सिनेमा के शौकीन पुरानी पीढ़ी के लोगों को शायद याद हो - एक जमाने में राज कपूर साहब की फिल्म आई थी – मेरा नाम जोकर । फिल्म तो खास चली नहीं पर प्रख्यात कवि और गीतकार नीरज जी का एक गाना जरूर चला –
ऐ भाई ज़रा देखा कर चलो , आगे ही नहीं पीछे भी ,
दाएं ही नहीं बाएं भी , ऊपर ही नहीं नीचे भी ।
नीरज जी तो आज इस दुनिया में नहीं हैं पर उनका यह यादगार गीत अभी भी रेडियो पर कभी - कभार सुनने को मिल जाता है । मैं जब भी इस गीत को सुनता हूँ तो इस गीत के साथ जुड़ी यादें भी ताज़ा हो जाती हैं । यादें उस दौरान की जब मैं अपनी बुलेट फटफटिया को फर्राटे से सड़कों पर दौड़ाते हुए इस गीत को गुनगुनाया करता था । आज का किस्सा उसी बुलेट फटफटिया और इस गीत से जुड़ा है ।
ज़माना वर्ष 1994 के आस-पास का था । उन दिनों मेरी पोस्टिंग हिमाचल प्रदेश के पाँवटा साहिब के निकट स्थित राजबन नाम की जगह में सीमेंट फैक्ट्री में थी । मार्केटिंग विभाग में होने के कारण समय -समय पर आस-पास की जगहों पर सरकारी दौरे पर भी जाता रहता था । उम्र का तकाजा और कुछ जवानी का जोश - ऐसे अवसरों पर सार्वजनिक यातायात के साधनों के बजाय अधिकतर अपनी भारी -भरकम बुलेट मोटर साइकिल का ही प्रयोग करता था । दफ्तर का काम भी हो जाता था और फटफटिया पर मस्ती -भरा सैर -सपाटा भी – और वह भी सरकारी खर्चे पर । ऐसे ही किसी मौके पर पास की एक जगह विकास नगर जाने का कार्यक्रम बना जो कि लगभग 20 किलोमीटर दूर थी । हिमाचल प्रदेश का मौसम तो हमेशा ही सुहावना रहता है – उस दिन भी कुछ ऐसा ही था । सुबह का वक्त था ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी और ऐसे ही सुहावने मौसम में फटफटिया धकधक की आवाज करती सरपट दौड़ती चली जा रही थी । अब उसे मेरे अकल का फेर कहिए या कुछ और , मुझे उस आवाज़ में भी मानो : माधुरी दीक्षित की फिल्म का गाना सुनाई देरहा था – “धक-धक करने लगा , ओ मेरा जियरा डरने लगा ।“ पर मुझे डर काहे का जब - सड़क बिल्कुल साफ थी और भीड़-भाड़ का दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं था । मेरी मंजिल अब नजदीक ही थी । सड़क के दोनों और हरे-भरे खेत और आम के पेड़ों की भरमार थी । आम के पकने का मौसम आ चुका था और पेड़ों पर लगे पके आमों की महक उस दौड़ती मोटर साइकिल पर भी एक अलग ही किस्म का मदहोश करने वाला अनुभव करा रही थी । अचानक एक झटका सा लगा और महसूस हुआ कि सड़क से ऊपर उठ कर मोटर साइकिल ने रनवे पर दौड़ते हुए हवाई जहाज की तरह उड़ान लेनी शुरू कर दी । मेरी मोटर साइकिल सड़क से पंद्रह फीट की ऊंचाई तक पहुँच गई और उसके बाद वापिस उलटी दिशा में आकर सड़क पर ही बहुत धीमे से झटके से उतर भी गई । मेरा संतुलन बिगड़ चुका था और मैं भी मोटर साइकिल के साथ सड़क पर लमलेट हो चुका था । अब तक आसपास के खेतों में काम कर रहे लोग तुरंत मेरी सहायता के लिए आ गए । सहारा देकर मुझे खड़ा किया – भाग्यवश कोई गंभीर चोट मुझे नहीं आई थी । दायें हाथ की कलाई में मामूली सी खरोंच भर लगी जो बाद में पता चला छोटा सा फ्रेकचर था । यह सब इतना पलक झपकते हुआ कि इस कांड को मैं तुरंत समझ नहीं पाया । बाद में जब इधर-उधर नजर दौड़ाई तो सारा मामला साफ़ हुआ ।
