बड़ा प्यारा से नाम है टिंकू । सुनते ही दिलो दिमाग में किसी खूबसूरत से शरारती बच्चे की तस्वीर कौंध जाती है । मुझे तो इस नाम से खास ही लगाव है । बारह - तेरह वर्ष की उम्र रही होगी मेरी जब घर पर एक शाम पिता जी प्यारा सा भूरे रंग का पिल्ला ले कर आए । जहाँ तक मुझे याद पड़ता है उसका नामकरण – टिंकू हम तीन सदस्यीय भाई-बहन की टीम द्वारा सर्व सम्मति से ही हुआ होगा । मेरे ज़िंदगी का वह पहला जीता जागता खिलौना आज भी मुझे अक्सर याद आता है । इतिहास के मुगल वंश के शासकों के नाम बेशक मुझे कभी याद ना हो सके लेकिन अपने घर पर समय -समय पर पाले गए पिल्लों के नाम मैं एक ही सांस में उंगलियों पर गिना सकता हूँ – टिंकू – बंटी – शिमलू – टिंकू ( द्वितीय) – केरी – टैडी - चंपू । स्कूल के मास्टर जी अक्सर कहा करते थे कि याद वही चीज रहती है जिसे आप दिल से प्यार करते हैं – अब चाहे वह किताब का पाठ हो या कोई इंसान । ज़ाहिर सी बात है कि मुगलिया सल्तनत के इन बादशाहों में मेरी कोई रुचि नहीं रही , इसीलिए कितने ही रट्टे मारने के बाद आज भी दिमाग से सफाचट है कि कौन किसका बाप था और कौन बेटा ।
टिंकू का इकलौता फ़ोटो - माँ के साथ |
हाँ तो मैं बात कर रहा था टिंकू की – जिसका हमारे घर में पदार्पण इसलिए नहीं हुआ कि उस जमाने में उसे हम बच्चों की ख्वाहिश पूरी करने के लिए लाया गया हो – या हमारे माँ-बाप का शौक हो । हमारा मध्यम वर्ग का बहुत ही साधारण सा ऐसा परिवार था जहाँ कुत्ता -बिल्ली पालने की बच्चों की मनुहार को यह कह कर दरकिनार कर दिया जाता है कि पहले तुम तो पल जाओ । हम लोग उन दिनों दिल्ली शाहदरा – मानसरोवर पार्क में रहा करते थे । भीड़-भाड़ से दूर सुनसान इलाके में बस्ती थी । पिता दफ्तर और माँ स्कूल के लिए सुबह ही निकल जाते । पहली शिफ्ट के स्कूल में पढ़ा कर जब तक दोपहर को माँ वापिस घर आती उससे पहले ही हम अपने स्कूल के लिए रवाना हो जाते । कुल मिलाकर चोरी-चपाटी के डर से घर को सुरक्षा की जरूरत थी और उसके लिए हमारी हैसियत और बजट कुत्ते पर ही आकर रुक जाता था । टिंकू क्योंकि एक साधारण देसी पिल्ला था इसलिए मेरी समझ से वह चाहे जहाँ से भी आया हो , पर आया मुफ़्त में ही । इंसान की सोच यहीं आकर चक्कर खा जाती है जब कहा जाता है कि पैसा बोलता है । अरे भाई – जरूरी नहीं कि हर अच्छी चीज के लिए आपको अंटी ढीली करनी पड़े । कई बार आपको कचरे के ढ़ेर में भी खजाना मिल जाता है । हमारे टिंकू का मामला भी कुछ ऐसा ही था ।
स्वभाव से बड़ा ही सीधा -सरल प्राणी था टिंकू । सभी से मिलजुल कर प्यार से रहता । इस मामले में कुछ ज्यादा ही मस्त -मौला था । हालत यह कि कोई अजनबी भी घर आता तो बड़े प्यार से पूँछ हिलाते हुए गले मिलने वाला भव्य स्वागत करता । कभी सड़क पर भी जा रहा होता तो वही नजारा पेश हो जाता – जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए । गरीब घर के बच्चे ज्यादातर सभी प्रकार के उद्दंड व्यवहार से दूर बहुत ही अनुशासित और संकोचशील जीवन जीते हैं । टिंकू भी कुछ - कुछ ऐसा ही था । उसकी बस एक ही मनपसंद शरारत होती । गरमी के दिनों में हम सब खुले आँगन में कतार में खाट बिछा कर सोया करते । सुबह सूरज निकलने के बाद देर तक सोने वाले हम बच्चों की खटिया पर ही चढ़ कर वह मुँह के ऊपर से चादर खींच कर अपनी ही भाषा में जय राम जी की कर देता । इस हरकत में उसे परोक्ष रूप से हमारे माता -पिता का ऐसे ही समर्थन मिलता जैसा पाकिस्तान को चीन का – इसलिए उसमें हेकड़ी और हिम्मत दोनों ही आ जातीं ।
