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Friday, 16 August 2019

तिहाड़ के परिंदे


आज सुबह –सुबह अखबार पढ़ते हुए एक ऐसी खबर मेरी नज़रों के सामने से गुज़री जिसने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया | इस बात में कोई संदेह नहीं कि यह ज़िंदगी वाकई में बहुत रंगीन है | इस को कभी भी काले- सफ़ेद के नज़रिए से नहीं देखा जा सकता | अब इंसानों की ही बात ले लीजिए – उन्हें भी आप केवल अच्छे या बुरे की श्रेणी में नहीं विभाजित कर सकते | हर इंसान में अच्छाई और बुराई का सम्मिश्रण होता है, अब यह अलग बात है कि उन अच्छे और बुरे गुणों का आपस में अनुपात क्या है | यह सचमुच की दुनिया उस सिनेमा की रूमानी दुनिया से बिलकुल अलग है जहां परदे पर नज़र आने वाला किरदार या तो देवता होता है या खलनायक के रूप में रावण का अवतार | अब अगर मैं रावण का उदाहरण दे रहा हूँ तो यह भी तो सच है कि कुछ अच्छाइयां तो रावण में भी थीं | चलिए अब ज्यादा पहेलियाँ न बुझाते हुए अब सीधे उस खबर पर आता हूँ जिसका सम्बन्ध तिहाड़ जेल से है |

तिहाड़ जेल 

दिल्ली की तिहाड़ जेल का नाम आप में से ज्यादातर लोगों ने सुना ही होगा | एक बहुत पुराना गाँव है तिहाड़ा, उसी गाँव में वर्ष 1957 में इस जेल का निर्माण हुआ था | यह देश की ही नहीं वरन पूरे दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी जेल है | वास्तव में तिहाड़ एक तरह से विराट जेल क्षेत्र है जिसके अंदर 9 अलग-अलग जेल हैं | आप यह भी कह सकते हैं कि यहाँ जेल के अन्दर भी एक नहीं बल्कि कई जेल हैं | बनी तो यह 6 हज़ार कैदियों के लिए है पर यहाँ चौदह हज़ार से ज्यादा कैदी ठूंस –ठूंस कर भरे रहते हैं | देश ने हर क्षेत्र में तरक्की की है, सडकों पर मोटर गाड़ियों ने, आबादी ने, बेरोजगारी ने, तो फिर अपराध और अपराधियों की दुनिया कैसे पीछे रह सकती है | यही कारण है कि तिहाड़ जेल सदा लबालब भरी रहती है जहां एक से एक खूंखार और हाई- प्रोफाइल कैदी अपना डेरा डाले रहते हैं | यहाँ के बारे में एक रोचक तथ्य यह भी है कि जेल कम्पाउंड के अन्दर कई फेक्ट्रियां भी हैं जिनमें यहाँ के कैदी काम करते हैं जिसकी उन्हें बाकायदा मजदूरी भी मिलती है | टी.जे. के ब्रांड नाम से बहुत तरह का सामान जैसे – डबलरोटी, बिस्किट, अचार , सरसों का तेल, कपड़ा, मोमबत्ती, जूट-बेग, फर्नीचर, पेंटिंग्स इन्हीं कैदियों द्वारा जेल में बनाया जाता है |
जेल की बेकरी में काम करते कैदी 

किसी समय प्रसिद्ध आई.पी.एस अधिकारी किरण बेदी इसी तिहाड़ जेल की डायरेक्टर जनरल रह चुकी हैं | उस समय उन्होंने कैदियों के सुधार कार्यक्रमों पर विशेष जोर दिया जिनमें पढ़ाने-लिखाने से लेकर योग और विप्सना की शुरुआत हुई | आवश्यक नहीं है कि जेल में रहने वाला हर कैदी दुष्ट, भयानक और खूंखार ही हो | यह तो एक अनोखी दुनिया है जहां बहुत से ऐसे लोग भी मिल जायेंगे जो हालात या वक्त के मारे हुए हैं , जो बेगुनाह होते हुए भी गरीबी, व्यवस्था और कानून की चक्की की चपेट में आ गए | ऐसे लोगों ने यहाँ रहते हुए भी पढ़ाई करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा, एक के बाद एक ऊँची से ऊँची परीक्षा पास करते रहे और जेल से बाहर आने पर पर समाज में अपना नया जीवन फिर से सफलतापूर्वक शुरू किया | 

यह कहानी है इसी तिहाड़ जेल के एक कैदी - भास्कर की | उम्र – लगभग 40 वर्ष |हत्या के अपराध में उम्र कैद की सजा काट रहा था | घर पर पत्नी के अलावा बारह साल का बेटा और 75 वर्ष का बूढा पिता | भास्कर जेल की जूट बेग बनाने की फेक्ट्री में ही काम करता था | हर महीने उसे चार हज़ार रुपये की आमदनी हो जाती जिसमें से दो हज़ार रुपये वह घर पर भिजवा देता | जेल में तेरह साल इसी तरह से गुज़र चुके थे और इंतज़ार था बस सज़ा के पूरा होने का | जेल में लम्बी सज़ा काट रहे अच्छे चाल चलन वाले कैदियों के लिए पैरोल का प्रावधान होता है जिसके अंतर्गत उन्हें घर परिवार से मिलने- जुलने के लिए कुछ दिनों की जेल से छुट्टी मिल जाती है | भास्कर भी पैरोल पर अपने घर गया जो कि ओडीशा राज्य के एक छोटे से गाँव में था | समय मानों पलक झपकते फुर्र से बीत गया और पैरोल की अवधि निबटने पर जेल वापिस जाने का वक्त भी आ गया | वह 27 जून 2019 का दिन था जब भास्कर घर से विदा लेकर वापिस जेल जाने को चल पड़ा | अभी बीच रास्ते रेलगाड़ी में ही था कि भास्कर को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा | जेल के सींखचों के पीछे की कैद में पहुँचने से पहले वह चलती ट्रेन में ही इस दुनिया की कैद से ही आज़ाद हो चुका था | भास्कर की मौत की खबर उसके परिवार के लिए तो दुःख का पहाड़ थी ही, उसके जेल के सभी साथी भी गहरे सदमें में थे | मैंने पहले भी कहा है - जेल की दुनिया भी एक निराली दुनिया है | यहाँ रहने वालों की जहाँ आपस में दुश्मनी जानलेवा होती है वहीं उनकी दोस्ती भी एक दूसरे पर जान निछावर करने वाली होती है | भास्कर के घर की कमजोर आर्थिक परिस्थियों के बारे में उन्हें पहले से ही थोड़ा बहुत अंदाजा था | उन्हें लगा कि अब वक्त आ गया है कि अपने दिवंगत दोस्त के लिए कुछ किया जाए | सबने मिल कर अपनी –अपनी हैसियत के अनुसार चन्दा इक्कट्ठा करना शुरू किया - किसी ने सौ रुपये , किसी ने दो सौ रुपये | एक साथी ने तो अपनी पूरे महीने की कमाई ही इस नेक काम के लिए अर्पित कर दी | इस प्रकार से जेल के संगी-साथियों ने इतनी कठिन परिस्थितियों में भी अपने दिवंगत साथी के परिवार की मदद के लिए दो महीने से भी कम समय में कुल मिला कर दो लाख चालीस हज़ार रुपये की सहायता राशि जोड़ ली | जेल अधिकारियों ने भी भास्कर के पुत्र और पत्नी को गाँव से दिल्ली बुलवाने का इंतजाम कर दिया | 8 अगस्त 2019 को जब जेल प्रशासन ने जब सहायता राशि का चेक भास्कर की पत्नी के कांपते हाथों में थमाया तो वह बेचारी हैरानी से हतप्रभ रह गयी | आसुँओं से डब-डबाई आँखों को मानों यकीन ही नहीं हो रहा था कि जेल की ह्रदयविहीन, कठोर और निर्मम समझी जाने वाली दुनिया से भी ऐसी घोर मुसीबत के समय सहायता का हाथ मिल सकता है |
भास्कर की पत्नी को सहायता राशि सौंपते हुए 

