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Wednesday, 3 October 2018

अजब दफ्तर की गज़ब कहानी ( भाग तीन ) : सारी ख़ुदाई एक तरफ ........


उम्मीद है आप अब तक  गाजियाबाद  दफ्तर के सर्कसनुमा कारनामों की झलक इस ब्लॉग के भाग एक और भाग दो से ले ही चुके होंगें | थोड़े में कहूँ तो वहाँ के दफ्तर का नारा था:
काम कम  , बन्दे ज्यादा,
मस्ती भरी ज़िंदगी का पूरा वादा |
आप भी सोच रहे होगे कि आज तो जनाब में बड़ी हिम्मत आ गई है जो इतना चौड़ा होकर बीच चौराहे पर खड़े होकर ब्लॉग लिख कर बाकायदा ढ़ोल पीट-पीट कर कह रहे हैं कि हम मुफ्त की रोटी तोड़ रहे थे | आप बिलकुल सही फरमा रहे हैं  भाई जी | पर  अब डर हो भी तो किस बात का , रिटायर हुए ढाई साल से ऊपर हो गया ,  हिसाब-किताब सारा वसूल लिया, अब मेरी क्या पूँछ पाड़ोगे |  हमारे एक खास सत्यवादी  मित्र अक्सर चचा ग़ालिब की तर्ज़ पर हमें यह शेर सुनाया करते थे कि कौशिक जी ! सरकारी नौकरी में अगर आगे बढ़ना है तो ध्यान रखना  : 
          काम नहीं काम की फ़िक्र कर ,
        और उस फ़िक्र की हर जगह ज़िक्र कर |
मैंने तो उन की बात गाँठ तो  बाँध ली थी पर ऊपर वाले से ता उम्र शिकायत रही कि जब  मैं मध्यप्रदेश के  नयागांव स्थित कंपनी के ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट  में बतौर मेनेजमेंट ट्रेनी प्रशिक्षण ले रहा था तो परम ज्ञानी सत्यवादी  मित्र  को ज्ञान बांटने वाली फेकल्टी से वंचित क्यों रखा | काश भरी जवानी में ही यह परम ज्ञान मिल गया होता तो बाद में बुढापा तो खराब न होता | खैर कोई बात नहीं , देर आए दुरस्त आए | कहते  हैं ना कि ज्ञान जिस उम्र में मिल जाए , सर माथे , सीखने की कोई उम्र नहीं होती है|  मेरी तो सारी ज़िंदगी के तजुर्बों का इतना ही निचोड़ है कि कंपनी में जितने प्रोमोशन मिले सब फाख्ता उड़ाने के दिनों में मिले , काम करने के एवज में तो सिवाय परेशानियों के कुछ हासिल न हुआ | जब आप काम करोगे ही नहीं तो गलती कहाँ से होगी | जब गलती नहीं तो प्रोमोशन पक्का |
   
हाँ तो वापिस चलते हैं उसी  गाज़ियाबादी मुर्गीखाने में | कंपनी की हालत पतली चल रही थी , बस यूँ समझ लीजिए कि एक तरह से बंद होने की कगार पर ही पहुँच चुकी थी | वेतन भी समय पर नहीं मिलने के कारण, कर्मचारियों का मनोबल भी कंपनी की हालत की तरह ही पतला चल रहा था | काम-धाम कुछ ख़ास था ही नहीं| एक दिन दोपहर बाद मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं थी सो सोचा आज जल्दी घर जा कर  आराम कर लूंगा | अपना ब्रीफ केस उठाया और बगल के कमरे में बैठे स्टाफ को बोलकर घर की ओर निकल लिया |
