Sunday 7 October 2018

ऊंची उड़ान ( भाग 2 ) : खरगोश मित्र


बहुत पहले मशहूर गीतकार आनंद बख्शी साहब ने एक फिल्म देवर के लिए एक बहुत ही प्यारा सा गीत लिखा था – “आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम, गुज़ारा ज़माना बचपन का |” मुकेश जी की सुरीली आवाज़ ने इस गाने को इतना दिलकश बना दिया कि आज भी जब इसे सुनता हूँ , सच में कहीं खो सा जाता हूँ | बचपन कुछ चीज़ ही ऐसी है  जिसकी याद ही अक्सर तब आती है जब हमारी उम्र का घोड़ा सरपट दौड़ते हुए जवानी के पड़ाव को पूरा पार करके बुढ़ापे की दहलीज़ पर हिनहिनाना शुरू कर देता है |  दरअसल जवानी में तो बन्दे को अपने वर्तमान से ही फुर्सत नहीं मिलती, बचा-कुचा समय भविष्य की ताक-झाँक में निकल जाता है | अब  बुढ़ापे में हर किसी की किस्मत अनूप जलोटा साहब की तरह बुलंद तो हो नहीं सकती | इसीलिए  जब उम्र का तीतर हाथ से फिसलने की हालत में होता है तब जुम्मन चाचा को निपट अकेली कोठरी में अपनी खटिया पर पड़े- पड़े खाँसी की सरगम के बीच याद आता है सिर्फ  बचपन क्योंकि जवानी के किस्से दिल में कुढ़न के सिवाय और कुछ पैदा कर नहीं सकते और भविष्य के बारे में सोचना ऐसा है जैसे बिना दांत वाले पोपले मुँह के साथ अखरोट खाने के ख़्वाब देखना |  मुझे याद आ रही है कवि (स्वर्गीय ) श्री रमेश कौशिक की एक कविता जिसमें उन्होंने उम्र के तीन प्रमुख पड़ावों ( बचपन, अधेडावस्था और बुढ़ापे में व्याप्त मनोस्थिति का बखूबी वर्णन किया है :   

बीच की उम्र

एक समय ऐसा होता है
जब केवल सपने होते हैं
हम होते हैं
खाते-पीते, सोते जगते
इंद्रधनुष तैरा करते हैं

एक समय ऐसा होता है
बीते घटना क्रम होते हैं
झुकी कमर पर
जिन्हें वानरी के मृत शिशु-से
हम ढ़ोते हैं
वे ही बस अपने होते हैं |

उम्र बीच की बड़ी अजब है
 नहीं जानते
इन्द्रधनुष कब लगें तैरने
लिए वानरी का मृत शिशु
कब लगें घूमने ?

अब इतनी सारी बाते सुनने के बाद जब मैं बचपन की बातें शुरू करूँ तो भगवान् के वास्ते आप इस गलत फहमी में भी मत आ जाइएगा कि मैं कोई कब्र में पाँव लटका कर बैठने वाला कोई बूढा खूसट हूँ |  सही मायने में  कहूँ तो  अगर मैं  राहुल गांधी जैसा  ना सही पर यकीनन नारायण दत्त तिवारी का हमउम्र भी नहीं हूँ |

