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Friday, 19 July 2019

हलधर नाग : एक फक्कड़ लोक कवि



सादगी की प्रतिमूर्ति : हलधर नाग 

हलधर नाग - अगर मैं गलत नहीं हूँ तो शायद आप सभी के लिए यह नाम कतई अनजाना लग रहा होगा | इसमें आपका भी कोई दोष नहीं - ऐसा ही होता है जब कोई व्यक्ति टी.वी., अखबारों और सोशल मीडिया के शोर शराबे से दूर , अपनी ही एक अलग सीधी-सादी सी ज़िंदगी में चुपचाप एक उद्देश्य को लेकर कार्यरत है तो भला आप उसे कैसे जान पायेंगे | वह क्रिकेट जगत के विराट कोहली या सिनेमा के रुपहले परदे के शाहरुख़ खां तो हैं नहीं जो एक स्कूली छात्र भी उन पर दीवाना हो | लेकिन वह इन दोनों से इस बात में कम भी नहीं कि उन्हें भी भारत सरकार से प्रतिष्ठित पदमश्री पुरस्कार मिल चुका है | 
राष्ट्रपति से प्राप्त करते हुए : हलधर नाग  
हलधर नाग ओड़ीसा के कोसली भाषा के कवि एवम लेखक हैं। वे 'लोककवि रत्न' के नाम से प्रसिद्ध हैं। हमेशा एक सफेद धोती और नंगे पैर चलने वाले नाग को, उड़िया साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए 2016 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया है| नाग का जन्म 1950 में संभलपुर से लगभग 76 किलोमीटर दूर, बरगढ़ जिले में एक गरीब परिवार में हुआ था। जब वह 10 साल के थे, तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई, और वह तीसरी कक्षा के बाद पढ़ नहीं सके। इसके बाद वे एक मिठाई की दुकान पर बर्तन धोने का काम करने लग गए। दो साल बाद, उन्हें एक स्कूल में खाना बनाने का काम मिल गया, जहाँ उन्होंने 16 साल तक नौकरी की। स्कूल में काम करते हुए, उन्होंने महसूस किया कि उनके गाँव में बहुत सारे स्कूल खुल रहे हैं। उन्होंने एक बैंक से संपर्क किया और स्कूली छात्रों के लिए स्टेशनरी और खाने-पीने की एक छोटी सी दुकान शुरू करने के लिए 1000 रुपये का ऋण लिया। 

अब तक कोसली में लोक कथाएँ लिखने वाले नाग ने 1990 में अपनी पहली कविता लिखी। जब उनकी कविता ‘ढोडो बरगाछ’ (पुराना बरगद का पेड़) एक स्थानीय पत्रिका में प्रकाशित हुई, तो उन्होंने चार और कवितायेँ भेज दी और वो सभी प्रकाशित हो गए। इसके बाद उन्होंने दुबारा पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनकी कविता को आलोचकों और प्रशंसकों से सराहना मिलने लगी | उन्हें सम्मानित किया गया जिससे उन्हें लिखने के लिए और प्रोत्साहन मिला | उन्होंने अपनी कविताओं को सुनाने के लिए आस-पास के गांवों का दौरा करना शुरू कर दिया जिसकी सभी लोगों से बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली। यहीं से उन्हें ‘लोक कवि रत्न’ नाम से जाना जाने लगा।
आपको जानकार आश्चर्य होगा की स्वयं तीसरी कक्षा तक पढ़े 69 वर्षीय हलधर नाग की कोसली भाषा की कविता पाँच विद्वानों के पीएचडी अनुसंधान का विषय भी है। इसके अलावा, संभलपुर विश्वविद्यालय इनके सभी लेखन कार्य को हलधर ग्रंथाबली -2 नामक एक पुस्तक के रूप में अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर चुकी है। संभलपुर विश्वविद्यालय में अब उनके लेखन के कलेक्शन 'हलधर ग्रंथावली-2' को पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया है। 

उन्हें अपनी सारी कविताएं और अबतक लिखे गए 20 महाकाव्य कंठस्थ हैं। उन्हें वह सबकुछ याद रहता है, जो लिखते हैं। आप केवल नाम या विषय का उल्लेख भर कर दीजिए और वह बिना कुछ भूले सब कविताएं सुना देंगे। वह रोजाना कम से कम तीन से चार कार्यक्रमों में भाग लेते हैं, जहां वह कविता पाठ करते हैं। उनकी कवितायें सामाजिक मुद्दों के बारे में बात करती है, उत्पीड़न, प्रकृति, धर्म, पौराणिक कथाओं से लड़ती है, जो उनके आस-पास के रोजमर्रा के जीवन से ली गई हैं। उनके विचार में, कविताओं में वास्तविक जीवन से मेल और लोगों के लिए एक संदेश होना चाहिए| वे कहते हैं “कोसली में कविताओं में युवाओं की भारी दिलचस्पी देखकर मुझे बहुत अच्छा लगता है। वैसे तो हर कोई एक कवि है, पर कुछ ही लोगों के पास उन्हें आकार देने की कला होती है।“ 

हलधर नाग पैरों में कभी कुछ नहीं पहनते। सादगी पसंद इस कवि का ड्रेस कोड धोती और बनियान है। जब वह पद्मश्री का सम्मान राष्ट्रपति के हाथों प्राप्त कर रहे थे तब भी वह नंगे पाँव और धोती बनियान में ही थे | इसी को तो कहते हैं सादगी और ज्ञान का अद्भुत संगम जो विगत काल में महाकवि निराला की जीवन शैली में देखने में नज़र आता था | हलधर नाग की कहानी व्यक्त करती है उस घोर गरीबी में घिरे संघर्ष को जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी हार नहीं मानी | यह सीधा सादा इंसान अपने ज्ञान की ज्योति की मशाल से समाज को प्रकाशित करता, एक सन्देश देता हुआ चलता रहा अकेला और आज भी चला जा रहा है ........ नंगे पाँव, धोती बनियान में | 