अगले तीन दिन तक दफ्तर में सब कुछ सामान्य रहा | चौथे दिन डाक में आए एक पत्र को देख कर चौंक गया | पत्र दरियागंज दिल्ली स्थित जोनल आफिस से था जिसमें जोनल मेनेजर ने एक शिकायती पत्र नत्थी करते हुए  स्पष्टीकरण माँगा था | पूरी चिट्ठी पड़ने पर सारा माजरा धीरे-धीरे समझ में आने लगा | सारे स्टाफ को बुलाकर तहकीकात करी तो पता लगा जिस दिन जब मेरी तबियत खराब थी , मेरे जल्दी घर जाने के बाद  स्टाफ भी एक के बाद एक खिसकना शुरू हो गया |  पहले नीचे का अफसर खिसका , उसके जाने के थोड़ी ही देर बाद सुपरवाईजर और बाद में तो धीरे-धीरे करके स्टाफ के सदस्य एक के बाद एक कबूतरों की तरह से फुर्र  | मज़े की बात यह कि हर बन्दा जाने से पहले बाकी लोगों को ताकीद करके जाता कि भाई लोगो ध्यान रखना | हद तो तब हो गई जब सब के खिसकने के बाद चपरासी भी दफ्तर में ताला लगाकर चलता बना – ताले के कान में यह बोल कर कि भगवान सब का ध्यान रखना, सब की नौकरी बचाना |  बस यह समझ लीजिए कि पूरा भरा-पूरा दफ्तर जैसे भरी जवानी में ही विधवा ( या रंडवा ) हो गया |  सारी बाते सुन कर एकबारगी तो लगा जैसे अपने सर के सारे  बाल नोंच लूँ |  झुंझला कर बोला “कमबख्तो तुम्हे पता भी है क्या हुआ है | बिजली बोर्ड ने लिखित में  दिल्ली जोनल आफिस में शिकायत भेजी है कि आपके गाज़ियाबाद दफ्तर में भरी दोपहरी ताला लगा हुआ था जिससे हमारे बाबू को वापिस लौटना पडा | अब बताओ क्या जवाब भेजूं उस ज़ालिम सिंह को जो पहले से ही मुझ से खानदानी बैर पाले बैठा है |” झाड सुनकर  सारा स्टाफ दम साधे भीगी बिल्ली बने बैठा था  पर उससे मेरा क्या होना था |  अफसर का लट्ठ तो मेरे सर पर ही बजा था और इस झमेले  का तोड़ भी मुझे ही निकालना था |
खैर किसी तरह अपने कमरे में आकर इस गहन समस्या पर विचार करते हुए एक प्रकार से तपस्या में लीन हो गया | एक कप चाय भी गटक गया | जैसे गौतम बुद्ध को सुजाता की खीर खा कर ज्ञान प्राप्त हुआ ऐसे ही चाय की चुसकी ले  कर मेरे ज्ञान चक्षू खुल गए | बिजली की तरह से दिमाग में विचार कोंधा, पंडित जी तुम्हारे जीजा जी भी तो इसी विभाग में एक्जीक्यूटिव  इंजीनियर के पद पर यहीं गाज़ियाबाद में
कृपा-निधान - जीजा महान :श्री सतीश शर्मा 
तैनात हैं |  अब अगर साले की नैया मझदार में हो तो जीजा नहीं बचाने आएगा तो कौन आएगा | आखिर जीजा को भी तो अपने घर में रहना है कि नहीं | यह मन्त्र तो हर जीजा को रटा ही होता है : सारी ख़ुदाई एक तरफ  और जोरू का भाई एक तरफ | तुरंत पहुँच लिया जीजा के दरबार में, करुण विलाप कर व्यथा गाथा सुनाई | अब  साला तो जीजा की नाक का बाल होता है, उस पर आंच कैसे आ सकती है | उन्होंने  तुरंत अपने मातहत सम्बंधित एसडीओ  को फोन घुमा दिया और सारी बात बता कर  बोले “तुम्हें शिकायत करने के लिए सारी दुनिया में मेरा साला ही मिला |” दूसरी तरफ से एसडीओ  की मिमियाती आवाज़ सुनायी पड़ रही थी “सर हमें क्या पता कि आपका साला ही लपेटे में आ जाएगा | आप चिंता न करें , हम सब गड़बड़ ठीक करवा देंगे |”  खैर जीजा की दिलासा और दारु के गिलास में बहुत जान होती है, सो वापिस लौट लिए |
