Saturday, 17 November 2018

गोरखधंधा : फेयरवेल पार्टी का


जिन्दगी में जहाँ एक ओर तरह तरह की विभिन्नताएं हैं वहीं अगर दूसरी तरफ देखें तो लगता है यह जीवन पूरी तरह से नीरसता से भरा हुआ है  | सच मानिए मैं तो आज तक  भी  यह  निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि  इस जीवन में बहुरंगी चटपटा स्वाद ज्यादा है या बोरियत से भरी जिन्दगी की  घिसी-पिटी कहानी का सूनापन |  नहीं समझ में आया तो चलिए जरा खुलकर समझाता हूँ | क्या कभी-कभी आपको ऐसा नहीं लगता कि आप में किसी विद्वान ज्योतिषी की आत्मा उतर आयी है | आप का ब्रह्मज्ञान आपको पहले से ही बता देता है कि आज रात जिस शादी की पार्टी में जाने वाले हैं उसमें में खाने के मेन्यु में क्या-क्या होगा | आप सिनेमा देख रहें हैं और आगे की सिचुएशन भांप  जाते हैं कि अब तो गाने  का सीन बनता है | मैं यह परम ज्ञान की बात अपने अनुभव के आधार पर ही बता रहा हूँ | बचपन में जब कभी अपना होमवर्क पूरा नहीं हो पाता था तो मुझे तो पहले ही पता चल जाता था कि आज तो मास्टर जी से पिटाई पक्की है और भगवान झूठ न बुलवाए, इस मामले में मेरी भविष्यवाणी कभी गलत भी नहीं हुई | बड़े होकर नौकरी में  भी यही पाया कि दफ़्तर की लगभग  हर मीटिंग की इस हद तक वही कहानी कि उनमें होने वाली कारवाई की रिपोर्ट पहले से ही  तैयार कर लेता था | हर मीटिंग का एक ही हाल : साहब ने गुर्राना है, अफसर ने खिसियाना है और बाबू ने मिमियाँना है और नतीजे के नाम पर ले दे कर वही ढ़ाक के तीन पात |

आज आप को ऐसे ही एक अवसर की बानगी देता हूँ जो मीटिंग तो नहीं वरन समारोह है और समारोह भी एक ख़ास किस्म का जिसका नाम आपने भी अवश्य सुना होगा और सुनना तो क्या खुद शामिल भी रहे होंगें – स्कूल से लेकर शादी ब्याह और नौकरी तक में | जी हाँ, मैं विदाई समारोह या फेयरवेल पार्टी की ही आज बात करने जा रहा हूँ |
  

शादी में दुल्हन की बिदाई तो जरूर ही देखी होगी | वहाँ मानों रोने की प्रतियोगिता चल रही हो जहाँ  हर बन्दा या बंदी एक दूसरे को पीछे पछाड़ने में मशगूल | एक बार देखा दुल्हन अपनी मां के गले से चिपट कर दहाड़ें मार कर आँसू बहा कर रो रही थी और बीच में अचानक रुक कर माँ को याद दिलाया कि मोबाइल का चार्जर कमरे में ही रह गया है, याद करके भिजवा देना | मज़े की बात यह कि  इस हिदायत के बाद रोने का शेष भाग फिर से बदस्तूर जारी हो गया गोया माँ को नहीं वरन मोबाइल के चार्जर को याद करके रोया जा रहा है|

अब आइये अब एक दूसरी तरह के विदाई समारोह  यानि फेयरवेल पार्टी  की बात करते हैं | सच मानें तो इस प्रकार के समारोह मुझे हद दर्जे के नीरस, उबाऊ और नौटंकी से भरे लगते हैं जिनमें दिखावेपन और बनावट का मुल्लमा कूट-कूट के भरा होता है |इनमें हर कोई देवताओं की श्रेणी में अवतरित होने की बलात चेष्टा करते नज़र आते हैं |  जाने वाले मुलाजिम की शान में इतने झूठे-सच्चे कसीदे पढ़े जाते हैं कि बड़े से बड़ा अभिनेता भी शर्म से पानी भरता नज़र आए | मज़े की बात होती है जब जिस अफसर ने झूठी-सच्ची शिकायत करके  पूरी जी-जान लगवा कर अपने मातहत बाबू का ट्रांसफ़र  करवाया हो, उसी की विदाई पार्टी में वही अफसर छाती पीट-पीट कर मुनियादी कर रहे होते हैं कि इस बाबू के जाने से मैं अनाथ हो गया | कभी देखने में आता है कि महा-कामचोर और मक्कार मातहत को बिदाई पार्टी में महान, मेहनती, कर्मठ जैसे सारे  विशेषणों से सुशोभित किया जाता है कि एक बारगी तो लगने लगता है कि बन्दे का नाम अगली बार भारत सरकार द्वारा  पद्मश्री या पद्मभूषण पुरस्कार के लिए शर्तिया पक्का है | अपने सेवा काल में अनगिनत विदाई समारोहों का संचालन करने का मौक़ा मिला और विदाई भाषण में सही मायने में वही मक्खी पर मक्खी नक़ल मार कर एक ही भाषण से काम चलाया बस फर्क था तो नामों का | एक बार तो हद ही हो गई जब गलती से पुराने भाषण को ही पढ़ दिया और पार्टी में मौजूद लोगों ने ध्यान दिलाया कि राम लाल तो कबके रिटायर हो चुके हैं आज तो श्याम लाल की बारी है |