तो चलिए एक बार फिर से कलेंडर की तारीख सेट करते हैं और पहुँच जाते है वर्ष 1970 में |  दिल्ली के यमुनापार इलाके की एक बस्ती है झिलमिल कॉलोनी जिसकी उन दिनों कोई ख़ास आबादी भी नहीं थी | वहीं पर एक सरकारी उच्चतर माध्यमिक स्कूल था जिसमें मेरी मां पढ़ाया करती थी | घर से लगभग तीन किलोमीटर दूर रहा होगा | अब इसे भाग्य या दुर्भाग्य कुछ भी कह सकते हैं मेरा और मेरे बड़े भाई दोनों का ही दाखिला उसी  स्कूल में करवा दिया गया | अब आप हम दोनों ही भाइयों की हालत  आप विश्वास करें बिलकुल ओसामा बिन लादेन से भी बदतर थी जिसपर अमरीका समेत सारी दुनिया की कड़ी नज़र रहती थी |  ज़रा कोई शरारत करी तुरंत बात अध्यापकों के जरिए मां तक पहुँच जाती |  हँसिए मत, जनाब हम उस ज़माने में भी सी.सी.टीवी तो मामूली बात है, एक तरह से जासूसी उपग्रह की तीक्ष्ण निगरानी में रहे थे | इतने पर भी बात ख़त्म हो जाती तो भी खैरियत थी हद तो तब हो जाती जब दूसरी कक्षाओं के छात्र जिन्हें मां पढ़ाया करती थी आकर मुझ पर धौंस ज़माने के अंदाज़ में कहते कि मेडम को हम दीदी भी कहते हैं इसलिए इस हिसाब से रिश्ते में  हम तुम्हारे मामा हुए | सो हमारी करतूतों को खबर बनाकर मां तक पहुंचाने में संवाददाता रूपी अध्यापकों  से जो कोई कमीं रह जाती उसकी रही सही कसर ये मेरे शकुनी मामाओं की भरी पूरी बिरादरी कर देती | महाभारत में तो दुर्योधन का सत्यानाश कराने वाला  केवल एक ही मामा था, मेरा सोचिए ज़रा जब अपने नंबर बनाने के चक्कर में इतने सारे मामाओं के गिरोह ने मुझे कितने झमेलों में डाला होगा |

