Thursday, 25 October 2018

कण-कण में भगवान (भाग -2 ) – बचपन की बहार और स्कूल की पुकार

यह बात भी बचपन के दिनों की ही है | उड़ीसा से हम लोग शिफ्ट होकर दिल्ली में ही आ चुके थे | मेरी उम्र रही होगी यही कोई नौ-दस बरस की | किराए के मकान में दिल्ली की यमुना-पार की ही एक कॉलोनी कृष्णानगर में रहते थे | अब यमुना पार के बारे में तो आपने भी यह सुना ही होगा कि “नानक दुखिया सब संसार और सारे दुखिया यमुना पार” | तो इसी यमुना-पार के इलाके में घर से थोड़ी ही दूर पर मेरा स्कूल था | यह स्कूल आठवी कक्षा तक के लिए था और दिल्ली नगर निगम द्वारा संचालित था इसलिए आम बोलचाल की भाषा में इसे चुंगी का स्कूल भी कहते थे | इसकी बिल्डिंग बैरकनुमा शैली में थी जिसकी छत एस्बेस्टस शीट्स की थी | जमीन पर ही टाट-पट्टी पर पालथी मार कर बैठा करते थे जिसकी बदौलत आज तक अपने घुटने ईश्वर ने दुरस्त रखे हैं | इसी वजह से ही  हर मौसम का भरपूर मज़ा भी  लिया करते थे | गरमी में पसीने से तरबतर, कडकती सर्दी में बला की ठिठुरन जिसमें अगर मास्टर जी को दया आ जाती तो क्लास को बाहर मैदान में धूप में बिठा देते थे | पर भाई हमारे लिए सब से मस्ती का मौसम होता बरसात का | ऊपर से छत टपकती और बरसात का पानी सड़क से होता स्कूल के कमरों तक निरीक्षण करने आजाता | ऐसे में स्कूल की हो जाती छुट्टी हम बच्चों की तो सच में मौज आजाती | बरसती बारिश में घुटनों तक पानी में भीगते पानी में शोर मचाते घर की ओर घुड़दौड़ करने का मज़ा ही कुछ और ही था |               
अगर मैं ठीक से याद कर पा रहा हूँ तो तब तक उस स्कूल में बिजली नाम की विलासिता ने अवतार नहीं लिया था | अब आप ही बताइये, आठ पैसे प्रति माह की फ़ीस में आपको और क्या मिलता |अब इस आठ पैसे के पीछे भी कई बार काण्ड हो जाते| मास्टर जी फ़ीस के हमारे  दस के सिक्के में से दो पैसे वापिस नहीं करते और बाद में किसी लड़के को पास के पनवाड़ी की दुकान भेजकर इस काले धन की एकत्रित जमापूंजी से पान मंगवा कर खाया करते थे | अब विद्रोही छात्र पैदा करने का सारा ठेका जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी ने ही तो लिया नहीं हैं | ऐसे छात्र अब भी हैं और हमारे ज़माने में भी थे | एक बच्चा बुला लाया अपने कड़क बापू को और पहुँच गई शिकायत हेडमास्टर तक | हमारे मास्टर जी की उस समय किरकिरी तो खूब हुई पर बाद में वो उस शिकायती बच्चे के पीछे हमेशा के लिए हाथ धो कर ऐसे पड़ गए जैसे दलाई लामा के पीछे चीन |
अब एक आश्चर्य की बात – हमें होल्डर या कलम से लिखने की ही अनुमति होती थी | किसी भी विद्यार्थी के  लिए अपने पास पेन रखना उतना ही बड़ा गुनाह समझा जाता जितना किसी तपस्वी के कमंडल में दारु | सो समय-समय पर बाकायदा छापे पड़ा करते जिनमें मास्टर जी सबके बस्तों की तलाशी लेते और जिसके पास भी पेन बरामद होता, वह कोहिनूर हीरे की तरह जब्त होकर मास्टर जी की मिलकियत बनकर उनके घर के खजाने में सदा के लिए जमा हो जाता | मेरे रिश्ते के मामा भी उसी स्कूल में पढ़ाया करते थे | जब भी उनके घर जाता तो मैं उनके विशाल पेन भण्डार से दो-चार पेन हथिया कर भांजे होने का फर्ज बखूबी निभा दिया करता |    
