संकल्पना :सुश्री रेखा शर्मा । लगभग तीन दशकों का अनुभव लिए आप दिल्ली के एक जाने-माने पब्लिक स्कूल मे समाज शास्त्र की वरिष्ठ व्याख्याता हैं ।
अभी कुछ दिन पहले देश की स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगांठ पर अमृत महोत्सव उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा था । सब तरफ़ तिरंगे की बहार रही । टेलीविजन पर जननायकों के भाषण को जनता बड़े ध्यान से सुन रही थी और मैं भी । बहुत सारी बाते थीं – कुछ सर के ऊपर से निकल रहीं थी तो कुछ भीतर तक मार कर रही थीं । जब बात आई परिवारवाद और राष्ट्रीय एकता की तो दिमाग में कुछ हलचल सी हुई । कहा जा रहा था कि देश को जगह-जगह फैले परिवारवाद से मुक्ति चाहिए । अब मैं ठहरी राजनीति से कोसों दूर विचरण करने वाली अध्ययन-मनन के खुले आकाश में उन्मुक्त उड़ान भरने वाली पक्षी । राम चरित मानस की वह चौपाई सुनी तो आपने भी होगी – जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी । अब कहने वालों का आशय चाहे जो भी रहा हो, मुझे लगता है कि हमारे इर्द गिर्द समाज में, देश में परिवारवाद तो है ही नहीं । अगर परिवारवाद होता तो परिवारों, बुजुर्गों की इतनी दुर्दशा नहीं होती । हाँ जिस प्रकार के परिवारवाद की आजकल जगह-जगह चर्चा की जाती है वह वास्तव में परिवारवाद का बिगड़ा हुआ स्वरूप है । हम बात करते हैं राष्ट्रीय एकता की लेकिन स्वयं के परिवार की खोज – खबर नहीं ।
मेरी कल्पना का परिवार तो आज भी वही है जो मैंने बचपन में देखा । गर्मी की छुट्टियों मे नाना -नानी, दादा -दादी के पास जाना । अपने उन भाइयों के साथ – जिन्हें आज की अंग्रेजीयत की भाषा में कजिन – ब्रदर्स कहा जाता है – घुलमिल कर एक अलग ही संसार में खो जाना । घर के लंबे-चौड़े दालान में रात को खटियाओं की कतार ही लग जाती । घर का पालतू शरारती कुत्ता शिमलू हमारी हर शरारत का भागीदार होता । वह बीता हुआ समय जैसे समय के साथ ही खो चुका है । आज का परिवार घर की चारदीवारों से बाहर अस्तित्व नहीं रखता । इसमें केवल पति, पत्नी और बच्चों का ही स्थान है। मकान तो बन जाता है लेकिन वह कभी घर नहीं बन पाता । उस मकान में सभी भौतिक सुख-सुविधाएं तो जुट जाती हैं लेकिन शांति का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं होता । बूढ़े माँ -बाप से ही जब किनारा कर लिया जाता है तो बाकी रिश्तेदार तो सुदूर ग्रहों में बसने वाले प्राणी हो जाते हैं । हालात यहाँ तक हो जाते हैं कि खून के निकटतम संबंधियों के चेहरा देखे भी इतना अरसा हो जाता है कि अगर सड़क पर सामने से गुजर भी जाएं तो पहचान नहीं पाएं । हाँ इन रिश्तों में एक अपवाद अवश्य है कि युवावस्था में मित्रों को वह विशेष दर्ज़ा दिया जाता है जिसके आगे अन्य सभी घरेलू रिश्ते फीके पड़ जाएं । कोई बात नहीं – समय का चक्र सब हिसाब एक बराबर कर देता है । वक्त के साथ -साथ उम्र गुजरती जाती है । जब तथाकथित गोद लिए हुए मित्रगण भी वक्त के साथ अपनी- अपनी विवशताओं के कारण किनारा कर लेते हैं तब याद आती है कहाँ गए मेरे अपने जो सच में अपने थे । जो तब आपके पास आने को व्याकुल थे पर अपनी मनमौजी सोच के कारण आप लगातार उपेक्षा करते रहे । आज हालात ठीक उसके विपरीत हैं । आज आपको उन बिछड़े हुए रिश्तों की आवश्यकता है, आज आप अपनी मजबूरी में दरवाज़ा खटखटा रहे हैं पर जरूरी नहीं कि दूसरी ओर भी आपकी जरूरत महसूस हो रही हो । हम सब इंसान हैं देवता नहीं । बीता हुआ समय और आपबीती सब को याद रहती है जो वक्त पर गुल खिला ही देती । अगर मैंने अपने माता – पिता को उनके बुढ़ापे में उपेक्षित किया है तो भूल जाइए कि मेरी स्वयं की ढलती उम्र सम्माजनक तरीके से गुजरेगी ।