एक बिलकुल ही नई बात भी फिलहाल में ही मुझे पता चली | फेयरवेल पार्टी के खर्चे कम करके घाटे में चल रही कंपनी को भी ऊंचा लाभ कमा कर नवरत्नों की जमात में शामिल किया जा सकता है | फूलों के गुलदस्ते की जगह एक गुलाब का फूल दीजिए और मिठाई की डिबिया में से एक बर्फी का पीस कम कर दीजिए और देखिए फिर कमाल |  बस कुछ यूँ समझ लीजिए कि मुरदे की मूँछ मूँड कर वजन कम कर दिया | पता नहीं ऐसे होनहार प्रकांड अर्थशास्त्री हमारे वित्तमंत्री की नज़रों से कैसे बचे रह गए वरना देश के संकटग्रस्त जी.डी.पी की यह हालत न होती | अब यह बात अलग है कि इन होनहार अर्थशास्त्री के चश्में वाली नज़र  से भी कंपनी के कारखानों में हो रही प्रचंड बर्बादी की ओर ध्यान नहीं जाता जिसकी वजह से बीच मझधार में पडी नैय्या डूबने के कगार पर आ चुकी है | इस प्रकार के महानुभावों के कार्यकलाप की यदि आपको थोड़ी बहुत और झलक चाहिए तो एक बारगी इसी ब्लॉग का एक मजेदार लेख (जिसका लिंक भी साथ ही दिया है)  "जीना इसी का नाम है - गूँज"  लेख जरूर पढ़ लीजिएगा | 
इन विदाई पार्टियों में कई बार लोगों को अपने मन का दबा गुबार निकालने का भी मौक़ा मिल जाता है | मुझे आज तक तक याद है तब मैं हरियाणा के चरखीदादरी में सेवारत था | एक ऐसी ही पार्टी में  श्री टी .के. भट्टाचार्य जोकि तब कार्मिक अधिकारी हुआ करते थे, के गले की सांस की नली में रसगुल्ला फँस गया और उनकी जान पर ही बन आयी थी |
 उस फँसे हुए रसगुल्ले को बाहर निकालने के प्रयत्न में कोई उनकी खोपड़ी पर वार कर रहा था तो कोई पीठ की निहायत ही बेदर्दी से धुनाई कर रहा था | कहने की बात नहीं उन शुभचिंतकों की भीड़ में कई ऐसे पंगेबाज भी शामिल हो गए थे जिन्हें बस केवल अपने हाथों की खुजली मिटानी थी | रसगुल्ला तो खैर बंगाली दादा के हलक से तोप के गोले की तरह बाहर आगया पर सांस आते ही दादा कराहते हुए बोले "अगर इस रसगुल्ले से मैं नहीं मरता तो तुम लोगों के ताबड़तोड़ घूंसों की मार से तो मैं शर्तिया मर जाता | मेरी विदाई तुम फेक्ट्री से कर रहे हो या इस दुनिया से |" जहां तक मुझे पता है उस दिन के बाद दादा ने पार्टियाँ तो बहुत खायीं पर बिना रसगुल्लों के | 

जिन जगहों पर नौकरी में ट्रांसफर आम बात होती है वहां फेयरवेल पार्टी भी उतनी ही आम होती है | अब खुद  को पार्टी लेना जितना सुखदायक लगता है दूसरों को देना उतना ही दिलजलाऊ खासतौर पर जब ऐसी पार्टियों की अर्थ व्यवस्था चंदे के कंधे पर सवार हो | खुद ही सोचिए कैसा लगता है जब उस अफसर के लिए जिसने बरसों आपकी नाक में दम कर रखा था उसकी ही पार्टी का इंतजाम करने के लिए  एक मोटी रकम मन मार कर चंदे की झोली में डालनी पड़े | इस मामले में  मैंने तो और भी अजीबोगरीब हालातों का सामना किया है| देहरादून से दिल्ली मुख्यालय में मेरा  ट्रांसफ़र हुआ तो सभी अधीनस्थ कर्मचारियों में मानों खुशी की लहर दौड़ गई | उन्हें लगा जैसे ऊपर वाले ने उनकी प्रार्थना सुन ली है | दशहरे जैसे उत्सव के माहौल में बाकायदा (रावण की ) फेयरवेल पार्टी हुई और एक अच्छा-खासा उपहार दिया और दिल्ली की रेलगाड़ी में स्टेशन तक जाकर, डिब्बे में बैठाकर दरवाज़ा अच्छी तरह से बंद भी कर दिया| ट्रेन ने जब तक देहरादून स्टेशन का आउटर सिग्नल पार नहीं कर दिया तब तक उस पलटन का एक भी सिपाही अपनी जगह से हिला तक नहीं | अब इसे क्या कहूँ जनता का प्यार या गब्बर का बुखार |

