Monday 22 October 2018

कण-कण में भगवान ( भाग 1 ) : बचपन की बहार, पथरी की पुकार

शीर्षक पढ़ कर आज आप सोच रहे होंगें कि आज तो कौशिक जी कुछ धार्मिक प्रवचन देने के मूड में लग रहे हैं | आप थोड़े सही हैं पर थोड़े से गलत | आज मैं कोई हंसी मजाक से भरपूर कोई किस्सा नहीं सुना रहा | लेकिन बाकी किस्सों की तरह से है यह भी आपबीती जिसने मेरी सोच को एक नई दिशा दी है | अब आप उस सोच को जाहिल, अपरिपक्व, अंधविश्वास से परिपूर्ण भी कह सकते हैं, मुझे कोई आपत्ति नहीं पर मैं भी क्या करूँ जब एक विशेष प्रकार की कई घटनाएं मेरे साथ घटित हों तो मैं भी उन्हें मात्र संयोग कह कर टाल भी तो नहीं सकता | 


सपनों की दुनिया 
चलिए बात शुरू करता हूँ अपने बचपन से जिसकी सबसे पुरानी यादें जो ज़हन में अभी तक अंकित हैं वो है जब मेरी उम्र मात्र चार वर्ष की होगी| शायद वह 1960 का साल रहा होगा | शायद कुछ आर्थिक हालातों की मजबूरियां ऐसी रहीं कि नाना-नानी के पास रहना पड़ रहा था | म्रेरे पिता उन दिनों नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कारपोरेशन के उडीसा स्थित जिला क्योंझार के दूर दराज के घने जंगलों में डोनीमलाई लोह अयस्क प्रोजेक्ट में मेरी मां, मेरे बड़े भाई और छोटी बहन के साथ अपनी नई नौकरी पर कार्यरत थे | 

मेरे नाना 

मेरे नाना रेलवे में स्टेशन मास्टर थे और नाना-नानी के लाड़-प्यार से भरपूर मेरा बचपन मस्ती में बीत रहा था | बीच-बीच में नाना का तबादला एक से दूसरे स्टेशनों पर होता रहता था | ये सभी जगह हरिद्वार के आस-पास की ही थी जैसे काकाठेर, डौसनी, पथरी | सारे स्टेशन पर मानों अपना ही एक छत्र राज्य लगता क्योंकि बालमन में गहरे तक यह बात कहीं समा गई थी कि नाना ही इस सारे स्टेशन के मालिक हैं | स्टेशन पर काम करने वाले खलासी, मजदूर , केबिनमेन , पॉइंट्समेन और न जाने कौन कौन सभी मुझे सर माथे चढ़ाए रखते | स्टेशनों पर आती-जाती गाड़ियों को बड़ी उत्सुकता से निहारा करता | स्टेशन का प्लेटफार्म मानों एक तरह से मेरा क्रीडा स्थल बन गया था | स्टेशन मास्टर के कमरे में बैठ कर वहाँ लगे टेलीफोन, लोहे का टोकन गोला निकालने वाले मशीन, टिटहरी की तरह टिक-टिक करने वाली टेलीग्राफ मशीन को देखकर मुझे लगता जैसे किसी जादू के अजब देश में आ गया हूँ | कुल मिलाकर स्टेशन की सारी दुनिया मुझे बहुत ही कौतुहलपूर्ण और मायावी लगती | शरारती अब भी हूँ और तब बचपन में तो खैर पराकाष्ठा ही थी | 


पथरी स्टेशन 
यह बात पथरी रेलवे स्टेशन की है, नाना बाहर प्लेटफार्म पर खड़े होकर हरिद्वार से बंबई जाने वाली देहरादून एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाकर रवाना कर रहे थे और मैं उनके कमरे में लगी एक मशीन से पंगा ले रहा था | स्टेशन से गाडी रवाना करा कर नाना कमरे में आए तो मैं एक आदर्श बालक का रूप लिए बिलकुल शान्तिदूत के अवतार में आ चुका था | इतने में उनके फोन की घंटी बजी फोन सुनते ही नाना प्लेटफार्म की तरफ भागे | वापस आकर मुझे लगभग हड्काने के अंदाज में पूछा तुमने क्या शरारत की | बस उठो और तुरंत घर भागो | अब तो उस उम्र में उन्हें अपनी कारगुजारी क्या बताते, पर बाद में शाम को घर आने पर मैंने उन्हें नानी को कहते सुना कि तुम्हारे लाड़ले ने आज मेरी नौकरी तो लगभग खा ही ली थी | इस की करतूत ने देहरादून एक्सप्रेस को आउटर सिग्नल पर ही खड़ा करवा दिया | बस यह समझ लीजिए उस दिन के बाद स्टेशन का वह जादुई कमरा मेरी पहुँच से ऐसे दूर हो गया जैसे किसी धर्मभीरु पंडित के लिए दारु का अड्डा |