उस वर्ष में नवीं कक्षा से पास होकर दसवीं में आया था | शिक्षा सत्र की शुरुआत थी तो ज़ाहिर सी बात है बच्चों में नई कक्षा में आने का एक अलग ही उत्साह झलक रहा था | सभी पुराने ही सहपाठी थे सिवाय दो- तीन नए चेहरों के जो अलग-थलग गुम सुम से बैठे रहते थे | ये वह छात्र थे जो फेल होने के कारण अगली कक्षा में नहीं जा पाए थे | शिक्षकों की तिरस्कार भरी तीर सी चुभती नज़रों से अधिक सहपाठियों के  दंभ और हिकारत भरे आचरण ने उन्हें  शायद कछुए की तरह अपने  ही खोल में रहने को मजबूर कर दिया था | उनके उस चुप्पी के व्यवहार में भी मुझे कुछ अनोखा नज़र नहीं आता क्योंकि प्रेमचंद की ढ़ेरों कहानियाँ का पाठक रह चुका मैं यह दकियानूसी  धारणा पाल चुका था कि विधवा स्त्री की भांति, फेल होने वाले छात्र को भी हँसने का अधिकार नहीं होता |   
उन तथाकथित फिसड्डी बच्चों में एक  मुझे सब से हट  कर लगा | पता नहीं क्या था उसकी मासूम सी खामोश आँखों में,  चुपचाप टकटकी लगाए जैसे शून्य को निहार रहा हो | कुल मिलाकर मुझे वह  भोला भाला खरगोश सा लगता जिसकी सारी चंचलता किसी ने छीन ली हो | समय भी धीरे धीरे बीत रहा था और समय के साथ ही कछुए के खोल में रहने वाले विधवानुमा छात्र भी  विगत में अपने फेल होने का गम भुला कर  अब लगभग सामान्य हो चले थे और कक्षा के अन्य छात्रों के साथ घुल मिल कर हँसी मज़ाक में भी शामिल होने लगे थे | अगर कोई नहीं बदला तो केवल वह खरगोश छात्र और यही मेरे कोतुहल का विषय था | इसी दौरान एक और ख़ास बात होने लगी | पढ़ाते हुए जब भी अध्यापक कोई प्रश्न पूँछ लेते तो जवाब न दे पाने के कारण हमें बेशक बेंचों पर खड़े होने की नौबत आयी हो, पर खरगोश हमेशा साफ़ बच निकलता |  ज़ाहिर सी बात थी कि पिछले साल खरगोश फेल तो जरुर हुआ था पर कुछ भी हो वह मंद बुद्धि नहीं था | प्रेमचंद के कथा साहित्य के बाद अब मुझे अगला ज्ञान सूत्र पंचतंत्र की कहानियों से मिला कि बेटा खरगोश तो खरगोश ही होता है और कछुए को कभी भी ज्यादा घमंड नहीं करना चाहिए | अब हमारा स्कूल था सरकारी और मास्टर जी महासरकारी तो जब भी मास्टरजी आराम करने के मूड में होते तो  उसे ब्लेक बोर्ड पर स्वयं कोई सवाल हल करके सबको समझाने के लिए दे देते जिसे वह काफी बखूबी कर देता | और मज़े की बात यह कि खरगोश के सवाल समझाने का ढंग मास्टर जी से कहीं बेहतर होता | गणित में तो उसे महारत थी ही, जीव विज्ञान में भी उसका कोई सानी नहीं था | आजकल तो स्कूलों में जीवित  जीव जंतुओं पर प्रयोग नहीं किए जाते पर  उन दिनों ऐसा होता था |  जब भी प्रायोगिक कक्षाओं में मेढकों की चीरफाड़ की जाती उसे सबसे अधिक अंक मिलते जबकि हमें मेंढकों का   चीरफाड़ के नाम पर भुरता बनाने के जुर्म में मुर्गा तक  बना दिया जाता |   अब चकराने की बारी हमारी थी और बाल बुद्धि बार बार संकेत कर रही थी कि कछुए महाराज आपकी भलाई खरगोश से दोस्ती करने में ही है |
धीरे धीरे खरगोश से बातचीत शुरू हुई | स्वभाव से ही काफी मददगार था और जहाँ कहीं मेरी गाड़ी अटक जाती तुरंत ऐसे-ऐसे नुक्ते बताता जो किसी अध्यापक ने भी कभी नहीं सिखाये | और तो और जोहड़ के किनारे मेंढक को कैसे पकड़ कर थेले  में बंद किया जाता है, यह ज्ञान जो मास्टर जी की बात तो छोड़िए , किसी किताब में भी नहीं मिलेगी,  इस कला में भी भी खरगोश ने ही पारंगत किया | मेंढक की चीरफाड़ का सटीक और सरलतम तरीके से भी उसीने अवगत कराया | लगता था  डाक्टर बनने की अदम्य इच्छा उसके अवचेतन मन में कहीं न कहीं बहुत गहरे तक अपनी जड़ें जमा कर बैठी हुई थी | 
दोस्ती का रंग धीरे  धीरे परवान  चढने लगा था पर जब कभी भी उसके घर  जाने के लिए कहता तो वह टाल जाता | फिर भी  एक दिन किसी तरह  खरगोश के घर पहुँच ही गया | उसका अपना घर न दिखलाने का कारण कुछ कुछ समझ आने लगा था| साधारण  सी बस्ती में उससे भी साधारण सी झोंपड़ी थी जिसे शायद वह  अपना कहने में भी सकुचा रहा था | पर मेरे बाल मन के  लिए तो वह भी एक अलग ही दुनिया थी | अगर सच कहूँ तो मेरे लिए उस दुनिया में प्रवेश ही अनोखे और अभूतपूर्व आश्चर्य का सुखद सम्मिश्रण था |  अंदर सभी कुछ सामान बहुत ही करीने से लगा हुआ था | घर में मां के अतिरिक्त छोटे भाई- बहन भी थे |   बाद में उसका यही घर स्कूल के अलावा मेरे लिए पढाई का केंद्र भी  बन गया क्योंकि यहाँ पर मुझे खरगोश से काफी मदद मिल जाती थी | एक दिन उसने मुझे स्वयं ही बताया कि पिता का कुछ माह पहले ही दुखद परिस्थितियों में आकस्मिक मृत्यु हो गई थी जिससे परिवार अत्यंत ही विकट आर्थिक और मानसिक संकटों से गुजर रहा है | आर्थिक कठिनाइयों से लड़ने के लिए छुट्टियों में आसपास छोटी-मोटी मजदूरी तक का काम परिवार को  मिलजुल कर करने तक की नौबत आ जाती थी | अब खरगोश की आँखों में व्याप्त सहमापन, सकुचाहट और भय की परछाई का असली कारण शीशे की तरह से साफ़ हो गया | शायद यही वह मुख्य कारण भी रहा होगा जिसने विगत के चंचल खरगोश की स्वछंदता और कुशाग्रता को छीनकर उसे फेल होने तक की कगार पर ला खड़ा किया |
खरगोश मित्र - तब 
खैर समय के साथ उसका आत्मविश्वास धीरे धीरे जैसे फिर लौटने लगा | दसवीं और उसके बाद ग्यारहवीं के रिज़ल्ट में भी वह अच्छे नंबरों से पास हुआ | इसके बाद आगे की शिक्षा के लिए हम दोनों के ही रास्ते अलग-अलग हो गए | हाँ अलबत्ता बीच बीच में कभी कभार आपस में मिलाना जुलना हो जाता था पर बहुत कम | मैं कालेज की पढाई पूरी करके नौकरी के कोल्हू में पिल गया था और उधर पता चला वह टीचर्स ट्रेनिंग कोर्स करके अध्यापन के क्षेत्र में लग गया | हाँ हम दोनों में एक अंतर यह जरूर रहा कि जब मैं नौकरी में लग कर संतुष्ट हो चला था और किताबों को रद्दी वाले के हवाले कर चुका था, खरगोश नौकरी के साथ साथ अपनी पढाई भी जारी रखे हुए था |  साथ ही साथ  अपनी मां और छोटे भाईयों जो अब व्यस्क हो चले थे  के प्रति अपनी जिम्मेदारी बखूबी कुछ ज्यादा ही इस हद तक निभा रहा था कि स्वयं की शादी भी लगातार काफी समय तक टालता रहा |