खैर कहते हैं आज तक ऊपर वाले के आगे किस का जोर चला है | शायद इसीलिए भगवान से देहरादून वालों की खुशी ज्यादा दिन तक देखी नहीं गई  और तीन महीने के बाद ही मेरी तैनाती फिर से वापिस उलटे बांस बरेली की तर्ज़ पर देहरादून कर दी गई | वापिस मुझे फिर उसी दफ्तर में पा कर उन सभी कर्मचारियों की शक्लें देखने लायक लग रहीं थी |  दीवार फिल्म के अमिताभ बच्चन की तरह से ईश्वर से उनका मानों विश्वास ही उठ गया था| 

पर उनके पास भी इस शाश्वत सत्य को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं था कि बाप और अफसर अपनी अपनी इच्छा से नहीं मिलते- जो भी मिल जाए ईश्वर का प्रसाद समझ कर प्रेम भाव से सर माथे स्वीकार करने में ही भलाई है | जिसकी किस्मत में जितना लिखा है,  झेलना तो पड़ेगा  ही, चाहे रो कर या हँस कर|  अब किस्मत की मार, छह महीने बाद फिर से मेरे ट्रान्सफर आर्डर आ गए |  लोगों में कानाफूसी शुरू हो गई कि इस बन्दे ने फेयरवेल पार्टी और गिफ्ट लेने के लिए हेड आफिस से सेटिंग कर रखी  है | अब भाई शक का इलाज़ तो लुकमान हकीम के पास भी नहीं हैं, मैं तो किस खेत की मूली हूँ|  खैर पार्टी भी हुई और गिफ्ट भी दिया गया – पहले कंबल था इस बार रुमाल और विदाई भाषण में इशारों-इशारों में मुझे बता भी दिया गया " श्रीमान  अगली बार की पार्टी अगर होगी तो आपके ही खर्चे पर होगी इसलिए जरा सोच-समझ कर ही वापिस आना |"  यह अब आप पर है कि  इसे सच मानें या झूठ पर मुझकों बरसों बाद तक दु:स्वप्न आते रहे कि मुझे फिर से देहरादून भेजा जा रहा है और मैं जंजीर फिल्म के हीरो की तरह से पसीने में सराबोर डर कर नींद से उठ जाता था |                            

Friday, 9 November 2018

ऊँची उड़ान (भाग 3 ): सौरव मिश्रा : सफ़र सुरीले संघर्ष का


शायद अब तक आपको अंदाजा हो गया होगा कि उड़ान श्रंखला के द्वारा मैं आपकी जान-पहचान उन ख़ास लोगों से करवाता हूँ जिन्होंने अपनी मंजिल हासिल करने के लिए बेशुमार संघर्ष करने पड़ें हैं |चलिए आज मेरा लिखा पढ़ने से पहले सुनिए उस सुरीली आवाज को जिसे सुनकर आप खुद भी जानना चाहेंगे उस इंसान  के बारे में जिससे मैं आपको मिलवाना चाह रहा हूँ |नीचे अलग-अलग तरह के गानों के लिंक दिए गए हैं जिन्हें सुनकर आपको इस हरफनमौला गायक की प्रतिभा का बखूबी अंदाजा हो जाएगा|



