारी  हेंड राइटिंग से किसी भी लिखावट को तो मिलवा सकता हूँ पर इस चमचे को नहीं | कहने की बात नहीं मुकदमा बर्खास्त, मुलजिम बाइज्ज़त बरी और फरियादी वापिस अपने कमरे में जिस पर अब कोई नेम प्लेट नहीं थी |
खैर यह किस्सा तब के लिए ख़त्म हो गया | अपने उस साथी से भी मुझे किसी भी प्रकार का वैर नहीं था जो वह भी अच्छी तरह से जानते थे |स्कूल - कालेज के दिनों की तरह यह  शरारती कांड भी मेरी मौज मस्ती का ही भाग था।  उन्होंने भी शिकायत केवल संदेह के आधार पर ही की थी | स्वभाव मेरा भी शुरू से ही मजाकिया रहा इस लिए बाद में सब कुछ सामान्य हो गया | कुछ वर्षों के बाद ट्रांसफर होने पर उन मित्र के साथ बाद में एक अन्य स्थान पर भी साथ ही काम किया पर अपनी कारस्तानी की बात उनके सामने उतनी ही गोपनीय रखी जितनी आज के समय में राफेल हवाई जहाज़ की कीमत रखी जा रही है |
उस घटना को हुए तब लगभग पच्चीस साल बीत चुके होंगें | मैं तब तक देहरादून जोनल आफिस में नियुक्त था | मेरे उसी मित्र का दक्षिण भारत के किसी कोने से फोन आया कि तुम्हारी तरफ घूमने आ रहा हूँ, संभव हो तो ठहरने का इंतजाम करवा देना | यह कोई बड़ी बात नहीं थी, सब इंतजाम हो गया | दोस्त से मिलने की खुशी भी थी | पत्नी सहित पधारे मित्र से बड़े प्यार से मुलाक़ात हुई | रात को खाने की मेज पर खाने के साथ-साथ हँसी-मज़ाक भी चल रहा था | दोस्त बातें करते हुए बहुत स्वाद लेते हुए सूप पी रहे थे | अचानक मेरा ध्यान उनके हाथ में थामें सूप के चम्मच पर पड़ा | पल भर में ही मेरे शरारती खोपड़ी में पच्चीस साल पुरानी कारस्तानी घंटियाँ बजने लगीं | बहुत ही मासूमियत से मित्र को मैंने उस पुरानी घटना की याद दिलाई | याद आते ही मित्र बोले “हाँ कुछ ऐसा हुआ तो था, मेरी अच्छी-खासी नेमप्लेट का किसी नालायक  ने सत्यानाश कर दिया था | पता नहीं वह कम्बखत कौन था ?” मित्र की आँखों में आँखें डालते हुए एक शरारती मुसकराहट के साथ मैंने धीरे स्वर में धमाकेदार बम फोड़ा – “ वह नालायक, नामुराद, कमबख्त  मैं ही था जो अब तुम्हारे सामने बैठा तुम्हारे हाथ के चमचे को देख रहा हूँ |” सुनते ही हाथ का चमचा टन्न की आवाज करता सूप के बाउल में जा गिरा और दोस्त मुझे आश्चर्य से ऐसी नज़रों से घूर रहा था कि अगर शाकाहार मजबूरी न होती तो शर्तिया आज मैं उसके डिनर का हिस्सा बन जाता| दोस्त के चेहरे पर एक के बाद एक रंग तेजी से आ रहे थे, जा रहे थे । पर अंत में उनके मुंह से जोरदार हंसी का ठहाका निकला और मेरे लिए  तारीफ के दो शब्द : YOU SCOUNDREL!!

दोस्त की बात तो वही जाने पर उस रहस्य का पर्दाफ़ाश करके मैं तो उस रात भरपूर नींद सोया, कहते हैं ना सच बोल कर दिल का बोझ हल्का हो जाता है |अब आप भी कुछ ज्यादा ही सीरियस मत हो जाना..... उस दोस्त से अभी भी खूब मस्ती की गप्पबाजी होती रहती हैं |         



Saturday, 17 November 2018

गोरखधंधा : फेयरवेल पार्टी का


जिन्दगी में जहाँ एक ओर तरह तरह की विभिन्नताएं हैं वहीं अगर दूसरी तरफ देखें तो लगता है यह जीवन पूरी तरह से नीरसता से भरा हुआ है  | सच मानिए मैं तो आज तक  भी  यह  निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि  इस जीवन में बहुरंगी चटपटा स्वाद ज्यादा है या बोरियत से भरी जिन्दगी की  घिसी-पिटी कहानी का सूनापन |  नहीं समझ में आया तो चलिए जरा खुलकर समझाता हूँ | क्या कभी-कभी आपको ऐसा नहीं लगता कि आप में किसी विद्वान ज्योतिषी की आत्मा उतर आयी है | आप का ब्रह्मज्ञान आपको पहले से ही बता देता है कि आज रात जिस शादी की पार्टी में जाने वाले हैं उसमें में खाने के मेन्यु में क्या-क्या होगा | आप सिनेमा देख रहें हैं और आगे की सिचुएशन भांप  जाते हैं कि अब तो गाने  का सीन बनता है | मैं यह परम ज्ञान की बात अपने अनुभव के आधार पर ही बता रहा हूँ | बचपन में जब कभी अपना होमवर्क पूरा नहीं हो पाता था तो मुझे तो पहले ही पता चल जाता था कि आज तो मास्टर जी से पिटाई पक्की है और भगवान झूठ न बुलवाए, इस मामले में मेरी भविष्यवाणी कभी गलत भी नहीं हुई | बड़े होकर नौकरी में  भी यही पाया कि दफ़्तर की लगभग  हर मीटिंग की इस हद तक वही कहानी कि उनमें होने वाली कारवाई की रिपोर्ट पहले से ही  तैयार कर लेता था | हर मीटिंग का एक ही हाल : साहब ने गुर्राना है, अफसर ने खिसियाना है और बाबू ने मिमियाँना है और नतीजे के नाम पर ले दे कर वही ढ़ाक के तीन पात |

आज आप को ऐसे ही एक अवसर की बानगी देता हूँ जो मीटिंग तो नहीं वरन समारोह है और समारोह भी एक ख़ास किस्म का जिसका नाम आपने भी अवश्य सुना होगा और सुनना तो क्या खुद शामिल भी रहे होंगें – स्कूल से लेकर शादी ब्याह और नौकरी तक में | जी हाँ, मैं विदाई समारोह या फेयरवेल पार्टी की ही आज बात करने जा रहा हूँ |
  

शादी में दुल्हन की बिदाई तो जरूर ही देखी होगी | वहाँ मानों रोने की प्रतियोगिता चल रही हो जहाँ  हर बन्दा या बंदी एक दूसरे को पीछे पछाड़ने में मशगूल | एक बार देखा दुल्हन अपनी मां के गले से चिपट कर दहाड़ें मार कर आँसू बहा कर रो रही थी और बीच में अचानक रुक कर माँ को याद दिलाया कि मोबाइल का चार्जर कमरे में ही रह गया है, याद करके भिजवा देना | मज़े की बात यह कि  इस हिदायत के बाद रोने का शेष भाग फिर से बदस्तूर जारी हो गया गोया माँ को नहीं वरन मोबाइल के चार्जर को याद करके रोया जा रहा है|