उसका एक शौक और भी था – घर में आने वाले मेहमानों की चप्पलों से उसे खास ही प्यार था । इधर मौका लगा और उधर चप्पल ऐसे गायब जैसे बैंक से कर्जा लेकर विजय माल्या । बहुत खोजबीन के बाद जूते -चप्पल मिल तो जाते पर इतनी क्षत -विक्षत और घायल अवस्था में कि पहचान करना ही मुश्किल हो जाता । उन दिनों टिंकू के दांत निकल रहे थे सो दांतों में हो रही खुजली और कसक मिटाने के लिए वह कभी कुर्सियों के पाए कुतर डालता तो कभी अच्छी-खासी ऊंची एड़ी की सैंडिल को नोच-नोच कर हवाई चप्पल में बदल देता । नतीजा यही होता कि इस तरह की करतूतों के लिए उसकी चपत-परेड और कान-खिचाई भी होती । पर उसे भी अपनी इज्जत बहुत प्यारी थी इसीलिए ऐसे मौके पर होने वाली ज़लालत से बचने के लिए वह अक्सर पहले ही बिन लादेन की तरह भाग कर हमारी पहुँच से दूर किसी दुर्गम जगह जैसे तख्त या सोफ़े के नीचे शरण ले लेता । कठिन परिस्थितियों में आत्म-रक्षा के लिए भूमिगत होने का पहला पाठ मुझे टिंकू से ही सीखने को मिला ।
हमारे मकान में काफी खाली जगह भी थी जिसमें पेड़ -पौधे और सब्जियां उगाते रहते थे । वह खाली जगह टिंकू का खेल का मैदान भी था । कई बार टिंकू को उस बगिया से हमने गाजर – मूली उखाड़ कर खाते हुए रंगे हाथों भी पकड़ा । वह उसके मस्ती के दिन थे ।
घर में खुले में रखे खाने -पीने के सामान पर वह कभी मुँह नहीं मारता था । समझदार इतना कि सारे घर में घूमता -फिरता बस रसोई घर को छोड़ कर । रसोई में केवल तभी अंदर घुसता जब गलती से दूध उबल कर नीचे फर्श पर बहने लगता । अपने अनुभव से वह इतना जानता था कि उस जमीन पर बहने वाले दूध पर उसका जन्मसिद्ध अधिकार था जिसे लेने के लिए उसे किसी पासपोर्ट या अनुमति की आवश्यकता नहीं थी ।
घर में सभी की आँखों का तारा था । मेरी नानी खुर्जा में रहा करती थीं । जब भी हमारे पास मिलने आतीं तो टिंकू के हिस्से के लड्डू अलग से लातीं । उन लड्डुओं को बड़े प्यार से अपने हाथ से उसे सहलाते हुए खिलाती जाती और कहतीं – “खा टिंकू खा । तू मेरे बच्चों की रक्षा करता है ।“ उनकी बात सच भी थी क्योंकि रात के समय घर की चौकीदारी टिंकू पूरी मुस्तैदी से निभाता ।
टिंकू का पालन पोषण भी कुछ हद तक गोकुल की गैया की तरह ही होता था । समय -समय पर उसे घर से बाहर घूमने-फिरने के लिए छोड़ देते । वह आस-पास चहल कदमी कर कुछ देर बाद अपने आप ही घर वापिस लौट आता । एक दिन तो कमाल ही हो गया – वह गया तो ऐसा गया कि देर शाम तक वापिस नहीं आया । चिंता हुई – सारी कॉलोनी छान मारी पर टिंकू नहीं मिला । थक -हार कर घर पर सभी उदास होकर बैठ गए । उस रात परिवार में कोई ढंग से खाना भी नहीं खा पाया । गर्मियों के दिन थे – हमेशा की तरह सभी आँगन में खात बिछा कर सो रहे थे । देर रात अचानक दरवाजे पर आहट हुई । दरवाजा खोला तो सामने टिंकू बैठा था । देखते ही उसने सीधे घर के अंदर दौड़ लगा दी और कूँ -कूँ करते हुए सभी के पाँव से चिपट गया । वह बहुत घबराया हुआ था – उसके गले में एक टूटी हुई रस्सी बंधी हुई थी । उसे कोई अपने साथ जबरदस्ती ले गया था पर मौका देख कर वह उस रस्सी को तुड़ा कर भाग निकला ।