मेरा यह लेख संगीत के प्रति शौक रखने वाले गंभीर पाठकों को समर्पित  है | मेरी मोटी बुद्धि के अनुसार दुनिया में तीन तरह के लोग होते हैं | पहले जिनके लिए मुहावरा बना है – भैंस  के आगे बीन बजाना, दूसरे जिन्हें आप कहते हैं संगीत के प्रेमी और तीसरे बिरले किस्म के प्राणी जो होते हैं संगीत के उपासक,साधक  |  आज मैं उन्हीं संगीत  के पुजारियों की बात कर रहा हूँ जिनके लिए खान-पान, दीनो-दुनिया और रोजी-रोटी से भी  ऊपर बस एक ही जुनून है और वह है सिर्फ संगीत का | इनकी हर साँस  में बस संगीत की लय, ताल और सरगम बसी होती है | एक ऐसे ही शख्स को मैं भी जानता हूँ जिसके रोम-रोम में संगीत की स्वर लहरियाँ बसी हैं | सुरीली और मनमोहक आवाज के स्वामी  इस नवयुवक का नाम है सौरव मिश्रा जिनकी गायकी का कमाल मैंने सबसे पहले  आज से लगभग तीन वर्ष पूर्व इंटरनेट पर एक यू-ट्यूब की एक म्यूजिक वीडिओ पर देखा  जिसका नाम था बंजारा | आवाज में कुछ एक ऐसी कशिश थी कि दिमाग के किसी कोने में वह जादुई आवाज़  मानों घर कर गई | मिलना तो इस नवयुवक से मेरा आज तक नहीं हुआ पर बीच-बीच में कभी-कभार फोन पर बात हो जाती थी | इस यदा-कदा की बातचीत का इतना प्रभाब जरूर हुआ कि जितनी मधुर आवाज उसके गानों में सुना करता उससे कहीं अधिक शालीनता और नम्रता उसके व्यवहार में महसूस हुई | कला-क्षेत्र के कई नामी-गिरामी बुलंदी छूते घमंड में चूर लोगों को जमीन पर लमलेट  होने में देर नहीं लगती |   कलाकार को दक्षता के अतिरिक्त जिस संवेदना, संस्कार और विनम्रता की जरूरत होती है वह इस नवोदित सितारे में मुझे  अनुभव हुई जोकि उसके उज्जवल भविष्य का सूचक है | मेरे ब्लॉग के अधिकाँश लेख आस-पास के ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों ,  स्थानों या विषय से सम्बंधित होते हैं जिनमें सबसे हटकर कुछ अनोखापन, रोचकता और समाज के लिए सन्देश हो | शायद यही कारण है मुझे लगा कि इस करीब के किरदार के बारे में कुछ लिखूँ | इस शख्स में बहुमुखी प्रतिभा है- यह गायक है , गीतकार है, संगीतकार है; स्टेज पर उतना ही अच्छा लाइव-शो भी करता है | जितनी पकड़ उसे सुगम संगीत पर है उतना ही कौशल उसे शास्त्रीय और सूफी शैली के गीत-संगीत पर भी है | फोन पर ही लम्बी बातचीत सौरव से हुई और जितनी भी जानकारी इस सुरीले, सुशील और सुदर्शन कलाकार के बारे में जुटा पाया वह सब आप भी सुनिए खुद सौरव मिश्रा की ज़ुबानी –
सुरों का सिकंदर : सौरव मिश्रा 