Monday, 15 July 2019

एक परी , एक गौरैया : एक याद




                              सुश्री शशि प्रभा 
पिछले दिनों फेसबुक पर एक बड़ी प्यारी सी कविता पढ़ने को मिली जिसे सुश्री शशि प्रभा ने लिखा था | बहुत ही सीधे-सच्चे, सरल शब्दों में लिखी इस कविता में कोई शब्दों का मायाजाल नहीं था, आडम्बर नहीं था, सर के ऊपर से सीधे निकल जाने वाला कोई तथाकथित दार्शनिक अंदाज नहीं था | इसमें समायी थी एक अनगढ़, भोलेपन की भावनाओं को व्यक्त करती, दिल में कहीं बहुत भीतर से उठने वाली टीस | इस कविता को पढ़ने के बाद यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि यह सिर्फ चंद पंक्तियाँ नहीं है, यह कहीं न कहीं लिखने वाले की आपबीती है | इन्हें पढ़ने के बाद आप भी शायद मेरी बातों से सहमत हो जायेंगे इस लिए अधिक परिचय की आवश्यकता भी नहीं | इन्हें आप किसी प्रबुद्ध आलोचक की पैनी दृष्टि से नहीं वरन एक आम पाठक की नज़र से पढेंगे तो अधिक आनंद आयेगा |
दिल को छू लेने वाली सुश्री शशि प्रभा की यह दो कवितायेँ किसी की याद में समर्पित हैं | इन्हें आप तक पहुंचाने का लोभ मैं संवरण नहीं कर सका | 

 1. एक याद : नन्ही परी 


कलियों वाली फ्राक पहन कर,
सपनों में वो आती है’
छूने को बढ़ती हूँ आगे 
दूर कहीं खो जाती है | 

मैं रोती-रीती सी पगली, 
वो तो बड़ी सयानी थी ,
करती थी वो प्यार सभी से ,
अपने दिल की रानी थी|

लगती थी जब भूख भी उसको ,
तभी मैं रोटी खाती थी ,
कहते थे सब बड़ी निराली,
दो बहनों की जोड़ी थी | 

चली गयी वह एक दिन छलिनी,
प्यारी सी अलबेली सी,
छोड़ गयी मुझको रीता सा,
वो ही तो सखी-सहेली थी |

आसमान की परियां कुछ-कुछ ,
ऐसी ही होती होंगी,
तारों के झुरमुट से मिलकर, 
तारा बन बैठी होगी |



2. एक याद : गोरैया 


कहाँ गयी वो गौरैया ,
कहाँ डाला नया बसेरा है ,
कौन गाँव किस देश में बहना, 
जा कर डाला डेरा है | 

डाल-डाल पर बैठी रहती ,
चहकाती बतियाती थी ,
न जाने क्या प्लान बना कर ,
एक साथ उड़ जाती थी |

छोटे-छोटे पग पग भरती ,
गर्दन मटका इतराती थी 
घर आँगन मुंडेर पर बैठी ,
फुदक-फुदक मन भाती थी | 

बीते दिन और साल महीने,
नज़र कहीं न आती हो ,
बाट जोहते वृक्ष बिचारे,
क्यों लौट न वापिस आती हो | 

इंतज़ार में मौन खडा वो ,
वृक्ष कभी न थकता है ,
चिडियों के संग इन पेड़ों का ,
कितना प्यारा रिश्ता है |

कौन दिशा से ये गोरैया ,
कभी तो वापिस आयेगी ,
मूक खड़े इन वृक्षों की ,
फिर से शान बढायेगी |

Wednesday, 9 January 2019

बात अंतिम कविता की

स्व० श्री रमेश कौशिक 

वर्ष 2018 बीत गया और अब जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ, नए साल के नए माह ने हमारे आप के जीवन मे अपना स्थान बनाना शुरू कर दिया है |ऐसे समय में जब ज्यादातर लोग नए साल की ओर बड़ी आशा से देख रहें हैं, भविष्य के लिए नई-नई योजनाएं बना रहें हैं, आदर्शवाद से भरपूर तरह-तरह के संकल्प ले रहे हैं, एक मैं हूँ जो बीते हुए समय को पीछे मुड़कर ध्यान से देख रहा हूँ | याद कर रहा हूँ उन सभी की मीठी यादों को जो कभी साथ थे पर आज नहीं | वक्त के थपेड़ों ने जिन्हें दूर, बहुत दूर कर दिया, इतना दूर जहां से कोई वापिस नहीं आता | बहुत सारे हैं ऐसे बिछड़ने वाले पर कुछ ऐसे होते हैं, सच में जो सबसे ख़ास होते हैं | और ख़ास भी कोई यूं ही नहीं बन जाता, उस ख़ास में बात भी कुछ ख़ास होनी चाहिए यानी ऐसी बात जो हो सबसे अलग | यह वह ख़ासियत ही है जो सब की भीड़ में उस शख्स को सबसे अलग खड़ा करती है और साल दर साल गुजरने के बाद भी उसकी यादों की भीनी-भीनी महक से आपको हर दम महकाए रखती है | कुछ ऐसे ही शानदार, दमदार और प्रभावशाली और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के मालिक थे मेरे पूज्य पिता स्वर्गीय श्री रमेश कौशिक, काव्य-जगत के जाने-माने स्तम्भ | कविता के प्रति उनका रुझान बचपन से ही रहा जिसका श्रेय वे अपने पिताश्री (मेरे दादा ) लावनी कलाकांत पंडित हरिवंश लाल जी को देते थे जिन्होंने 9-10 वर्ष की उम्र से ही कविता का अभ्यास कराना आरम्भ कर दिया था | उस अवस्था में लिखे एक दोहे का उल्लेख उन्होंने कविता संग्रह ‘कहाँ हैं वे शब्द’ के आत्मकथ्य में किया है :


