आज सुबह –सुबह अखबार पढ़ते हुए एक ऐसी खबर मेरी नज़रों के सामने से गुज़री जिसने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया | इस बात में कोई संदेह नहीं कि यह ज़िंदगी वाकई में बहुत रंगीन है | इस को कभी भी काले- सफ़ेद के नज़रिए से नहीं देखा जा सकता | अब इंसानों की ही बात ले लीजिए – उन्हें भी आप केवल अच्छे या बुरे की श्रेणी में नहीं विभाजित कर सकते | हर इंसान में अच्छाई और बुराई का सम्मिश्रण होता है, अब यह अलग बात है कि उन अच्छे और बुरे गुणों का आपस में अनुपात क्या है | यह सचमुच की दुनिया उस सिनेमा की रूमानी दुनिया से बिलकुल अलग है जहां परदे पर नज़र आने वाला किरदार या तो देवता होता है या खलनायक के रूप में रावण का अवतार | अब अगर मैं रावण का उदाहरण दे रहा हूँ तो यह भी तो सच है कि कुछ अच्छाइयां तो रावण में भी थीं | चलिए अब ज्यादा पहेलियाँ न बुझाते हुए अब सीधे उस खबर पर आता हूँ जिसका सम्बन्ध तिहाड़ जेल से है |
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तिहाड़ जेल |
दिल्ली की तिहाड़ जेल का नाम आप में से ज्यादातर लोगों ने सुना ही होगा | एक बहुत पुराना गाँव है तिहाड़ा, उसी गाँव में वर्ष 1957 में इस जेल का निर्माण हुआ था | यह देश की ही नहीं वरन पूरे दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी जेल है | वास्तव में तिहाड़ एक तरह से विराट जेल क्षेत्र है जिसके अंदर 9 अलग-अलग जेल हैं | आप यह भी कह सकते हैं कि यहाँ जेल के अन्दर भी एक नहीं बल्कि कई जेल हैं | बनी तो यह 6 हज़ार कैदियों के लिए है पर यहाँ चौदह हज़ार से ज्यादा कैदी ठूंस –ठूंस कर भरे रहते हैं | देश ने हर क्षेत्र में तरक्की की है, सडकों पर मोटर गाड़ियों ने, आबादी ने, बेरोजगारी ने, तो फिर अपराध और अपराधियों की दुनिया कैसे पीछे रह सकती है | यही कारण है कि तिहाड़ जेल सदा लबालब भरी रहती है जहां एक से एक खूंखार और हाई- प्रोफाइल कैदी अपना डेरा डाले रहते हैं | यहाँ के बारे में एक रोचक तथ्य यह भी है कि जेल कम्पाउंड के अन्दर कई फेक्ट्रियां भी हैं जिनमें यहाँ के कैदी काम करते हैं जिसकी उन्हें बाकायदा मजदूरी भी मिलती है | टी.जे. के ब्रांड नाम से बहुत तरह का सामान जैसे – डबलरोटी, बिस्किट, अचार , सरसों का तेल, कपड़ा, मोमबत्ती, जूट-बेग, फर्नीचर, पेंटिंग्स इन्हीं कैदियों द्वारा जेल में बनाया जाता है |
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जेल की बेकरी में काम करते कैदी |
किसी समय प्रसिद्ध आई.पी.एस अधिकारी किरण बेदी इसी तिहाड़ जेल की डायरेक्टर जनरल रह चुकी हैं | उस समय उन्होंने कैदियों के सुधार कार्यक्रमों पर विशेष जोर दिया जिनमें पढ़ाने-लिखाने से लेकर योग और विप्सना की शुरुआत हुई | आवश्यक नहीं है कि जेल में रहने वाला हर कैदी दुष्ट, भयानक और खूंखार ही हो | यह तो एक अनोखी दुनिया है जहां बहुत से ऐसे लोग भी मिल जायेंगे जो हालात या वक्त के मारे हुए हैं , जो बेगुनाह होते हुए भी गरीबी, व्यवस्था और कानून की चक्की की चपेट में आ गए | ऐसे लोगों ने यहाँ रहते हुए भी पढ़ाई करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा, एक के बाद एक ऊँची से ऊँची परीक्षा पास करते रहे और जेल से बाहर आने पर पर समाज में अपना नया जीवन फिर से सफलतापूर्वक शुरू किया |
