यह जो नीली छतरी वाला है – बहुत ही अव्वल दर्जे का कहानीकार है । दुनिया के हर बंदे के जीवन और भाग्य - कहानी का ताना-बाना इस चतुराई से बुनता है कि उस गोरखधंधे को अच्छे -अच्छे नहीं समझ पाते । इस सबका नतीजा कई बार वही होता है जैसा मेरी कहानी – “कौन है वह" के बाद पाठकों से मिली कुछ प्रतिक्रियाओं से पता लगा । ( अगर उस कहानी को अभी तक आपने नहीं पढ़ा तो उसे एक बार पढ़िएगा जरूर ) उस किस्से में एक ऐसे अनजान, अनदेखे शख्स का जिक्र था जो अंधेरी बियाबान रातों में, जब सारी दुनिया नींद के गहरे आगोश में सो रही होती है –अपनी बड़ी सी गाड़ी में सड़कों पर घूमता रहता । कड़कती सर्दी, घनघोर बरसात , भीषण गर्मी – कुछ भी हो उसकी राह और उद्देश्य में रुकावट नहीं बन पाती है । हर रात उसका एक खास मकसद होता है – सड़क किनारे बैठे बेसहारा कुत्तों , और पशु-पक्षियों के लिए खाना , दाना -पानी का शानदार इंतजाम करना । |
कुछ ऐसी ही प्रतीक्षा होती है रात के देवदूत की |
उसके इस नेक कार्यकलाप को मैं पिछले एक साल से महसूस कर रहा हूँ पर कभी उस बंदे को देखा नहीं क्योंकि वह तो ठहरा रातों का देवदूत । अब ज़िंदगी की असलियत को तो मैं बदल नहीं सकता । किस्सा पढ़ने के बाद मेरे दोस्त , मेरे सुधि पाठक सब मेरा कान पकड़ रहे हैं उस कहानी के लिए क्योंकि उस किस्से का नायक ही अदृश्य और गुमनाम है । सब का सिर्फ एक ही सवाल – वह कौन है , इसका जवाब भी चाहिए । झूठ मैं लिख नहीं सकता और उम्र के इस दौर में जासूसी का काम मेरे बस का नहीं । पर जब आपने सवाल किया है तो खोजबीन और जवाब देने की जिम्मेदारी भी तो मेरी ही है । बस यह समझ लीजिए कि पता नहीं कितने पापड़ बेलने पड़े इस काम में । पूरी – पूरी रात जागा – कान सड़क पर हर आती -जाती गाड़ी की आवाज पर । एक रात साढ़े तीन बजे खटका होने पर तीर की तरह बाहर की ओर भागा । सामने वही काली गाड़ी और यह लीजिए वह शख्स भी जिसके बारे में जानने के लिए सभी उत्सुक । इसी को तो कहते हैं : जिन खोजा तिन पाइया ।
वह सज्जन- एक उम्रदराज सरदार जी , बड़ी तसल्ली से सड़क किनारे बेसब्री से इंतजार कर रहे कुत्तों की टोली को बिस्किट्स की दावत कराने में व्यस्त थे । सरसरी निगाह से उनकी बड़ी सी काले रंग की एस.यू.वी गाड़ी की डिक्की में नजर दौड़ाई जो खाने पीने के सामान से ठसाठस भरी हुई थी । मैंने सरदार जी को अभिवादन कर अपना परिचय दिया । थोड़ी बहुत इधर -उधर की बातें हुईं । अपने मन में उमड़ रहे ढेर सारे सवालों के जवाब भी जानना चाह रहा था । दिक्कत यही थी कि उन्हें अभी और भी आगे जाना था, बातें करने का समय भी नहीं था और सही वक्त भी नहीं था । उन्होनें मेरा फोन नंबर लिया और चलते – चलते यह वायदा किया कि जल्द ही मेरे से मिलने आएंगे और तब जी भर कर बातें भी करेंगे । मेरे देखते -देखते उनकी गाड़ी रात के अंधेरे में गुम हो गई ।
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देवदूत की रसद गाड़ी
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इसी बीच दो दिन निकल गए । दोपहर का वक्त था – यही कोई तीन बज रहे होंगे - कॉल बेल बजी । झाँक कर देखा बाहर वही सरदार जी खड़े थे । गोरा -चिट्टा रंग, मजबूत कद – काठी, चलने – फिरने का अंदाज देखकर यकीन नहीं हुआ कि यह इंसान 78 वर्ष की उम्र का है । चेहरे पर गोल्डन फ्रेम का चश्मा, हाथ में बेशकीमती घड़ी, ब्रांडेड - सलीकेदार कपड़े उनकी शख्सियत को और भी प्रभावशाली और गरिमामय बना रहे थे । नेक काम करने का प्रभाव ही कुछ ऐसा होता है कि सम्पूर्ण व्यक्तित्व में एक अनोखा ही तेज आ जाता है । ऐसा ही कुछ उस रातों के देवदूत को देख कर भी लगा । कोरोना संक्रमण के समय में हर आदमी नए अनजान शख्स से मिलने से डरता है – पर वह तो ठहरा देवदूत, दिल ने कहा – उससे डर कैसा । उनसे घर पर बैठ कर तसल्ली और आत्मीयता से बातचीत हुई ।