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नाम तो आप मेरा अब तक जान ही गए होंगे – जी हाँ सौरव मिश्रा |जिस उम्र में बच्चों को खेलने-कूदने से ही फुर्सत नहीं होती तब मेरे दिमाग़  में संगीत का जादू उस हद तक घर कर चुका था कि रात-दिन सपने में भी स्वर लहरियाँ सुनाई पड़ती थीं  | मुज़फ्फरनगर-सहारनपुर राजमार्ग पर मुजफ्फरनगर से लगभग सात कि.मी. दूर एक छोटा सा कस्बा है – रोहाना,  वही मेरा जन्म स्थल है  जहाँ से मेरे बचपन और किशोरावस्था की यादें जुड़ी हैं | उत्तर प्रदेश सरकार की रोहाना में एक चीनी मिल थी जिसका अब निजीकरण हो चुका है, उसी चीनी मिल में मेरे पिता काम करते थे | जाहिर सी बात है मेरा बचपन उसी चीनी मिल और उसके टाउनशिप के परिवेश के इर्द-गिर्द रहा |
मेरे संगीत का पहला आलाप रोहाना की इन्हीं गलियों में गूँजा 
मेरे कुछ ख़ास दोस्त आज भी हँसी-मज़ाक में कहते हैं कि तुम्हारी आवाज की मिठास चीनी मिल के मिठास भरे वातावरण की वजह से है, ना कि रियाज़ की वजह से |  खैर दोस्तों की बातें तो दोस्त ही जानें पर मुझे संगीत का शौक काफी हद तक विरासत में मिला है | मेरे पिता के अलावा चाचा-ताऊ भी वहीं चीनी मिल में कार्यरत थे और हम सब एक संयुक्त परिवार की तरह मिल के टाउनशिप के मकानों में साथ ही रहते थे | अब मज़े की बात यह कि संगीत के सभी हद दर्जे के शौक़ीन | इसका मुझे सबसे बड़ा फ़ायदा यह मिला कि जब मैंने संगीत सीखने और व्यवसाय के रूप में चुनने के प्रति गंभीरता दिखाई तो सबने मेरा हौसला बढ़ाया | बात फिर से उसी बचपन की, घर का वातावरण शुरू से ही धार्मिक रहा | मंदिर नियमित रूप से जाते ही थे, वहीं पर भजन भी गाने का मौक़ा मिल जाता था | रोहाना कस्बे  में हर साल रामलीला भी होती थी जिसमें शुरुआत वानर सेना के बन्दर के रूप में की  और बाद में राम के मुख्य पात्र तक की भूमिका निभाने का मौक़ा मिला |आप यह भी कह सकते हैं कि  बन्दर से आदमी बनने का मैं जीता-जागता उदाहरण हूँ |  यहाँ की पारंपरिक  रामलीला में पात्रों द्वारा संवाद चौपाई के रूप में गायन शैली में बोले जाते थे अत: मुझे प्रतिभा दिखाने का स्वत: ही अवसर आसानी से मिल जाता  | दर्शकों से मिलने वाली तालियाँ और प्रोत्साहन यह मेरी जिन्दगी की संगीत की दुनिया से मिलने वाला पहला पुरस्कार था |
रामलीला सौरव ( दाईं ओर)  की प्रतिभा का पहला मंच 
अब मुझे लगाने लगा कि वक्त आ गया है जब संगीत को गंभीरता से सीखने-समझने की आवश्यकता है | इस बीच में मैंने अपने किसी परिचित की सलाह पर निकटवर्ती स्थान पर ही रहने वाले गन्धर्व संगीत महाविद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षक से संगीत सीखना शुरू किया |  इधर यू.पी. बोर्ड से मैं इंटर भी अच्छे नंबरों से पास कर चुका था | गणित और फिजिक्स विषयों में ख़ास तौर से मुझे एक तरह से देखा जाए तो मुझे महारत हासिल थी | अब मेरे सामने जिन्दगी की दुविधा मुँह खोले सामने आ खडी हुई | दिमाग कहता बी.एस.सी. में दाखिला लो, पास करो और लग जाओ रोजी-रोटी के जुगाड़ में जोकि मेरी उस समय की पारिवारिक आर्थिक हालातों की सबसे बड़ी मजबूरी थी |
दुविधा : किस राह पर जाना है 
पर दिल तो मेरा संगीत के पंख लगाकर एक अलग ही आसमान पर उड़ने के सपने ले रहा था |  दिल और दिमाग की लड़ाई आखिरकार बराबरी पर आकर रुकी – मैंने कालेज में दाखिला भी ले लिया और दिल्ली स्थित गन्धर्व संगीत महाविद्यालय में भी एडमीशन के लिए भाग-दौड़ शुरू करदी | काफी कठिन ऑडिशन टेस्ट को पास करने के बाद मुझे इस प्रतिष्ठित संगीत महाविद्यालय में प्रवेश मिल गया|  अब वही बात- दाखिला मिलना एक बात और उस दाखिले के बाद वहां की पढाई को निभाना दूसरी बात | अब पूछिए मत एक तरफ बी.एस.सी के लिए  मुजफ्फरनगर और संगीत के लिए दिल्ली, कुल मिलाकर मेरी हालत दो नावों पर सवार उस इंसान जैसी थी जिसका एक पाँव पाजामें में और दूसरा पतलून में | समझ लीजिए इज्ज़त कहीं से भी सुरक्षित नहीं |  दिल्ली में संगीत की क्लास सुबह नौ बजे से लगती थी जिसके लिए रोहाना में घर से तड़के चार बजे निकल कर स्टेशन से ट्रेन पकड़ता था , साढ़े आठ बजे दिल्ली  तिलक ब्रिज पर ही उतर कर मुंह धोता और चल देता अपने संगीत विद्यालय की ओर | यद्यपि मेरी क्लास सुबह 10 बजे तक समाप्त हो जाती थी पर मुझे वापसी की ट्रेन के लिए शाम चार बजे तक का समय भी बिताना होता था | इसके लिए काफी समय मैं कालेज में रियाज़ ही कर लेता था | रात को 10 बजे तक ही  मेरा वापिस घर पर पहुँचना हो पाता था |
मेरे संघर्ष के सफ़र का साक्षात् गवाह : रोहाना कलां 
तड़के सुबह का वक्त और देर रात - दोनों ही समय स्टेशन से  घर का रास्ता इतना सुनसान- वीरान कि रामसे ब्रदर्स की भूतिया फिल्मों के नज़ारे की याद दिला दें | ऐसे डरावने मंजर में मेरी हिम्मत सिर्फ बजरंग बली की हनुमान चालीसा ही बढाती थी | दिल के किसी कोने में यह विश्वास भी था कि जिसके सर पर संगीत का फ़ितूर हो उसका सचमुच का भूत भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता|
संगीत का फ़ितूर या सचमुच का भूत 
वैसे सच कहूँ तो संगीत का फ़ितूर ही नहीं बल्कि उसका जादू भी पूरी तरह से मेरे सर पर सवार था| गन्धर्व विद्यालय के बाद भी मैंने  एक के बाद एक अन्य विश्वविद्यालयों से संगीत  की विधिवत शिक्षा जारी रखी जिनमें इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय- खेरागढ़ (म.प्र.), प्रयाग संगीत समिति- इलाहबाद , और भातखंडे विश्वविद्यालय- लखनऊ  भी शामिल हैं |
संगीत साधना 
इतना सब करने के बाद अब भविष्य के प्रति मैं कुछ हद तक  निश्चित हो चुका था कि अब कम से कम भूखा तो मरूंगा नहीं | संगीत शिक्षक की नौकरी तो कम  से कम मिल ही जायेगी | मेरी संगीत की शिक्षा में मेरे आदरणीय गुरु सर्वश्री अरिनंदम मुख्योपाध्याय जी, पीताम्बर पाण्डेय जी और सुधांशु बहुगुणा जी का अमूल्य योगदान रहा | प्रसिद्ध पंजाबी सूफी गायक श्री हंस राज हंस जी की छत्र-छाया में मुझे अभी भी बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिल रहा है |
मार्ग दर्शक श्री हँस राज हँस जी 
अपने सभी आदरणीय गुरुओं के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए, मैं अपने दिल की समस्त गहराइयों और स्नेहिल भावनाओं से एक बात जरुर बताना चाहूँगा | अगर इन गुरुओं तक मैं पहुँच पाया और उनसे संगीत की शिक्षा ले पाया तो इसका सबसे बड़ा श्रेय मेरी मां श्रीमती सरोज मिश्रा को  जाता है | वह मेरी मां ही हैं जो ब्रह्ममुहूर्त से भी पहले तीन बजे सिर्फ इसलिए बिना माथे पर कोई शिकन डाले  उठ जाती थीं जिससे मैं तैयार होकर सुबह चार बजे स्टेशन के  लिए रवाना हो सकूँ | हद तो तब हो जाती थी जब मेरे लाख मना करने के बावजूद भी स्टेशन के बियाबान रास्ते पर साथ चल देती थीं | मुझे ही पता है कितनी जिद करने के बाद ही मैं उन्हें आधे रास्ते से वापिस लौटने को मना पाता  था | कहने की बात नहीं पर  ऐसी ममतामयी और साहसी  मां के आगे मेरा सर हमेशा ही आदर से झुका रहेगा |
 