अब आइये अब एक दूसरी तरह के विदाई समारोह  यानि फेयरवेल पार्टी  की बात करते हैं | सच मानें तो इस प्रकार के समारोह मुझे हद दर्जे के नीरस, उबाऊ और नौटंकी से भरे लगते हैं जिनमें दिखावेपन और बनावट का मुल्लमा कूट-कूट के भरा होता है |इनमें हर कोई देवताओं की श्रेणी में अवतरित होने की बलात चेष्टा करते नज़र आते हैं |  जाने वाले मुलाजिम की शान में इतने झूठे-सच्चे कसीदे पढ़े जाते हैं कि बड़े से बड़ा अभिनेता भी शर्म से पानी भरता नज़र आए | मज़े की बात होती है जब जिस अफसर ने झूठी-सच्ची शिकायत करके  पूरी जी-जान लगवा कर अपने मातहत बाबू का ट्रांसफ़र  करवाया हो, उसी की विदाई पार्टी में वही अफसर छाती पीट-पीट कर मुनियादी कर रहे होते हैं कि इस बाबू के जाने से मैं अनाथ हो गया | कभी देखने में आता है कि महा-कामचोर और मक्कार मातहत को बिदाई पार्टी में महान, मेहनती, कर्मठ जैसे सारे  विशेषणों से सुशोभित किया जाता है कि एक बारगी तो लगने लगता है कि बन्दे का नाम अगली बार भारत सरकार द्वारा  पद्मश्री या पद्मभूषण पुरस्कार के लिए शर्तिया पक्का है | अपने सेवा काल में अनगिनत विदाई समारोहों का संचालन करने का मौक़ा मिला और विदाई भाषण में सही मायने में वही मक्खी पर मक्खी नक़ल मार कर एक ही भाषण से काम चलाया बस फर्क था तो नामों का | एक बार तो हद ही हो गई जब गलती से पुराने भाषण को ही पढ़ दिया और पार्टी में मौजूद लोगों ने ध्यान दिलाया कि राम लाल तो कबके रिटायर हो चुके हैं आज तो श्याम लाल की बारी है |

एक बिलकुल ही नई बात भी फिलहाल में ही मुझे पता चली | फेयरवेल पार्टी के खर्चे कम करके घाटे में चल रही कंपनी को भी ऊंचा लाभ कमा कर नवरत्नों की जमात में शामिल किया जा सकता है | फूलों के गुलदस्ते की जगह एक गुलाब का फूल दीजिए और मिठाई की डिबिया में से एक बर्फी का पीस कम कर दीजिए और देखिए फिर कमाल |  बस कुछ यूँ समझ लीजिए कि मुरदे की मूँछ मूँड कर वजन कम कर दिया | पता नहीं ऐसे होनहार प्रकांड अर्थशास्त्री हमारे वित्तमंत्री की नज़रों से कैसे बचे रह गए वरना देश के संकटग्रस्त जी.डी.पी की यह हालत न होती | अब यह बात अलग है कि इन होनहार अर्थशास्त्री के चश्में वाली नज़र  से भी कंपनी के कारखानों में हो रही प्रचंड बर्बादी की ओर ध्यान नहीं जाता जिसकी वजह से बीच मझधार में पडी नैय्या डूबने के कगार पर आ चुकी है | इस प्रकार के महानुभावों के कार्यकलाप की यदि आपको थोड़ी बहुत और झलक चाहिए तो एक बारगी इसी ब्लॉग का एक मजेदार लेख (जिसका लिंक भी साथ ही दिया है)  "जीना इसी का नाम है - गूँज"  लेख जरूर पढ़ लीजिएगा | 
इन विदाई पार्टियों में कई बार लोगों को अपने मन का दबा गुबार निकालने का भी मौक़ा मिल जाता है | मुझे आज तक तक याद है तब मैं हरियाणा के चरखीदादरी में सेवारत था | एक ऐसी ही पार्टी में  श्री टी .के. भट्टाचार्य जोकि तब कार्मिक अधिकारी हुआ करते थे, के गले की सांस की नली में रसगुल्ला फँस गया और उनकी जान पर ही बन आयी थी |
 उस फँसे हुए रसगुल्ले को बाहर निकालने के प्रयत्न में कोई उनकी खोपड़ी पर वार कर रहा था तो कोई पीठ की निहायत ही बेदर्दी से धुनाई कर रहा था | कहने की बात नहीं उन शुभचिंतकों की भीड़ में कई ऐसे पंगेबाज भी शामिल हो गए थे जिन्हें बस केवल अपने हाथों की खुजली मिटानी थी | रसगुल्ला तो खैर बंगाली दादा के हलक से तोप के गोले की तरह बाहर आगया पर सांस आते ही दादा कराहते हुए बोले "अगर इस रसगुल्ले से मैं नहीं मरता तो तुम लोगों के ताबड़तोड़ घूंसों की मार से तो मैं शर्तिया मर जाता | मेरी विदाई तुम फेक्ट्री से कर रहे हो या इस दुनिया से |" जहां तक मुझे पता है उस दिन के बाद दादा ने पार्टियाँ तो बहुत खायीं पर बिना रसगुल्लों के | 

जिन जगहों पर नौकरी में ट्रांसफर आम बात होती है वहां फेयरवेल पार्टी भी उतनी ही आम होती है | अब खुद  को पार्टी लेना जितना सुखदायक लगता है दूसरों को देना उतना ही दिलजलाऊ खासतौर पर जब ऐसी पार्टियों की अर्थ व्यवस्था चंदे के कंधे पर सवार हो | खुद ही सोचिए कैसा लगता है जब उस अफसर के लिए जिसने बरसों आपकी नाक में दम कर रखा था उसकी ही पार्टी का इंतजाम करने के लिए  एक मोटी रकम मन मार कर चंदे की झोली में डालनी पड़े | इस मामले में  मैंने तो और भी अजीबोगरीब हालातों का सामना किया है| देहरादून से दिल्ली मुख्यालय में मेरा  ट्रांसफ़र हुआ तो सभी अधीनस्थ कर्मचारियों में मानों खुशी की लहर दौड़ गई | उन्हें लगा जैसे ऊपर वाले ने उनकी प्रार्थना सुन ली है | दशहरे जैसे उत्सव के माहौल में बाकायदा (रावण की ) फेयरवेल पार्टी हुई और एक अच्छा-खासा उपहार दिया और दिल्ली की रेलगाड़ी में स्टेशन तक जाकर, डिब्बे में बैठाकर दरवाज़ा अच्छी तरह से बंद भी कर दिया| ट्रेन ने जब तक देहरादून स्टेशन का आउटर सिग्नल पार नहीं कर दिया तब तक उस पलटन का एक भी सिपाही अपनी जगह से हिला तक नहीं | अब इसे क्या कहूँ जनता का प्यार या गब्बर का बुखार |

खैर कहते हैं आज तक ऊपर वाले के आगे किस का जोर चला है | शायद इसीलिए भगवान से देहरादून वालों की खुशी ज्यादा दिन तक देखी नहीं गई  और तीन महीने के बाद ही मेरी तैनाती फिर से वापिस उलटे बांस बरेली की तर्ज़ पर देहरादून कर दी गई | वापिस मुझे फिर उसी दफ्तर में पा कर उन सभी कर्मचारियों की शक्लें देखने लायक लग रहीं थी |  दीवार फिल्म के अमिताभ बच्चन की तरह से ईश्वर से उनका मानों विश्वास ही उठ गया था| 