सूखते रिश्ते - वीरान घर
कुल मिलकर कहने का सार यह कि हम सब परिवारवाद की उसी स्नेहिल डोरी से जुड़े रहें जो हम सब के बचपन की यादों में कहीं खो सा गया है । राष्ट्र को मज़बूत करना है तो पहले अपने घर के सूखे पड़े रिश्तों से करें । अब इसे चाहे आप परिवारवाद कहें या परिवार प्रेम, रिश्तों के वटवृक्ष की जड़ों को मजबूत करने के लिए और हम सब के सुखद भविष्य के लिए बहुत आवश्यक है। मेरी सोच है – आप तक पहुंचा दी कहाँ तक आप सहमत हैं यह आप पर निर्भर है ।
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(प्रस्तुतकर्ता : मुकेश कौशिक)
It is so good you have come back with your post. As usual it is also very interesting reminding us our chilhood and old days. life has changed but no body knows for good or bad. C’est la Vie (That is life
ReplyDeleteAwesome 👍
ReplyDeleteYou have perfectly described the current scenario of our social relationship. True relationships gone down the drain. Now relations are maintained keeping in view the requirements n status of the person in the society. Very pathetic & alarming situation is prevailing in the society. which needs surgical remedial action on mass scale.
ReplyDeleteहां ये सच है ।एक ही परिवार के सदस्य अलग अलग जिंदगी जीना चाहते है ।परंतु इसमें हमेशा ही नुकसान हुआ है।
ReplyDeleteWe are able to compare only because we are seeing both the world's. Our children will not be able to do so because they have seen only one world. The story is very near to today's world
ReplyDeleteBahut badhiya .. and very very relatable; Family is the core of any values and value system of a society. In times today .. we are missing it big time. Bahane bahut hain apne core se bahar nikalne ke .. par ultimately we all know our roots and must come back to it before its too late.
ReplyDeleteSo true. A Vivid description.
ReplyDeleteआपको ईशारा मिलना चाहिए और दिलचस्प कहानी तयार हो जाती है| इतना ज्ञान रखते हैंमे आप|
ReplyDeleteमुझे ऐसा लगता है कि परिवारवाद शब्द जिस प्रसंग में लाया गया है वह एक राजा के दृष्टिकोण से नही लेना चाहिए|
देश के लिए क्या उत्तम है ना कि परिवार के सदोस्यों के लिए, ऐसी सोच प्रजातन्त्र के लिए ठीक नहीं है
Good to read your blog post ,Very well described families relationship in our past and current which present generation may miss. Parivar wad described by leadership is family generation taking our leadership in politics not allowing deserving leadership . 👍👌👏🌹🙏
ReplyDeleteबहुत सटीक लिखा है।
ReplyDeleteदुःखद, किन्तु विकल्प हीन।
ReplyDeleteमजबूरी है,जब से बच्चों को पढ़ने और नौकरी के लिए घर से दूर जाना पड़ता है।पहले टीचिंग और वकालत पेशे के कारण अपने ही शहर में जीवन यापन भी रहता था और परिवार का साथ भी!
सच में वे सुनहरे दिन भूले नहीं भूलते!लेकिन मजबूरी में एक ठंडी आह के साथ अकेलेपन को गले लगाना पड़ा और अब वही अकेलापन 'जीवन '
बन गया है।पश्चिमीकरण के साथ न्यूक्लियर फैमिली बनती चली गई और अनचाहे दूरियां बढ़ती गई।इससे बचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है,बस कोशिश होनी चाहिए की डोर टूटने न पाए!
👏👏👏👏
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