मेरी हिम्मत : मेरी मां - श्रीमती सरोज मिश्रा 

अभी जो मेरा वक्त चल रहा था वह काफी  बदहाली, तंगहाली और संघर्ष का था | निजात पाने के लिए इधर-उधर हाथ-पैर मारने शुरू कर दिए | जहां कहीं भी गाने का मौक़ा गाने का मिलता, हाथ से नहीं जाने देता - चाहे जागरण हो, भजन-संध्या हो या संगीत कार्यक्रम | बस यह समझ लीजिए कि अपना जेब-खर्च खुद ही निकाल लेता और घर वालों पर कोई बोझ नहीं डालता | बची-कुची कसर इधर-उधर ट्यूशन करके पूरी कर देता |

वक्त ने धीरे-धीरे करवट लेनी शुरु कर दी टी सीरिज सुपर केसेट्स इंडस्ट्रीज की हिमाचल प्रदेश में  बद्दी स्थित प्लांट में मुझे काम मिल गया | काम मेरी ही पसंद का था पर मेरी मंजिल तो कुछ और ही थी | चुपके-चुपके टी.वी. चेनेल्स के लिए होने वाले म्यूजिक आडिशन में भी अपना भाग्य  आजमाता रहा अब क्या-क्या बताऊँकहाँ-कहाँ पापड बेले और किस्मत थी कि जैसे ही मंजिल के पास पहुंचतासफलता थी कि फुर्र से सर के ऊपर से निकल जाती| बस समझ लीजिए मानों हिम्मत और तकदीर के बीच जैसे जंग छिड़ी होहौसला मैंने भी नहीं छोड़ा कितने ही कितने ही गायन रिएल्टी शोज़ में भाग लिया | सफलता का किनारा भी धीरे-धीरे नज़र आना शुरू हो गया | सहारा चेनल  का प्राइड आफ़ यू.पी., एम.एच. चेनल के आवाज पंजाब दी, साधना चेनल का भक्ति गायन का  रिएल्टी शो सभी में  जबरदस्त  कामयाबी  और शौहरत दोनों मिली |