इस खबर को पढ़ कर मैं अभी तक इस सोच में हूँ कि किसी के बारे में भी बिना सोचे समझे पहले से ही कोई अवधारणा या राय नहीं बना लेनी चाहिए | अपनी नौकरी के दौरान मेरा खुद का यह अनुभव रहा कि अच्छी खासी आमदनी होने के बावजूद भी अगर किसी साथी सहकर्मी की विदाई पार्टी के लिए चन्दा देना पड़ जाए तो कुछ लोगों की सूरत से ऐसा लगता जैसे जीते –जी साक्षात मौत ही आ गयी | दूसरी ओर तिहाड़ जेल के वे कैदी भी हैं जिनमें इतनी मानवता और भाईचारा शेष रहा कि तिनका-तिनका जोड़ कर कठिन मेहनत से जोड़ी कमाई को भले काम में लगाने में एक क्षण की भी देर नहीं की | बात अजीब है पर है सौलह आना सच्ची |

Wednesday, 7 August 2019

बगल में छोरा, नगर में ढिंढोरा


मेहनतकश रंजन 

आपने वह कहावत सुनी ही होगी  कि बगल में छोरा, नगर में ढिंढोरा | यह कहावत कुछ ऐसे अवसरों के लिए कही जाती है जब किसी चीज़ के खो जाने पर हम दुनिया भर में खोज रहें होते है जबकि वह सामान हमारे ही आस-पास कहीं होता है | 
कुछ दिनों पहले एक ऐसी घटना हुई जिसने मुझे पछतावे की आग में कुछ इस तरह से झुलसा दिया जिसका मलाल आज तक दिल के कोने में मौजूद है | मेरे लिए शायद यही सज़ा उचित है कि पश्चाताप के रूप में आप से उस आपबीती और उससे मिली सीख को साझा करूँ | 
शहरों में आजकल एक प्रथा बहुत ही आम हो चली है – आलस और साहबी के रौब में अपनी कार की सफ़ाई ख़ुद तो करते नहीं , किसी नौकर-चाकर से करवाते हैं | वो बेचारा, हर मौसम में चाहे सर्दी, गर्मी या बरसात हो , बिना नागा ,सुबह-सुबह हाथ में बाल्टी और कंधे पर पुराने कपड़े के झाड़न लिए , पूरी मेहनत से कॉलोनी में घरों के आगे कतार में लगी कारों को रगड़-रगड़ कर साफ़ करने में लगा रहता है | एक भी दिन अगर किसी हारी-बीमारी की वजह से नहीं आ पाए या देरी हो जाए तो समझ लीजिए कि बस उस पर डाट-डपट, तानों-उलाहनों का मानों पहाड़ टूट पड़ता है | एक लम्बे समय तक मैं अपनी गाड़ी खुद ही साफ़ करता रहा था | फिर धीरे-धीरे कुछ बढ़ती उम्र और ढलती शारीरिक शक्ति का तकाज़ा समझ लीजिए कि मुझे भी उसी रास्ते को मजबूरन अपनाना पड़ा जिसे मैं नापसंद करता था | अब हर सुबह मेरी गाड़ी भी मौहल्ले की दूसरी गाड़ियों की तरह से एक बंगाली मजदूर – रंजन द्वारा की जाने लगी | रंजन, बहुत ही ईमानदार शख्स, दिन भर रिक्शा चलाता है पर सुबह के खाली समय में कॉलोनी की गाड़ियों की धुलाई-पुछाई करके कुछ अतिरिक्त आमदनी कर लेता है | साल में एक बार रंजन एक महीने के लिए बंगाल में अपने गाँव जरूर जाया करता है | ऐसे समय में वह अपनी जगह किसी दूसरे आदमी का इंतजाम जरूर कर जाता है जिससे उसके साहब ग्राहकों को को किसी प्रकार की समस्या न हो | उस बार भी ऐसा ही हुआ जब दो किशोर उम्र के बच्चों की हमसे पहचान कराते हुए रंजन ने अपने गाँव जाने के बारे में बताया | अगले दिन से ही वे दोनों बच्चे आकर बड़ी मुस्तैदी से गाड़ी की सफ़ाई करने लगे | कुछ दिनों तक सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा | हाँ, एक बात बताना मैं भूल गया, अब गाड़ी मैं तो कभी-कभार ही चलाता हूँ , ज्यादातर काम के सिलसिले में मेरे बेटे प्रियंक को ही जरूरत पड़ती है | एक दिन अचानक प्रियंक आया और बोला कि गाड़ी की डिक्की बंद नहीं है और अन्दर रखा टायर में हवा भरने का पम्प भी नहीं मिल रहा है | मैं तो बस यही कह पाया कि याद करो कहीं और रख कर तो नहीं भूल गए | रहा सवाल डिक्की के खुला रहने की तो वह भी गलती से खुली रह सकती है | अगर किसी ने चोरी करनी ही होती तो वह डिक्की में रखे दूसरे सामान पर भी हाथ साफ़ कर चुका होता | प्रियंक मेरी बात से सहमत नहीं था | इस पूरे विवाद में अब श्रीमती जी भी शामिल हो चुकी थीं | पहले तो वह मेरे साथ थीं पर बाद में उन्हें भी प्रियंक की बात में दम नज़र आया और उन्हें भी लगा कि पम्प तो किसी ने चुराया ही है | अब सवाल उठा कि अगर चोरी हुई तो चोर कौन हो सकता है | पहली नज़र में ही शक की सुईं सीधे-सीधे उन दो लड़कों पर घूमी जो सुबह –सुबह गाड़ी साफ़ करने आया करते थे | इसकी एक वजह यह भी थी कि हर दिन की तरह, अगले रोज़ दो में से केवल एक ही लड़का गाड़ी साफ़ करने आया | इस मामले में उस लड़के को काफी डाट –डपट पिलाई गयी कि तुमने गाड़ी साफ़ करने के बाद डिक्की खुली छोड़ दी और इस लापरवाही की वज़ह से हमारा नुकसान हो गया | अपनी छुटियाँ बिताने के बाद जब रंजन काम पर दोबारा आया तो उसे भी इस घटना के बारे में बताया | खैर , समय के साथ बात आयी-गयी हो गयी और ज़िंदगी अपने पुराने ढ़र्रे पर पहले की तरह से ही चलती रही | हां , इस बीच प्रियंक ने अमेज़न की ऑनलाइन शॉपिंग से दूसरा हवा भरने का पम्प भी खरीद कर मंगवा लिया| एक दिन घूमने-फिरने के लिए प्रियंक और कुछ दोस्त हिमाचल प्रदेश की यात्रा पर निकल पड़े | गाड़ी उसके दोस्त की ही थी | हमेशा की तरह हर दिन अपनी कुशलता देने के लिए प्रियंक फोन करता रहता | उसी दौरान एक दिन फोन पर उसने बताया कि वह पुराना वाला पम्प भी मिल गया है | दोस्त को कभी देकर वापिस लेना भूल गया था और आज टायर पंक्चर होने पर जब उसकी गाड़ी की डिक्की खोली तो उसी में मिल गया | उसने तो इतना कह कर अपनी बात ख़त्म कर दी पर इस छोटी सी खबर ने मेरे दिमाग में एक ज़बरदस्त हलचल खड़ी कर दी | मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि आखिर हमारी सोच इस हद तक क्यों पहुँच गयी है |सबसे बड़ा दुःख यह कि इस सारे प्रकरण के ‘हम’ में मैं भी शामिल रहा | अपने विवेक का इस्तेमाल किए बिना , बहुमत के पक्ष में जाकर मैंने भी अपना पाला बदल लिया था और सीधे-सीधे गुम हुए सामान के लिए एक निर्दोष को जिम्मेदार ठहरा दिया था |
अब उस बात को जाने दीजिए कि बाद में घर आने पर अपने बेटे प्रियंक और उसके दोस्त की अच्छी तरह से खबर ली | इस पूरी घटना ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि हमारी मानसिकता कितने छोटे और निचले स्तर पर पहुँच चुकी है | हमारी मानसिकता में यह बात क्यों समा गयी है कि अगर कोई घर में कोई सामान गुम हो गया है तो पहला शक घर के नौकर-चाकरों पर ही जाता है | क्या इसका कारण यह है कि हमें अपने नौकर से ज्यादा भरोसा अपनी उस याददास्त और स्मरण शक्ति पर होता है जो बढ़ती उम्र के साथ धीरे-धीरे कमजोर और धुंधली पड़ती जा रही है | अब मामला चाहे अक्ल का हो या शक्ल का, इंसान का जन्मजात स्वभाव ही कुछ ऐसा होता है कि अपने आगे उसे सारी दुनिया कमतर ही नज़र आती है | उस पर भी अगर सामने वाला गरीब है तब तो समझ लीजिए कि उसमें सारी बुराइयां केवल आपको ही नहीं बल्कि सारी दुनिया को रातो-रात नज़र आने लगती हैं | कहने वाले एक तरह से ठीक ही कह गए हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा अपराध गरीब होना है | तभी तो कहावत बनी है कि गरीब की जोरू , सबकी भौजाई | लोग यह भी कहते है कि जब कुम्हार का अपनी बीवी पर जोर नहीं चलता है तब वह अपने गधे के कान उमेंठता है | बस यह समझ लीजिए कि जिस की लाठी उसी की भैंस | अगर आप ताकतवर हैं तो आपके सारे दोष माफ़ हैं और आपकी सारी बुराइयां भी ढँक जाती हैं | अब चाहे वह ताकत पैसे के बल पर हो, नेतागिरी के दम पर या कुर्सी की वजह से हो – बन्दे को एक तरह से लाइसेंस मिल जाता है हर तरह से मनमानी करने का | संत कबीर दास का ऐसे ही लोगों के लिए सीख देते हुए कह गए थे :
निर्बल को न सताइये, वा की मोटी हाय |
बिना सांस की चाम से, लोह भसम हो जाय || 
उनके कहने का अर्थ यही है कि हालात के कारण कोई भी व्यक्ति कमजोर हो सकता है | ऐसे व्यक्ति को कभी भी सता कर, परेशान करके उसकी बद्दुआ नहीं लेनी चाहिए | ऐसी बद्दुआ में बहुत ताकत होती है जैसे कि लुहार की धौकनीं का बेजान चमड़ा निर्जीव होते हुए भी लोहे को भस्म कर देता है |
इन सब बातों का यही सार निकलता है कि अपने आसपास के उन सभी समाज के निम्न और गरीब वर्ग के लोगों के प्रति हम सवेंदनशील रहें | यह उनकी मजबूरी ही है जिस के कारण कोई रिक्शा चला रहा है, किसी का घर आपके घर में झाडू- पौचा और बर्तन मांजने से चल रहा है, किसी को पढ़ –लिख कर भी घर-घर जाकर कूरियर- बाय या पिज्जा-बर्गर देने का काम करना पड़ रहा है | भरी गर्मीं में आपकी सेवा में हाज़िर होते हैं तो हम और कुछ नहीं तो कम से कम पानी के लिए तो उनसे पूछ ही सकते हैं | और सबसे बड़ी बात : उन्हें बिना किसी सबूत के चोर या उठाईगीर का तमगा तो हरगिज मत दीजिए | उन्हें चोरी- चकारी से ही पैसा कमाना होता तो दिन रात की बदन तोड़ और मेहनत-मशक्कत का काम क्यों करते | मुझे पता है इस प्रकार की उदार मानसिकता एक दिन में ही रातों-रात नहीं आती | ऐसी सोच धीरे -धीरे ही आपके स्वभाव का अंग बनती है | ऐसी अच्छी सोच के लिए कोशिश करने में क्या हर्ज़ है | मैं भी कर रहा हूँ – आप भी करके देखिए |