मैं दीनो-दुनिया से बेखबर अपने आप में मस्त था, सब कुछ मज़े में चल रहा था | देर रात घर में एक सज्जन का आना हुआ जिन्हें मेरे पिता ने भेजा था अपने पास उडीसा बुलवाने के लिए | सुबह तड़के ही मुझे जगा कर बोला गया कि तैयार हो जाओ और अधखुली अलसाई आँखे मलता हुआ आधा जागा आधा सोया उन सज्जन के साथ बैठ लिया मैं, रेल गाडी में उड़ीसा के लिए, अपने उन नाना नानी जो मुझ पर जान छिड़कते थे और प्यारे पथरी को छोड़कर , जिनकी मैं आँख का तारा था | मुझे भली प्रकार से याद है तब तक पूरी तरह से दिन भी नहीं निकला था | नाना-नानी से इस प्रकार अचानक अप्रत्याशित रूप से एक झटके में बिछड़ना मेरे बालमन पर एक ऐसी अमिट छाप छोड़ गया जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाया | इसके पीछे एक कारण और रहा और वह था कुछ समय के बाद मेरे नाना का कैंसर से आकस्मिक दुखद निधन | यानी कुछ यूँ समझ लीजिए कि नाना-नानी की याद के प्रतीक पथरी स्टेशन से नाता पूरी तरह से टूट गया | 
अब कहने को तो मैं अपने मां बाप और भाई-बहनों के पास जा कर खुश था पर पथरी की याद, उस घर की याद, उस जगह की महक मेरे दिलो दिमाग में हमेशा के लिए कुछ ऐसी जगह कर चुकी थी कि रात को सपने में भी वही जगह नज़र आती | अब यह सिलसिला था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था | कभी कभी तो लगता अगर मर भी गया तो अतृप्त इच्छा के कारण पथरी रेलवे स्टेशन के पेड़ पर ही भूत बन कर बैठूँगा | 

समय अपनी रफ़्तार से आगे दौड़ता जा रहा था | उड़ीसा से वापिस आकर परिवार दिल्ली में ही बस गया | मैं भी पढाई पूरी कर के नौकरी में भी लग गया | पहली नियुक्ति सीमेंट कारपोरेशन आफ इण्डिया के हिमाचल प्रदेश स्थित राजबन फेक्ट्री में रही | दिल्ली आना जाना लगा ही रहता था | संयोगवश दिल्ली- देहरादून रेलमार्ग पर पथरी का स्टेशन पड़ता है | उस जगह की एक झलक मात्र देखने के लिए मैं पागलों की तरह से ट्रेन के दरवाजे पर बहुत पहले से ही खड़ा हो जाता और कई बार तो भरी बारिश में भीगना भी पडा | पर मेरी ट्रेन होती थी एक्सप्रेस और पथरी था एक छोटा सा स्टेशन जहाँ उसका स्टोपेज ही नहीं था | हर बार मेरी ट्रेन डायरेक्ट मेन लाइन से धड-धडाती हुई पूरी रफ़्तार से निकल जाती और मुझे कुछ भी नज़र नहीं आ पाता क्योंकि प्लेटफार्म पर दूसरी ओर कोई लोकल गाडी खड़ी होती थी | ऐसा कई बार हुआ पर मैं अपना मन मसोसने के सिवाय कर भी क्या सकता था | दीदारे पथरी न होना बदा था, न ही हुआ | 

समय अब भी आगे दौड़ता जा रहा था | साल बदल रहे थे, म्रेरे भी तबादले पर तबादले एक के बाद एक होते जा रहे थे | हिमाचल से हरियाणा , पंजाब, बंगाल कहाँ कहाँ की ख़ाक नहीं छानी | सन 1978 का कलेंडर अब बदल चुका था वर्ष 2009 में | तब मेरी नियुक्ति देहरादून में हो चुकी थी | एक बार किसी कार्यवश हरिद्वार जाना पडा | परिवार भी साथ ही था और मेरे साथ थी मेरी प्यारी मारुती 800 जिसे मेरे सहकर्मियों ने हास- परिहास में गरीब रथ का नाम दिया हुआ था | जिस होटल में रुका था उसके मेनेजर से जिज्ञासा वश पथरी के बारे में पूँछ बैठा | अब मेनेजर ठहरा उधर का ही स्थानीय निवासी, सो मुझे वहां तक जाने का सड़क मार्ग के बारे में भली प्रकार से समझा दिया | सच मानिए उस वक्त मुझे इतनी खुशी हुई जैसे मुझे हमदर्द कंपनी वालों ने रूह आफज़ा शरबत बनाने का 100 साल से गुप्त चले आ रहे फार्मूले को हाथ में थमा दिया हो | 