जोड़ी हमारी :चाहत -सौरभ 
इस बीच मेरे संगीत के सफ़र में एक साथी भी जुड़ गया जिनका नाम है चाहत कक्कर | मेरे लिए वह दोस्त भी है और साथ ही भाई से बढ़ कर भी है बल्कि सच कहूँ तो  सही मायने में परिवार के सदस्य की तरह | अब हो गए हम एक और एक ग्यारह | चाहत यूँ तो पत्रकारिता में स्नातक हैं पर बाद में साउंड इंजीनियरिंग के तकनीकी क्षेत्र में पढाई करके संगीत की दुनिया से भी मेरी तरह से ही जुड़ गए | अब हम दोनो ही जुट गए एक साथ एक नए जोश से नए गीत बनाते, धुन रचते, रिकार्डिंग करते; साथ ही  साथ संगीत कार्यक्रमों में स्टेज शो भी करते | सरस्वती की दयादृष्टि तो पहले से ही थी अब लक्ष्मी की कृपा भी हम पर होने लगी है  | बंजारा म्यूजिक वीडिओ आया, काफी तारीफ़ मिली | फिर एक के बाद कई और गाने भी आए जिनकी झलक आपको इसी ब्लॉग के लिंक  में देखने को मिल जायेगी | कई फिल्मों के लिए पार्श्व संगीत संगीत भी देने का मौक़ा मिला जैसे -  नारायण, तीन ताल,  बौद्ध भिक्षुक (Buddhist Monk) | रेडियो और टी.वी. विज्ञापनों  के लिए जिंगल भी बना रहे हैं जिनमें से कुछ हो सकता है आपने भी देखे- सुने होंगें | जिन्दगी लगातार व्यस्त होती जा रही है पर संगीत की दुनिया में मसरूफ़िअत का भी अलग ही मज़ा है, नशा है | हमारे लिए सफलता का यही मूल मन्त्र है “ सितारों के आगे जहां और भी है, अभी इश्क के इम्तहां और भी हैं”| 
सितारों से आगे जहां और भी है 
आगे कभी कुछ और बताने लायक हुआ तो आपके साथ अपनी खुशियाँ जरूर बाटूँगा क्योंकि मैं जानता हूँ कि एक कलाकार के सुख-द:ख के सच्चे साथी उसके प्रशंसक और आप जैसे चाहने वाले ही होते हैं| अपनी कहानी फिलहाल अब यहीं समाप्त करता हूँ |           
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तो दोस्तों, हालाँकि मुझे लग रहा है कि लेख ज्यादा लंबा हो रहा है इसलिए  फिलहाल की कहानी केवल सौरव के बारे में ही है | इस जोड़ी के चाहत कक्कड़ के बारे में लेख फिर किसी समय, जिसके लिए आपको करना पडेगा कुछ इंतज़ार | जैसा मैंने पहले भी कहा मेरा आज का यह लेख एक संघर्षशील संगीत साधक के बारे में है, उसकी लगन  और हर दिक्कत के बावजूद अपनी मंजिल को पाने की पुरजोर कोशिश के बारे में है | यह उभरता सितारा एक छोटे से कस्बे की बहुत ही साधारण परिवार की  पृष्ठभूमि से निकला गुदड़ी का लाल है जिसे आप एक दिन निश्चित रूप से सफलता के अंतरिक्ष में चमकते हुए पाएंगे- यह मेरा अनुमान नहीं विश्वास है, शुभकामनाओं सहित भविष्यवाणी है | 

Thursday, 1 November 2018

सिरमौर : राजा का बन और उजाड़ नगरी


गिरी नदी और पर्वतों के बीच आज का सिरमौर  गाँव 

हिमाचल प्रदेश में एक जिला है सिरमौर जहाँ पर पावंटा साहिब नाम का सिक्खों का प्रमुख धार्मिक स्थल है | यहीं से लगभग 12 कि.मी. दूर राजबन स्थित है | यहाँ पर भारत सरकार की एक सीमेंट फेक्ट्री है और रक्षा मंत्रालय के अधीन डी.आर.डी.ओ. का अत्यंत संवेदनशील और महत्वपूर्ण संस्थान भी है | राजबन का नाम  जितना सुन्दर है उससे अधिक सुन्दर यह जगह है|  मन को खुश करने को आपको जो भी चाहिए सब कुछ यहाँ है – घना जंगल, पर्वत, गिरी नदी, प्रदूषण रहित स्वच्छ, शांत वातावरण, सुहावना मौसम और सबसे बढ़कर प्यारे सीधे-सादे इंसान, कहाँ तक इसकी तारीफ़ गिनवाऊं | बस कुछ यूँ समझ लीजिए कि यहाँ पहुँच कर आपको लगेगा कि यदि देवलोक कहीं है तो यहीं है | ऊँचें-ऊँचे साल के वृक्ष जिनसे गर्मियों के मौसम में गिरते हुए पराग-कणों की भीनी-भीनी सुगंध पूरे वातावरण को आलोकिक छटा में रंग देती है | कैसी विडम्बना है कि जब यहाँ दिल्ली में  खुद इंसान के पैदा किए दमघोंटू, धूल-धक्कड़ और धुएं से भरे वातावरण में सांस लेने की मजबूरी है, ईश्वर ने  यहाँ अपनी स्नेहिल गोद में हमें सब कुछ स्वच्छ, निर्मल और साफ़-सुथरा दिया है| दिल्ली में यमुना इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि उसे देखने की भी जरूरत नहीं है | जब चार्टेड बस से आफिस जाता था तो ऊँघते हुए, बंद आँखों से भी बदबू का भभका आने पर पता लग जाता था कि यमुना के कालिंदी कुंज के पुल के ऊपर से जा रहा हूँ | यही पवित्र यमुना नदी  पांवटा साहिब में इतनी निर्मल है कि तलहटी के पत्थर तक साफ़ नज़र आते हैं |
  