Friday, 2 August 2019

आया गुस्सा, हुआ बवाल



आज तेरी खैर नहीं 
काफी समय पहले बहुत ही हल्के -फुल्के मूड में एक लेख लिखा था रहिमन गुस्सा कीजिए ... | याद नहीं आ रहा हो तो शीर्षक पर दिए लिंक को क्लिक कर दीजिएगा और फिर से पढ़ कर पुरानी यादें भी ताजा कर लीजिएगा | उस लेख में क्रोध अर्थात गुस्से की तरह -तरह की किस्में बतायी गयीं थी और साथ ही साथ गुस्सा करने के फायदे, जी हाँ आपने ठीक सुना, गुस्सा करने से होने वाले लाभ बताये गए थे | चलिए वह सब तो बातें हँसी -मज़ाक की थीं पर आज सच में जो आपको बताने जा रहा हूँ वह पूरी तरह से गंभीरता से कह रहा हूँ | हो सकता है यही बातें आपने दूसरे लोगों से भी किसी और शब्दों या रूप में सुनी हों | जो भी हो, पर बात काम की और समझदारी से भरी है | वैसे सच में अगर देखा जाए तो , गुस्सा करने के नुकसान ही नुकसान हैं | यह आपको कहीं का भी नहीं छोड़ता| 



क्रोध , गुस्सा, आवेश, जैसे शब्दों से हम क्या अनुमान लगाते हैं ? ये बहुत स्पष्ट है कि ऐसे शब्द हमारे मन की उस अवस्था को बताते हैं, जहां हम आपा खो चुके होते हैं। हमारी बुद्धि-विवेक का ह्रास हो जाता है और हम मन के पूरी तरह नियंत्रण में आ जाते हैं। ऐसे में अक्सर आपा खो बैठने की हालत हो जाती है और अंत में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं लगता है।



वास्तव में  यह एक दयनीय अवस्था होती है, जहां हम दूसरे को दुःख तो पहुंचाते ही हैं लेकिन इससे बुरी बात ये है कि इसमें अंतिम रूप से हमारी ही हानि होती है । व्यवहारिक जीवन में इससे बड़ा दुःख और कुछ नहीं हो सकता कि क्रोध की अवस्था में हम दूसरे को दुःख पहुंचाना चाहते हैं किंतु इसमें हम स्वयं के लिए बहुत से कष्टों को आमंत्रण दे बैठते हैं । 


मानसिक संतुलन का इस तरह बिगड़ना किस हद तक ठीक है? ऐसी अवस्था चिंताजनक होती हैं। बुद्धिमान व्यक्ति वह होता है जो दूसरों की गलतियों से सीख लेता है और स्वयं को आने वाली मुसीबतों से बचाता है | हमारी अनेक पौराणिक कहानियाँ और इतिहास के किस्से ऐसी बहुत सारी घटनाओं से भरे पड़े हैं जब क्रोध से वशीभूत होकर ऐसे निर्णय लिए गए जिनपर बाद में पछताना पड़ा | ऋषि दुर्वासा और विश्वामित्र जी के क्रोध से तो सभी परिचित हैं और इनका क्रोध ही कई बार अत्यंत विनाशकारी परिस्थितियों का कारण बना | 
आज के समय में हर व्यक्ति आपाधापी और तनाव भरा जीवन जी रहा है | इसी तनाव के कारण उसमें सयंम और विनम्रता के गुण धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं | सुबह के समाचारपत्र तरह –तरह के अपराध जगत के समाचारों से भरे पड़े होते हैं जब क्रोध के कारण बिना सोचे समझे हत्या, मारपीट जैसे जघन्य अपराध तक हो जाते हैं | भीड़-भाड़ भरी सड़क पर कार चलाते समय किसी दूसरे की गाड़ी हलके से छू भर जाने से ही हम क्रोध में अपने होश खो बैठते हैं और लड़ने मरने पर उतारू हो जाते हैं | 
क्रोध हमारी वो मनोदशा है जो हमारे विवेक को नष्ट कर देती है और जीत के नजदीक पहुँच कर भी जीत के सारे दरवाजे बंद कर देती है।क्रोध न सिर्फ हार का दरवाजा खोलता है बल्कि रिश्तों में दरार का भी प्रमुख कारण बन जाता है। लाख अच्छाईयाँ होने के बावजूद भी क्रोधित व्यक्ति के सारे फूल रूपी गुण उसके क्रोध की गर्मी से मुरझा जाते हैं। क्रोध पर विजय पाना आसान तो बिलकुल नहीं है लेकिन उसे कम आसानी से किया जा सकता है, इसलिए अपने क्रोध के मूल कारण को समझें और उसे सुधारने का प्रयत्न करें। अनर्थ कोई नहीं चाहता | अनर्थ होने के बाद पछताने से कोई लाभ नहीं होता है | कहने वाले कह गए हैं : अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत | क्रोध एक दुष्ट राक्षस की तरह है | उसे पहचानिए और अपने ऊपर हावी मत होने दीजिए अन्यथा वह आपको कहीं का भी नहीं छोड़ेगा | इस दुष्ट राक्षस को सयंम और विनम्रता की ढाल से ही जीता जा सकता है | आग को शीतल पानी से ही बुझाया जाता है | क्रोध का उत्तर क्रोध नहीं होता | रेलवे स्टेशनों पर लिखा होता है : सावधानी हटी, दुर्घटना घटी | आज के सन्दर्भ में, इसी बात को थोड़ा सा बदल कर इस तरह से भी कहा जा सकता है : 