सत के कारण हरिश्चंद्र ने, झेले कष्ट अपार|

राज पाट, नारी सुत तजके, करे श्वपच घर कार || 


विगत में भी उनकी लिखी कविताओं से समय-समय पर आपको परिचित करवाता ही रहा हूँ | उनसे जुड़ेअनगिनत प्रेरणादायक संस्मरण आज भी मेरे मनो-मस्तिष्क में इस तरह ताज़ा हैं जैसे कल की ही बात हो| 



यहाँ यह बताना उचित रहेगा कि मेरे पिता ने पार्किनसंस जैसे गंभीर रोग की विभीषिका को लगभग बारह वर्ष के लम्बे समय तक झेला पर अंत समय तक हार नहीं मानी | इस दौरान भी वह शरीर की दिनों-दिन क्षीण होती जा रही शक्ति के बावजूद अपने काव्य-लेखन पर उसी उत्साह से लगे रहे | एक के बाद एक कविता संग्रह आते रहे और जिन्दादिली और मनोबल की हालत यह कि अस्पताल में भर्ती होने पर भी डाक्टरों को भी अपनी कविताएँ सुना दिया करते जिसमें एक मुझे आज भी याद है : 

सब के सब बीमार
मरीज तो मरीज 
डाक्टर भी 
इसलिए मदद कर नहीं सकते 
एक-दूसरे की 

लाचार | 
सब-के-सब बीमार 
कोई आँख से 
कोई कान से 
कोई तन से 
कोई मन से | 

दुनिया एक बहुत बड़ा अस्पताल 
किन्तु कोई नहीं तीमारदार 
सब-के-सब बीमार| 

अभी पिछले दिनों उनका कविता संग्रह - प्रश्न हैं उत्तर नहीं की कविता मृत्यु पढ़ रहा था| यह संग्रह वर्ष 2006 में प्रकाशित हुआ था | कविता इस प्रकार से है : 


मृत्यु

ओ श्यामा सुन्दरी 

मुझे यह तो पता है 
कि एक दिन तुम 
मेरे पास निश्चय ही आओगी 
और अपने साथ चुपके-से ले जाओगी | 

किन्तु यह नहीं बताया कभी 
कि तुम कब आओगी 
कहाँ से आओगी 
और कहाँ ले जाओगी | 

कोई अतिथि यदि बिना बताए 
आ जाए अचानक 

तो स्वागत में कमीं बने रहने का 
अंदेशा रहता है 
अगर तुम्हारे साथ हो गया कुछ ऐसा ही 
तो मुझको यह अच्छा नहीं लगेगा | 

अत: अभी बता दो मुझको 
कब आओगी 
ताकि तुम्हारे स्वागत की 
तैयारी कर लूँ | 

************************************* 
वर्ष 2009 का उत्तर्राद्ध आते-आते रोग ने अपनी पकड़ और मजबूती से कर ली | शरीर और अधिक क्षीण हो चला | खाना-पीना भी सब नाक में डाली गयी ट्यूब के रास्ते | पूरी तरह से रोग-शैय्या पर | अधिकाँश समय नीम-बेहोशी की अवस्था में सोते हुए ही गुजरता | आवाज काफी हद तक अस्पष्ट हो चुकी थी | ऐसी ही अवस्था में फिर भी एक दिन बहुत ही हिम्मत करके कागज़ कलम लेकर स्वयं ही कुछ लिखना चाहा | आधी-अधूरी, टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं और शब्दों के द्वारा कुछ लिखने का भरसक प्रयास कर रहे थे | बहुत कोशिश करने पर भी बात नहीं बन पायी | अंत में मेरी मां ने कुर्सी-मेज पर बैठ कागज़-कलम संभाला और पत्नी हेमलता ने सिराहने बैठ उनके फुसफुसाते स्वर के अस्फुट शब्दों को कान लगाकर सुनने का भरसक प्रयास किया | अब पत्नी उन शब्दों को सुन और समझ कर बोल रहीं थी जिन्हें मेरी मां तुरंत लिखती जा रही थी | इस सारी बौद्धिक कवायत में जैसे-तैसे वह कविता पूरी हुई | माँ की तमाम नाखुशी के बावजूद भी पिता ने यह कहते हुए कि यह उनकी आखिरी कविता है, रचना का शीर्षक दिया अंतिम कविता | उस बालक की, जिसने आठ साल की उम्र से ही कविता को जीवन भर के लिए अत्यंत प्रगाढ़ रूप से आत्मसात कर लिया था, 79 वर्ष की आयु में गहन रोग शैया पर लेटे, नितांत कष्ट में लिखी यह रचना सच में जीवन की अंतिम कविता ही साबित हुई | मात्र पंद्रह दिन के अंतराल पर एक रात उन्होंने इशारे से माँ को पास बुलाया और उनकी बांह पर अपनी कांपती उंगली से कुछ लिखा | पूरी तरह से न समझ पाने पर माँ ने मेरी पत्नी को पास बुलाया| इस बार पिता ने फिर वही दोहराया जिसे पत्नी समझ गयी | उन्होंने लिखा था : अब मैं मृत्यु चाहता हूँ|

शायद मृत्यु-देव उस समय कहीं आस-पास ही विचरण कर रहे थे जिन्होंने इच्छा जानकार तुरंत कह भी दिया होगा तथास्तु | अगले ही दिन 27 सितम्बर 2009 की सुबह उनके जीवन की अंतिम सुबह थी |

जीवन काल की वह अंतिम कविता इस प्रकार से है : 

अंतिम कविता 

वे आ रहे हैं 
श्याम वर्ण अश्वों पर सवार 

मेरे घर की ओर । 

उनके काम बता दिए गए 
एक का काम है
मुझको नहीं बोलने देने का 
वाणी को छीन लें । 

दूसरे का काम है 
न सुनने देने का 
ताकि मैं उनके आने की 
आहट न सुन सकूँ । 

तीसरे का काम है 
आँख बन्द करने का- 
ताकि मैं उनका आतंक न देख सकूँ । 

चौथे का काम है 
मेरे दाँत तोड़ने का 
ताकि मैं चलते समय 
किसी पर आक्रमण न करूँ । 

कुछ देर रुक कर 
फिर एक गहन सन्नाटा। 
**************************

 श्याम वर्ण अश्वों पर सवार मृत्यु-दूत ? ? ? ?  ? 