अगले दिन दफ्तर में बैठा था तो चपरासी ने बताया कि बिजली बोर्ड के कोई एसडीओ साहब मिलना चाहते हैं | मिलते ही एसडीओ साहब ने मेज पर एक पत्र  रख दिया | पत्र  मेरे अफसर यानी हमारे जोनल मेनेजर को संबोधित था जिसमें अपने पहले पत्र का हवाला देते हुए बताया गया था कि भूल से उनका बाबू गलत पते पर पहुँच गया था और वहां ताला लगा देख कर अनजाने में सीसीआई   दफ्तर बंद होने की गलत रिपोर्ट दे दी जिसके लिए उन्हें खेद है | सच मानिए उस पत्र को पढ़ कर ऐसा लगा जैसे लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी का प्रबंध हो गया हो |  बस फिर क्या था अगले ही दिन स्पष्टीकरण में अपने आप को अनूप जलोटा की तरह पाक-साफ़, शराफत का पुतला घोषित करते हुए, बिजली बोर्ड की चिट्ठी को अपने जवाब के साथ नत्थी करते हुए चेप दिया अपने उस  खुन्दकी बॉस को, जो मुझ जैसे सीधे-सादे निरीह मेमने की अग्नि परीक्षा लेने पर तुला हुआ था |  कहना न होगा कि उसकी  बोलती बंद करने के लिए मेरी सत्यवादी  मिसाइल काफी थी | तो भाई लोगो बोलो मेरे साथ जोर से :
जाको  जीजा साथ हो ,वाए  मार सके ना कोए ,
बाल न बांका कर सके , चाहे अफसर बैरी होए ||                       

इति जीजा पुराण |

Friday, 14 September 2018

अजब दफ्तर की गज़ब कहानी ( भाग 2) : सर्कस का शेर


मैं इससे पहले अपने अजीबोगरीब सर्कसनुमा गाज़ियाबाद दफ़्तर की बानगी आपको ‘अजब दफ़्तर की गज़ब कहानी (भाग-1)’ में करा चुका हूँ | यहाँ के ऐसे-ऐसे अनगिनत किस्सों की भरमार है जिन्हें अगर लिखने बैठ जाऊं तो राम कसम लतीफों की एक पूरी किताब ही बन जाएगी | इस दफ्तर में काम कम  और खाली दिमाग की  खुराफातें ज्यादा होती थी | अपने पूरे जीवनकाल में इतने मातहत ( गिनती में पुरे 17 ) कभी नहीं मिले जितने गाज़ियाबाद में मेरी दुम से बाँध दिए गए थे | सारे के सारे सिफारिशी , कोई किसी नेता का चेला, कोई भाई तो कोई भतीजा | सब के ठाट गज़ब  और जलवे निराले जिसे देख- देख हम मन ही मन कुढ़ते रहते और सोचा करते हाय हुसैन हम ना हुए | हाँ कभी कभार हमारे पास सजा-याफ्ता मुजरिम भी भेज दिए जाते थे विशेष हिदायतों के साथ कि इन मरखने सांडों से निपटना कैसे है | कई बार चुपचाप बैठा-बैठा सोचता रहता कि भगवान तूने क्या सोचकर मुझ गरीब को इस पागलों के स्कूल का हेड मास्टर  बना दिया |
एक बार सुना कि किसी स्टेनो को ट्रांसफ़र करके गाज़ियाबाद भेजा जा रहा है | सुनकर पहले तो ऐसा  लगा जैसे मुगलों के अंतिम बादशाह बहादुर शाह ज़फर को ब्रिटिश सरकार ने रंगून से वापिस बुलाकर लाल किले का तख्ते ताउस सौंप दिया हो | सोचा चलो अब खतो किताबत करने में थोड़ी सुविधा हो जाएगी वरना अब तक तो चिट्ठियों को हाथ से ही लिख कर भेजा करता था | पर बाद में  दिमाग में यह ख्याल भी मुझे भी पागल करने लगा कि हिन्दुस्तान की आबादी तो पहले से इतनी विस्फोटक हुई पडी है अब इस नवजात शिशु को किस पालने में पालूँगा | पर कर भी क्या सकता था, बुझे दिल से उस 9 बच्चे वाले बिहारी नेता की तरह खुद को समझाया कि जो  परवर दिगार मुँह देता है वही निवाला भी देगा |  