                    आया गुस्सा , हुआ बवाल  |

Thursday, 25 July 2019

धन्यवाद


यह मेरे ब्लॉग लेखन का अर्ध-शतक है अर्थात पचासवां किस्सा | यद्यपि यह कोई इतनी बड़ी उपलब्धि भी नहीं जिसके लिए हाथ में झंडा लेकर छत पर चढ़ कर बाकायदा ढिंढोरा पीटा जाए कि सुनो ... सुनो मेरे प्यारे मित्रो, मैंने बहुत बड़ा तीर मार लिया है | 
मुनियादी सुनिए गौर से, फिर बात  कीजिए और से  

पर एक तरह से देखा जाए तो आज मैं बहुत ही विनीत भाव से धन्यवाद देना चाहूँगा अपने उन सभी पाठक मित्रों का जिन्होंने  मेरे जैसे नौसीखिए ब्लॉगर को हर तरह से प्रोत्साहित किया, समय-समय पर बहुत अच्छे सुझाव भी दिए | इन पाठक दोस्तों में बहुत से वे थे जो नियमित रूप से हर कहानी, किस्से, लेख को बहुत ही आनंद से पढ़ते थे, अपनी प्रतिक्रया भी देते थे जो कि मेरे लिए एक टॉनिक का काम करती थी | ऐसे सभी दोस्तों के नाम मेरे ज़हन में बहुत ही गहराई तक अंकित हैं | ये पाठक भारत से लेकर दूर-दूर के देशों तक से हैं | इस अर्ध-शतक के सफ़र में उन सभी कहानियों के जीते-जागते पात्रों को भी सलाम जिनकी प्रेरणादायक जीवन गाथा से हम सभी को बहुत कुछ सीखने को मिला | ऐसे नामों की एक लम्बी फेहरिस्त है जैसे अध्यापन की दुनिया के प्रोफ़ेसर  डा० वीर सिंह, खरगोश मित्र डा ० चन्द्रभान आनंद, संगीत की दुनिया के चाहत-सौरभ की जोड़ी , दूर अलवर के मेडीकल कालेज से जल्द ही डाक्टर बन कर निकालने वाली श्रंखला पालीवाल, बच्चे-बड़ों सभी को खिलौना रेलगाड़ी में सैर कराने वाले अनिल भैय्या, भारतीय सेना के शूर - वीर स्व० ले० कर्नल एच. सी. शर्मा | इन सब के जीवन संघर्ष को पढ़ कर ही शरीर में एक नई ऊर्जा का जन्म होता है |    

अब आइये आज के विचार पर | पढ़ने की आदत धीरे-धीरे हम सभी में धीरे-धीरे कम होती जा रही है | सबके पास समय की कमी है  | किताबों की दुनिया लगभग विलुप्त होने के कगार पर है | मैं एक सुझाव देना चाहता हूँ : कम से कम वे सभी प्रबुद्ध पाठक जो पढ़ने के प्रति थोड़ा-बहुत गंभीर हैं, उन्हें जो भी अच्छा लेख, साहित्य, कविता, कहानी मन को छू लेने वाली  मिलती है, उसे अन्य ऐसे सुधि पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास करें जिन्हें भाषा और साहित्य से प्रेम है | इसी सन्देश के साथ हर व्यक्ति ज्यादा नहीं, केवल तीन-चार गंभीर पाठकों तक भी ऐसी रचनाओं को पहुंचा देता है तो समझ लीजिए इस व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्वीटर की हवाई दुनिया में रहते हुए हम कुछ गंभीर और सार्थक योगदान कर रहे हैं | इसी छोटे से अनुरोध के साथ एक बार फिर आपका हार्दिक अभिनन्दन | जल्दी ही फिर मिलते हैं किसी नए किस्से-कहानी के साथ |
आपका बातूनी मित्र 
😄 मुकेश कौशिक 😄

Sunday, 30 June 2019

मुखौटा

चेहरे पर चेहरा 
मशहूर शायर मुनीर नियाजी की ग़ज़ल का एक बड़ा प्यारा सा शेर है :
ये जो ज़िंदगी की किताब है ,
ये किताब भी क्या किताब है ,
कहीं रहमतों की हैं बारिशें ,
कहीं जान लेवा *अज़ाब है | ( * अज़ाब = पीड़ा / दर्द )

बस एक तरह से यह जान लीजिए कि इस ज़िंदगी की किताब से हमें बहुत कुछ सीखने को मिल जाता है | हाँ, इतना जरूर है कि हमारे आँख, नाक , कान और इन सबसे ऊपर दिमाग खुला होना चाहिए | इसी ज़िंदगी में हमें तरह-तरह के इंसान मिलते हैं , अच्छे भी और बुरे भी | सीख हमें दोनों से ही मिलती है | कहीं न कहीं मुझे लगता है भले लोगों की बजाय बुरे लोगों से ज्यादा सीखने को मिल जाता है | यही कि कुछ भी कर लो पर इस गलत इंसान की तरह तो बर्ताव कतई मत करो | आज बरबस एक ऐसे ही शख्स की याद आ गयी | 

यह श्रीमान मेरे संस्थान में ही एक तरह से सर्वे-सर्वा थे | सबके सामने तो बहुत ही ठन्डे, विनम्र स्वभाव के | छोटी-छोटी बातों में ईमानदारी की जीती जागती मिसाल | एक बार मेरे दफ्तर के निरीक्षण दौरे पर आये | शाम को जब उन्हें होटल तक पहुंचाने जा रहा था तो रास्ते में उन्होंने गाड़ी रुकवा ली और पानी की बोतल और बिस्किट के पेकेट के लिए अनुरोध किया  | साथ चल रहे अपने सहायक को मैंने इशारा किया जो पास की दुकान से सामन ले आया | साहब ने जेब में हाथ डाला और उस सामन की कीमत जो लगभग 28 रुपये थी, मेरे मना करने के बावजूद भी जबरदस्ती थमा दी | अब भाई हम तो सच में मुरीद हो गए साहब की साफगोई और ईमानदारी के | सब जगह जिक्र करते कि साहब हो तो उन जैसा | भगवान को शुक्रिया भी अदा करते कि तूने हमें ज़िंदगी में ऐसे भले इंसान के नीचे काम करने का मौक़ा दिया | 

समय बीतता गया | पता चला हमारे  संस्थान से भी ज्यादा बड़े एक महा नवरत्न सरकारी कंपनी के सर्वोच्च पद पर नियुक्त हो कर चले गए | मेरे सच्चे मन से आवाज निकली वाह भले और ईमानदार लोगों का भला ऊपर वाला भी देखता है | बीच-बीच में उन साहब के बारे में खोज-खबर भी मिलती रहती की सफलता की सीढ़ियों पर ऊँचे चढ़ते जा रहे हैं | 
मुझे आज भी वह सुबह अच्छी तरह से याद है | सुबह - सुबह की चाय पी रहा था कि फोन की घंटी बजी | लाइन पर दूसरी ओर मेरे एक बहुत ही ख़ास दोस्त थे | छूटते ही बोले : आज टी.वी की न्यूज देखी क्या ? अगर नहीं तो देखो | इतना कह कर उन्होंने फोन झटके से रख दिया | अब मैं बहुत ही अचम्भे और आश्चर्य की पराकाष्ठा पर पहुँच गया | आखिर ऐसा क्या हो गया .... कौन सा पहाड़ टूट गया | टी.वी के न्यूज चेनल को खोला | सामने जो समाचार चल रहे थे उन्हें देख और सुन कर लगा जैसे बिजली का चार सौ चालीस वोल्ट का झटका लगा | आँख और कानों पर जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था | समाचार आ रहे थे कि हमारे उन्हीं आराध्य और पूज्यनीय ईमानदारी के जीते –जागते अवतार को सी.बी.आई ने मोटी रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया है | उस से भी दुःखदायी बात यह कि इस सारे रिश्वत - काण्ड में उनकी पत्नी की भी अहम् भूमिका रही सो उन्हें भी साथ ही गिरफ्तार किया गया | दोनों ही पति-पत्नी की जोड़ी से पहले सी.बी.आई ने कड़ी पूछताछ की और बाद में कोर्ट में पेशी हुई | अदालत से जमानत नहीं मिली और दोनों को ही तिहाड़ जेल भेज दिया गया जहां लम्बे समय तक रहना पड़ा | 