यह कहानी है इसी तिहाड़ जेल के एक कैदी - भास्कर की | उम्र – लगभग 40 वर्ष |हत्या के अपराध में उम्र कैद की सजा काट रहा था | घर पर पत्नी के अलावा बारह साल का बेटा और 75 वर्ष का बूढा पिता | भास्कर जेल की जूट बेग बनाने की फेक्ट्री में ही काम करता था | हर महीने उसे चार हज़ार रुपये की आमदनी हो जाती जिसमें से दो हज़ार रुपये वह घर पर भिजवा देता | जेल में तेरह साल इसी तरह से गुज़र चुके थे और इंतज़ार था बस सज़ा के पूरा होने का | जेल में लम्बी सज़ा काट रहे अच्छे चाल चलन वाले कैदियों के लिए पैरोल का प्रावधान होता है जिसके अंतर्गत उन्हें घर परिवार से मिलने- जुलने के लिए कुछ दिनों की जेल से छुट्टी मिल जाती है | भास्कर भी पैरोल पर अपने घर गया जो कि ओडीशा राज्य के एक छोटे से गाँव में था | समय मानों पलक झपकते फुर्र से बीत गया और पैरोल की अवधि निबटने पर जेल वापिस जाने का वक्त भी आ गया | वह 27 जून 2019 का दिन था जब भास्कर घर से विदा लेकर वापिस जेल जाने को चल पड़ा | अभी बीच रास्ते रेलगाड़ी में ही था कि भास्कर को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा | जेल के सींखचों के पीछे की कैद में पहुँचने से पहले वह चलती ट्रेन में ही इस दुनिया की कैद से ही आज़ाद हो चुका था | भास्कर की मौत की खबर उसके परिवार के लिए तो दुःख का पहाड़ थी ही, उसके जेल के सभी साथी भी गहरे सदमें में थे | मैंने पहले भी कहा है - जेल की दुनिया भी एक निराली दुनिया है | यहाँ रहने वालों की जहाँ आपस में दुश्मनी जानलेवा होती है वहीं उनकी दोस्ती भी एक दूसरे पर जान निछावर करने वाली होती है | भास्कर के घर की कमजोर आर्थिक परिस्थियों के बारे में उन्हें पहले से ही थोड़ा बहुत अंदाजा था | उन्हें लगा कि अब वक्त आ गया है कि अपने दिवंगत दोस्त के लिए कुछ किया जाए | सबने मिल कर अपनी –अपनी हैसियत के अनुसार चन्दा इक्कट्ठा करना शुरू किया - किसी ने सौ रुपये , किसी ने दो सौ रुपये | एक साथी ने तो अपनी पूरे महीने की कमाई ही इस नेक काम के लिए अर्पित कर दी | इस प्रकार से जेल के संगी-साथियों ने इतनी कठिन परिस्थितियों में भी अपने दिवंगत साथी के परिवार की मदद के लिए दो महीने से भी कम समय में कुल मिला कर दो लाख चालीस हज़ार रुपये की सहायता राशि जोड़ ली | जेल अधिकारियों ने भी भास्कर के पुत्र और पत्नी को गाँव से दिल्ली बुलवाने का इंतजाम कर दिया | 8 अगस्त 2019 को जब जेल प्रशासन ने जब सहायता राशि का चेक भास्कर की पत्नी के कांपते हाथों में थमाया तो वह बेचारी हैरानी से हतप्रभ रह गयी | आसुँओं से डब-डबाई आँखों को मानों यकीन ही नहीं हो रहा था कि जेल की ह्रदयविहीन, कठोर और निर्मम समझी जाने वाली दुनिया से भी ऐसी घोर मुसीबत के समय सहायता का हाथ मिल सकता है |
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भास्कर की पत्नी को सहायता राशि सौंपते हुए |
इस खबर को पढ़ कर मैं अभी तक इस सोच में हूँ कि किसी के बारे में भी बिना सोचे समझे पहले से ही कोई अवधारणा या राय नहीं बना लेनी चाहिए | अपनी नौकरी के दौरान मेरा खुद का यह अनुभव रहा कि अच्छी खासी आमदनी होने के बावजूद भी अगर किसी साथी सहकर्मी की विदाई पार्टी के लिए चन्दा देना पड़ जाए तो कुछ लोगों की सूरत से ऐसा लगता जैसे जीते –जी साक्षात मौत ही आ गयी | दूसरी ओर तिहाड़ जेल के वे कैदी भी हैं जिनमें इतनी मानवता और भाईचारा शेष रहा कि तिनका-तिनका जोड़ कर कठिन मेहनत से जोड़ी कमाई को भले काम में लगाने में एक क्षण की भी देर नहीं की | बात अजीब है पर है सौलह आना सच्ची |