अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है गर्मी अपने पूरे जोर पकड़ चुकी थी । ठंडे पानी के लिए फ्रिज का सहारा लेना शुरू किया । लेकिन बात कुछ बनी नहीं – गला पकड़ कर बैठ गया । एक दिन घर के बरामदे में बैठा हुआ था । सामने सड़क से एक कुम्हार अपने ठेले पर घड़े बेचता जा रहा था । खरीद लिया । अब जो उस घड़े का ठंडा-ठंडा , सोंधी सी महक लिए पानी पिया – लगा जैसे अपने बचपन के दिनों में वापिस चला गया । वे सब यादें जो बचपन और खास तौर पर मिट्टी की महक से जुड़ी होती हैं, उनकी बात ही कुछ और ही होती है । मेरे परिचित दोस्तों में भी उन मित्रों का अलग ही स्थान है जो दिखावट और आडंबर से कोसों दूर, सादगी की चादर लपेटे अपनी ही दुनिया में व्यस्त और मस्त हैं । अक्सर समय मिलता है तो ऐसे ही अपने पुराने साथियों और वरिष्ठ सहयोगियों से फोन पर बातचीत करता रहता हूँ । कुछ उनकी सुनता हूँ और कुछ अपने दिल का हाल सुनाता हूँ – बस इसी हाल और चाल के लेन -देन में दिन भी अच्छा-खासा गुजर जाता है, पुरानी खुशनुमा यादें ताज़ा हो जाती हैं और मैं भी तरोताजा हो जाता हूँ । मेरी नजर में दुनिया में खुशहाल और मस्त ज़िंदगी गुजारने का यह एक आजमाया हुआ नुस्खा है । कई बार बातचीत के दौरान ऐसे -ऐसे मनोरंजक किस्सों का आदान-प्रदान होता है जिनसे कभी आपको सीख मिलती है तो कभी आप अंदर तक हँसी से सराबोर हो जाते हैं । आज एक ऐसे ही दिलचस्प व्यक्तित्व से आपको मिलवाता हूँ – नाम है श्री जगजीवन प्रसाद यादव जिन्हे सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (सीसीआई) में फाइनेंस डिपार्टमेंट के जाने -माने संकट -मोचक अधिकारी के रूप में आज भी याद किया जाता है । बड़ी से बड़ी कठिनाई के समय जब कंपनी के चेयरमेन भी परेशान हो जाते थे तब उन्हे भी बस एक ही दर्द निवारक दवा याद आती – जे. पी. यादव जिन्हें हम सब यादव जी के नाम से पुकारा करते हैं । सीसीआई में लंबी और शानदार नौकरी से रिटायरमेंट के बाद आजकल यादव जी नोएडा में परिवार के साथ स्वस्थ और मस्त जीवन बिता रहे हैं ।
श्री जगजीवन प्रसाद यादव |
आप मुझसे पूछ सकते हैं कि इन यादव साहब में ऐसी क्या खास बात है जिस वजह से उन्हें आज की कहानी का नायक चुना गया । दरअसल यादव जी की जड़े भी बहुत गहराइयों से गांवों से जुड़ी हैं जिसे वह पूरे गर्व से और बिना किसी झिझक के स्वीकार करते हैं । उत्तर प्रदेश में फैजाबाद के पास के ही एक गाँव के किसान परिवार से संबंध रखते हैं । बचपन का माहौल कुल मिलाकर ऐसा था कि बड़े-बूढ़े कहते कि अपना पूरा ध्यान शरीर को बलशाली बनाने में रखो । उसके बाद अगर हिम्मत और ताकत बचती है तो पढ़ाई के बारे में सोच सकते हो । नतीजा यही रहा कि हमारे बबुआ लग गए दंड पेलने , कुश्ती और अखाड़े के शौक में । इसके अलावा लट्ठ-बाजी का भी उन्होनें बाकायदा गाँव में ही गुरु – शिष्य परंपरा से प्रशिक्षण लिया । आज के दिन में भी अगर मैं गलत नहीं हूँ तो उनमें इतनी क्षमता है कि अकेले ही तीन-चार हमालवरों पर भारी पड़ सकते हैं । उनके सिवाय मुझे आज तक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसकी दफ्तर में कलम पर जितनी महारत हो उतनी ही पकड़ लट्ठ पर भी हो । है ना मजेदार बात । इस सबके पीछे वजह केवल यही कि हमारे बबुआ पढ़ाई में भी बहुत ही तेज रहे लेकिन उसके लिए मेहनत भी बहुत की । गाँव से स्कूल आने - जाने के लिए रोज़ चौदह किलोमीटर का पैदल सफर करना पड़ता ।