पर उनके पास भी इस शाश्वत सत्य को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं था कि बाप और अफसर अपनी अपनी इच्छा से नहीं मिलते- जो भी मिल जाए ईश्वर का प्रसाद समझ कर प्रेम भाव से सर माथे स्वीकार करने में ही भलाई है | जिसकी किस्मत में जितना लिखा है,  झेलना तो पड़ेगा  ही, चाहे रो कर या हँस कर|  अब किस्मत की मार, छह महीने बाद फिर से मेरे ट्रान्सफर आर्डर आ गए |  लोगों में कानाफूसी शुरू हो गई कि इस बन्दे ने फेयरवेल पार्टी और गिफ्ट लेने के लिए हेड आफिस से सेटिंग कर रखी  है | अब भाई शक का इलाज़ तो लुकमान हकीम के पास भी नहीं हैं, मैं तो किस खेत की मूली हूँ|  खैर पार्टी भी हुई और गिफ्ट भी दिया गया – पहले कंबल था इस बार रुमाल और विदाई भाषण में इशारों-इशारों में मुझे बता भी दिया गया " श्रीमान  अगली बार की पार्टी अगर होगी तो आपके ही खर्चे पर होगी इसलिए जरा सोच-समझ कर ही वापिस आना |"  यह अब आप पर है कि  इसे सच मानें या झूठ पर मुझकों बरसों बाद तक दु:स्वप्न आते रहे कि मुझे फिर से देहरादून भेजा जा रहा है और मैं जंजीर फिल्म के हीरो की तरह से पसीने में सराबोर डर कर नींद से उठ जाता था |                            

Wednesday, 10 October 2018

रहिमन गुस्सा कीजिए.......

फिल्मों का मैं बचपन से ही शौक़ीन रहा हूँ और आप भी रहे ही होंगे | हो सकता है आज भी आपका यह शौक बरकरार हो | चलिए मुझे एक बात का जवाब दीजिए - अगर फिल्म में से खलनायक यानी कि विलेन को निकाल दिया जाए तो कैसा लगे ? आप में से अधिकांश लोगों का जवाब होगा –“अरे आप भी कमाल करते हैं, बस ऐसा लगेगा जैसे बिना मिर्च मसाले की सब्जी, बिना पहिए की साइकिल और बिना इंजिन की रेलगाड़ी | बस समझ लीजिए मामला हर तरह से बेस्वाद, बदरंग और बेमज़ा |” बिल्कुल सही फरमाया आपने | अब ज़रा लगे हाथों यह भी बता दीजिये कि खलनायक की सबसे ख़ास बात क्या होती है ? अब आप तो सीधे से सवाल पर अपना सर खुजलाने लगे जैसे मैंने आपसे पूछ लिया हो कि इस बार सत्ता में मोदी जी दोबारा से सिंहासन पर विराजमान होंगे या नहीं | चलिए मैं ही बता देता हूँ – खलनायक की सबसे बड़ी अदा और खासियत होती है उसका गुस्सा, उसका रौद्र रूप जो अन्य बुराइयों के साथ मिलकर फिल्म की कहानी में मिर्च मसाले का ऐसा तड़का लगाते हैं कि सारे दर्शक चटकारा लेते हुए फिल्म को हिट करवा देते हैं | अब आप ही मुझे जरा ठन्डे दिमाग से सोच कर बताइये – अगर शोले फिल्म से गब्बर को निकाल दें, या गब्बर की डायलाग डिलीवरी अमोल पालेकर के अंदाज़ में हो तो अच्छी भली फिल्म का हश्र बेचारे लालू यादव सरीखा हो जाएगा कि नहीं | तो बंधु सौ बातों की एक बात, फिल्म की आन खलनायक और खलनायक की पहचान उसका गुस्सा | अब आप मेरी बात चाहे मानें या ना मानें पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि आदि काल से आज तक कई लोगों को तो उनके गुस्से के कारण ही जाना जाता है | भूल गए आप आश्रमों में तपस्यारत ऋषि-मुनियों को जो तपस्या भंग होने पर क्रोधित होकर कमंडल से जल छिड़कते हुए तुरंत श्राप देने पर उतारू हो जाते थे और उनके इन्ही श्रापों के कारण ढ़ेरों पौराणिक कथाओं का उद्भव हुआ | और किसी को हम जानें या न जानें पर आदि मुनि परशुराम जी से सभी भली- भांति परिचित हैं केवल दो कारणों से – एक उनका फरसा और दूसरा उनका क्रोध | आज मैं आपको इस गुस्से या क्रोध के बारे में ही कुछ बताने जा रहा हूँ |

एक तरह से देखा जाए तो गुस्से की भी कई किस्म होती हैं –

बारूदी गुस्सा 

1. बारूदी गुस्सा : इस प्रकार का गुस्सा धमाके के साथ विस्फोटित होता है और सामने वाले को संभलने का मौक़ा नही नहीं देता | यहाँ पर क्रिया और प्रतिक्रिया में समय का कोई विशेष अंतर नहीं होता | अक्सर निरीह पति गृहयुद्ध में इस प्रकार के बारूदी गुस्से में गंभीर रूप से घायल होते ही रहते हैं | अगर नमूना देखना है तो आप पत्नी से उसकी बनाई चाय की बुराई कर दीजिए या कह दीजिए कि उसका वजन बढ़ रहा है और अगर आपको उच्च शक्ति का विस्फोट कराना है तो सर पर हेलमेट और पाँव में दौड़ने वाले जूते पहन कर बस पत्नी की तुलना उसकी किसी सहेली या पड़ोसन से कर दीजिए| इस बारूदी गुस्से के विस्फोट की आवाज़ से अक्सर आपका आस-पड़ोस भी वाकिफ़ हो जाता है और आमना-सामना होने पर पड़ोसी आपसे खैरियत पूछ लेते हैं | इस गुस्से से बचने का केवल एक ही उपाय है – बारूद से सावधान रहिए , उसे तीली न दिखाइये | बस इतना समझ लीजिए, सावधानी में ही सुरक्षा है | 
साहबी गुस्सा 