यह बात जब भी याद आती है, मैं सोच में पड़ जाता हूँ | आखिर क्या कमी थी उन्हें अपनी शानदार वैभवशाली ज़िंदगी में | जीवन के उस अंतिम पड़ाव पर जब वह प्रसिद्धि और कामयाबी की ऊँचाइयों के आसमान को छू रहे थे तो लालच के चंगुल में ऐसे फँसे कि बदनामी की कालिख ने सब करे धरे पर पानी फेर दिया | नौकरी तो गयी ही , सब अखबारों में कारनामों के ऐसे चर्चे हुए कि अडोस –पड़ोस और रिश्तेदारी में भी कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे | आज भी मुंह छिपा कर चोरों की ज़िंदगी जी रहे हैं |कभी-कभी सड़क से गुजरते हुए देखता हूँ कि जिस घर के आगे हमेशा चहल-पहल रहा करती थी आज भूत बंगले की सी वीरानी छाई रहती है |

यदि उनकी जगह कोई और शख्स होता तो मुझे इतना कष्ट नहीं होता | दुःख तब होता है जब आपका भ्रम टूटता है | यहाँ भी ऐसा ही हुआ - उनके चेहरे पर ता- उम्र इतना खूबसरत मुखोटा रहा कि बस कुछ पूछिए मत | पर चेहरे से ईमानदारी का नकाब उतारा तो असल सूरत नज़र आयी | ऐसी शक्ल जिसे दुनिया ने देखा, और सिर्फ देखा ही नहीं बल्कि मारे अचरज के दांतों तले उंगली दबा ली | इस पूरे किस्से से मैं तो यही सीखा हूँ कि ज़िंदगी सीधे-सादे तरीके से अपने असल चेहरे के साथ बिना किसी बनावट के गुज़ारिये | बनावट का कोई भी मुखौटा हमेशा के लिए आप की असलियत को नहीं छुपा सकता | 

Thursday, 4 April 2019

भोलू : दर्द से दिल्लगी और दिलेरी तक का सफ़र

आज आप के लिए कोई कहानी- किस्सा नहीं | बस एक छोटी सी खबर | कुछ दिनों पहले आपको सड़क के एक छोटे से पिल्ले भोलू के उस दर्दनाक वाकये के बारे में बताया था जिसमें कार की टक्कर से उसकी टांग की हड्डी टूट गयी थी (अगर नहीं पढ़ा है तो अब पढ़ लीजिए - लिंक : भोलू का दर्द) | कई दिनों तक वह बेचारा जबरदस्त दर्द से गुजरा | बाद में उसकी टांग की महरम पट्टी और प्लास्टर चढ़वाया गया | उस टांग पर चढ़े प्लास्टर से भी लगभग एक महीने तक भोलू का चलना फिरना काफी कठिनाई भरा रहा | मैंने आप सब से अनुरोध किया था कि भोलू के पाँव के ठीक होने के लिए भगवान से दुआ करें क्योंकि प्रार्थना में बहुत शक्ति होती है | बस एक छोटी सी खुशखबरी | मैंने आप से वादा किया था कि जिस दिन भोलू अपने पैरों पर दौड़ेगा मैं आपको वह खुशखबरी भी जरूर दूंगा | आप सब की शुभकामनाओं से नन्हे से भोलू का दर्द अब हो चुका है एकदम गायब, उतर चुका है उसका प्लास्टर और दर्द में कराहता परेशान भोलू अब बन चुका है उछलता- कूदता मस्त- मलंग भोलू | विश्वास नहीं होता तो खुद देख लीजिए नज़ारा|


शुक्रिया आप सब का 




मुझे पूरा विश्वास है आज की इस खबर ने ही आपका दिल खुश कर दिया होगा |

Friday, 15 March 2019

भोलू का दर्द

उस दिन सुबह-सुबह एक पिल्ले की दर्दनाक चीखों की आवाज सुनकर बिस्तर छोड़ कर घर के बाहर निकला | मैं मोहल्ले की उस पूरी कुत्ते और पिल्ले बिरादरी से पहले से ही भली तरह से परिचित था | आप यह भी समझ सकते हैं कि एक तरह से वो सब मेरे दोस्त रहें हैं – और मेरे घर के रेम्प पर ही उनका रात भर जमावड़ा रहता है | हर सुबह घर से बाहर निकलने पर सबसे पहले उनकी टीम ही मेरा उछल-कूद कर हार्दिक अभिनन्दन करती है | महानगरों की आज की संस्कृति में, जब पड़ोसी भी पड़ोसी को नहीं पहचानता है, ऐसे में ये बेजुबान दोस्त ही रह जाते हैं इंसानों को यह याद दिलाने के लिए कि इस दुनिया में अगर आप भूल चुके हैं अपनेपन की भावना को तो हम से सीखो | क्या देखता हूँ सड़क के किनारे एक पिल्ला भयंकर पीड़ा में पड़ा रो रहा है | उसकी इन चीखों को सुनकर उसकी माँ भी तुरंत दौड़ती हुई आ गयी | उसी पिल्ले के , जिसे हम आगे भोलू के नाम से पुकारेंगे, छोटे-छोटे अन्य साथी भी आनन-फ़ानान में आ पहुँचे | उन साथियों में से एक ने तो महीन सी आवाज में रोना भी शुरू कर दिया | एक दूसरे साथी ने शायद भोलू का ध्यान बटा कर दर्द कम करने की कोशिश में, उसके साथ हल्का सा खिलवाड़ करने की तरकीब आजमानी चाही | पर हुआ इसका ठीक उल्टा असर – भोलू की माँ को यह कोशिश नागवार गुज़री और उस शरारती दोस्त को बुरी तरह से झिंझोड़ कर ऐसा करने से रोक दिया | भोलू की माँ का गुस्सा पूरे सातवें आसमान पर था | गुस्से में उसने सड़क के पास से निकलने वाले एक राहगीर को काटने की भी कोशिश की | अब तक मैं वहां खड़ा सारी स्थिति को समझने का प्रयत्न कर रहा था | क्या देखता हूँ कि थोड़ी ही दूर सड़क पर एक कार खडी हुई है | अब मैं समझ चुका था , यह वही तेज रफ़्तार कार थी जो कुछ ही देर पहले भोलू की टांग को बुरी तरह से कुचलती हुई आगे निकल गयी थी | गाड़ी में बैठा नवयुवक, अन्दर से ही रियर- व्यू मिरर से अपनी करनी का नतीजा देख रहा था | पता नहीं कैसा इंसान था, इतनी मानवता भी नहीं थी कि कम से कम गाडी से नीचे उतर कर उस रोते हुए बेजुबान निरीह प्राणी को एक नज़र देख तो लेता | कुछ ही देर में उसने अपनी गाड़ी स्टार्ट की और चलता बना | 