दरसल जैसा मैंने पहले बताया जिस सड़क से मैं गुजर रहा था वह यातायात के हिसाब से बिल्कुल साफ थी – मेरे आगे -पीछे आधा किलोमीटर तक तक कोई नहीं था । पर उस सड़क के किनारे लगे पेड़ों पर कुछ लोग चढ़ कर आम तोड़ रहे थे । उन्होंने रस्सी का फंदा बनाया हुआ था जिससे ऊपर की टहनियों पर लगे आम झटका देकर नीचे गिरा रहे थे । वह रस्से का फंदा उनके हाथों से फिसल कर नीचे सड़क तक झूले की तरह लटक आया । अचानक नीचे से गुजर रही मेरी मोटर साइकिल उस झूले की चपेट में आकर बुरी तरह से उलझ गई । झूले के आकार का वह रस्सी का फंदा सीधे मेरी गरदन पर उलझने वाला ही था पर उससे पहले ही मोटर साइकिल के हेंडल पर दोनों ओर लगे मजबूत रियर व्यू मिरर में अटक गया । दौड़ती मोटर साइकिल की रफ्तार ने अचानक पेड़ से लटकते रस्सी के झूले में उलझ कर वहाँ सर्कस का खतरनाक करतब दिखा दिया । बिना सावन के ही मेरी फटफटिया अपने सवार समेत पेंडुलम की तरह हवाई झूले का भरपूर मज़ा ले गई । एक और अचंभे की बात यह कि रस्सी का एक अन्य सिरा मोटर साइकिल के तेजी से घूमते हुए पहिए में उलझ कर उसे हवा में ही पूरी तरह से जाम कर चुका था । इस कारण जब मेरा हवाई घोड़ा वापिस जमीन पर अवतरित हुआ तो बहुत ही शांत भाव से – बिना इसी प्रकार की खतरनाक उछल-कूद मचाए ।
बाद में जब ठंडे दिमाग से सोचा तो महसूस हुआ कि बहुत बड़ी विपत्ति थी जो बगल से निकल गई । शायद कुछ अच्छे कर्मों का और कुछ दोस्तों की शुभकामनाओं और बड़े -बूढ़ों के आशीर्वाद का प्रताप रहा होगा । रस्सी का फंदा उस वक्त मेरी गरदन तोड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार था - पर मेरी किस्मत में आपको यह किस्सा सुनाना बाकी जो था । इस किस्से का सार यही है कि कई बार मुसीबत आपको ऐसे कोने में आकर घेर लेती है जहाँ बिल्कुल उम्मीद नहीं होती । सड़क पर आप जा रहे हैं – मौसम साफ है - आगे कोई नहीं – पीछे कोई नहीं – अब आप सपने में भी नहीं सोच सकते कि आपकी ऐसी-तेसी करने के लिए मुसीबत आसमान के रास्ते उतर आएगी । नीरज जी ने तभी ठीक ही लिखा – ऐ भाई ज़रा देख के चलो – नीचे ही नहीं – ऊपर भी ।
इस किस्से का सबसे दुखद पहलू मेरे लिए यही रहा कि पूज्य पिताश्री का आदेश हुआ – “ तुम्हारी बुलेट फटफटिया मनहूस है । तुम्हारी जान जाते-जाते बची है । इसे घर में मत रखो – तुरंत बेच डालो । दुपहिए से नाता तोड़ो , कार से रिश्ता जोड़ों ।” मैं उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता हूँ जिनके लिए बुजुर्गों की इच्छा और आदेश सर्वोपरि होता है अतः आज्ञा का पूरा पालन हुआ । जान से प्यारी बुलेट फटफटिया को भारी मन से अपने घर ही नहीं अपनी ज़िंदगी से भी निकाल दिया । अब तो बस कभी -कभार अपने बेटे की बुलेट पर दिखावटी सवार होकर शौकिया फ़ोटो खिंचवा लेता हूँ । इस तरह पिताश्री की इच्छा का सम्मान भी हो जाता है और मेरे दिल के अधूरे अरमान भी कुछ हद तक पूरे हो जाते हैं।
वाह कौशिक साहब आपके जीवन की घटनाएं कम रौचक नहीं है और हर घटना कौइ न कौइ संदेश दे जाती है । फिर आपका प्रस्तुतीकरण पुरी घटना को पढने पर विवश कर देता है 👍......
ReplyDeleteदिलचस्प किस्सों की श्रंखला में एक ओर रोचक किस्सा। कहने की बात नहीं है कि हर किस्सा मजेदार होता है।
ReplyDeleteToo good sir beautiful bike mine favourite too
ReplyDeleteSuperbly narrated !! 🌹🌹!!
ReplyDeleteshi kha he jako rakhe saiyan mar ske na koi
ReplyDeleteकिस्सागोई के हुनर में आप माहिर हैं । किस्सा आपके जीवन से जुड़ा हो या दूसरों के ,प्रस्तुति लाजवाब होती है । ऐसे संकटों का भी आप लच्छेदार भाषा में वर्णन कर सबका मनोरंजन करते हैं । यही सोच कर ईश्वर ने आपकी रक्षा की होगी।
ReplyDeleteबहुत रोचक,रोमांचकारी और स्तब्ध कर देने वाला वृत्तांत।सच में ये तो बहुत बड़ी दुर्घटना हो सकती थी।ईश्वर की दया रही।
ReplyDeleteधन्यवाद उस ज़माने को जब अजनबियों को तुरंत सहायता पहुंचाना लोग अपना धर्म समझते थे,वरना आज तो लोग वीडियो बनने में व्यस्त हो जाते है।