तो जनाब जिन श्रीमान को हमारे यहाँ भेजा वो कद काठी में स्टेनो कम पर पहलवान ज्यादा लगते थे | मुर्गीखाने में हर आने वाले नए मुर्गे की जैसे पूरी जांच पड़ताल की जाती है ऐसे ही कुछ छानबीन करनी मेरे लिए आवश्यक भी थी | पुराने स्कूल के हेडमास्टर से पता चला कि बन्दा बिगड़ा हुआ नेता है | अब नेता भी ऐसा जिसे हर गर्मी में दिमाग में इतनी गरमी चढ़ जाती है कि इस बन्दे और मरखने सांड में कोई अंतर नहीं रह जाता यानी कि कुल मिलाकर मेडीकल प्रोब्लम भी | हो गई न वही बात : एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा  |  अपराध : दिल्ली ग्राइंडिंग यूनिट में फेक्ट्री गेट पर खड़े होकर सरे आम कंपनी के सर्वेसर्वा उस  चेयरमेन के लिए गालियाँ बरसाना जिसके नाम मात्र से ही अच्छे अच्छों का पेंट में ही सूसू निकल जाता था | सब कुछ जानकार अपने आप को समझाया कि  कोई बात नहीं पंडित जी  जब अपना सर इस गाज़ियाबाद के दफ्तर रूपी ओखली में डला ही हुआ है तो इन सांड रूपी मूसलों से क्या डर, जो होगा देखा जाएगा |
कहने वाले कह गए हैं कि बिगडैल घोड़े पर शुरू में ही हंटर नहीं बरसाने चाहिए | फार्मूला काम कर गया , प्यार से बन्दे ने काम शुरू कर दिया | कोई शिकवा नहीं ,कोई शिकायत नहीं, अपने काम में माहिर था और सोने पे सुहागा बला का मेहनती | सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था | कभी-कभी मज़ाक में मुझे वह कह बैठता कि सर आपने जंगल के शेर को आखिर सर्कस का शेर बना ही दिया | मैं भी उसे उसी हलके फुल्के अंदाज़ में जवाब देता कि बेटा जी यह गाज़ियाबाद दफ्तर के सर्कस और सर्कस के रिंग मास्टर का कमाल हैं |
समय गुज़रता जा रहा था और फिर धीरे-धीरे गर्मियों भरे दिनों ने दस्तक देनी शुरू कर दी  |  अच्छे खासे बन्दे के व्यवहार में भी परिवर्तन आने शुरू हो गए | दफ्तर आने के समय में अनियमितता होने लगी, कभी आये तो कभी नहीं | कभी सुबह सुबह  देखता कि दफ्तर के सामने के गलियारे के फर्श पर ही अखबार बिछा कर गहरी नींद में सोए पड़ा है | एक बार तो भाई मेरा, मेरे कमरे में ही कुर्सियां आपस में जोड़ कर खर्राटें मार मार कर कुम्भकर्ण से कम्पटीशन कर रहा था | कई बार सोचता करूँ तो करूँ क्या | अगर ऊपर शिकायत कर दी तो मेनेजमेंट तो बैठा ही इस ताक में है , बन्दे की नौकरी जाने में देर नहीं लगेगी जिसके लिए मेरा दिल गवाही नहीं दे रहा था |  मानवता के नाते मानसिक समस्या को नज़र अंदाज़ भी तो नहीं किया जा सकता था | अपने पिता की कही एक बात आज तक मुझे याद है , कहते थे ये जो दुनिया है डूबते सूरज की आँखों में ही आँख डालने की गुस्ताखी करती  हैं क्योंकि उगते सूरज को घूरने की हिम्मत तो है नहीं | सो जिस पर पहले से ही भगवान की मार है उसे आप और क्या मारेंगे |