भोलू का अब भी रो-रो कर बुरा हाल हो रहा था | कुछ देर बाद बेचारे ने अपनी हिम्मत जुटाई और अपने तीन टांगों के सहारे से ही सड़क के किनारे एक पेड़ की छाँह तक पहुंचा और निढाल हो कर एक तरह से बेहोश हो कर पड़ गया | अभी तक मैं भी उसे उठाने की कोशिश नहीं कर रहा था और उससे पहले लगी चोट का जायजा लेना चाह रहा था | भाग्यवश भोलू को बाहर से खून नहीं निकला था पर पैर में शायद अंदरूनी चोट थी| दोपहर तक भी उस गरीब का वही खराब हाल था | अब सोचा इसे किसी डाक्टर को दिखा देता हूँ , पर मेरे घर के पास का डाक्टर तो साहबों के कीमती कुत्तों का डाक्टर था और उसकी मोटी ताज़ी फीस भी मुझ रिटायर्ड आदमी की पहुँच से बाहर | एक और एन.जी.ओ. डिस्पेंसरी का पता चला जो काफी हद तक ठीक –ठाक थी| दोपहर को उस अस्पताल में भोलू को लेकर पहुंचा | डाक्टर ने मुआयना करके दो इंजेक्शन लगा दिए और कहा इससे ही आराम आ जाना चाहिए | अब भोलू को वापिस ले आया | बेचारे का दर्द दो दिन के बाद भी वैसा ही | फिर से उसी अस्पताल में भोलू को ले कर गया | इस बार डाक्टर ने भी मेरे आग्रह करने पर और ज्यादा ध्यान से मुआयना किया क्योंकि मैं उसे इस बार भी भुगतान करने का आश्वासन भी दे चुका था | पता चला भोलू के पाँव में फ्रेक्चर था | अब उस फ्रेक्चर पर बाकायदा प्लास्टर चढ़ाया गया | उस पूरे समय भोलू बेचारा दर्द से चीखें मारता रहा | खैर .... जैसे- तैसे प्लास्टर करवा कर वापिस घर आया | तौलिये में लिपटे भोलू को देखते ही उसकी सारी दोस्तों की मंडली ने खुश होकर घेर लिया और उसकी माँ की खुशी का तो मानो कोई ठिकाना ही नहीं था | मेरे घर में भोलू ज्यादा देर नहीं रुका | उसके दोस्त गेट के बाहर से ही शोर मचा-मचा कर मानों पूछ रहे हों – हाल कैसा है जनाब का |आखिर घर के बाहर पार्क में बने उसके पुराने अड्डे पर उसे छोड़ दिया | प्लास्टर बंधी टांग से पहले दिन तो भोलू परेशान रहा पर अगले दिन से उसे काफी हद तक आराम मिला | उसके दोस्त अब आस-पास ही घूमते रहते हैं जिससे भोलू का मन भी लगा रहता है | आइये आप को भोलू के दर्शन भी करवा देता हूँ :
भोलू का बेड रेस्ट 


दोस्त मेरे साथ है - अब पहले से कुछ आराम है 

अब अगर आराम है तो थोडा घूमने में क्या बुराई है 
मेरी आप सभी से केवल एक गुजारिश है : जब कभी भी अपनी गाड़ी में बैठें, उससे पहले एक बारगी नीचे झाँक कर अवश्य देख लें कहीं कोई बेसहारा कुत्ता, गर्मी से बचने के लिए , छांह की आस में , उसके नीचे तो नहीं बैठा | हम सब इंसान हैं इसलिए सड़क पर गाड़ी भी इंसानों की तरह से ही चलायें जिससे किसी को भी चोट न लगे – चाहे वह इंसान हो या जानवर | अगर आप को ध्यान हो , केरी की दर्दनाक मौत भी स्कूल बस की लापरवाही से ही हुई थी | (एक थी केरी -  भाग 2 )
अब तो मुझे बस इंतज़ार है जब चालीस दिनों के बाद भोलू के पाँव का प्लास्टर कटेगा | मैं उसके पाँव के ठीक होने की ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूँ और आप भी करिए क्योंकि प्रार्थना में बहुत शक्ति होती है | जिस दिन भोलू अपने पैरों पर दौड़ेगा मैं आपको वह खुशखबरी भी जरूर दूंगा | आप भी इंतज़ार कीजिए |

Saturday, 1 December 2018

नसीहत मौत की


आज इस खतरनाक शीर्षक वाले आपबीती किस्से को सुनाने का मेरा इरादा आपको डराने का तो कतई नहीं है | हाँ यह बात अलग है अगर ठीक समझें तो कभी ठन्डे दिमाग़ से विचार जरूर कर लीजिएगा उस खौफ़नाक नसीहत पर जिसे मेरी तरह शायद आपने भी कभी महसूस किया हो |

“एक थी केरी” की कहानी आप तक पहुंचाने के बाद काफी समय से दिमाग में एक खालीपन और दिल में उदासी सी थी |केरी की कहानी एक ऐसी आपबीती थी जिससे मैं काफी गहराई से भावनात्मक रूप से जुड़ा था इसलिए बाद में भी काफी दिनों तक दिल था कि एक अड़ियल टट्टू की तरह से अड़ा हुआ था | लिखने के दौरान पुरानी बातों का याद और घाव फिर से हरे हो गए और ऐसी स्थिति में खाली दिमाग़  और उदासी ने आलस का रूप कुछ ऐसा लिया कि लगा अब शायद जल्द ही कुछ नया न लिख पाऊँ |  ना तो कुछ लिखने का मन कर रहा था और दिमाग़ भी कुछ लिखने का संकेत नहीं दे रहा था | शायद ऐसी ही स्थिति आगे भी काफी दिनों तक चलती रहती अगर परिवार में अचानक एक दुखद हादसा न हुआ होता | बात अजीब सी लगती है पर कई बार नया दुःख ही आपको पुराने  दुःख से उबारने का कारण भी बन जाता है | हुआ कुछ यूं कि निकट  परिवार के ही एक अत्यंत प्रतिभावान , प्रभावशाली युवक गिरीश पाराशर की दुखद परिस्थितियों में एक सड़क दुर्घटना में असामयिक मृत्यु हो गयी | इस हादसे ने एक तरह से सभी को बुरी तरह से झकझोर दिया | दरअसल गिरीश के बारे में पता चला कि वह काफी समय से अपने घर परिवार और बीवी-बच्चों से अक्सर हास-परिहास में ही पूछा करता था कि अगर मैं भविष्य में मर गया तो तुम क्या करोगे | यह  रोज का हंसी-मजाक उसकी दिनचर्या का हिस्सा ही बन चुका था | पेशे से फौजदारी के मुकदमें लड़ने वाले वकील के ज़हन में यह अजीबोगरीब फितूर कैसे बैठ गया था मैं समझ नहीं सका | पर अंत में इस हंसी-ठिठोली के बदले  हासिल क्या हुआ सिवाय एक दर्दनाक अकाल मृत्यु और पीछे छूट गए परिवार पर पहाड़ जैसे असीम दुःख का अनंत सागर | गिरीश की बेख़ौफ़ मस्त-मलंग  ज़िंदगी की बानगी आपको उसके फोटो की झलक मात्र  देखने से  ही मिल जायेगी|  
ॐ शान्ति : स्व० गिरीश पाराशर 
वैराग्य यूँ तो कई तरह का होता है पर इनमें से एक ख़ास किस्म होती है जिसे कहते हैं शमशान वैराग्य | यह वह क्षणिक वैराग्य होता है जिसे आप अस्थायी रूप में तब तक ही महसूस करते हैं जब तक शमशान भूमि की सीमा में हैं | तब आपको जीवन क्षण भंगुर पानी का बुलबुला और सारा संसार माया-रूपी महाठगनी नज़र आता है |  इसके बाद आप जैसे ही आप मुर्दघाट से बाहर, वैराग्य के सारे ख़याल भी दिमाग से बाहर| खोपड़ी  में अगर कुछ रह जाता है तो वही पहले वाली उधेड़बुन, उछलकूद और खुराफ़ातें | कुछ ऐसे ही दुखद समय में मुझे बरसों पहले की एक घटना याद आ-गयी थी जो अपने पीछे सदा के लिए मेरे लिए एक बहुत बड़ी नसीहत छोड़ गयी  |  