कहते हैं जब कविता जीवन के अनुभवों से जुड़ी होती है तो उसमें बसी सच्चाई दिलो-दिमाग में कहीं गहरे तक असर करती है | मैनें महसूस किया कि व्यक्ति वही है, विषय-वस्तु भी वही है पर बदली है तो केवल एक चीज - परिस्थिति | इस बदली परिस्थिति ने पूरी कविता को एक नया ही कलेवर और आयाम दिया है | गुजरते वक्त के साथ-साथ जीवन के शाश्वत सत्य – मृत्यु पर बदलता हुआ दृष्टिकोण उनकी तीन कविताओं में स्पष्ट झलकता है | अस्पताल के बीमार मरीज, बीमार डाक्टर के वातावरण जहां कोई तीमारदार नहीं से शुरू होता सफ़र, रास्ते में कहीं पल भर को ठहर कर मृत्यु से अनुरोध करता है कि बिना किसी पूर्व-सूचना के अतिथि की भांति मत आना, जब भी आओ बता कर आना जिससे तुम्हारे स्वागत में कोई कमी न रह जाए | जब अश्व पर सवार यही अतिथि रूपी मृत्यु साक्षात नज़र आती है तो अपने दुर्बल शरीर की लाचारगी प्रबल रूप से महसूस होती है | 

इस नए वर्ष पर मैं अपने पिताश्री को श्रद्धा पूर्वक नमन करता हूँ जिन्होंने सिखाया – जीवन अपनी शर्तों पर जिओ, साफगोई से जिओ, सच्चाई से जिओ | 


Wednesday, 5 December 2018

कविता पर बवाल

एक  पुराना चित्र -कवि सुमित्रानंदन पन्त जी  (बाएँ) साथ मेरे पूज्य पिता श्री रमेश कौशिक  

अगर मैं सीधे-सीधे आपसे कहूँ कि किसी ज़माने में मेरे 
पूज्य पिता जी को सरकारी नौकरी के दौरान चार्ज-शीट मिली और अनुशासनिक कार्रवाई भी हुई तो आप तुरंत सोच लेंगें कि जरूर कोई घोटाला किया होगा या दफ्तर के काम में कोई लापरवाही की होगी | अरे ना भाई ना .... इतनी जल्दी इतनी दूर की मत सोचिए और इतनी जल्दी किसी निष्कर्ष पर भी मत पहुँच जाइए| ज़रा धीरज रखिए ... सब कुछ बताता हूँ | अब आप की भी कोई गलती नहीं है, हमारे देश में में यह हाल है कि अगर किसी के घर में कोई सगा-संबंधी भी पुलिस की वर्दी में आपसे मिलने आपके घर आ tजाए तो मौहल्ले भर में तुरंत ही आपके बारे में कानाफूसी और चर्चे शुरू हो जाएंगे | अब क्या बताऊँ आपको, मेरे पिता जी- स्व० श्री रमेश कौशिक, सीधे-साधे व्यक्ति पर अत्यंत प्रख्यात साहित्यकार, दर्जनों पुस्तकों के लेखक और कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय  पुरस्कार प्राप्त कवि, उनका इन दफ्तरी झमेलों और तिकड़म-बाजियों   से दूर-दूर का कोई सम्बन्ध नहीं | वह तो एक सरकारी संस्थान – दिल्ली परिवहन निगम में हिन्दी अधिकारी के पद पर सेवारत थे | सरकारी नौकरी भी मजबूरी वश ही कर रहे थे क्योंकि उनकी सोच थी कि केवल कविता के दम पर परिवार नहीं पाला जा सकता | अब हुआ कुछ यूं कि वर्ष1973  में उनका एक कविता संग्रह ‘चाहते तो ...’ प्रकाशित हुआ | उस कविता संग्रह में ही चार पंक्तियों की कविता थी जिसका शीर्षक था संसद |  तो भाई लोगो, वैसे तो कविता  रूमानियत से भरी होती है लेकिन  कभी-कभी इतनी विस्फोटक और हंगामेदार भी  हो जाती है कि स्वयं कवि को भी लेने के देने पड़ जाते हैं |  यह भी कुछ ऐसा ही मामला था|  कविता कुछ इस प्रकार से थी ;-
          संसद

          संसद
 
         एक दल-दल है 
          जहाँ हर मेंढक
 
          कमल है |

उक्त कविता पर इतनी तीखी प्रतिक्रया तत्कालीन सत्ताधारी राजनीतिक नेताओं द्वारा हुई कि उस कविता में निहित व्यंग को पचा भी नहीं सके | अपने खिसियाहट भरी खीज को उन्होंने संसद में प्रश्न पूछ कर निकाला | नतीजा कार्यालय की तरफ से बेचारे कवि के नाम चार्ज-शीट जारी हो गयी | नौकरी पर बन आई | कसूर केवल यह कि सरकारी नौकरी में होते हुए भी आपने संसद के प्रति अवमानना का भाव कविता के माध्यम से प्रदर्शित किया | अब अगर कवि के स्थान पर कोई भ्रष्ट रिश्वतखोर नौकरशाह होता तो ले-देकर बेधड़क साफ़ निकल जाता | किसी ज्ञानी संत ने कहा भी  है कि रिश्वत लेते पकड़े जाओ तो रिश्वत देकर छूट जाओ पर यहाँ तो लेखनी की मार के सताए लेखक को स्वयं लेखनी भी संकट से नहीं उबार पाती है | मरता क्या न करता .....नौकरी बचाने के लिए  उस कविता के संदर्भ में मिली चार्जशीट के जवाब में जो स्पष्टीकरण  अफसर-कवि ने दिया वह जितना विद्वतापूर्ण है उससे कहीं अधिक रोचक भी है | कविता तो आप पढ़ ही चुके हैं, अब आप उस जवाब को भी पढ़ लीजिए : 
                                                                        ***********

