Saturday 1 December 2018

नसीहत मौत की


आज इस खतरनाक शीर्षक वाले आपबीती किस्से को सुनाने का मेरा इरादा आपको डराने का तो कतई नहीं है | हाँ यह बात अलग है अगर ठीक समझें तो कभी ठन्डे दिमाग़ से विचार जरूर कर लीजिएगा उस खौफ़नाक नसीहत पर जिसे मेरी तरह शायद आपने भी कभी महसूस किया हो |

“एक थी केरी” की कहानी आप तक पहुंचाने के बाद काफी समय से दिमाग में एक खालीपन और दिल में उदासी सी थी |केरी की कहानी एक ऐसी आपबीती थी जिससे मैं काफी गहराई से भावनात्मक रूप से जुड़ा था इसलिए बाद में भी काफी दिनों तक दिल था कि एक अड़ियल टट्टू की तरह से अड़ा हुआ था | लिखने के दौरान पुरानी बातों का याद और घाव फिर से हरे हो गए और ऐसी स्थिति में खाली दिमाग़  और उदासी ने आलस का रूप कुछ ऐसा लिया कि लगा अब शायद जल्द ही कुछ नया न लिख पाऊँ |  ना तो कुछ लिखने का मन कर रहा था और दिमाग़ भी कुछ लिखने का संकेत नहीं दे रहा था | शायद ऐसी ही स्थिति आगे भी काफी दिनों तक चलती रहती अगर परिवार में अचानक एक दुखद हादसा न हुआ होता | बात अजीब सी लगती है पर कई बार नया दुःख ही आपको पुराने  दुःख से उबारने का कारण भी बन जाता है | हुआ कुछ यूं कि निकट  परिवार के ही एक अत्यंत प्रतिभावान , प्रभावशाली युवक गिरीश पाराशर की दुखद परिस्थितियों में एक सड़क दुर्घटना में असामयिक मृत्यु हो गयी | इस हादसे ने एक तरह से सभी को बुरी तरह से झकझोर दिया | दरअसल गिरीश के बारे में पता चला कि वह काफी समय से अपने घर परिवार और बीवी-बच्चों से अक्सर हास-परिहास में ही पूछा करता था कि अगर मैं भविष्य में मर गया तो तुम क्या करोगे | यह  रोज का हंसी-मजाक उसकी दिनचर्या का हिस्सा ही बन चुका था | पेशे से फौजदारी के मुकदमें लड़ने वाले वकील के ज़हन में यह अजीबोगरीब फितूर कैसे बैठ गया था मैं समझ नहीं सका | पर अंत में इस हंसी-ठिठोली के बदले  हासिल क्या हुआ सिवाय एक दर्दनाक अकाल मृत्यु और पीछे छूट गए परिवार पर पहाड़ जैसे असीम दुःख का अनंत सागर | गिरीश की बेख़ौफ़ मस्त-मलंग  ज़िंदगी की बानगी आपको उसके फोटो की झलक मात्र  देखने से  ही मिल जायेगी|  
ॐ शान्ति : स्व० गिरीश पाराशर 
वैराग्य यूँ तो कई तरह का होता है पर इनमें से एक ख़ास किस्म होती है जिसे कहते हैं शमशान वैराग्य | यह वह क्षणिक वैराग्य होता है जिसे आप अस्थायी रूप में तब तक ही महसूस करते हैं जब तक शमशान भूमि की सीमा में हैं | तब आपको जीवन क्षण भंगुर पानी का बुलबुला और सारा संसार माया-रूपी महाठगनी नज़र आता है |  इसके बाद आप जैसे ही आप मुर्दघाट से बाहर, वैराग्य के सारे ख़याल भी दिमाग से बाहर| खोपड़ी  में अगर कुछ रह जाता है तो वही पहले वाली उधेड़बुन, उछलकूद और खुराफ़ातें | कुछ ऐसे ही दुखद समय में मुझे बरसों पहले की एक घटना याद आ-गयी थी जो अपने पीछे सदा के लिए मेरे लिए एक बहुत बड़ी नसीहत छोड़ गयी  |  