एक दिन का वाकया है वह चुपचाप खामोशी की चादर ओढ़े मायूस सा मेरे ही कमरे की एक कुर्सी पर बैठा था | अचानक धडधडाते हुए चार –पांच मुशटंडो का जत्था कमरे में घुस आया और घेर लिया उस जंगल के शेर को |  हद तो तब हो गई जब उन में से एक गुंडे ने अचानक बंदूक की नली उसकी खोपड़ी पर लगा कर धमकाना शुरू कर दिया | एक तरह से पूरा फ़िल्मी सीन सामने पेश हो गया था, पर उस दिन जिन्दगी में पहली बार जाना कि बेटा बंदूक को सिनेमा के पर्दे पर देखना एक बात है पर जब असल में दुनाली से सामना होता है तो अल्लाह, जीसस और ईश्वर तीनों ही एक साथ प्रकट हो जाते हैं यह पूछने के लिए कि बचुआ तुम्हारे पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार के लिए किसे बुलाना है - पंडित को, मौलवी या पादरी को | पूरे दफ्तर में एक बारगी तो हंगामा मच गया पर उस बंदूक वाले की वजह से  किसी भी शख्स में आकर बीच-बचाव करने की भी हिम्मत नहीं थी| मैंने भी मौके की नजाकत को भांपते हुए उस बंदूकची के पारे को नीचे आने का इंतज़ार किया | खैर जैसे तेसे हालात काबू में आए और पता लगा कि दफ्तर आते समय हमारा शेर पता नहीं किस पिनक में रास्ते के कुछ बदमाशों से किसी बात पर उलझ बैठा था बिना यह जाने बूझे कि यह जगह कायदे की दिल्ली नहीं गुंडों का गाज़ियाबाद है | अब बंदूक के सामने तो वह भी कतई पत्थर की खामोश मूर्ती बना उस तूफ़ान के गुज़र जाने का इंतज़ार कर रहा था | दफ्तर के दूसरे कमरे से भी अब लोग आकर जमा हो गए थे और बीच-बचाव के बाद लंका काण्ड जैसे-तेसे सम्पूर्ण हुआ |
उस वाकये के बाद मैंने उस शख्स को फिर कभी नहीं देखा | उसने दफ्तर आना छोड़ दिया, वजह क्या रही पता नहीं, शायद उस दिन की फजीयत के कारण उत्पन्न लज्जा, कुंठा या कुछ और जो केवल वही जानता था | कंपनी में आई वी०आर०एस (Voluntary Retirement Scheme) के तहत उसने नौकरी छोड़ दी | बाद में किसी ने बताया उसकी तबियत  ज्यादा  ही खराब हो चली | आँखों से दिखना भी बंद हो गया था | एक दिन पता चला बीमारी में ही मेरा जंगल का शेर इस दिल्ली के कंक्रीट जंगल को छोड़ ब्रह्माण्ड के विराट जंगल में विलुप्त हो गया | अगर मैं ठीक से याद कर पा रहा हूँ तो वह वर्ष 2005 था |            

Friday, 7 September 2018

अजब दफ्तर की गज़ब कहानी (भाग 1) : मीठी गोली