डाक्टर चन्द्र भान आनंद 
इसके बाद बस यह समझ लीजिए कि लगभग 30 वर्षों तक मेरा खरगोश से किसी भी प्रकार का कोई संपर्क नहीं रहा | जब मिलना  हुआ तो मेरा यह खरगोश मित्र –अब  बन चुका था दिल्ली सरकार के  शिक्षा विभाग का  उप शिक्षा निदेशक नाम : डाक्टर चन्द्र भान आनंद | दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए , उसके बाद एम.ए, फिर एम.फिल और अंत में पी.एच.डी की उपाधि नौकरी करने के साथ साथ ही लेते रहे |   जीवन के खट्टे-मीठे  अनुभवों को इन्होनें बखूबी अपने कविता संग्रह ‘हस्ताक्षर’ में संजोया है |    घोर गरीबी के दलदल से निकल कर  सफलता की इतनी ऊँची सीधी चढने के पीछे था उसका जुझारू व्यक्तित्व, कड़ी मेहनत, सरल निर्मल स्वभाव और सबसे ऊपर परिवार के प्रति जिम्मेदारी निभाने का समर्पित भाव | आजकल डाक्टर चंद्र भान आनंद सेवानिवृत होकर साहित्यिक गतिविधियों में लीन  हैं | पक्षी की उड़ान के बारे में तो आप सभी ने सुना होगा, पर एक निरीह और वक्त के थपेड़ों से अशक्त हुए निर्बल खरगोश की ऊँची उड़ान हम सब के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है | सुखद और स्वस्थ जीवन की कामना मेरे प्यारे खरगोश मित्र डाक्टर चन्द्र भान आनंद |                   

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भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...