कभी मूड में होते हैं तो अपने बचपन के गाँव के किस्सों और शरारतों को बड़े ही मजेदार ढंग से चटखारे ले-ले कर सुनाते हैं । एक बार रात को अपने दोस्त के साथ गाँव में आम के बाग में चुपचाप पहुँच गए चोरी -चोरी आम तोड़ने । अब भला आम की चोरी भी कोई चोरी होती है – लेकिन उसके लिए भी हिम्मत और कलेजा चाहिए । वजह - अगर चोरी पकड़ी गई तो माली भी छिताई करता और घर पर होती डबल कुटाई । उस वक्त कोई उस दलील को सुनने के लिए तैयार नहीं होता कि एक ही अपराध के लिए दो बार सज़ा नहीं दी जा सकती । अब ज़रा कल्पना कीजिए – घनघोर अंधेरी रात, बाग में दो शरारती बच्चे , सूखे पत्तों पर नंगे पाँव चलने से होती सन्नाटे को चीरती खड़खड़ाहट और इन सबसे ऊपर डर के मारे धड़कते दिल की धुकधुकी । माना उन दिनों अपने जे पी बाबू बच्चे थे , शक्ल से भोले और अकल के कच्चे थे पर इतना तो तब भी जानते थे कि डर के आगे जीत है और जीत के आगे मीठे मीठे आम हैं । उन मीठे आमों के मीठे सपनों में डूबे हुए होशियारी से छोटे-छोटे कदमों से बाग की जमीन नाप रहे थे । पेड़ पर चढ़ने की बजाय जमीन पर टपक कर गिरे आमों को उठाना इनके लिए हर तरह से सुरक्षित सौदा था । अचानक पैर में बबुआ को तीखा दर्द महसूस हुआ । लगा किसी ने काट खाया है । थोड़ा ध्यान से देखा तो होश उड़ गए - पता लगा कि खून निकल रहा है और पास से ही सरसराता हुआ सांप निकल कर जा रहा है । बस अब तो ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे – डर के आगे ना तो उन्हें जीत नजर आ रही थी और ना ही मीठे -मीठे आम । उस वक्त सिर्फ एक ही चीज़ नजर आ रही थी – जीती-जागती मौत । अपने दोस्त को बताया और दोनों ने ही घर की तरफ दौड़ लगा दी । अभी कुछ दूर ही पहुंचे होंगे कि चक्कर खा कर गिर पड़े । पैर धीरे-धीरे सुन्न होने लगा था । बालक बुद्धि थी पर फिर भी दूसरों के मुकाबले तेज़ थी । तुरंत ही अपनी कमीज उतार कर फाड़ कर पट्टियाँ बना डालीं और पाँव पर जगह जगह कस कर बांध लिया । चलना तो बस की बात नहीं थी सो दोस्त ने दोस्ती के फर्ज को निभाया और कंधे पर विक्रम-बेताल की तरह लाद कर गाँव के घर तक पहुँचा दिया । इस हालत में देख कर घर के सभी बुजुर्गों के होश उड़ गए । सारी हालत जानकर – पिटाई का कार्यक्रम तो हो गया स्थगित और इलाज के इंतजाम में सभी व्यस्त हो गए । झाड़ -फूक करने वाले ओझा को भी बुलाया गया । ओझा अपने ढंग से इलाज करना चाहता था – और जे पी बबुआ था कि अपने पाँव पर बंधी पट्टियों को खोलने को तैयार नहीं । बच्चे की जिद के आगे ओझा भी हार मान कर कान दबा कर चुपचाप निकल लिया । पूरी रात अंगीठी पर पाँव रख कर सिकाई करी गई और तब कहीं जा कर आराम मिला और जान बची ।
आम को सभी फलों का राजा कहते हैं । अगर मैं गलत नहीं हूँ तो आज भी यादव जी कभी रसीले आम खाने बैठते होंगें तब उन्हें यह खालिस गाँव का किस्सा जरूर याद आ जाता होगा ।
यादव जी छायादार वृक्ष इसीलिए बन पाए क्योंकि उनकी जड़ इतनी गहरी है । होम डिलीवरी वाले पिज़्ज़ा खाने वाले बच्चों के लिए तो ऐसे किस्से अनोखी कहानियां ही हैं । प्रस्तुति तो हर बार की तरह दिलचस्प है ही ।
ReplyDeleteउनका पति बांधना काम आ गया,जो कि उनके प्रतीउत्पन्न मति तथा विचारों पर दृढ़ता का सूचक है।
ReplyDeleteश्रीमान जी यादव साब की काबिलियत से तो वाकिफ था, आम का किस्सा पड़ कर उनकी दिलेरी को
ReplyDeleteतथा किस्से सहजने पर आपको भी
सलाम।