Wednesday 3 October 2018

अजब दफ्तर की गज़ब कहानी ( भाग तीन ) : सारी ख़ुदाई एक तरफ ........


उम्मीद है आप अब तक  गाजियाबाद  दफ्तर के सर्कसनुमा कारनामों की झलक इस ब्लॉग के भाग एक और भाग दो से ले ही चुके होंगें | थोड़े में कहूँ तो वहाँ के दफ्तर का नारा था:
काम कम  , बन्दे ज्यादा,
मस्ती भरी ज़िंदगी का पूरा वादा |
आप भी सोच रहे होगे कि आज तो जनाब में बड़ी हिम्मत आ गई है जो इतना चौड़ा होकर बीच चौराहे पर खड़े होकर ब्लॉग लिख कर बाकायदा ढ़ोल पीट-पीट कर कह रहे हैं कि हम मुफ्त की रोटी तोड़ रहे थे | आप बिलकुल सही फरमा रहे हैं  भाई जी | पर  अब डर हो भी तो किस बात का , रिटायर हुए ढाई साल से ऊपर हो गया ,  हिसाब-किताब सारा वसूल लिया, अब मेरी क्या पूँछ पाड़ोगे |  हमारे एक खास सत्यवादी  मित्र अक्सर चचा ग़ालिब की तर्ज़ पर हमें यह शेर सुनाया करते थे कि कौशिक जी ! सरकारी नौकरी में अगर आगे बढ़ना है तो ध्यान रखना  : 
          काम नहीं काम की फ़िक्र कर ,
        और उस फ़िक्र की हर जगह ज़िक्र कर |
मैंने तो उन की बात गाँठ तो  बाँध ली थी पर ऊपर वाले से ता उम्र शिकायत रही कि जब  मैं मध्यप्रदेश के  नयागांव स्थित कंपनी के ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट  में बतौर मेनेजमेंट ट्रेनी प्रशिक्षण ले रहा था तो परम ज्ञानी सत्यवादी  मित्र  को ज्ञान बांटने वाली फेकल्टी से वंचित क्यों रखा | काश भरी जवानी में ही यह परम ज्ञान मिल गया होता तो बाद में बुढापा तो खराब न होता | खैर कोई बात नहीं , देर आए दुरस्त आए | कहते  हैं ना कि ज्ञान जिस उम्र में मिल जाए , सर माथे , सीखने की कोई उम्र नहीं होती है|  मेरी तो सारी ज़िंदगी के तजुर्बों का इतना ही निचोड़ है कि कंपनी में जितने प्रोमोशन मिले सब फाख्ता उड़ाने के दिनों में मिले , काम करने के एवज में तो सिवाय परेशानियों के कुछ हासिल न हुआ | जब आप काम करोगे ही नहीं तो गलती कहाँ से होगी | जब गलती नहीं तो प्रोमोशन पक्का |
   