2. साहबी गुस्सा : इसे आप एक तरह से नकचढ़ा गुस्सा भी कह सकते हैं | यह होता है साहब लोगों की शान , होता जिससे मुलाजिम परेशान | अब जितना बड़ा साहब, उसकी उतनी बड़ी नाक और उस नाक पर विराजमान उससे भी बड़ा गुस्सा | अब यह गुस्सा भी ऐसा जिसका न कोई सर न कोई पैर | कारण कुछ भी – मेरे कमरे में ये मक्खी कहाँ से आ गई , एसी का टेम्प्रेचर ठीक क्यों नहीं, घंटी बजाने पर चपरासी अलादीन के जिन्न की तरह से तुरंत हाज़िर क्यों नहीं हुआ | जब साहब के इर्द-गिर्द कुछ लोग-बाग़ होते हैं तो इस प्रकार के झुँझलाहट भरे बादलों के गरज के साथ बरसने की संभावना बढ़ जाती है | अब उस माहौल में बन्दा इतना भी नहीं सोच पाता कि अपना तुनक मिजाज़ी साहबी गुस्सा दिखा कर लोगों को एक नया चुटकला खुद अपने हाथों से सौंप देता है | शायद मैंने आपको पहले भी कहीं बताया था कि हमारे एक महा महिम रूपी साहब अपने चेंबर में बैठे मातहतों पर रौब ग़ालिब करने के लिए अपनी बीवी को ही फोन पर हड़का कर गुर्राते थे “ तुम्हें पता है तुम किस से बात कर रही हो |” अब ना रहे वह साहब और ना ही उनका गुस्सा | पहले तो सलाम का जवाब भी नदारत होता था पर अब तो हालात यह हैं कि जब कभी उनको पुरानी सल्तनत के दीदार करने की हुड़क होती है, दफ्तर की बिल्डिंग में घुसते ही खुद ही सिक्योरिटी गार्ड, लिफ्ट मेन, चपरासी, बाबू जो रास्ते में पड़ जाए उसी को रोक रोककर खुद ही सलाम के गोले ठोकते चले जाते हैं | शायद इसी को कहते हैं वक्त की मार, जिसके आगे सब लाचार | इस प्रकार के गुस्से से बचाव का सर्वोत्तम उपाय है – उस वक्त बेशक आपके दिमाग में गाली हो पर मुँह पर हो ताला | और हाँ समय-समय पर साहब पर मख्खन की मालिश करते रहने से उनकी नाक का तापमान ठीक रहता है और भूचाल आने की संभावना कुछ हद तक कम हो जाती है |
पनडुब्बी गुस्सा 

3. पनडुब्बी गुस्सा : यह एक प्रकार से क्रोध का राजनीतिक रूप होता है और अधिकतर विरोधी नेताओं के बीच पाया जाता है | दफ्तरों भी बड़े–बड़े आला दर्जे के डायरेक्टरों और चेयरमेन के समकक्ष बिरादरी के बीच भी यह पनडुब्बी और तारपीडो का खेल खूब खेला जाता है | इसकी ख़ास बात यही होती है कि इनके व्यवहार रूपी समुद्र की सतह पर सब कुछ शांत दिखता है पर वही पुरानी बात, जो दिखता है वह वास्तव में होता नहीं है | इस प्रकार के गुस्से से ग्रसित प्राणी आपस में साथ-साथ बैठ कर खाना खायेंगे, हँसेंगे, बतियांगें, गल-बहिया डाल कर बहुत जोरदार अभिनय भी करेंगे पर उसी हद तक जब तक कि इनके आपस में स्वार्थों का टकराव न हो | जब कभी भी इन्हें लगता है कि इनका तथाकथित साथी इनके मुकाबले में प्रतिस्पर्धी बन चुका है, तुरंत इनके गुस्से की पनडुब्बी से विनाशकारी तारपीडो निकलने शुरू हो जाते हैं | आगे निकलने की होड़ में अपने ही साथी की इतनी सच्ची-झूठी शिकायतें ऊपर के अधिकारियों और जांच-संस्थाओं तक भिजवाएंगे कि आपको भी एक बारगी लगने लगेगा कि यह बन्दा है या केंकड़ा | पनडुब्बी गुस्सा, खाए खेले खुर्राट किस्म लोगों के बीच ही पनपता है इसलिए कह सकते हैं कि सर्प विष का इलाज़ हो सकता है पर इस गुस्से का इलाज तो लुकमान हकीम के पास भी नहीं है | आप भी इसका इलाज करने का जोखिम मत उठाइएगा, बस दो सांडों की लड़ाई समझ कर, मल्ल युद्ध का मज़ा लेना पर किनारे सुरक्षित स्थान पर बैठ कर , क्योंकि बीच में आ गए तो एक भी हड्डी-पसली साबुत नहीं बचेगी |
बर्फानी गुस्सा 

4. बर्फानी गुस्सा : इस प्रकार के गुस्से को आप अक्सर संभ्रांत वर्ग के उच्च कोटि के लोगों के बीच नोट कर सकते हैं | यह उस प्रकार के थर्मस की भांति है जिसमें अन्दर तो उबलता हुआ पानी है पर बाहर सब कुछ सामान्य | पनडुब्बी गुस्से में तो बाहर से कतई पता नहीं चलता पर बर्फानी गुस्से का थोड़ा सा अंश बाहर खिसक ही आता है | इसका पता तो अंत में तभी चलता है जब मामला तलाक तक पहुँच जाता है | इसका इलाज़ केवल इस गुस्से के घायल मरीजों के ही पास होता है जो कि आपसी बातचीत द्वारा ही संभव है |
नखरीला गुस्सा 

5. नखरीला गुस्सा : यह गुस्से की सब से नाज़ुक किस्म है जिसे आप अक्सर फिल्मों में हीरो-हीरोइन, पार्कों में प्रेमी-प्रेमिका और अडोस-पड़ोस में नव विवाहित जोड़ों के बीच पाते हैं | रूठना-मनाना, मान-मनुहार इसके विशेष गुण हैं | इससे आपको घबराने की कोई आवश्यकता नहीं | यह केवल मियादी बुखार की तरह है जो नियत अवधि के बाद अपने आप चला जाता है | हाँ बाद में यह जब भी यह पुन: अवतरित होता है तो इसका रूप बिगड़ कर बारूदी गुस्सा हो चुका होता है जिसका उपचार मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ | 

सारे महान संत सीख देते देते चले गए कि भाई क्रोध से दूर रहो पर मैं आपको कहता हूँ कि गुस्सा जरुर करो, इसके बिना गुजारा नहीं | हमारे पूज्य पिता जी कहा करते थे कि बेटा जो बेवक्त गुस्सा करता है वह बेवकूफ़ है और जो वक्त पर भी गुस्सा नहीं करता वह महाबेवकूफ होता है | आपको क्रोध के नुक्सान बताने वाले अनगिनत ज्ञानी मिल जायेंगे पर मैं आज आपको गुस्सा करने के लाभ बताता हूँ : 

1. गुस्सा करने से आपका अंदर का ब्लड प्रेशर शांत हो जाता है वरना घुट-घुट कर होते रहिए परेशान | आप खुद देखिए ज्यादातर डिप्रेशन के मरीज वे होते हैं जो किसी के आगे अपनी मन की गाँठ भी नहीं खोलते हैं | अब मोदी जी का स्वास्थ देखिये, भगवान् नज़र न लगाए, कितना उत्तम है , और हो भी क्यों न, अपने अन्दर की सारी भड़ास हर माह मन की बात कह कर निकाल देते हैं, जिसे सुनना है सुने, जिसे नहीं सुनना उसकी मर्जी | 

2. गुस्सा करने से काम के प्रति प्रेरणा जाग्रत होती है | हर व्यक्ति से आप केवल पुचकार कर ही काम नहीं करवा सकते | कुछ ख़ास किस्म के अड़ियल लोगों से काम कराने के लिए आपको गाजर के साथ डंडा भी चाहिए ही |

3. सही समय पर किया गया सही मात्रा में किया गया गुस्सा आपको आने वाली मार-पिटाई की अवस्था से भी बचा लेता है | जब पिस्टल से काम चल रहा है तो तोप की क्या जरुरत | 