यह बात है आज से लगभग पंद्रह वर्ष पुरानी | उन दिनों नया-नया कंप्यूटर खरीदा था | सीखने का शौक था सो हाथ साफ़ करता रहता था | पर मुझे विशेष आनंद आता था हिन्दी में काम करने में जो कि उन दिनों एक तरह से मेरी आवश्यकता भी थी | मेरे पूज्य पिता स्व० श्री रमेश कौशिक हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार रहे हैं | हर काम को योजनाबद्ध और साफ़-सुथरे ढंग से करने की प्रेरणा मुझे उन्हीं से मिली| उनके कविता संग्रह अक्सर प्रकाशित होते ही रहते थे| उनकी हस्तलिखित कविताओं को कंप्यूटर पर टाइप करके व्यवस्थित रूप में प्रकाशक के पास भेजने की जिम्मेदारी एक तरह से मेरी ही थी | जब कविताओं का टाइप किया हुआ प्रिंट उनके सामने लेकर जाता था तो उसे देख कर उनकी आँखों में जो आत्मतुष्टि और प्रसन्नता की चमक आती थी उसे महसूस करने वाला शायद मैं ही एकमात्र गवाह हूँ | बस यह समझ लीजिए कि उनकी उस मुस्कराहट और आँखों की चमक देखने मात्र से ही मैं अपनी सारी थकावट भूल जाता और लगता सही मायने में हिन्दी टाइपिंग सीखने की मेरी मेहनत सफल हो गयी | अंगरेजी के मुकाबले में हिन्दी की टाइपिंग उन दिनों भी कुछ ज्यादा ही कठिन होती थी इसलिए नियमित रूप से अभ्यास भी करता रहता था| अपने मन में जो भी आता वही  सीधे-सीधे टाइप करने लगता चाहे किसी फ़िल्मी गीत के बोल हों या कोई ऊलजलूल काल्पनिक चिट्ठी-पत्री| एक दिन ऐसे ही जब कंप्यूटर-अभ्यास पर बैठा तो पता नहीं खोपड़ी में कौन सा जिन्न  आ कर बैठ गया कि मैं एक अज्ञात शक्ति के वशीभूत मानों मंत्रमुग्ध अवस्था में लिखता चला जा रहा था | जो भी मैंने लिखा उसका काफी हद तक मज़मून मुझे आज भी याद है :

                    शोक समाचार 

आप सबको अत्यंत दुःख से सूचित किया जाता है कि श्री मुकेश कौशिक का निधन आज हो गया है | दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए शाम चार बजे सनातन धर्म मंदिर में प्रार्थना सभा रखी गयी है | 

                                             शोक संतप्त परिवार 

जब इतना सब बेसिर पैर का लिखे जा रहा था तब पता ही नही चला कब मेरे पीछे चुपचाप श्रीमती जी आ- कर खड़ी हो गईं | उन्होंने पीछे से ही एक सरसरी नज़र कंप्यूटर स्क्रीन पर डाली और मेरी और कुछ अजीब नज़रों से देखा | उनकी अचम्भे से भरी आँखों में गुस्सा, विस्मय और असमंजस का ऐसा सम्मिश्रण था कि एक बारगी तो मैं सहम गया | उन्होंने सीधे-सपाट शब्दों में प्रश्न किया “ यह सब क्या हो रहा है” | अब मैं पूरी तरह से हक्का-बक्का, जवाब दूँ भी तो आखिर क्या | अगर सच बताता भी हूँ कि मुझे खुद कुछ नहीं पता कि यह सब मैंने कैसे लिख दिया तो उस बात पर यकीन कौन करेगा | खैर किसी तरह से पूरी शक्ति जुटा कर मरियल सी आवाज में इतना ही बोल सका कि कम्प्यूटर पर हिन्दी में टाइप करने का अभ्यास कर रहा था | जवाब में उन्होंने बस इतना कहा कि यह सब ठीक नहीं और इतना कहकर अपने पाँव पटकते हुए कमरे से बाहर निकल गयीं और मैं पीछे बैठा अकेले में काफी देर तक सोचता रहा कि आखिर हुआ तो हुआ क्या और यह सब गड़बड़-झाला कैसे हो गया | मुझे आज तक याद है कि उस रात श्रीमती जी ने मुझ से सीधे मुंह बात भी नहीं करी |

खैर इसके बाद बीती रात की रात गयी- बात गयी और अगले दिन फिर नई सुबह और फिर से वही दिनचर्या| नियत समय पर दफ़्तर के लिए निकल पड़ा | उन दिनों मेरा आफिस दिल्ली के लोदी रोड स्थित स्कोप कॉम्प्लेक्स  पर था | रोज तो चार्टेड बस से जाया करता था पर उस दिन आफिस से बाहर का भी कुछ काम था इसलिए स्कूटर निकाल लिया जो-कि मेरे लिए कार की बनिस्पत अधिक किफायती और सुविधाजनक था | आफिस में दोपहर तक काम-काज निबटाने के बाद दफ्तर के ही कोर्ट केस के सम्बन्ध में वकील से बातचीत करने लाजपत नगर के लिए स्कूटर पर चल पड़ा | दोपहर के लगभग ढाई बज रहे थे और सड़क पर ट्रेफिक की कोई ख़ास भीड़-भाड़ भी नहीं थी | जाहिर सी बात है जब सडकों पर यातायात का दबाव कम होता है तो गाड़ियों की रफ़्तार भी खासी तेज़ हो जाती है | अपने स्कूटर पर ठंडी हवा का आनंद लेते हुए सोचता हुआ जा रहा था कि वकील साहब से मिलने के बाद वहीं से सीधे घर के लिए उड़न-छू हो जाऊँगा | घर पर रोज के नियत समय से एक घंटा पहले पहुँचने की कल्पना मात्र दिल को इतनी बेहिसाब खुशी दे रही थी जितनी राजनीति के पहुंचे हुए किसी दिग्गज महा-खुर्राट भ्रष्ट नेता को करोड़ों का घोटाला करने पर भी प्राप्त नहीं हुई होगी | पर घूम फिर कर बात वहीं आ कर अटक जाती है कि घोटाला तो आखिर घोटाला ही होता है चाहे छोटा हो या मोटा | जब वक्त बुरा आता है तो चोट बहुत गहरी लगती है | अब तक मैं  मूलचंद के फ्लाईओवर के पास ही पहुंचा था कि अचानक पीछे से एक जोर की आवाज़ के साथ स्कूटर में एक धक्का सा महसूस हुआ | जब तक मैं कुछ समझ पाता एक और धमाके की आवाज के साथ लोगों का कुछ शोर भी सुनाई दिया | चलते स्कूटर में पीछे मुड़कर देखने का तो सवाल ही पैदा नहीं था सो रियर व्यू मिरर ( जिसे शुद्ध हिन्दी में आप पिछाड़ी दर्शन दर्पण भी कह सकते हैं ) में ताका तो देखते ही होश उड़ गए | दरअसल मेरे पीछे से आते हुए एक तेज़ रफ़्तार स्कूटर ने ओवरटेक करने के चक्कर में अनियंत्रित होकर मेरे स्कूटर में बहुत जोर से टक्कर मारी थी जिससे मेरा संतुलन तो नहीं बिगड़ा पर वह बदनसीब खुद को नहीं संभाल पाया| वह बीच सड़क पर तेज गति से दौड़ते ट्रेफिक के बीच बुरी तरह से चोटिल होकर गिरा पडा था | मैंने भी तुरंत अपना स्कूटर सड़क के किनारे खड़ा कर दिया और एक बार फिर से बीच सड़क पर पड़े हुए उस घायल व्यक्ति को देखा | उसका स्कूटर एक ओर पड़ा था और ढीला-ढाला हेलमेट सर से उतर लुढ़कते हुए दूसरी तरफ बाकायदा मंदिर के पवित्र गुम्बद की भांति बीच सड़क  पर स्थापित हो चुका था | इस बीच में कुछ गिने-चुने  मददगार लोगों का समूह दौड़ कर उस घायल आदमी को सड़क किनारे तक लाने के लिए दौड़ पड़ा| 

यह सब देख कर घबराहट के मारे मेरी टांगे काँप रहीं थी, दिल घोड़े की रफ़्तार से दौड़ रहा था और साँसे धौंकनी की तरह चल रही थीं | यद्यपि पीछे से टक्कर मुझे ही लगी थी पर उस तेज रफ़्तार अनियंत्रित स्कूटर सवार की चोटों को देखकर मुझे ही लग रहा था मानो इस दुर्घटना के लिए भी मैं ही जिम्मेदार हूँ| मददगार लोगों ने उस शख्स को पानी पिलाया, हिम्मत बंधाई, स्कूटर और हेलमेट थमाया | आज सोचता हूँ कि उन दिनों मोबाइल इतना प्रचलन में नहीं था वरना मदद करना तो दूर सारे मिलकर मोबाइल पर विडिओ बना रहे होते |  कुछ समय के बाद उस घुड़दौड़ के माहिर स्कूटर चालक ने अपनी कटी-फटी  काया से लंगडाते हुए टूटा-फूटा स्कूटर उठाया और घसीटते हुए चल दिया निकट के किसी मिस्त्री की खोज में | क्योंकि आफिस के काम का मामला था सो बिना और वक्त गवांये मैं भी वहां से एक तरह से नौ-दो-ग्यारह ही हो लिया |