उपाध्यक्ष महोदय ने मेरे कविता संग्रह “चाहते तो ...’ की कविताओं के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण मांगा है | इससे पूर्व कि मैं रचनाओं के सम्बन्ध में कुछ कहूँ, यह बताना चाहूँगा कि साहित्य-क्षेत्र में मेरे अनेक विरोधी हैं|अभी पिछले दिनों अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने मेरी रचनाओं की प्रशंसा की है | इस प्रशंसा को मेरे विरोधी पचा नहीं पा रहे हैं | इसलिए हानि पहुंचाने के उद्देश्य से वे बहुत से षडयंत्र रच रहें हैं |

दूसरे मेरी कविताएं साहित्य के अंतर्गत आती हैं | मैंने ईमानदारी और सच्चाई से अपने कवि-धर्म का पालन किया है | महात्मा गांधी ने भी तो यही कहा है कि धर्म-पालन के रास्ते में मुसीबतें भी आयें तो डरना नहीं चाहिए | मेरी कविताओं को आपत्तिजनक मानने का कोई कारण नहीं है |

संसद कविता के सम्बन्ध में मेरा मत इस प्रकार है :-

संसार में संसद की परम्परा हज़ारों वर्ष से चली आ रही है | यह शब्द ऐसा नहीं है, जो केवल भारतीय संसद के लिए ही प्रयोग हो| ज्ञान मंडल लिमिटेड, वाराणसी से प्रकाशित ‘ वृहत हिन्दी कोश’ में संसद के जो अर्थ दिए हैं, वे इस प्रकार हैं :-
सभा, न्यायालय, न्याय, धर्म की सभा , चौबीस दिन चलने वाला एक यज्ञ, समूह, राशि, साथ बैठने वाला, यज्ञ में भाग लेने वाला |

उपर्युक्त अर्थों में कोई भी अर्थ ऐसा नहीं है जिससे यह सिद्ध होता हो कि संसद भारतीय पार्लियामेंट को ही कहते हैं | इस छोटी सी रचना में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे भारतीय संसद के सम्मानित सदस्यों के आदर में कुछ कमीं होती हो | ‘दल-दल’ शब्द का अर्थ कीचड़ ही क्यों लिया जाए ? ‘दल-दल’ दो शब्द हैं, एक नहीं |बीच का डेश इसी लिए लगा है | संसद में अनेक दल होते हैं, इसे कौन अस्वीकार करेगा | रही बात मेंढक शब्द की, जिस पर कुछ लोगों को आपत्ति है | उन्हें क्यों आपत्ति है, यह मेरी समझ में नहीं आता| गोस्वामी तुलसीदास ने रामायण में लिखा है –

ईश्वर अंश जीव अविनाशी


चेतन अमल सहज सुख रासी

ईश्वर का जो अंश एक साधारण आदमी, या एक सम्मानीय सदस्य में है,वही मेंढक में भी है | हमारा अहं (ego) ही हमें दूसरों से अपने को श्रेष्ठ समझने के लिए बाध्य करता है, जो भ्रम है | भूतपूर्व राष्ट्रपति डा० राधाकृष्णन ने भी अपनी किसी पुस्तक में लिखा है कि यदि किसी पशु से भी पूछा जाए कि संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कौन है, तो वह अपने को ही बतायेगा | वास्तविकता से देखा जाए तो तुलना से मान-सम्मान का प्रश्न पैदा नहीं होता | यदि देखा जाए तो तुलना मेंढक से न होकर कमल से है | अपने देश में किसी की कमल से समानता कर दी जाए तो प्रसन्नता ही होनी चाहिए |

यदि यह मान भी  लिया जाए कि तुलना मेंढक से है तो ‘मेंढक’ शब्द का अर्थ यह भी है  - जो अपने ‘मैं’ को ढ़क  ले, यानी जो अपने अहं को ढक कर कमल की भांति ऊपर उठे | इस अर्थ से भी सदस्यों के गौरव में वृद्धि होती है|

जीव-विज्ञान और चिकत्सा-शास्त्र के विद्यार्थी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि मेंढकों के बलिदान ने मानवता की कितनी सेवा की है | इन सीधे-सच्चे जीवों की प्राण-आहुति पर ही आज की सर्जरी की नींव खड़ी है | ठीक ऐसे ही जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों पर हमारी आजादी का महल खड़ा है | इस जीवों से समानता किसी के लिए भी गर्व का कारण हो सकती है |
इसी सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदास की एक और चौपाई का उल्लेख करना चाहूँगा | उन्होंने रामायण में लिखा है :-

दादुर धुनी चहुँ ओर सुहाई 


वेद  पढ़ेऊ जिमी वटु समुदाई 

इन पंक्तियों में ‘ दादुर-धुनि’ यानी मेंढकों की आवाज की ‘वेदवाणी’ से तुलना की है | वेदवाणी को हमारे देश में ईश्वरीय या ऋषि वाणी मानते हैं | वेद सर्वत्र समादरणीय हैं | किन्तु पिछले 400 वर्षों के इतिहास में एक भी व्यक्ति ने तुलसीदास पर यह आरोप नहीं लगाया कि मेंढकों की आवाज की वेद – वाणी से तुलना करके कवि ने वेदों का अपमान किया है | यही स्थिति मेरी कविता के सम्बन्ध में भी है | मैं इस बात को जोर देकर फिर कहना चाहूँगा कि इससे संसद सदस्यों के सम्मान में किसी भी प्रकार की कमीं नहीं हुई |