हाँ तो वापिस चलते हैं उसी  गाज़ियाबादी मुर्गीखाने में | कंपनी की हालत पतली चल रही थी , बस यूँ समझ लीजिए कि एक तरह से बंद होने की कगार पर ही पहुँच चुकी थी | वेतन भी समय पर नहीं मिलने के कारण, कर्मचारियों का मनोबल भी कंपनी की हालत की तरह ही पतला चल रहा था | काम-धाम कुछ ख़ास था ही नहीं| एक दिन दोपहर बाद मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं थी सो सोचा आज जल्दी घर जा कर  आराम कर लूंगा | अपना ब्रीफ केस उठाया और बगल के कमरे में बैठे स्टाफ को बोलकर घर की ओर निकल लिया |
अगले तीन दिन तक दफ्तर में सब कुछ सामान्य रहा | चौथे दिन डाक में आए एक पत्र को देख कर चौंक गया | पत्र दरियागंज दिल्ली स्थित जोनल आफिस से था जिसमें जोनल मेनेजर ने एक शिकायती पत्र नत्थी करते हुए  स्पष्टीकरण माँगा था | पूरी चिट्ठी पड़ने पर सारा माजरा धीरे-धीरे समझ में आने लगा | सारे स्टाफ को बुलाकर तहकीकात करी तो पता लगा जिस दिन जब मेरी तबियत खराब थी , मेरे जल्दी घर जाने के बाद  स्टाफ भी एक के बाद एक खिसकना शुरू हो गया |  पहले नीचे का अफसर खिसका , उसके जाने के थोड़ी ही देर बाद सुपरवाईजर और बाद में तो धीरे-धीरे करके स्टाफ के सदस्य एक के बाद एक कबूतरों की तरह से फुर्र  | मज़े की बात यह कि हर बन्दा जाने से पहले बाकी लोगों को ताकीद करके जाता कि भाई लोगो ध्यान रखना | हद तो तब हो गई जब सब के खिसकने के बाद चपरासी भी दफ्तर में ताला लगाकर चलता बना – ताले के कान में यह बोल कर कि भगवान सब का ध्यान रखना, सब की नौकरी बचाना |  बस यह समझ लीजिए कि पूरा भरा-पूरा दफ्तर जैसे भरी जवानी में ही विधवा ( या रंडवा ) हो गया |  सारी बाते सुन कर एकबारगी तो लगा जैसे अपने सर के सारे  बाल नोंच लूँ |  झुंझला कर बोला “कमबख्तो तुम्हे पता भी है क्या हुआ है | बिजली बोर्ड ने लिखित में  दिल्ली जोनल आफिस में शिकायत भेजी है कि आपके गाज़ियाबाद दफ्तर में भरी दोपहरी ताला लगा हुआ था जिससे हमारे बाबू को वापिस लौटना पडा | अब बताओ क्या जवाब भेजूं उस ज़ालिम सिंह को जो पहले से ही मुझ से खानदानी बैर पाले बैठा है |” झाड सुनकर  सारा स्टाफ दम साधे भीगी बिल्ली बने बैठा था  पर उससे मेरा क्या होना था |  अफसर का लट्ठ तो मेरे सर पर ही बजा था और इस झमेले  का तोड़ भी मुझे ही निकालना था |
खैर किसी तरह अपने कमरे में आकर इस गहन समस्या पर विचार करते हुए एक प्रकार से तपस्या में लीन हो गया | एक कप चाय भी गटक गया | जैसे गौतम बुद्ध को सुजाता की खीर खा कर ज्ञान प्राप्त हुआ ऐसे ही चाय की चुसकी ले  कर मेरे ज्ञान चक्षू खुल गए | बिजली की तरह से दिमाग में विचार कोंधा, पंडित जी तुम्हारे जीजा जी भी तो इसी विभाग में एक्जीक्यूटिव  इंजीनियर के पद पर यहीं गाज़ियाबाद में
कृपा-निधान - जीजा महान :श्री सतीश शर्मा 
तैनात हैं |  अब अगर साले की नैया मझदार में हो तो जीजा नहीं बचाने आएगा तो कौन आएगा | आखिर जीजा को भी तो अपने घर में रहना है कि नहीं | यह मन्त्र तो हर जीजा को रटा ही होता है : सारी ख़ुदाई एक तरफ  और जोरू का भाई एक तरफ | तुरंत पहुँच लिया जीजा के दरबार में, करुण विलाप कर व्यथा गाथा सुनाई | अब  साला तो जीजा की नाक का बाल होता है, उस पर आंच कैसे आ सकती है | उन्होंने  तुरंत अपने मातहत सम्बंधित एसडीओ  को फोन घुमा दिया और सारी बात बता कर  बोले “तुम्हें शिकायत करने के लिए सारी दुनिया में मेरा साला ही मिला |” दूसरी तरफ से एसडीओ  की मिमियाती आवाज़ सुनायी पड़ रही थी “सर हमें क्या पता कि आपका साला ही लपेटे में आ जाएगा | आप चिंता न करें , हम सब गड़बड़ ठीक करवा देंगे |”  खैर जीजा की दिलासा और दारु के गिलास में बहुत जान होती है, सो वापिस लौट लिए |
अगले दिन दफ्तर में बैठा था तो चपरासी ने बताया कि बिजली बोर्ड के कोई एसडीओ साहब मिलना चाहते हैं | मिलते ही एसडीओ साहब ने मेज पर एक पत्र  रख दिया | पत्र  मेरे अफसर यानी हमारे जोनल मेनेजर को संबोधित था जिसमें अपने पहले पत्र का हवाला देते हुए बताया गया था कि भूल से उनका बाबू गलत पते पर पहुँच गया था और वहां ताला लगा देख कर अनजाने में सीसीआई   दफ्तर बंद होने की गलत रिपोर्ट दे दी जिसके लिए उन्हें खेद है | सच मानिए उस पत्र को पढ़ कर ऐसा लगा जैसे लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी का प्रबंध हो गया हो |  बस फिर क्या था अगले ही दिन स्पष्टीकरण में अपने आप को अनूप जलोटा की तरह पाक-साफ़, शराफत का पुतला घोषित करते हुए, बिजली बोर्ड की चिट्ठी को अपने जवाब के साथ नत्थी करते हुए चेप दिया अपने उस  खुन्दकी बॉस को, जो मुझ जैसे सीधे-सादे निरीह मेमने की अग्नि परीक्षा लेने पर तुला हुआ था |  कहना न होगा कि उसकी  बोलती बंद करने के लिए मेरी सत्यवादी  मिसाइल काफी थी | तो भाई लोगो बोलो मेरे साथ जोर से :
जाको  जीजा साथ हो ,वाए  मार सके ना कोए ,
बाल न बांका कर सके , चाहे अफसर बैरी होए ||                       

इति जीजा पुराण |

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