अब मुझे लग रहा है कि मेरी इन अनूठी शिक्षाप्रद बातें सुनकर आपका खून भी धीरे-धीरे खौलना शुरू हो गया है और आप शायद अपने आस-पास किसी लाठी डंडे की तलाश करने की सोच रहे हैं | इससे पहले कि आप मेरी ख़ोज में जुट जाएँ , मैं एक मेड इन चाइना दोहे के साथ अपनी बात समाप्त करके भागना चाहूँगा : 

रहिमन गुस्सा कीजिए, चौड़े करके नैन ,
दुष्ट भस्म हो जाएगो, खुद को आए चैन | 

(जनहित में जारी : लेख में दिए गए सुझाव, जानकारी और इलाज का प्रयोग अपने स्वयं की जिम्मेदारी पर करें | अगर लड्डू आप अकेले-अकेले खायेंगे तो कभी- कभी मिलने वाले लट्ठ पर भी आपका ही इकलोता हक़ है, उस समय मेरी तलाश करने का प्रयत्न न करें)

Monday, 8 October 2018

अंधेर नगरी - चौपट राजा



पता नहीं उस दिन मैं कौन सी अफीम की पिनक में था कि फोन पर अपने एक  सहकर्मी से, जो बी.बी.सी के संवाददाता की भांति दफ्तर की ताजा-तरीन ख़बरों की नवीनतम जानकारी रखने में माहिर थे,   बात कर बैठा | बातों ही बातों में उनसे पूछ बैठा कि भाई जी सुना है कि रिटायर्ड लोगों के लिए   मेडीकल स्कीम का इंतजाम हो रहा है  | वे  बोले जनाब सही सुना है बस ज़रा इंतज़ार कीजिए | हमने पूछा इंतज़ार किस बात का तो बोले आपको पहचान पत्र जारी किया जाएगा | हमने फिर मिमियाँ कर गुहार लगाई कि हुजूर फिर देर किस बात की, अल्लाह का नाम लेकर कर दीजिए बिस्मिल्ला | मित्र गुर्राए और फरमाया “मियाँ किस दुनिया में फाख्ता उड़ा रहे हो | दुनिया में कुछ शर्मो हया, वफ़ादारी और जी हुजूरी भी अभी कुछ बाकी है कि नहीं | लगता है दीनो- दुनिया से कतई अनजान हो और इसीलिए परेशान हो | खुदा सलामत रखे खुशामदी टट्टुओं को जिनके लिए सूफी शायर अमीर खुसरो फरमा गए है – दमादम मस्त कलंदर , अली दा पहला नंबर |  मतलब अपने आला अफसर  अली को हर जगह पहले नंबर पर तजरीह ( priority ) देते रहिए और फिर काम धाम जाए तेल लेने, करो चाहे मत करो, साहब खुश तो छुट्टे मलंग सांड की तरह मस्त कलंदर बनकर कुर्सी के मजे लूटिए | अब हम तुम्हारे बारे में सोचें जो चार साल पहले रिटायर हुए हो या अपने आला हाकिम के बारे में जो एक महीने  बाद रुखसत हो रहे हैं |  तुम्हें  क्या फर्क पड़ता है घर पर पड़े पड़े खटिया तोड़ रहे हो , हमारे अफसरों को अभी अपनी सी. आर भी तो लिखवानी है कि नहीं वरना छोटे मियाँ कैसे बन पायेंगे बड़े मियाँ |”
खुदा कसम,  इस बुढापे में इतनी बेज्जती तौबा तौबा | वो तो खैरियत थी कि हमारा चीरहरण फ़ोन पर ही हुआ वरना द्रौपदी की इज्जत  तो सरे बाज़ार पक्का  उतरती  और रूट की सभी लाइनें व्यस्त होने के कारण कृष्ण भगवान तक तो हमारा मेसेज भी नहीं पहुँच पाता | इतनी शर्मिंदगी तो बचपन में भी स्कूल में भरी क्लास के आगे मुर्गा बनने पर भी नहीं हुई | समझ में आ रहा था कि भतीजे  अखिलेश यादव से इज्ज़त का फालूदा करवा कर चाचा शिवपाल यादव को कैसा लगा था | पर हम भी ठहरे अव्वल दर्जे के  ढीठ, तेरा पीछा न छोडूंगा सोनिये, भेज दे चाहे जेल में | फिर से मित्र से गुजारिश करी “ कुछ खुलासा तो कर दो |” अब दोस्त के तेवर भी कुछ कुछ ढीले पड़ने लगे थे | शायद उन्हें भी अपनी रिटायरमेंट की तारीख याद आ गई थी | बोले “मियाँ अब तुम से क्या छुपाएँ , हकीकत यह है कि बिस्मिल्ला करने के लिए सबसे  पहला पहचान कार्ड तो हमारे हाकिम अली को ही रिटायरमेंट के दिन में जारी किया जायेगा और वो भी पूरे ढ़ोल धमाके की पार्टी के साथ |आशिक़  का जनाजा है धूम से तो निकलेगा ही । भैया फेयरवेल पार्टी में  समोसा चाय  पानी  के बजट में कटौती तो आप लोगों के लिए है न कि साहब लोगों के वास्ते | यह सब इंतजाम करने के बाद फुर्सत मिली तो आप लोगों की हारी-बीमारी के बारे में भी सोच लिया जाएगा | आपलोग लाइन में  लगे रहो, इंतजार करो क्योंकि सब्र का फल मीठा होता है |” 
अब आप ही सोचिए, बूढ़े व्यक्ति के पास सब कुछ हो सकता है , नहीं हो सकता तो केवल एक चीज़ जिसे कहते हैं वक्त | अपने सहकर्मी दोस्त की बात सुनकर मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि यह खासम-ख़ास लोगों के लिए तेल मालिश- बूट पालिश और चिलम भरने की खानदानी आदत से कब छुटकारा मिलेगा | मंदिर में जाईये, रेल  में, आम सड़क पर या अस्पताल में  भी ( याद करिए जय ललिता को ) , हर जगह इनके लिए अलग ख़ास अलग इंतजाम | अरे बाकी सब तो छोड़िए, जब परम पिता परमेश्वर के पास जाना है तो भी भाई लोगों को शमशान भूमि - निगम बोध घाट में सबसे अलग ऊँचा सा ख़ास चबूतरा ही चाहिए | इन सब के बावजूद भी , मैं बहुत कोशिश करने के बाद भी  आज तक इनके पार्थिव अवशेष जिसे आप राख का नाम भी दे सकते हैं में कोई अंतर नहीं देख पाया | उसका रंग वही, गंध वही और ऐसा भी कुछ नहीं कि गंगा में प्रवाहित होने के बाद कोई विशेष चमत्कार होता हो |
अभी किस्सा ख़त्म नहीं हुआ क्योंकि हमारे दोस्त ने सबसे अंत में दे डाला एक ओर जोर का झटका धीरे से | कहने लगे “एक बात और सुन लीजिए इस शिनाख्ती कार्ड को हासिल करने के लिए भी आपको हमारे दफ्तर के दरो- दरवाजे पर सज़दा तो करना ही पड़ेगा | अपना और अपनी पत्नी का फोटो, अपना आधार कार्ड , अपना रिटायरमेंट लेटर वगैरा वगैरा के साथ अपनी तशरीफ़ का टोकरा तो इस तुगलकाबाद में लाना ही पडेगा |” जानम समझा करो की तर्ज़ पर मैंने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश करी कि भाई यह कंप्यूटर और इन्टरनेट की ऑन लाइन दुनिया का ज़माना है फिर जब सारे काम नेट के द्वारा हो सकते हैं तो क्यों हम लोगों की बुढापे में मट्टी पलीद करने पर तुले हो | आज आप घर बैठे अपना पेन कार्ड बनवा सकते हो, बैंक का खाता खोल सकते हो, बिजली, पानी , गैस , फोन, इंश्योरेंस के बिल भर सकते हो  और तो और खुद के जिन्दा होने का सबूत यानी जीवन प्रमाण पत्र भी हासिल कर सकते हो  | आप जिस जगह बैठे हैं वहां तक की राज्य  सरकार आम लोगों के घरों तक विभिन्न सर्टिफिकेट और योजनाओं का फ़ायदा पहुँचा रही है फिर यह हम पर क़यामत का डंडा क्यों बरसा रहे हो | हम पर नहीं तो कम से कम हमारे उन साथियों के बारे में सोचो जो आज इस दुनिया में नहीं रहे| उनकी उम्रदराज विधवाओं पर तो तरस खाएं और इस परेशानी के आलम से बचाएं | ज़वाब मिला “हाकिमों का मानना है कि आप लोग  कंप्यूटर के मामले में अनपढ़ हैं इसलिए आपलोगों के लिए यही वाजिब है | जरुरत आपकी है, हमारी नहीं |"  मैं भी आखिर कितनी बहस कर सकता था , थक  हारकर  अपना सर पीट कर रह गया क्योंकि पुरानी देसी कहावत याद आ गई थी कि ना मानूं की कोई दवा नहीं होती है |