गाज़ियाबाद में सी०सी०आई (सीमेंट कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया) का किसी समय में रीजनल आफिस हुआ करता था | मेरी पोस्टिंग 1997 के दौरान हिमाचल प्रदेश में थी इस लिए जब मेरा ट्रांसफर गाजियाबाद के लिए हुआ तो बहुत खुश हुआ कि चलो घर ( नोएडा ) के पास पहुँच रहा हूँ | जब आकर आफिस में ज्वाइन किया तो हालात देखकर तोते उड़ गए | आफिस के नाम पर कुल ले देकर दो छोटे-छोटे कमरे थे जिसमें एक कमरा रीजनल मैनेजर यानी मेरे के लिए और दूसरा बाकी स्टाफ के लिए था | अब स्टाफ भी थोड़े बहुत नहीं पूरे 17 बन्दों का था | अब मज़े की बात यह कि जगह की तंगी के कारण कुर्सियां भी बमुश्किल खींच-तान कर 10-12 ही आ पाती थीं और  बची-खुची जगह में अड्डा जमाया हुआ था फाइलों से लदी अलमारियों ने | उन दिनों  सीसीआई के दिन गर्दिश में चल रहे थे इसलिए काम काज भी कोई ख़ास नहीं था | एक दिन हिम्मत करके अपने एक विश्वस्त कर्मचारी से पूछ ही बैठा “भाई ! ये माजरा क्या है ? यह दफ्तर है या सर्कस | कुम्भ का मेला लगा हुआ है | इतने आदमी तो मुझे कभी चलती फेक्ट्री के मार्केटिंग विभाग में नहीं मिले, यहाँ कुछ काम न धाम फिर यह मेहरबानी कैसी ?” उसने मेरे कान में होले से फुसफुसा कर कहा “ साहब ! यहाँ का ज्यादातर स्टाफ सिफारिशी लोगों का है | हर आदमी जैक लगाता है दिल्ली ट्रांसफ़र के लिए | अब ऊपर वाला दिल्ली तो सबको बुला नहीं सकता , इसलिए ऐसे रंगरूटों  की पोस्टिंग ग़ाज़ियाबाद केंट में होती है | अब इन सिफारिशियों की पलटन संभालना आपका काम | रंगरूट आपके,  थानेदार आप और यह थाना आपका | बस यह ध्यान रखियेगा कि तोप जरा संभाल कर चलाइयेगा इन पर , कहीं बेक-फायर ना हो जाए |” सलाह वाजिब थी और वक्त की नजाकत के मद्देनज़र थी क्योंकि मेरे पुराने दोस्त  वाकिफ़ होंगें  उन दिनों बम गिरने से पहले सायरन नहीं बजा करता था |      
अब ऐसे माहोंल में मेरी सुबह सवेरे की पहली सरदर्दी होती मुय्जिकल चेयर कराने की | उपलब्ध कुर्सियों के हिसाब से ही फ़ालतू लोगों को इधर उधर बाहर के फ़ालतू कामों पर बाहर रवाना करना पड़ता , मसलन तुम मार्केट-सर्वे पर जाओ, तुम फलां डिपार्टमेंट में जाओ ( किसलिए ? बस शकल दिखाने ), तुम फलाँ मेनेजर के घर का पानी का बिल भर आओ | अब इतने सब के बाद भी अगर कोई पलटन का रंगरूट बच जाता तो कहना पड़ता कि जा आज तेरे मज़े आ गए , घर जा टी.वी. पर मैच देख | कभी-कभी लगता कि रीजनल मेनेजर हूँ या सुबह-सुबह लेबर चौक पर खड़ा दिहाड़ी मजदूरों को काम बांटने वाला ठेकेदार |

अलबत्ता उस दफ्तर की एक ख़ास जिम्मेदारी थी गाज़ियाबाद स्थित बिक्री कर विभाग से सेल्स टेक्स के फ़ार्म जारी करवाने जोकि एक टेढ़ी खीर था | दरअसल कमज़ोर वित्तीय स्थिति के कारण बिक्री कर विभाग का भारी बकाया था जिसके कारण वहां के अधिकारियों की खरी खोटी भी सुननी पड़ती थी | यहाँ एक बात बता दूँ कि इन फामों के अभाव में फेक्ट्री से सीमेंट का डिस्पेच नहीं हो सकता था अत: येन केन प्रकारेण इन का जुगाड़ करना पड़ता था | इस काम में माहिर थे हमारे तत्कालीन एकाउंटेंट एन.