कहने को तो मैंने वकील साहब के साथ उनके आफ़िस में बैठ कर मीटिंग करी पर दिमाग़ में कुछ देर पहले हुए हादसे का ऐसा असर था कि सारा वार्तालाप बेअसर था | थोड़ी ही देर बाद मैं घर के लिए रवाना हो गया | घर पहुँचने पर मेरे चेहरे की उड़ी-उड़ी से रंगत देख कर श्रीमती जी ने कारण जानना चाहा तो टाल –मटोल करके तबियत खराब होने का बहाना बना कर छुटकारा पा लिया |

रात के गहन सन्नाटे में जब रोज की तरह से कंप्यूटर डेस्क पर बैठा तो अचानक लगा जैसे की-बोर्ड पर उंगलियाँ सुन्न पड़ गई हैं | दिमाग़ भी जैसे इस दुनिया से पूरी तरह से कट कर किसी और ही दुनिया से आने वाले सन्देश ग्रहण करा रहा था | कानों में किसी दूर अंधे कुँए से आती हुई बर्फ से भी ठंडी थरथरा देनी वाली आवाज़ गूंज रही थी ....... 
"कैसी रही आज की थपकी | यह तो मेरी झलक मात्र थी | मैं मौत हूँ ...... गलती से भी मुझे कभी हल्के  रूप में लेने की गलती मत कर लेना | मैं कोई हंसी-मजाक की चीज नहीं हूँ और हंसी-मज़ाक मुझे कतई पसंद नहीं, बर्दास्त नहीं | तुम्हारी किस बात का मैं कब बुरा मान जाऊं, मुझे खुद भी पता नहीं | मुझसे सावधान रहना, होशियार रहना इसीमें तुम्हारी भलाई है | फिलहाल के लिए इतना ही काफी है| यही मेरी नसीहत है और यही चेतावनी | ”

हड्डियों तक को जमा कर भयभीत कर देने वाली उस बर्फीली आवाज़ की गूंज को, जिसे सुनकर मैं तब भी ठंडे पसीने में नहा गया था, मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ | उस दिन मौत जैसे मेरे पास से कोई अनजान सा इशारा करते-करते सरसराती हुई निकल गयी थी | स्वभाव से  विनोद-प्रिय होने के बावजूद उस मनहूस दिन से आज तक  मैंने फिर कभी अपने जीवन में मौत को हंसी मजाक का हिस्सा नहीं बनाया या सच बोलूँ तो इतना डर गया था कि हिम्मत ही नहीं पड़ी |   

इस घटना का मैंने आज तक इस डर से कहीं जिक्र नहीं किया कि लोग मुझे शायद सिर-फिरा समझें, पीठ-पीछे पागल भी कहें पर सड़क दुर्घटना में मारे गए गिरीश के हादसे ने मुझमें इतनी हिम्मत दी कि बरसों पहले महसूस की उस रोंगटे खड़े कर देने वाली आवाज से आपको जरूर वाकिफ़ करवा दूँ | हो सकता है शायद मौत की नसीहत से सीख ले-कर बेवक्त मौत के आग़ोश में जाने से कोई बच ही जाए | फिलहाल तो यही कह सकता हूँ : गिरीश पाराशर! ईश्वर तुम्हारी आत्मा को शान्ति दे |

Sunday, 23 September 2018

जीना इसी का नाम है - गूँज





आज आपको मैं कोई कहानी किस्सा सुनाने नहीं जा रहा | पर बात एक तरह से जुडी है एक प्यारी सी याद से और उससे मिलने वाली सीख से |


बचपन में साथियों की टोली के साथ एक खेल खेला करते थे | गाँव के कोने में एक खेत के अंधे कुँए पर जाकर कुँए की मुंडेर से भीतर तरह- तरह की आवाज लगाने का खेल | जब अपनी ही आवाज की गूँज वापिस सुनाई देती तो वह हम बच्चों के लिए किसी जादू से कम नहीं होता था जिसे सुनकर हम खुशी से खिलखिला पड़ते | अब जब गाँव ही धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं तो बेचारे कुँए की क्या बिसात और कुँए की गूँज तो रह गई है सिर्फ कहानियों में |


बचपन के साथ ही लगे हाथों आपको एक प्यारे से गाने की याद भी दिला देता हूँ | शैलेन्द्र जी का लिखा एक बहुत ही पुराना गीत है जिसे सभी ने कभी न कभी जरुर सुना होगा :

किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार,
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार ,
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार ,
जीना इसी का नाम है |

कितने सीधे-सादे शब्दों में पूरी जिन्दगी का फ़लसफ़ा बयाँ कर दिया है लिखने वाले ने | कभी मौक़ा मिले तो इस गीत को पूरा सुनिए या कभी इसके बोल पढ़िए, दोनों ही हालात में आपको दिल की गहराइयों तक सुकून और आत्मिक शान्ति महसूस होगी | शब्दों की यही तो जादूगरी और करिश्मा होता है , बैठे बैठे आपको प्रेम और आत्मिक सुख के सागर में गोते लगवा सकते हैं तो दूसरी ओर ईर्ष्या- द्वेष की अंगारों भरी भट्टी में भस्म भी कर सकते हैं |

इस गीत के बोलों को कुँए की गूंज के रूप में सुनिए | प्रतिध्वनि भी उसी सुरीले गीत की सुनाई देगी | कुँए की गूँज आपको सिखा रही है जैसा आप बोएँगे, वैसा ही काटेंगे |

किसी का भला करके देखिए आपको जो आत्मिक सुख मिलेगा वह किसी दुश्मन का नुकसान करने या बदला लेने में कभी प्राप्त नहीं हो सकता | पर इस बात को समझने वाले आज हैं ही कितने | हर जगह वही भीड़- भाड़,धक्का-मुक्की, मारकाट और इस सबके बदले में हासिल क्या होता है – ब्लड प्रेशर, डिप्रेशन और ढ़ेरों अनगिनत बीमारियाँ | जैसा हम करेंगे सूद सहित वापिस भी तो मिलेगा क्योंकि कहने वाले तो यह भी कह गए हैं कि बोए पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए | आज अपनी छोटी सी दिल की बात कहते हुए (‘मन की बात’ नहीं क्योंकि यह तो आज की तारीख में बहुत ही भारी-भरकम और परम पावन पूज्य प्रवचन बन चुका है) मुझे अपने पिता स्वर्गीय श्री रमेश कौशिक की एक कविता याद आ रही है जिसे पढ़कर आपको इस कविता और आज के माहौल के बीच सीधा-सपाट संबंध साफ़-साफ़ नज़र आ जायेगा | यह भी हो सकता है कि आप खुद अपने-आप को भी को भी इस कविता के किसी पात्र के रूप में देख पाएं : 

 जाला 

मकड़ी जाला बुनती है
तुम भी जाला बुनते हो
मैं भी जाला बुनता हूँ 
हम सब जाले बुनते हैं।


जाले इसीलिए हैं 
कि वे बुने जाते हैं 
मकड़ी के द्वारा 
तुम्हारे मेरे या 
हम सब के द्वारा।

मकड़ी, तुम या मैं
या हम सब इसीलिए हैं
कि अपने जालों में
या एक-दूसरे के बुने
जालों में फँसे।

जब हम जाले बुनते हैं
तब चुप-चुप बुनते हैं
लेकिन जब उनमें फँसते हैं
तब बहुत शोर करते है।

इसीलिए बेहतर है हम सब के लिए राजनीति छोडिए, जग-कल्याण के सच्चे और सरल मार्ग पर चलिए और पूरी तरह से यह संभव न हो तो कम से कम प्रयत्न तो कर के देखिए | दूसरों के लिए जाले मत बुनिए, जब जाले ही नहीं होंगे तब उनमें कोई नहीं फँसेगा, आप स्वयं भी नहीं |

आज मैंने कोई नई बात आपको नहीं बताई है, मिठाई वही पुरानी है पर तश्तरी में रखा अपने अंदाज़ से है | स्वाद कैसा लगा बताईयेगा जरूर

भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...