अब हाकिम अली के रिटायरमेंट पर एक नंबर का कार्ड जारी होने तक , मेडीकल के लिए शिनाख्ती कार्ड योजना के उदघाटन का इंतज़ार कर रहे हैं सब सभी बुड्ढे – ठुड्डे और  मुझे याद आ रहा है वो किस्सा जब एक गाँव में लोगों को नए शमशान घाट के लिए काफी इंतज़ार करना पडा था क्योंकि नेता जी का हुक्म था कि इस नए शमशान भूमि में सबसे पहले उन्हीं को फूंका जाए |

एक ही उल्लू काफी है , बर्बाद गुलिस्ता करने को,
हर शाख पे उल्लू बैठा है , अंजामें गुलिस्ता क्या होगा |

Wednesday, 3 October 2018

अजब दफ्तर की गज़ब कहानी ( भाग तीन ) : सारी ख़ुदाई एक तरफ ........


उम्मीद है आप अब तक  गाजियाबाद  दफ्तर के सर्कसनुमा कारनामों की झलक इस ब्लॉग के भाग एक और भाग दो से ले ही चुके होंगें | थोड़े में कहूँ तो वहाँ के दफ्तर का नारा था:
काम कम  , बन्दे ज्यादा,
मस्ती भरी ज़िंदगी का पूरा वादा |
आप भी सोच रहे होगे कि आज तो जनाब में बड़ी हिम्मत आ गई है जो इतना चौड़ा होकर बीच चौराहे पर खड़े होकर ब्लॉग लिख कर बाकायदा ढ़ोल पीट-पीट कर कह रहे हैं कि हम मुफ्त की रोटी तोड़ रहे थे | आप बिलकुल सही फरमा रहे हैं  भाई जी | पर  अब डर हो भी तो किस बात का , रिटायर हुए ढाई साल से ऊपर हो गया ,  हिसाब-किताब सारा वसूल लिया, अब मेरी क्या पूँछ पाड़ोगे |  हमारे एक खास सत्यवादी  मित्र अक्सर चचा ग़ालिब की तर्ज़ पर हमें यह शेर सुनाया करते थे कि कौशिक जी ! सरकारी नौकरी में अगर आगे बढ़ना है तो ध्यान रखना  : 
          काम नहीं काम की फ़िक्र कर ,
        और उस फ़िक्र की हर जगह ज़िक्र कर |
मैंने तो उन की बात गाँठ तो  बाँध ली थी पर ऊपर वाले से ता उम्र शिकायत रही कि जब  मैं मध्यप्रदेश के  नयागांव स्थित कंपनी के ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट  में बतौर मेनेजमेंट ट्रेनी प्रशिक्षण ले रहा था तो परम ज्ञानी सत्यवादी  मित्र  को ज्ञान बांटने वाली फेकल्टी से वंचित क्यों रखा | काश भरी जवानी में ही यह परम ज्ञान मिल गया होता तो बाद में बुढापा तो खराब न होता | खैर कोई बात नहीं , देर आए दुरस्त आए | कहते  हैं ना कि ज्ञान जिस उम्र में मिल जाए , सर माथे , सीखने की कोई उम्र नहीं होती है|  मेरी तो सारी ज़िंदगी के तजुर्बों का इतना ही निचोड़ है कि कंपनी में जितने प्रोमोशन मिले सब फाख्ता उड़ाने के दिनों में मिले , काम करने के एवज में तो सिवाय परेशानियों के कुछ हासिल न हुआ | जब आप काम करोगे ही नहीं तो गलती कहाँ से होगी | जब गलती नहीं तो प्रोमोशन पक्का |
   