बच्चों को सुधारने और अच्छी आदतें डालने के लिए नए-नए तरीके तब भी ईजाद हो ही जाते थे | एक बार मास्टर जी ने क्लास के सारे बच्चों को एक-एक पतली सी कॉपी थमा दी और बोले कि जब भी कोई भला काम करो इस कॉपी में लिखना जिसे नियमित रूप से जांचा जाएगा | अब मास्टर जी तो उस भलमनसाहत की पुस्तिका को थमा कर मुक्त हो गए पर हम सब बच्चों के गले में आफत की घंटी बंध गई | हालत यह कि पढाई-लिखाई गई तेल लेने, सोते जागते यही फितूर रहता कि अब सुन्दर काण्ड में कौन सी चौपाई लिखनी है | सो हुआ कुछ यूँ कि  हमेशा की तरह क्लास के  बच्चे समूह बनाकर दोपहर के खाने की छुट्टी में टाट-पट्टी पर जमीन बैठ कर ही खाना खा रहे थे | मेरे बड़े भाई साहब, जो मेरे से लगभग दो वर्ष ही बड़े थे, वह भी उस वक्त साथ ही आ बैठते थे |  अब आलम यह कि हमारे भाई जी बहुत ही आग्रह करके अपने साथ में बैठे बच्चे जबरदस्त ना-नुकर के बावजूद उसकी रोटी पर आलू की सब्जी के चंद टुकड़े झोंक ही दिए | यहाँ तक तो सब ठीक था , पर उस शाम जब उत्सुकतावश मैंने  उनकी “भलमानस पुस्तिका” को चोरी से पढ़ा तो उनके उस दिन के आदर्श कार्य में लिखा हुआ था : “आज मैंने एक भूखे को खाना खिलाया”| आज भी उस बात को याद करते हुए मुझे हँसी आ जाती है | सच में, जब किसी भी काम का बलपूर्वक अनिवार्य दैनिक कोटा निर्धारित कर दिया जाता है तब वही हालत होती है जिसमें जबरदस्ती उस अंधे को भी सड़क पार करवा दी जाती है जो बेचारा पार करना ही नहीं चाह रहा |
अब सोच तो आप भी रहे होंगे कि जनाब किस्से तो दुनिया जहान के सुना रहे हो, खुद क्या राम जी की गैया थे | सही सोचा आपने, पंगे तो मैं भी लेता था पर ज़रा छोटी-मोटी श्रेणी के ही | एक बार मास्टर जी ने  निबंध लिखने को दिया – मेरी पहली रेल यात्रा | अब शाम को बैठ कर किसी तरह जल्दबाजी में होम वर्क जैसे-तैसे निबटाया क्योकि दोस्तों के साथ खेलने जाना था | अगले दिन जब कापियों की जांच करी गई तो मास्टर जी ने मेरा नाम पुकारा और बोले इससे पहले मैं तुम्हे मुर्गे के रूप में बदल दूँ , जो निबंध लिखा है उसे ज़रा पढ़ कर सारी क्लास को भी सुना दो | सहमते झिझकते मैंने कुछ यूँ पढ़ना शुरू किया :
मेरी पहली रेल यात्रा     
मुझे नानी के घर जाना था | मुझे रेल से जाना था | मैं रेलवे स्टेशन गया | रेल आयी | मैं रेल के डब्बे में बैठ गया | मैं खिड़की के पास की सीट पर बैठ गया | रेल चल पडी | ठंडी ठंडी हवा में मुझे नींद आ गयी | मैं सो गया | जब नींद खुली तो नानी के घर वाला स्टेशन आ गया था | मैं स्टेशन पर उतर कर नानी के घर चला गया |
  समाप्त
उस भरे- पूरे निबंध का यह बिकनी स्वरूप सुनकर पूरी क्लास जोरों से हँस रही थी और गुरु द्रोणाचार्य हो रहे थे  गुस्से से लाल पीले | अपने अर्जुन से ऐसी उम्मीद उन्हें हरगिज नहीं थी कि निबंध के नाम पर उन्हीं को चकमा दे देगा | अपने मोटे  चश्में से गोल-गोल कंचे जैसी आँखे तरेर कर बोले – “बेटा अब बन जा मुर्गा| अगर तू निबंध लिख कर नहीं लाता तो सिर्फ तुझे हाथ उठवा कोने में खड़ा करवा देता, पर तुझे मुर्गा इसलिए बनाया जा रहा है कि तूने मुझे बुड़बक  समझा |” यह मेरी जिन्दगी का पहला सबक था कि जहां पतलून पहन कर जाना हो वहां चड्डी पहन कर जाने से मुसीबत खड़ी हो जाती है|       
उस यादगार चुंगी के स्कूल में, मैं तीन वर्ष रहा और फिर समय के साथ, कृष्णा नगर का मकान बदला, स्कूल बदला, कॉलेज बदला और इन सब बदलते परिवेश के बीच मैं भी बदलता चला गया | नहीं बदली तो सिर्फ एक मीठी सी याद जो मेरे उस चकाचौंध से दूर, सीधे-साधे, सरल-सच्चे, गरीब स्कूल की  जिसके चंद सहपाठियों (चंद्रशेखर, हरिओम)   और कर्मठ अध्यापकों  जैसे आ० गोपीराम जी, छोटे लाल जी, राजेन्द्र शर्मा जी  तक के नाम पचास वर्षों के अंतराल के बाद आज  भी याद हैं | दरअसल विद्यालय कभी भी छोटा या बड़ा उसकी ब्रांड इमेज,  साज-सज्जा या चमक दमक से नहीं होता | ये तो विद्या के मंदिर होतें हैं, जहाँ से  इनके  ज्ञान के प्रकाश को नि:स्वार्थ भाव से उत्सर्जित किया जाता है | विद्यालय वह स्थल है जहाँ शिक्षा प्रदान की जाती है। विद्यालय एक ऐसी संस्था है जहाँ बच्चों के शारीरिक,मानसिक, बौद्धिक एवं नैतिक गुणों का विकास होता है। आजकल इन्हीं  विद्या के मंदिरों में व्यावसायिकता का अंश घर कर गया है जिससे आज के अधिकाँश छात्रों में न तो अपने विद्यालयों के प्रति सम्मान रह गया है और न ही अध्यापकों के प्रति श्रद्धा | दूसरे शब्दों में कहें तो जब मंदिरों में से भक्ति विलुप्त हो गई तो मंदिर और दूकान में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाता |
अब फिर आपके समय चक्र को वर्ष 1967 से सीधे 2004 पर ले आता हूँ | दिल्ली का पूरा नक्शा ही बदल चुका था | हम लोग भी नोएडा मैं अपना घोंसला स्थापित कर चुके थे | मेरे पिता श्री रमेश कौशिक का साहित्यिक लेखन कार्य पूरे जोर-शोर से चरम पर चल रहा था | कई कविता संग्रह एक के बाद एक प्रकाशित हो रहे थे | एक दिन उन्होंने मुझे शाहदरा के प्रकाशक तक अपनी पुस्तक की पांडुलिपि पहुँचाने का काम सौंपा | नोएडा से शाहदरा कोई ज्यादा दूर तो था नहीं,  होगा यही कोई दस- बारह किलोमीटर , सो तुरंत स्कूटर उठा कर निकल लिया | काम निपटा कर , जब वापिस लौट रहा था तो रास्ते में कृष्णा नगर के पास से गुजरते हुए  पता नहीं कैसे अचानक दिमाग में विचार कौंधा कि क्यों न आज अपने उस चुंगी वाले स्कूल को जा कर देखूं | दिमाग ने दुबारा सोचने का मौक़ा ही नहीं दिया और मैंने किसी मंत्रमुग्ध यंत्रचलित रोबोट की तरह स्कूटर का रुख स्कूल की दिशा की ओर मोड़ दिया | गली-गलियारे, सडक, चौराहे सब अपना पुराना चौला बदल कर नए रूप में आ चुके थे जोकि स्वाभाविक भी था | जब मैं तब का तीन फुटिया बालक अब छह फीट का मलंग हो सकता हूँ तो इनको भी पूरा अधिकार था समयानुसार परिवर्तन का |
खैर, अता–पता पूँछता, अटकता-भटकता आखिर ख़ोज ही निकाला अपने पुराने नालंदा-तक्षशिला को | पुराना बैरकनुमा भवन अब बहुमंजिली इमारत में बदल चुका था | रविवार का  दिन होने के कारण स्कूल में शांति थी | स्कूल के परिसर में और अन्दर तक चला जा रहा था कि बीच मैदान में आकर अचानक ठिठक गया | आँखों ने कुछ ऐसा देखा जिसे देख कर भी विश्वास करने को दिल नहीं मान रहा था | सामने उन बहुमंजली इमारतों से चारों ओर से घिरे उस मैदान के एक हिस्से में कुछ तोड़-फोड़  का काम हो रहा था और यह तोड़-फोड़ थी उस पुरानी एस्बेस्टस की छतों वाली बैरक को पूरी तरह से हटाने के लिए | ये वही कमरे थी जिनमें मैं पढ़ा करता था | मैं वही मैदान में एक तरफ बैठ कर खामोशी से ताक रहा था उस खंडहरनुमा इमारत को जो मेहमान थी केवल आज भर की | शायद उन्हें इंतज़ार था अंतिम समय में मेरे जैसे भावुक, संवेदनशील इंसान की जिसकी नियति में पुरानी यादों को अपनी गठरी में जिन्दगी भर ढ़ोते रहना है | छत ढह चुकी थी पर ब्लेक बोर्ड अन्दर से मुझे बड़ी दयनीय दृष्टि से निहार रहा था | यह  वही ब्लेक बोर्ड था जिस पर मैंने टाट-पट्टी  पर बैठ कर जिन्दगी के प्रारंभिक पाठ पढ़े और सीखे | यह याद आज भी मेरे रोम-रोम में सिहरन भर देती है | क्या इसे भी मैं केवल एक संयोग ही कहूँ कि अंतिम दिन अंतिम क्षणों में मेरे बचपन का शिक्षा स्थल मुझे खींच कर अपने पास खींच कर ले आया | क्या यह उस ज्ञान के मंदिर में बसी कोई पवित्र आत्मा थी जो ईश्वर का ही रूप थी |
ऐसा ही मिलता-जुलता अनुभव मुझे एक और अवसर पर भी हुआ जिसे आप पथरी की पुकार में पढ़ सकते हैं | यह तो आप भी मानेंगे कि एक ही प्रकार के अनुभव दोहराव  मात्र संयोग नहीं हो सकता  | सच बताइये क्या कभी-कभी आपको नहीं लगता कि कुछ तो है ऐसा आलोकिक जिसे आप शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते, केवल महसूस कर सकते हैं और वह भी दिमाग से नहीं सिर्फ और सिर्फ अपने दिल से | 

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