यह बात है आज से लगभग पंद्रह वर्ष पुरानी | उन दिनों नया-नया कंप्यूटर खरीदा था | सीखने का शौक था सो हाथ साफ़ करता रहता था | पर मुझे विशेष आनंद आता था हिन्दी में काम करने में जो कि उन दिनों एक तरह से मेरी आवश्यकता भी थी | मेरे पूज्य पिता स्व० श्री रमेश कौशिक हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार रहे हैं | हर काम को योजनाबद्ध और साफ़-सुथरे ढंग से करने की प्रेरणा मुझे उन्हीं से मिली| उनके कविता संग्रह अक्सर प्रकाशित होते ही रहते थे| उनकी हस्तलिखित कविताओं को कंप्यूटर पर टाइप करके व्यवस्थित रूप में प्रकाशक के पास भेजने की जिम्मेदारी एक तरह से मेरी ही थी | जब कविताओं का टाइप किया हुआ प्रिंट उनके सामने लेकर जाता था तो उसे देख कर उनकी आँखों में जो आत्मतुष्टि और प्रसन्नता की चमक आती थी उसे महसूस करने वाला शायद मैं ही एकमात्र गवाह हूँ | बस यह समझ लीजिए कि उनकी उस मुस्कराहट और आँखों की चमक देखने मात्र से ही मैं अपनी सारी थकावट भूल जाता और लगता सही मायने में हिन्दी टाइपिंग सीखने की मेरी मेहनत सफल हो गयी | अंगरेजी के मुकाबले में हिन्दी की टाइपिंग उन दिनों भी कुछ ज्यादा ही कठिन होती थी इसलिए नियमित रूप से अभ्यास भी करता रहता था| अपने मन में जो भी आता वही  सीधे-सीधे टाइप करने लगता चाहे किसी फ़िल्मी गीत के बोल हों या कोई ऊलजलूल काल्पनिक चिट्ठी-पत्री| एक दिन ऐसे ही जब कंप्यूटर-अभ्यास पर बैठा तो पता नहीं खोपड़ी में कौन सा जिन्न  आ कर बैठ गया कि मैं एक अज्ञात शक्ति के वशीभूत मानों मंत्रमुग्ध अवस्था में लिखता चला जा रहा था | जो भी मैंने लिखा उसका काफी हद तक मज़मून मुझे आज भी याद है :

                    शोक समाचार 

आप सबको अत्यंत दुःख से सूचित किया जाता है कि श्री मुकेश कौशिक का निधन आज हो गया है | दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए शाम चार बजे सनातन धर्म मंदिर में प्रार्थना सभा रखी गयी है | 

                                             शोक संतप्त परिवार 

जब इतना सब बेसिर पैर का लिखे जा रहा था तब पता ही नही चला कब मेरे पीछे चुपचाप श्रीमती जी आ- कर खड़ी हो गईं | उन्होंने पीछे से ही एक सरसरी नज़र कंप्यूटर स्क्रीन पर डाली और मेरी और कुछ अजीब नज़रों से देखा | उनकी अचम्भे से भरी आँखों में गुस्सा, विस्मय और असमंजस का ऐसा सम्मिश्रण था कि एक बारगी तो मैं सहम गया | उन्होंने सीधे-सपाट शब्दों में प्रश्न किया “ यह सब क्या हो रहा है” | अब मैं पूरी तरह से हक्का-बक्का, जवाब दूँ भी तो आखिर क्या | अगर सच बताता भी हूँ कि मुझे खुद कुछ नहीं पता कि यह सब मैंने कैसे लिख दिया तो उस बात पर यकीन कौन करेगा | खैर किसी तरह से पूरी शक्ति जुटा कर मरियल सी आवाज में इतना ही बोल सका कि कम्प्यूटर पर हिन्दी में टाइप करने का अभ्यास कर रहा था | जवाब में उन्होंने बस इतना कहा कि यह सब ठीक नहीं और इतना कहकर अपने पाँव पटकते हुए कमरे से बाहर निकल गयीं और मैं पीछे बैठा अकेले में काफी देर तक सोचता रहा कि आखिर हुआ तो हुआ क्या और यह सब गड़बड़-झाला कैसे हो गया | मुझे आज तक याद है कि उस रात श्रीमती जी ने मुझ से सीधे मुंह बात भी नहीं करी |