अंत में, मैं यह कहना चाहूँगा कि मुझे अपने देश, संसद, जनतंत्र और बापू जैसे महापुरुषों पर गर्व है | रचानाओं के पीछे मेरी ऐसी भावनाएं नहीं रहीं जिससे इनके सम्मान में कमी हो | मैं आशा करता हूँ, मेरे इस स्पष्टीकरण से उन भ्रमों का निवारण हो गया है, जो मेरे विरोधियों द्वारा फैलाए जा रहे हैं |               
                  *******************************
कहने की बात नहीं इतना सब स्पष्टीकरण देने के बावजूद भी वही हाल रहा कि  भैंस के आगे बीन बजाए भैंस खड़ी पगुराय |  स्पष्टीकरण को संतोषजनक नहीं माना गया फिर भी गनीमत रही कि केवल चेतावनी पत्र से ही जान छूटी और नौकरी जाने का खतरा टल गया | इस पूरे  प्रकरण को पढ़ कर उस त्रासदी का अनुभव किया जा सकता है जिसमें से एक लेखक की सच्चाई बयान करती कलम को सत्ता और नौकरशाही का मदमस्त हाथी अपने पांवों तले कुचलता चला जाता है और वह भी केवल इसलिए कि उसके सर पर सरकारी डंडा सवार है |  बेचारा लेखक तो केवल यही गुनगुना कर रह जाता है –


      वो ना  समझे हैं ,


ना समझेंगे मेरे दिल की बात

या इलाही ये माजरा क्या है ?


  

Thursday, 1 November 2018

सिरमौर : राजा का बन और उजाड़ नगरी


गिरी नदी और पर्वतों के बीच आज का सिरमौर  गाँव 

हिमाचल प्रदेश में एक जिला है सिरमौर जहाँ पर पावंटा साहिब नाम का सिक्खों का प्रमुख धार्मिक स्थल है | यहीं से लगभग 12 कि.मी. दूर राजबन स्थित है | यहाँ पर भारत सरकार की एक सीमेंट फेक्ट्री है और रक्षा मंत्रालय के अधीन डी.आर.डी.ओ. का अत्यंत संवेदनशील और महत्वपूर्ण संस्थान भी है | राजबन का नाम  जितना सुन्दर है उससे अधिक सुन्दर यह जगह है|  मन को खुश करने को आपको जो भी चाहिए सब कुछ यहाँ है – घना जंगल, पर्वत, गिरी नदी, प्रदूषण रहित स्वच्छ, शांत वातावरण, सुहावना मौसम और सबसे बढ़कर प्यारे सीधे-सादे इंसान, कहाँ तक इसकी तारीफ़ गिनवाऊं | बस कुछ यूँ समझ लीजिए कि यहाँ पहुँच कर आपको लगेगा कि यदि देवलोक कहीं है तो यहीं है | ऊँचें-ऊँचे साल के वृक्ष जिनसे गर्मियों के मौसम में गिरते हुए पराग-कणों की भीनी-भीनी सुगंध पूरे वातावरण को आलोकिक छटा में रंग देती है | कैसी विडम्बना है कि जब यहाँ दिल्ली में  खुद इंसान के पैदा किए दमघोंटू, धूल-धक्कड़ और धुएं से भरे वातावरण में सांस लेने की मजबूरी है, ईश्वर ने  यहाँ अपनी स्नेहिल गोद में हमें सब कुछ स्वच्छ, निर्मल और साफ़-सुथरा दिया है| दिल्ली में यमुना इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि उसे देखने की भी जरूरत नहीं है | जब चार्टेड बस से आफिस जाता था तो ऊँघते हुए, बंद आँखों से भी बदबू का भभका आने पर पता लग जाता था कि यमुना के कालिंदी कुंज के पुल के ऊपर से जा रहा हूँ | यही पवित्र यमुना नदी  पांवटा साहिब में इतनी निर्मल है कि तलहटी के पत्थर तक साफ़ नज़र आते हैं |
  
आप पूछ सकते हैं इस जगह का नाम राजबन क्यों है ? राजबन का अर्थ है राजा का वन यानि राजा का  जंगल | अब यह इस जंगल में राजा कहाँ से आ गया यह जानने के लिए आप को राजबन से और आगे सड़क के रास्ते ऊपर  लगभग 4 कि.मी. चलना पड़ेगा | नीचे पर्वतों के बीच  खाई में एक छोटा सा  गाँव बसा है जिसका नाम है सिरमौर, जिसके पीछे गिरी नदी बह रही है  | वही सिरमौर जिसके नाम पर इस पूरे जिले का नाम पड़ा है | ज्यादातर मामलों मे जिले के मुख्यालय के नाम पर ही जिले का नाम पड़ता है पर यहाँ की बात ही निराली है | इस जिले का मुख्यालय  है नाहन नाम के शहर में पर यह जिला सिरमौर के नाम से जाना जाता है | सिरमौर पर राजपूत वंश के शासकों ने शासन किया था| सिरमौर भारत में एक स्वतंत्र साम्राज्य था, जिसकी स्थापना जैसलमेर के राजा रसलु ने लगभग वर्ष 1090 में की थी |  इनके एक पुरखे का नाम सिरमौर था जिसके नाम पर इन्होंने अपने राज्य को सिरमौर का  नाम दिया गया था। बाद में अपने मुख्य शहर नाहन के नाम पर ही  राज्य को भी  नाहन  के नाम से ही  जाना जाता रहा ।
कहा जाता है कि सबसे पहले सिरमौर के राजा का महल उसी जगह पर था जहां आज यह सिरमौर नाम का गाँव है |  दूसरे की सुनी-सुनाई बात पर क्या जाना, हाँ इतना जरूर है कि लगभग 40 साल पहले, जब मेरी पहली पोस्टिंग राजबन सीमेंट फेक्ट्री में हुई थी तब एक दिन घूमते-घूमते सिरमौर गाँव तक गया था और वहाँ पर उस पुराने महल के खंडहर मैंने स्वयं देखे थे | समय की मार के साथ उन खंडहरों का भी अब नामों-निशान मिट चुका है | उन खंडहरों के पत्थरों तक को गाँव के लोगों ने अपने मकान बनाने में लगा दिया | हाँ अगर किसी धरोहर को उनकी छूने की हिम्मत नहीं हुई तो वह थी  प्राचीन शिव मंदिर और गुफ़ा वाला मंदिर,  जो कि अभी भी सुरक्षित है | मेरे  पुराने मित्र श्री मुन्ना राम ने,  जो सिरमौर गाँव के ही निवासी हैं, उस जगह के कुछ फोटो  उपलब्ध कराये  हैं |