तो भाई लोगो, तुरंत ही हांक दिया अपने गरीब रथ को पथरी की दिशा में, उस पथरी की ओर जिससे मैं अचानक बिछड़ गया था लगभग 50 साल पहले, अधमुंदी- अलसाई आँखों लिए निपट अधेंरे में | भरी गरमी में पसीना बहाते ,लगभग दो घंटे की जद्दो जहद के बाद रास्ता अटकते भटकते आखिर पहुँच ही गया साक्षात अपने सपनों की दुनिया में | रेलवे स्टेशन ज्यों-का-त्यों था लगभग वैसा ही जैसा छोड़ा था | हाँ विकास का प्रतीक अब बिजली जरुर आ गई थी स्टेशन पर | कुछ झिझकता हुआ स्टेशन मास्टर के उस कमरे में घुसा जहाँ से कभी नाना ने धमका कर भगा दिया था | स्टेशन मास्टर से परिचय हुआ, मेरा परिचय, इतिहास और आने का प्रयोजन जानकार कुछ अचरज और कुछ अचम्भे में मुझे ऐसे देखने लगे जैसे डायनोसोर की प्रजाति का विलुप्त प्राणी ज़ोरेसिक पार्क से निकल कर साक्षात प्रकट हो गया हो | खैर खासे-भले मानस थे, मुझे आराम से बैठ कर चाय पिलाई, ढ़ेरों बातें करीं और मेरे अनुरोध पर उस मकान को भी दिखाया जहां कभी मेरे नाना-नानी रहते थे | अब मैं पूरी तरह से संतुष्ट हो चुका था या यह कह लीजिए कि आत्मा तृप्त हो गई थी और मेरा गरीब रथ लौट चला वापिस देहरादून घर की ओर |

लेकिन यह प्रकरण यहीं समाप्त नहीं हुआ | एक दिन अचानक दिल्ली मुख्यालय से किसी मीटिंग के सिलसिले में बुलावा आया | देहरादून से दिल्ली के लिए ट्रेन से निकल लिया | रास्ते में हरिद्वार से गाडी छूटने के कुछ ही देर बाद मेरी आँख लग गई और लगभग ऊँघने की स्थिति में आ गया | अभी कुछ ही समय बीता होगा कि लगा किसी ने झकझोर कर अर्ध-निंद्रा से जगा दिया हो | ट्रेन काफी देर से कहीं रुकी हुई थी | डिब्बा वातानुकूलित होने और बाहर शाम की कम रोशनी के कारण खिड़की से बाहर साफ़ नहीं दिख पा रहा था | डिब्बे के दरवाजे पर आकर देखा तो आश्चर्य चकित रह गया | यह वही पथरी का स्टेशन था जिसे देखने के लिए मैं बरसों असफल प्रयत्न करता रहा था | गाडी आज यहाँ क्यों रुकी हुई है और वह भी थोड़ी बहुत देर नहीं पूरे 45 मिनिट | पता लगा कि गाडी का इंजिन फेल हो गया है जिसे ठीक करने की कोशिश की जा रही है | इस बीच मैंने  डिब्बे से उतर कर प्लेटफोर्म पर ही चहलकदमी करने का मन बना लिया | घूमते हुए ज्यों  ही स्टेशन के मुख्य भवन तक पहुँचा, लगा जैसे अचानक बिजली का झटका लगा | जिस जगह को अभी कुछ माह पहले मैं ठीक-ठाक देख कर गया वह इमारत अब अर्ध-खंडहर की हालत में थी | बोर्ड लगा हुआ था जिस पर लिखा था Under Demolition . Renovation in Progress ( इमारत को तोड़कर नवीकरण कार्य प्रगति पर है ) | एकबारगी तो लगा जैसे पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गई हो | मेरी सपनों की जादुई नगरी अंतिम साँसे ले रही थी | उसीने मुझे आवाज देकर आज अपने पास बुलाया, सरपट दौड़ती गाड़ी को तिलस्मी चमत्कार से इतनी देर तक रुका कर रखा | लगा पथरी की आत्मा मुझसे कह रही है “मुझे सपनों में देखने वाले बालक, मुझे अंतिम बार इस रूप में जाते हुए भी देख कर यादों में सजों ले | इसके बाद मुझे याद करना फिर सपनों में ही | अलविदा मेरे बच्चे |” 

अब इस सारी घटना के बाद अगर मेरी सोच यह कहती है कि आत्मा हर जगह है उन वस्तुओं और स्थानों में भी जिन्हें आप निर्जीव समझते हैं, निष्प्राण समझते हैं, तो क्या गलत है | असल बात होती है उस विश्वास, भावना और आस्था की तीव्रता की जो हमारे दिलोदिमाग में होता है | अगर पथरी केवल एक नाम मात्र का स्थान भर ही होता तो वह क्यों इतने संयोग करके मुझे अंतिम दर्शन के लिए अपने पास बुलाता | 

कहना न होगा आज का पथरी रेलवे स्टेशन अपनी नयी साजो-सज्जा के साथ एक अलग ही नई पीढ़ी के अवतार में सर उठाए शान से खड़ा है जिससे मेरी हिम्मत नहीं होती आँखे मिलाने की | मैं उसके पुराने रूप में ही खुश था | 

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