इस कहानी को ब्लॉग पर पोस्ट करने के बाद एक टिंकू के बारे में एक ऐसा कमेन्ट आया जिसे मैं मूल रूप में उद्धृत कर रहा हूँ । ब्लॉग लेखन के दौरान मेरे साथ ऐसा पहली बार हुआ है जब प्रकाशन के बाद भी उसमें कहानी में ही पाठक प्रतिक्रिया / संदेश को समाहित किया हो । यह संदेश था इस कहानी के ही एक पात्र - मेरी छोटी बहन पारुल का जिसने लिखा :
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"दास्ताने टिंकू पढ़ते हुए यादों के गलियारों में घूम रही थी ।बचपन की बहुत सी यादें ताज़ा हो गईं ।जब हम तीनों भाई-बहन नींद से जूझते हुए परीक्षा की तैयारी कर रहे होते थे, टिंकू कमरे के बीचों बीच आराम से फैल कर सो रहा होता था । उस समय हमें उससे बहुत ईर्ष्या होती थी । कम से कम मैं तो उस समय यही सोचती थी --अगले जनम मोहे-------।"
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समय पर किसी का ज़ोर नहीं चलता । मैं बचपन से किशोरावस्था में जा रहा था और टिंकू अपने बुढ़ापे की ओर । बुजुर्ग ठीक ही कहते हैं – बुढ़ापा खुद अपने आप में एक लाइलाज बीमारी है । टिंकू को भी धीरे -धीरे बीमारियों ने जकड़ना शुरू कर दिया । वह आज से पचास बरस पहले सत्तर के दशक का वह ज़माना था जब पशु तो दूर , इंसानों के इलाज की व्यवस्था भी आज जितनी उन्नत और सुलभ नहीं थी । ले -देकर घर से चार किलोमीटर दूर एक सरकारी पशु डिस्पेंसरी थी । टिंकू को भी कभी पैदल तो कभी अपनी गोद में बिठा कर रिक्शे में लेजाता । वह बेचारा धीरे -धीरे कमजोर होता जा रहा था । चलने फिरने में उसे दिक्कत होती, खुराक कम हो गई। शरारत तो क्या कर पाता बस घर के एक कोने में पड़ा बस सोता रहता । अब उसे बेहोशी के दौरे भी पड़ने लगे थे । उसको ऐसी हालत में तड़पते हुए देखना भी मेरे लिए अपने आप में बहुत बड़ी सज़ा थी । उसे शायद दमा या ऐसी ही कोई फेफड़ों की बीमारी हो चुकी थी जिसके लिए डिस्पेंसरी का डाक्टर भी हाथ खड़े कर चुका था ।
उस दिन तब दोपहर के बारह बजे थे । दरवाजे की घंटी बजी – बाहर जो व्यक्ति खड़ा था उसके आने के बारे में पिता जी दफ्तर जाने से पहले मुझे पहले ही बता चुके थे । वह उनके दिल्ली परिवहन निगम के दफ्तर का मेडीकल ऑफीसर था । मुझसे उसने टिंकू के बारे में पूछा और देखने की इच्छा ज़ाहिर की । टिंकू हमेशा की तरह घर में अपने पसंदीदा जगह - तख्त के नीचे बेसुध होकर सो रहा था । मैंने उसे जगाया और घर के पीछे के बरामदे में ले गया जहाँ डॉक्टर उसका इंतजार कर रहा था । डॉक्टर ने अपने बैग से इंजेक्शन निकाला और टिंकू को लगा दिया । इंजेक्शन लगते ही टिंकू बहुत जोर से झटके से छटपटाया , तड़पा और धीरे -धीरे शांत हो गया । डॉक्टर ने धीरे से मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोला – “बच्चे ! इसकी बीमारी का कोई इलाज नहीं था । समय के साथ इसकी तकलीफें बढ़नी ही थी । इसको आराम दिलाने का बस यही एक रास्ता था ।“ डॉक्टर की बातें मेरी बाल -बुद्धि की समझ से बाहर थीं । मैं तो सिर्फ अपनी डबडबाई आँखों में आँसू रोकने की कोशिश करते हुए चिरनिद्रा में सोए अपने उस खिलौने को देख रहा था जो कुछ समय पहले तक बूढ़ा, लाचार और बीमार ही सही पर था तो जीता जागता ।