श्री मुन्नाराम

गुफ़ा मंदिर 


प्राचीन गुफा वाला मंदिर 




महल की प्राचीन मूर्तियों के अवशेष ( मंदिर के सभी फोटो श्री मुन्ना राम के सौजन्य से प्राप्त हुए )
उस भव्य महल के नष्ट होने की भी अपनी ही एक कहानी है जिससे लगभग हर सिरमौर वासी वाकिफ़ है | कहा जाता है कि राजा ने  नदी के आर-पार पर्वत की चोटियों पर रस्सी बंधवाई और एक नटनी को चुनौती दी कि अगर तुम इस रस्सी पर चलकर नदी पार करलो तो आधा राज्य ईनाम में दे दिया जाएगा | चुनौती स्वीकार करके नटनी ने रस्सी पर चलना शुरू किया और जब आधा रास्ता पूरा करके नदी के बीचों-बीच पहुँची तो आधा राज्य गवाँ देने के डर से राजा की नीयत में खोट आ गया और उसने रस्सी कटवा दी | नटनी ऊँचाई से गिरकर मर गई पर मरने से पहले राजा को श्राप दे गई कि तुम्हारा यह सारा राज-पाट नष्ट हो जाएगा | होनी की करनी भी कुछ ऐसी ही हुई कि बाद में वह महल भी किसी प्राकृतिक आपदा कारणवश मिट्टी में मिल गया |  यहाँ का राजवंश लगता है बाद में नाहन जाकर बस गया  |
मेरे पिता, जोकि एक प्रख्यात कवि थे,  अक्सर मेरे पास राजबन भी आया करते थे | उन दिनों के दौरान उन्हें  एक बार सिरमौर के खंडहर  दिखाने ले गया |  खंडहरों को देखकर उनके कवि मानस-पटल से एक कविता ने जन्म लिया जिसमें राजा और नटनी की कहानी को एक नया ही आयाम मिला | आप भी आनंद लीजिए उस कविता का :    
    

कवि  स्व० श्री रमेश कौशिक 
राजा और नटनी


नटनी को
वचन दिया राजा ने 

यदि कच्चे धागे पर चलकर
कर लेगी नदी पार
और वापस चली आएगी
तो आधा राजपाट उसका पाएगी |

नटनी ने विश्वास किया
राजा का 

आखिरकार प्रजा थी उसकी
कच्चे धागे पर चलकर
जब नदी पार कर ली उसने
और लगी वापस आने
तब राजा ने
आधा राजपाट देने के डर से
बीच धार कटवाया धागा |

गिरी नदी में नटनी
मर कर दूर बह गई
तब से नाम नदी का पड़ गया ‘गिरी’
विशवासघात के कारण
राजा का सिरमौर राज्य हो गया नष्ट |

अब आप कहेंगें
राजा बहुत बुरा था
नटनी से छलघात किया था
लेकिन वह भी तो मूरख थी
क्यों विश्वास किया राजा का |

राज अगर मिल भी जाता
तो भी क्या करती –
नाचा करती |
क्या करती .... बस नाचा करती 😄


लगभग चालीस वर्ष पहले लिखी यह कविता आज के राजनीतिक सन्दर्भ में भी सन्देश दे रही है कि अयोग्य व्यक्ति के हाथ में सत्ता आना कितना हानिकारक हो सकता है | 

Monday, 1 October 2018

चम्पू

इस बार मेरी  छोटी सी  कहानी - मेरी ही ज़ुबानी 

( मेरे घर् का सबसे छोटा और चंचल सदस्य जो अपनी खामोश
आँखों से लगातार मूक याचना करता है कि कभी कुछ मेरे बारे में भी सबको बताओ | यह रचना विशेष रूप से बाल पाठकों के लिए |)

छोटे छोटे हाथ हमारे ,छोटे छोटे कान हैं ,
मम्मी का मैं राज दुलारा, चम्पू मेरा नाम है ।

छोटे छोटे दाँत हमारे,छोटी छोटी मूँछ है ,
बड़ी बड़ी सी आँख हमारी, लम्बी लेकिन पूँछ है ।

मटर, जलेबी, कढ़ी टमाटर, बड़े चाव से खाता हूँ ,
पोने दस जब बज जाते , फिर पार्क घूमने जाता हूँ ।

कालू, शन्नो , चंचल कट्टो सारे मेरे यार हैं ,
अम्माँ ,पप्पा, मम्मी, साँची सबसे मुझको प्यार है ।

सुबह सवेरे ही उठ कर , मैं सरपट दौड़ लगाता हूँ ,
पेपर वाले से लेकर ,अख़बार उठा कर लाता हूँ।

पेपर ले ख़ुश होते पापा, बिस्कुट मुझे खिलाते हैं ,
फिर जाकर अम्माँ के कमरे , मुझको पास बिठाते  हैं|

सुबह सुबह साँची दीदी जब दफ़्तर को जाती है,
मौज मेरी आजाती जब गाड़ी में सैर कराती है ।