सबसे पहले उन्होनें बहुत ही विनम्रता से अपनी पहचान उजागर नहीं करने का अनुरोध किया । इसीलिए उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए अब मैं उन्हें एक काल्पनिक नाम से ही संबोधित करूँगा – ‘सिंह साहब’ । उनका मानना है कि जिस दिन इंसान प्रसिद्धी के घोड़े पर सवार हो जाता है उसमें घमंड आने की पूरी संभावना होती है । उन्हें गुमनामी के अंधेरे में रह कर ही सेवा करने में आत्म संतोष मिलता है । लोग बेशक तरह-तरह की बातें बनाते रहें पर रात में जीव – जगत की सेवा पर निकलने के पीछे यही कारण है । इस प्रकार से कुत्ते -बिल्लियों से जन्मजात दुश्मनी रखने वाले कुछ लोगों की फ़िजूल टोका- टाकी से भी बच जाते हैं । यद्यपि मेरे घर के आस-पास उन्होंने विगत एक साल से ही आना शुरू किया है पर यह सेवा वह पिछले दस वर्षों से करते आ रहे हैं । अपने स्वभाव की विनम्रता के अनुसार के ही अनुकूल सिंह साहब कहते हैं वह जो भी कर रहे हैं उसमें उनका निजी स्वार्थ है । यह स्वार्थ है सेवा के बाद मिलने वाले संतोष का ।अपने जीवन में मिली सफलताओं और आज ज़िंदगी के जिस मुकाम पर वह खड़े हैं व वहाँ तक पहुँचने में शायद इन बेजुबान प्राणियों की दुआएं ही काम कर रही हैं । इस सेवा के कारण इंसान की मदद करने में वह कई बार धोखा खा चुके हैं क्योंकि मदद के हकदार सच्चे इंसान को पहचानने के मामले में कई बार भूल भी हो जाती है । नतीजा यही होता है कि कपटी और चालबाज लोग गलत फायदा उठाने में सफल हो जाते हैं और सिंह साहब के पास बाद में पछताने के सिवाय कोई चारा नहीं रहता । इसीलिए वह कहते हैं कि पशु -जगत की सेवा में कम से कम खुद के ठगे जाने का खतरा तो नहीं होता । जितनी भारी -भरकम खाने की रसद की खरीद सिंह साहब करते हैं उसे देख कर तो यही महसूस होता है कि उनका नाम दरियादिल सिंह होना चाहिए ।
अब अचंभे की बात सुनिए । ज़िंदगी में जितने उतार -चढ़ाव सिंह साहब ने देखे हैं वह भी किसी फिल्मी कहानी की तरह कुछ कम दिलचस्प नहीं है । पुरखों का किसी जमाने में धन- दौलत से भरपूर , सम्पन्न परिवार था। आजादी के बाद भारत – पाक विभाजन के कारण सब कुछ छोड़ कर शरणार्थी बन कर हिंदुस्तान में कदम रखना पड़ा । लेकिन उस समय के बालक सिंह साहब के पिता जी का इतना रुतबा तो था ही कि वहाँ से हवाई जहाज से आए थे और उनका पहला ठिकाना अंबाला रहा । गर्दिश के दिनों ने दस्तक देनी शुरू कर दी । जमा -पूंजी की नैया भी धीरे -धीरे डूबने लगी और जल्द ही ऐसे हालात बन गए कि 12 साल के उस बच्चे को पटियाला की सड़कों पर दही- भल्ले बेचने की भी नौबत आ गयी । लेकिन उस बच्चे में भी गजब की हिम्मत थी । हर छोटे-बड़े काम में हाथ आजमाता रहा । कभी स्कूल के बस्ते बेचे तो कभी बनाए, और तो और ऑटो रिक्शा तक चलाया । किसी भी काम को छोटा नहीं समझा – मेहनत करने में कोई कोताही नहीं की । उम्र के साथ -साथ तजुर्बा भी बढ़ता गया । छोटी – मोटी मशीनों से शुरुआत की, काम धीरे -धीरे बढ़ाना शुरू किया । अब उस नीली छतरी वाले भगवान की भी इस नेकदिल और मेहनती इंसान पर नजर पड़ी और उसके बाद तो सिंह साहब ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा । इनकी नोएडा-सूरजपुर में लंबी – चौड़ी फेक्टरी हैं जिसमें 450 लोगों को रोजगार मिलता है ।अपने भरे -पूरे परिवार के साथ सिंह साहब नोएडा के पॉश इलाके में वैभवशाली कोठी में सुख शांति का जीवन व्यतीत कर रहे हैं । जीवन के भौतिक सुख के साथ -साथ आत्मिक शांति से परिपूर्ण जीवन बिरलों को ही नसीब होता है – सिंह साहब भी उन्हीं में से एक हैं । अब तो आप भी मुझ से सहमत होंगे कि नेक नीयती से की गए निस्वार्थ सेवा कार्य कभी बेकार नहीं जाते ।
और हाँ चलते -चलते – जिस इंसान को हम संदेह और शक की निगाह से देख रहे थे उसकी असलियत जानकार क्या हमें आत्म- निरीक्षण की जरूरत नहीं है ?