मुझे पता नहीं उसके बाद कब वह डॉक्टर वापिस गया – कब माँ स्कूल से आयीं । माँ को उस बारे में शायद पहले से ही पता था । वह कमरे में उस तख्त पर बैठीं हुई थी जिसके नीचे सुबह टिंकू आराम कर रहा था । उन्होनें अपनी धीमी आवाज में सिर्फ इतना ही पूछा – वह कहाँ है ? मैं माँ को उस जगह ले गया – माँ ने निश्चल पड़े टिंकू को एक नजर देखा । जब सहन नहीं हुआ तो उस को एक बड़ी सी चादर से ढक कर वापिस कमरे में उसी तख्त पर आकर धम से बैठ गयीं और दोनों हाथों से अपना चेहरा ढाँप लिया । मेरी माँ यूं तो मजबूत दिल वाली है पर उसे सुबकते हुए मैंने तभी देखा था । घर के पास की ही एक खाली जगह पर टिंकू को प्यार और सम्मान के साथ गहरा गड्ढा खोद कर अंतिम संस्कार कर दिया । बूढ़े टिंकू की दर्द और रोग से सदा के लिए मुक्ति का तरीका और औचित्य आज पचास साल बाद भी मुझे परेशान कर देता है – आँखों में आँसू ला देता है ।
टिंकू ने अपनी शरारतों और प्यार से जो हम सबके दिलों में जगह बनायी वह कभी खाली नहीं हो सकती । यद्यपि इतने प्यारे दोस्त की हमेशा के लिए विदाई दिल को चीर कर रख देती है पर उससे मिलने वाला निश्चल स्नेह उसके जाने के बाद भी आपको उनकी दुनिया से जोड़े रखता है । यही कारण है टिंकू ही समय समय पर अलग – अलग नाम से मेरे पास आता रहा –शिमलू , टिंकू ( द्वितीय) , केरी , टैडी , चंपू सब में उसी का ही तो रूप है । उनके साथ खेलते समय मैं फिर से वही छोटा बच्चा बनता रहा हूँ – टिंकू का नन्हा दोस्त । इस सब के बावज़ूद दिल के किसी अंजान कोने में आज भी एक दबी हुई ख्वाहिश है - काश फिर कभी देर रात दरवाजे पर आहट हो और सामने टूटी रस्सी गले में बांधे टिंकू बैठा मिले ।
Mukesh as usual this storey is also heart touching. You have to come over the past and enjoy what you have now I mean Champu.
ReplyDeleteKaushik Jim's love for pets was known in Rajban also. How about during Dehradun stay...
ReplyDeleteBohot hi maarmik kahani hai..ise mai bohot ache se mehsus kar rahi hu..inse itna pyar ho jata hai ki bichhadna sehen ni hota..aapne bohot hi ache shabdo me prastut kiya hai..dhanyavaad
ReplyDeleteदास्ताने टिंकू पढ़ते हुए यादों के गलियारों में घूम रही थी ।बचपन की बहुत सी यादें ताज़ा हो गईं ।जब हम तीनों भाई-बहन नींद से जूझते हुए परीक्षा की तैयारी कर रहे होते थे, टिंकू कमरे के बीचों बीच आराम से फैल कर सो रहा होता था । उस समय हमें उससे बहुत ईर्ष्या होती थी । कम से कम मैं तो उस समय यही सोचती थी --अगले जनम मोहे-------।
ReplyDelete👍👍👍
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