अम्मा जब जाती आँगन में, मैं भी पीछे जाता हूँ ,
नहीं छोड़ता उन्हें अकेला, धरना वहीं लगाता हूँ ।

नन्हू भैया छत पर रहते, मैं भी ऊपर जाता हूँ ,
खेल कूद कर लेकिन भैया वापस नीचे आता हूँ ।


सेम , सुक्कू , संजू मामा जब मेरे घर आते हैं,
मुझे देख सारे ख़ुश होते, प्यार से पास बुलाते हैं ।


दो महीने में एकबार नाना के घर भी जाता हूं,
नानी और मामा - मामी को अपना खेल दिखाता हूँ


नाना के घर दौड़ लगाकर उधम खूब मचाता हूं ।
चारु मामी जो माल बनाती झटपट चट कर जाता हूँ ।

सारे सुनलो कान खोलकर  , प्यार सभी से करता हूँ ,
बेवजहा तुम नहीं छेड़ना , नहीं किसी से डरता हूँ ।
   



Sunday, 23 September 2018

जीना इसी का नाम है - गूँज





आज आपको मैं कोई कहानी किस्सा सुनाने नहीं जा रहा | पर बात एक तरह से जुडी है एक प्यारी सी याद से और उससे मिलने वाली सीख से |


बचपन में साथियों की टोली के साथ एक खेल खेला करते थे | गाँव के कोने में एक खेत के अंधे कुँए पर जाकर कुँए की मुंडेर से भीतर तरह- तरह की आवाज लगाने का खेल | जब अपनी ही आवाज की गूँज वापिस सुनाई देती तो वह हम बच्चों के लिए किसी जादू से कम नहीं होता था जिसे सुनकर हम खुशी से खिलखिला पड़ते | अब जब गाँव ही धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं तो बेचारे कुँए की क्या बिसात और कुँए की गूँज तो रह गई है सिर्फ कहानियों में |


बचपन के साथ ही लगे हाथों आपको एक प्यारे से गाने की याद भी दिला देता हूँ | शैलेन्द्र जी का लिखा एक बहुत ही पुराना गीत है जिसे सभी ने कभी न कभी जरुर सुना होगा :

किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार,
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार ,
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार ,
जीना इसी का नाम है |

कितने सीधे-सादे शब्दों में पूरी जिन्दगी का फ़लसफ़ा बयाँ कर दिया है लिखने वाले ने | कभी मौक़ा मिले तो इस गीत को पूरा सुनिए या कभी इसके बोल पढ़िए, दोनों ही हालात में आपको दिल की गहराइयों तक सुकून और आत्मिक शान्ति महसूस होगी | शब्दों की यही तो जादूगरी और करिश्मा होता है , बैठे बैठे आपको प्रेम और आत्मिक सुख के सागर में गोते लगवा सकते हैं तो दूसरी ओर ईर्ष्या- द्वेष की अंगारों भरी भट्टी में भस्म भी कर सकते हैं |

इस गीत के बोलों को कुँए की गूंज के रूप में सुनिए | प्रतिध्वनि भी उसी सुरीले गीत की सुनाई देगी | कुँए की गूँज आपको सिखा रही है जैसा आप बोएँगे, वैसा ही काटेंगे |

किसी का भला करके देखिए आपको जो आत्मिक सुख मिलेगा वह किसी दुश्मन का नुकसान करने या बदला लेने में कभी प्राप्त नहीं हो सकता | पर इस बात को समझने वाले आज हैं ही कितने | हर जगह वही भीड़- भाड़,धक्का-मुक्की, मारकाट और इस सबके बदले में हासिल क्या होता है – ब्लड प्रेशर, डिप्रेशन और ढ़ेरों अनगिनत बीमारियाँ | जैसा हम करेंगे सूद सहित वापिस भी तो मिलेगा क्योंकि कहने वाले तो यह भी कह गए हैं कि बोए पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए | आज अपनी छोटी सी दिल की बात कहते हुए (‘मन की बात’ नहीं क्योंकि यह तो आज की तारीख में बहुत ही भारी-भरकम और परम पावन पूज्य प्रवचन बन चुका है) मुझे अपने पिता स्वर्गीय श्री रमेश कौशिक की एक कविता याद आ रही है जिसे पढ़कर आपको इस कविता और आज के माहौल के बीच सीधा-सपाट संबंध साफ़-साफ़ नज़र आ जायेगा | यह भी हो सकता है कि आप खुद अपने-आप को भी को भी इस कविता के किसी पात्र के रूप में देख पाएं : 

 जाला 

मकड़ी जाला बुनती है
तुम भी जाला बुनते हो
मैं भी जाला बुनता हूँ 
हम सब जाले बुनते हैं।


जाले इसीलिए हैं 
कि वे बुने जाते हैं 
मकड़ी के द्वारा 
तुम्हारे मेरे या 
हम सब के द्वारा।

मकड़ी, तुम या मैं
या हम सब इसीलिए हैं
कि अपने जालों में
या एक-दूसरे के बुने
जालों में फँसे।

जब हम जाले बुनते हैं
तब चुप-चुप बुनते हैं
लेकिन जब उनमें फँसते हैं
तब बहुत शोर करते है।

इसीलिए बेहतर है हम सब के लिए राजनीति छोडिए, जग-कल्याण के सच्चे और सरल मार्ग पर चलिए और पूरी तरह से यह संभव न हो तो कम से कम प्रयत्न तो कर के देखिए | दूसरों के लिए जाले मत बुनिए, जब जाले ही नहीं होंगे तब उनमें कोई नहीं फँसेगा, आप स्वयं भी नहीं |

आज मैंने कोई नई बात आपको नहीं बताई है, मिठाई वही पुरानी है पर तश्तरी में रखा अपने अंदाज़ से है | स्वाद कैसा लगा बताईयेगा जरूर

भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...