हाँ तो वापिस चलते हैं उसी  गाज़ियाबादी मुर्गीखाने में | कंपनी की हालत पतली चल रही थी , बस यूँ समझ लीजिए कि एक तरह से बंद होने की कगार पर ही पहुँच चुकी थी | वेतन भी समय पर नहीं मिलने के कारण, कर्मचारियों का मनोबल भी कंपनी की हालत की तरह ही पतला चल रहा था | काम-धाम कुछ ख़ास था ही नहीं| एक दिन दोपहर बाद मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं थी सो सोचा आज जल्दी घर जा कर  आराम कर लूंगा | अपना ब्रीफ केस उठाया और बगल के कमरे में बैठे स्टाफ को बोलकर घर की ओर निकल लिया |
अगले तीन दिन तक दफ्तर में सब कुछ सामान्य रहा | चौथे दिन डाक में आए एक पत्र को देख कर चौंक गया | पत्र दरियागंज दिल्ली स्थित जोनल आफिस से था जिसमें जोनल मेनेजर ने एक शिकायती पत्र नत्थी करते हुए  स्पष्टीकरण माँगा था | पूरी चिट्ठी पड़ने पर सारा माजरा धीरे-धीरे समझ में आने लगा | सारे स्टाफ को बुलाकर तहकीकात करी तो पता लगा जिस दिन जब मेरी तबियत खराब थी , मेरे जल्दी घर जाने के बाद  स्टाफ भी एक के बाद एक खिसकना शुरू हो गया |  पहले नीचे का अफसर खिसका , उसके जाने के थोड़ी ही देर बाद सुपरवाईजर और बाद में तो धीरे-धीरे करके स्टाफ के सदस्य एक के बाद एक कबूतरों की तरह से फुर्र  | मज़े की बात यह कि हर बन्दा जाने से पहले बाकी लोगों को ताकीद करके जाता कि भाई लोगो ध्यान रखना | हद तो तब हो गई जब सब के खिसकने के बाद चपरासी भी दफ्तर में ताला लगाकर चलता बना – ताले के कान में यह बोल कर कि भगवान सब का ध्यान रखना, सब की नौकरी बचाना |  बस यह समझ लीजिए कि पूरा भरा-पूरा दफ्तर जैसे भरी जवानी में ही विधवा ( या रंडवा ) हो गया |  सारी बाते सुन कर एकबारगी तो लगा जैसे अपने सर के सारे  बाल नोंच लूँ |  झुंझला कर बोला “कमबख्तो तुम्हे पता भी है क्या हुआ है | बिजली बोर्ड ने लिखित में  दिल्ली जोनल आफिस में शिकायत भेजी है कि आपके गाज़ियाबाद दफ्तर में भरी दोपहरी ताला लगा हुआ था जिससे हमारे बाबू को वापिस लौटना पडा | अब बताओ क्या जवाब भेजूं उस ज़ालिम सिंह को जो पहले से ही मुझ से खानदानी बैर पाले बैठा है |” झाड सुनकर  सारा स्टाफ दम साधे भीगी बिल्ली बने बैठा था  पर उससे मेरा क्या होना था |  अफसर का लट्ठ तो मेरे सर पर ही बजा था और इस झमेले  का तोड़ भी मुझे ही निकालना था |
खैर किसी तरह अपने कमरे में आकर इस गहन समस्या पर विचार करते हुए एक प्रकार से तपस्या में लीन हो गया | एक कप चाय भी गटक गया | जैसे गौतम बुद्ध को सुजाता की खीर खा कर ज्ञान प्राप्त हुआ ऐसे ही चाय की चुसकी ले  कर मेरे ज्ञान चक्षू खुल गए | बिजली की तरह से दिमाग में विचार कोंधा, पंडित जी तुम्हारे जीजा जी भी तो इसी विभाग में एक्जीक्यूटिव  इंजीनियर के पद पर यहीं गाज़ियाबाद में
कृपा-निधान - जीजा महान :श्री सतीश शर्मा 
तैनात हैं |  अब अगर साले की नैया मझदार में हो तो जीजा नहीं बचाने आएगा तो कौन आएगा | आखिर जीजा को भी तो अपने घर में रहना है कि नहीं | यह मन्त्र तो हर जीजा को रटा ही होता है : सारी ख़ुदाई एक तरफ  और जोरू का भाई एक तरफ | तुरंत पहुँच लिया जीजा के दरबार में, करुण विलाप कर व्यथा गाथा सुनाई | अब  साला तो जीजा की नाक का बाल होता है, उस पर आंच कैसे आ सकती है | उन्होंने  तुरंत अपने मातहत सम्बंधित एसडीओ  को फोन घुमा दिया और सारी बात बता कर  बोले “तुम्हें शिकायत करने के लिए सारी दुनिया में मेरा साला ही मिला |” दूसरी तरफ से एसडीओ  की मिमियाती आवाज़ सुनायी पड़ रही थी “सर हमें क्या पता कि आपका साला ही लपेटे में आ जाएगा | आप चिंता न करें , हम सब गड़बड़ ठीक करवा देंगे |”  खैर जीजा की दिलासा और दारु के गिलास में बहुत जान होती है, सो वापिस लौट लिए |
अगले दिन दफ्तर में बैठा था तो चपरासी ने बताया कि बिजली बोर्ड के कोई एसडीओ साहब मिलना चाहते हैं | मिलते ही एसडीओ साहब ने मेज पर एक पत्र  रख दिया | पत्र  मेरे अफसर यानी हमारे जोनल मेनेजर को संबोधित था जिसमें अपने पहले पत्र का हवाला देते हुए बताया गया था कि भूल से उनका बाबू गलत पते पर पहुँच गया था और वहां ताला लगा देख कर अनजाने में सीसीआई   दफ्तर बंद होने की गलत रिपोर्ट दे दी जिसके लिए उन्हें खेद है | सच मानिए उस पत्र को पढ़ कर ऐसा लगा जैसे लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी का प्रबंध हो गया हो |  बस फिर क्या था अगले ही दिन स्पष्टीकरण में अपने आप को अनूप जलोटा की तरह पाक-साफ़, शराफत का पुतला घोषित करते हुए, बिजली बोर्ड की चिट्ठी को अपने जवाब के साथ नत्थी करते हुए चेप दिया अपने उस  खुन्दकी बॉस को, जो मुझ जैसे सीधे-सादे निरीह मेमने की अग्नि परीक्षा लेने पर तुला हुआ था |  कहना न होगा कि उसकी  बोलती बंद करने के लिए मेरी सत्यवादी  मिसाइल काफी थी | तो भाई लोगो बोलो मेरे साथ जोर से :
जाको  जीजा साथ हो ,वाए  मार सके ना कोए ,
बाल न बांका कर सके , चाहे अफसर बैरी होए ||                       