खैर इसके बाद बीती रात की रात गयी- बात गयी और अगले दिन फिर नई सुबह और फिर से वही दिनचर्या| नियत समय पर दफ़्तर के लिए निकल पड़ा | उन दिनों मेरा आफिस दिल्ली के लोदी रोड स्थित स्कोप कॉम्प्लेक्स  पर था | रोज तो चार्टेड बस से जाया करता था पर उस दिन आफिस से बाहर का भी कुछ काम था इसलिए स्कूटर निकाल लिया जो-कि मेरे लिए कार की बनिस्पत अधिक किफायती और सुविधाजनक था | आफिस में दोपहर तक काम-काज निबटाने के बाद दफ्तर के ही कोर्ट केस के सम्बन्ध में वकील से बातचीत करने लाजपत नगर के लिए स्कूटर पर चल पड़ा | दोपहर के लगभग ढाई बज रहे थे और सड़क पर ट्रेफिक की कोई ख़ास भीड़-भाड़ भी नहीं थी | जाहिर सी बात है जब सडकों पर यातायात का दबाव कम होता है तो गाड़ियों की रफ़्तार भी खासी तेज़ हो जाती है | अपने स्कूटर पर ठंडी हवा का आनंद लेते हुए सोचता हुआ जा रहा था कि वकील साहब से मिलने के बाद वहीं से सीधे घर के लिए उड़न-छू हो जाऊँगा | घर पर रोज के नियत समय से एक घंटा पहले पहुँचने की कल्पना मात्र दिल को इतनी बेहिसाब खुशी दे रही थी जितनी राजनीति के पहुंचे हुए किसी दिग्गज महा-खुर्राट भ्रष्ट नेता को करोड़ों का घोटाला करने पर भी प्राप्त नहीं हुई होगी | पर घूम फिर कर बात वहीं आ कर अटक जाती है कि घोटाला तो आखिर घोटाला ही होता है चाहे छोटा हो या मोटा | जब वक्त बुरा आता है तो चोट बहुत गहरी लगती है | अब तक मैं  मूलचंद के फ्लाईओवर के पास ही पहुंचा था कि अचानक पीछे से एक जोर की आवाज़ के साथ स्कूटर में एक धक्का सा महसूस हुआ | जब तक मैं कुछ समझ पाता एक और धमाके की आवाज के साथ लोगों का कुछ शोर भी सुनाई दिया | चलते स्कूटर में पीछे मुड़कर देखने का तो सवाल ही पैदा नहीं था सो रियर व्यू मिरर ( जिसे शुद्ध हिन्दी में आप पिछाड़ी दर्शन दर्पण भी कह सकते हैं ) में ताका तो देखते ही होश उड़ गए | दरअसल मेरे पीछे से आते हुए एक तेज़ रफ़्तार स्कूटर ने ओवरटेक करने के चक्कर में अनियंत्रित होकर मेरे स्कूटर में बहुत जोर से टक्कर मारी थी जिससे मेरा संतुलन तो नहीं बिगड़ा पर वह बदनसीब खुद को नहीं संभाल पाया| वह बीच सड़क पर तेज गति से दौड़ते ट्रेफिक के बीच बुरी तरह से चोटिल होकर गिरा पडा था | मैंने भी तुरंत अपना स्कूटर सड़क के किनारे खड़ा कर दिया और एक बार फिर से बीच सड़क पर पड़े हुए उस घायल व्यक्ति को देखा | उसका स्कूटर एक ओर पड़ा था और ढीला-ढाला हेलमेट सर से उतर लुढ़कते हुए दूसरी तरफ बाकायदा मंदिर के पवित्र गुम्बद की भांति बीच सड़क  पर स्थापित हो चुका था | इस बीच में कुछ गिने-चुने  मददगार लोगों का समूह दौड़ कर उस घायल आदमी को सड़क किनारे तक लाने के लिए दौड़ पड़ा| 