सी सरकार जिन्हें हम सभी प्यार से दादा बोला करते थे |  रंग गौरा चिट्टा, प्रभावशाली व्यक्तित्व , स्वभाव से अत्यंत मृदु भाषी, गुस्सा उन से कोसों दूर और सोने पर सुहागा यह कि बातों के धनी | हम तो आज तक मानते थे कि मार्केटिंग वाले बातों के उस्ताद होते हैं पर इस मामले में सरकार दादा ने सब को पीछे छोड़ रखा था | एक तरह से उन्हें आप हरफनमौला कह सकते हैं | होम्योपथी की भी अच्छी खासी जानकारी रखते थे |  मैं और सरकार दा सेल्स टेक्स के काम के लिए साथ ही जाया करते थे | अब सेल्स टेक्स डिपार्टमेंट में सम्बंधित असिस्टेंट कमिश्नर   थे श्री ए.के दरबारी जोकि थोड़े में कहें तो गब्बर का दूसरा रूप थे | कोई रहम नहीं, कोई दया नहीं | एक दिन हमने जरा चतुरता दिखाते हुए डिप्टी कलेक्टर को बताया कि हमारे सी.एम.डी भी दरबारी ही हैं | हमारी मंशा थी कि इस बहाने से उनका रवैया हमारे प्रति थोडा नरम हो जाएगा | पर यह क्या, यहाँ तो लगा जैसे तोप बेक फायर कर गई | सुनते ही वो तो गुस्से से उबल पड़े,  जोर से बोले मैं अच्छी तरह से जानता हूँ तुम्हारे चेयरमेन को , मेरे ही कुनबे का ख़ास है , पर हर तरह से बकवास है | अब हालत यह कि  आयें-बायें–शायें जो मुंह में आ रहा था वो बोले जा रहे थे | लगा जैसे बर्र का छत्ता छेड़ दिया हो | वो जो कहावत होती है न कि चौबे जी छब्बे बनने चले थे, दूबे ही  रह गए , का मतलब सही मायने में समझ में आ रहा था | हम भी मन में समझ चुके थे कि इन्हें  कोई पुराने  दर्दे जिगर का ग्रेनेड रहा होगा जिसका सेफ्टी पिन हमने गलती से निकाल दिया, अब धमाका तो होना ही था, पर करें तो करें क्या | चुपचाप कान दबाए ज्वालमुखी के शांत होने का इंतज़ार करते रहे | रेलगाड़ी के स्टेशन पर रुकने पर होले  से सरकार दा ने मुस्कराते हुए परशुराम से पुरानी बीमारियों के बारे में पूछना शुरू कर दिया | लगा जैसे तपते तंदूर पर हलवाई ने पानी के छीटें डाल दिए| कमरे का तापमान अब सामान्य के स्तर पर आने लगा था | शेर और मेमने की कहानी के पात्र अब बदल कर डाक्टर और मरीज का रूप लेने लगे थे | मरीज का सारा हाल जानकार अब हमारे एकाउंटेंट उर्फ़ डाक्टर साहिब ने अपना ब्रीफकेस खोला और होम्योपेथी की मीठी गोलियों की छोटी से शीशी उन्हें पकड़ा दी | दादा ने चुपके से मुझे आँख मारकर चलने का इशारा किया और हम दोनों ही उन्हें एक विनम्र नमस्कार करके  वापिस चलने का अभिनय शुरू कर दिया | अभी हम दरवाज़े की चौखट तक ही पहुचे होंगे कि पीछे से गरजदार आवाज़ आई “साथ के कमरे से बाबू से 100 फ़ार्म इशू करवा लेना | फिलहाल के लिए काफी होंगे |” इतने सारे काण्ड के बाद भी सरकार दादा की  मीठी गोली ने  सहारा रेगिस्तान में भी चेरापूंजी की बरसात करवा दी यह याद करके मैं आज भी बेसाख्ता हँस पड़ता हूँ |                            
  


भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...