इति जीजा पुराण |

Friday, 14 September 2018

अजब दफ्तर की गज़ब कहानी ( भाग 2) : सर्कस का शेर


मैं इससे पहले अपने अजीबोगरीब सर्कसनुमा गाज़ियाबाद दफ़्तर की बानगी आपको ‘अजब दफ़्तर की गज़ब कहानी (भाग-1)’ में करा चुका हूँ | यहाँ के ऐसे-ऐसे अनगिनत किस्सों की भरमार है जिन्हें अगर लिखने बैठ जाऊं तो राम कसम लतीफों की एक पूरी किताब ही बन जाएगी | इस दफ्तर में काम कम  और खाली दिमाग की  खुराफातें ज्यादा होती थी | अपने पूरे जीवनकाल में इतने मातहत ( गिनती में पुरे 17 ) कभी नहीं मिले जितने गाज़ियाबाद में मेरी दुम से बाँध दिए गए थे | सारे के सारे सिफारिशी , कोई किसी नेता का चेला, कोई भाई तो कोई भतीजा | सब के ठाट गज़ब  और जलवे निराले जिसे देख- देख हम मन ही मन कुढ़ते रहते और सोचा करते हाय हुसैन हम ना हुए | हाँ कभी कभार हमारे पास सजा-याफ्ता मुजरिम भी भेज दिए जाते थे विशेष हिदायतों के साथ कि इन मरखने सांडों से निपटना कैसे है | कई बार चुपचाप बैठा-बैठा सोचता रहता कि भगवान तूने क्या सोचकर मुझ गरीब को इस पागलों के स्कूल का हेड मास्टर  बना दिया |
एक बार सुना कि किसी स्टेनो को ट्रांसफ़र करके गाज़ियाबाद भेजा जा रहा है | सुनकर पहले तो ऐसा  लगा जैसे मुगलों के अंतिम बादशाह बहादुर शाह ज़फर को ब्रिटिश सरकार ने रंगून से वापिस बुलाकर लाल किले का तख्ते ताउस सौंप दिया हो | सोचा चलो अब खतो किताबत करने में थोड़ी सुविधा हो जाएगी वरना अब तक तो चिट्ठियों को हाथ से ही लिख कर भेजा करता था | पर बाद में  दिमाग में यह ख्याल भी मुझे भी पागल करने लगा कि हिन्दुस्तान की आबादी तो पहले से इतनी विस्फोटक हुई पडी है अब इस नवजात शिशु को किस पालने में पालूँगा | पर कर भी क्या सकता था, बुझे दिल से उस 9 बच्चे वाले बिहारी नेता की तरह खुद को समझाया कि जो  परवर दिगार मुँह देता है वही निवाला भी देगा |  
तो जनाब जिन श्रीमान को हमारे यहाँ भेजा वो कद काठी में स्टेनो कम पर पहलवान ज्यादा लगते थे | मुर्गीखाने में हर आने वाले नए मुर्गे की जैसे पूरी जांच पड़ताल की जाती है ऐसे ही कुछ छानबीन करनी मेरे लिए आवश्यक भी थी | पुराने स्कूल के हेडमास्टर से पता चला कि बन्दा बिगड़ा हुआ नेता है | अब नेता भी ऐसा जिसे हर गर्मी में दिमाग में इतनी गरमी चढ़ जाती है कि इस बन्दे और मरखने सांड में कोई अंतर नहीं रह जाता यानी कि कुल मिलाकर मेडीकल प्रोब्लम भी | हो गई न वही बात : एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा  |  अपराध : दिल्ली ग्राइंडिंग यूनिट में फेक्ट्री गेट पर खड़े होकर सरे आम कंपनी के सर्वेसर्वा उस  चेयरमेन के लिए गालियाँ बरसाना जिसके नाम मात्र से ही अच्छे अच्छों का पेंट में ही सूसू निकल जाता था | सब कुछ जानकार अपने आप को समझाया कि  कोई बात नहीं पंडित जी  जब अपना सर इस गाज़ियाबाद के दफ्तर रूपी ओखली में डला ही हुआ है तो इन सांड रूपी मूसलों से क्या डर, जो होगा देखा जाएगा |
कहने वाले कह गए हैं कि बिगडैल घोड़े पर शुरू में ही हंटर नहीं बरसाने चाहिए | फार्मूला काम कर गया , प्यार से बन्दे ने काम शुरू कर दिया | कोई शिकवा नहीं ,कोई शिकायत नहीं, अपने काम में माहिर था और सोने पे सुहागा बला का मेहनती | सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था | कभी-कभी मज़ाक में मुझे वह कह बैठता कि सर आपने जंगल के शेर को आखिर सर्कस का शेर बना ही दिया | मैं भी उसे उसी हलके फुल्के अंदाज़ में जवाब देता कि बेटा जी यह गाज़ियाबाद दफ्तर के सर्कस और सर्कस के रिंग मास्टर का कमाल हैं |
समय गुज़रता जा रहा था और फिर धीरे-धीरे गर्मियों भरे दिनों ने दस्तक देनी शुरू कर दी  |  अच्छे खासे बन्दे के व्यवहार में भी परिवर्तन आने शुरू हो गए | दफ्तर आने के समय में अनियमितता होने लगी, कभी आये तो कभी नहीं | कभी सुबह सुबह  देखता कि दफ्तर के सामने के गलियारे के फर्श पर ही अखबार बिछा कर गहरी नींद में सोए पड़ा है | एक बार तो भाई मेरा, मेरे कमरे में ही कुर्सियां आपस में जोड़ कर खर्राटें मार मार कर कुम्भकर्ण से कम्पटीशन कर रहा था | कई बार सोचता करूँ तो करूँ क्या | अगर ऊपर शिकायत कर दी तो मेनेजमेंट तो बैठा ही इस ताक में है , बन्दे की नौकरी जाने में देर नहीं लगेगी जिसके लिए मेरा दिल गवाही नहीं दे रहा था |  मानवता के नाते मानसिक समस्या को नज़र अंदाज़ भी तो नहीं किया जा सकता था | अपने पिता की कही एक बात आज तक मुझे याद है , कहते थे ये जो दुनिया है डूबते सूरज की आँखों में ही आँख डालने की गुस्ताखी करती  हैं क्योंकि उगते सूरज को घूरने की हिम्मत तो है नहीं | सो जिस पर पहले से ही भगवान की मार है उसे आप और क्या मारेंगे |
एक दिन का वाकया है वह चुपचाप खामोशी की चादर ओढ़े मायूस सा मेरे ही कमरे की एक कुर्सी पर बैठा था | अचानक धडधडाते हुए चार –पांच मुशटंडो का जत्था कमरे में घुस आया और घेर लिया उस जंगल के शेर को |  हद तो तब हो गई जब उन में से एक गुंडे ने अचानक बंदूक की नली उसकी खोपड़ी पर लगा कर धमकाना शुरू कर दिया | एक तरह से पूरा फ़िल्मी सीन सामने पेश हो गया था, पर उस दिन जिन्दगी में पहली बार जाना कि बेटा बंदूक को सिनेमा के पर्दे पर देखना एक बात है पर जब असल में दुनाली से सामना होता है तो अल्लाह, जीसस और ईश्वर तीनों ही एक साथ प्रकट हो जाते हैं यह पूछने के लिए कि बचुआ तुम्हारे पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार के लिए किसे बुलाना है - पंडित को, मौलवी या पादरी को | पूरे दफ्तर में एक बारगी तो हंगामा मच गया पर उस बंदूक वाले की वजह से  किसी भी शख्स में आकर बीच-बचाव करने की भी हिम्मत नहीं थी| मैंने भी मौके की नजाकत को भांपते हुए उस बंदूकची के पारे को नीचे आने का इंतज़ार किया | खैर जैसे तेसे हालात काबू में आए और पता लगा कि दफ्तर आते समय हमारा शेर पता नहीं किस पिनक में रास्ते के कुछ बदमाशों से किसी बात पर उलझ बैठा था बिना यह जाने बूझे कि यह जगह कायदे की दिल्ली नहीं गुंडों का गाज़ियाबाद है | अब बंदूक के सामने तो वह भी कतई पत्थर की खामोश मूर्ती बना उस तूफ़ान के गुज़र जाने का इंतज़ार कर रहा था | दफ्तर के दूसरे कमरे से भी अब लोग आकर जमा हो गए थे और बीच-बचाव के बाद लंका काण्ड जैसे-तेसे सम्पूर्ण हुआ |
उस वाकये के बाद मैंने उस शख्स को फिर कभी नहीं देखा | उसने दफ्तर आना छोड़ दिया, वजह क्या रही पता नहीं, शायद उस दिन की फजीयत के कारण उत्पन्न लज्जा, कुंठा या कुछ और जो केवल वही जानता था | कंपनी में आई वी०आर०एस (Voluntary Retirement Scheme) के तहत उसने नौकरी छोड़ दी | बाद में किसी ने बताया उसकी तबियत  ज्यादा  ही खराब हो चली | आँखों से दिखना भी बंद हो गया था | एक दिन पता चला बीमारी में ही मेरा जंगल का शेर इस दिल्ली के कंक्रीट जंगल को छोड़ ब्रह्माण्ड के विराट जंगल में विलुप्त हो गया | अगर मैं ठीक से याद कर पा रहा हूँ तो वह वर्ष 2005 था |            

भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...