यह सब देख कर घबराहट के मारे मेरी टांगे काँप रहीं थी, दिल घोड़े की रफ़्तार से दौड़ रहा था और साँसे धौंकनी की तरह चल रही थीं | यद्यपि पीछे से टक्कर मुझे ही लगी थी पर उस तेज रफ़्तार अनियंत्रित स्कूटर सवार की चोटों को देखकर मुझे ही लग रहा था मानो इस दुर्घटना के लिए भी मैं ही जिम्मेदार हूँ| मददगार लोगों ने उस शख्स को पानी पिलाया, हिम्मत बंधाई, स्कूटर और हेलमेट थमाया | आज सोचता हूँ कि उन दिनों मोबाइल इतना प्रचलन में नहीं था वरना मदद करना तो दूर सारे मिलकर मोबाइल पर विडिओ बना रहे होते |  कुछ समय के बाद उस घुड़दौड़ के माहिर स्कूटर चालक ने अपनी कटी-फटी  काया से लंगडाते हुए टूटा-फूटा स्कूटर उठाया और घसीटते हुए चल दिया निकट के किसी मिस्त्री की खोज में | क्योंकि आफिस के काम का मामला था सो बिना और वक्त गवांये मैं भी वहां से एक तरह से नौ-दो-ग्यारह ही हो लिया |

कहने को तो मैंने वकील साहब के साथ उनके आफ़िस में बैठ कर मीटिंग करी पर दिमाग़ में कुछ देर पहले हुए हादसे का ऐसा असर था कि सारा वार्तालाप बेअसर था | थोड़ी ही देर बाद मैं घर के लिए रवाना हो गया | घर पहुँचने पर मेरे चेहरे की उड़ी-उड़ी से रंगत देख कर श्रीमती जी ने कारण जानना चाहा तो टाल –मटोल करके तबियत खराब होने का बहाना बना कर छुटकारा पा लिया |

रात के गहन सन्नाटे में जब रोज की तरह से कंप्यूटर डेस्क पर बैठा तो अचानक लगा जैसे की-बोर्ड पर उंगलियाँ सुन्न पड़ गई हैं | दिमाग़ भी जैसे इस दुनिया से पूरी तरह से कट कर किसी और ही दुनिया से आने वाले सन्देश ग्रहण करा रहा था | कानों में किसी दूर अंधे कुँए से आती हुई बर्फ से भी ठंडी थरथरा देनी वाली आवाज़ गूंज रही थी ....... 
"कैसी रही आज की थपकी | यह तो मेरी झलक मात्र थी | मैं मौत हूँ ...... गलती से भी मुझे कभी हल्के  रूप में लेने की गलती मत कर लेना | मैं कोई हंसी-मजाक की चीज नहीं हूँ और हंसी-मज़ाक मुझे कतई पसंद नहीं, बर्दास्त नहीं | तुम्हारी किस बात का मैं कब बुरा मान जाऊं, मुझे खुद भी पता नहीं | मुझसे सावधान रहना, होशियार रहना इसीमें तुम्हारी भलाई है | फिलहाल के लिए इतना ही काफी है| यही मेरी नसीहत है और यही चेतावनी | ”

हड्डियों तक को जमा कर भयभीत कर देने वाली उस बर्फीली आवाज़ की गूंज को, जिसे सुनकर मैं तब भी ठंडे पसीने में नहा गया था, मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ | उस दिन मौत जैसे मेरे पास से कोई अनजान सा इशारा करते-करते सरसराती हुई निकल गयी थी | स्वभाव से  विनोद-प्रिय होने के बावजूद उस मनहूस दिन से आज तक  मैंने फिर कभी अपने जीवन में मौत को हंसी मजाक का हिस्सा नहीं बनाया या सच बोलूँ तो इतना डर गया था कि हिम्मत ही नहीं पड़ी |   

इस घटना का मैंने आज तक इस डर से कहीं जिक्र नहीं किया कि लोग मुझे शायद सिर-फिरा समझें, पीठ-पीछे पागल भी कहें पर सड़क दुर्घटना में मारे गए गिरीश के हादसे ने मुझमें इतनी हिम्मत दी कि बरसों पहले महसूस की उस रोंगटे खड़े कर देने वाली आवाज से आपको जरूर वाकिफ़ करवा दूँ | हो सकता है शायद मौत की नसीहत से सीख ले-कर बेवक्त मौत के आग़ोश में जाने से कोई बच ही जाए | फिलहाल तो यही कह सकता हूँ : गिरीश पाराशर! ईश्वर तुम्हारी आत्मा को शान्ति दे |

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मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...