आप पूछ सकते हैं इस जगह का नाम राजबन क्यों है ? राजबन का अर्थ है राजा का वन यानि राजा का  जंगल | अब यह इस जंगल में राजा कहाँ से आ गया यह जानने के लिए आप को राजबन से और आगे सड़क के रास्ते ऊपर  लगभग 4 कि.मी. चलना पड़ेगा | नीचे पर्वतों के बीच  खाई में एक छोटा सा  गाँव बसा है जिसका नाम है सिरमौर, जिसके पीछे गिरी नदी बह रही है  | वही सिरमौर जिसके नाम पर इस पूरे जिले का नाम पड़ा है | ज्यादातर मामलों मे जिले के मुख्यालय के नाम पर ही जिले का नाम पड़ता है पर यहाँ की बात ही निराली है | इस जिले का मुख्यालय  है नाहन नाम के शहर में पर यह जिला सिरमौर के नाम से जाना जाता है | सिरमौर पर राजपूत वंश के शासकों ने शासन किया था| सिरमौर भारत में एक स्वतंत्र साम्राज्य था, जिसकी स्थापना जैसलमेर के राजा रसलु ने लगभग वर्ष 1090 में की थी |  इनके एक पुरखे का नाम सिरमौर था जिसके नाम पर इन्होंने अपने राज्य को सिरमौर का  नाम दिया गया था। बाद में अपने मुख्य शहर नाहन के नाम पर ही  राज्य को भी  नाहन  के नाम से ही  जाना जाता रहा ।
कहा जाता है कि सबसे पहले सिरमौर के राजा का महल उसी जगह पर था जहां आज यह सिरमौर नाम का गाँव है |  दूसरे की सुनी-सुनाई बात पर क्या जाना, हाँ इतना जरूर है कि लगभग 40 साल पहले, जब मेरी पहली पोस्टिंग राजबन सीमेंट फेक्ट्री में हुई थी तब एक दिन घूमते-घूमते सिरमौर गाँव तक गया था और वहाँ पर उस पुराने महल के खंडहर मैंने स्वयं देखे थे | समय की मार के साथ उन खंडहरों का भी अब नामों-निशान मिट चुका है | उन खंडहरों के पत्थरों तक को गाँव के लोगों ने अपने मकान बनाने में लगा दिया | हाँ अगर किसी धरोहर को उनकी छूने की हिम्मत नहीं हुई तो वह थी  प्राचीन शिव मंदिर और गुफ़ा वाला मंदिर,  जो कि अभी भी सुरक्षित है | मेरे  पुराने मित्र श्री मुन्ना राम ने,  जो सिरमौर गाँव के ही निवासी हैं, उस जगह के कुछ फोटो  उपलब्ध कराये  हैं |


श्री मुन्नाराम

गुफ़ा मंदिर 


प्राचीन गुफा वाला मंदिर 




महल की प्राचीन मूर्तियों के अवशेष ( मंदिर के सभी फोटो श्री मुन्ना राम के सौजन्य से प्राप्त हुए )
उस भव्य महल के नष्ट होने की भी अपनी ही एक कहानी है जिससे लगभग हर सिरमौर वासी वाकिफ़ है | कहा जाता है कि राजा ने  नदी के आर-पार पर्वत की चोटियों पर रस्सी बंधवाई और एक नटनी को चुनौती दी कि अगर तुम इस रस्सी पर चलकर नदी पार करलो तो आधा राज्य ईनाम में दे दिया जाएगा | चुनौती स्वीकार करके नटनी ने रस्सी पर चलना शुरू किया और जब आधा रास्ता पूरा करके नदी के बीचों-बीच पहुँची तो आधा राज्य गवाँ देने के डर से राजा की नीयत में खोट आ गया और उसने रस्सी कटवा दी | नटनी ऊँचाई से गिरकर मर गई पर मरने से पहले राजा को श्राप दे गई कि तुम्हारा यह सारा राज-पाट नष्ट हो जाएगा | होनी की करनी भी कुछ ऐसी ही हुई कि बाद में वह महल भी किसी प्राकृतिक आपदा कारणवश मिट्टी में मिल गया |  यहाँ का राजवंश लगता है बाद में नाहन जाकर बस गया  |
मेरे पिता, जोकि एक प्रख्यात कवि थे,  अक्सर मेरे पास राजबन भी आया करते थे | उन दिनों के दौरान उन्हें  एक बार सिरमौर के खंडहर  दिखाने ले गया |  खंडहरों को देखकर उनके कवि मानस-पटल से एक कविता ने जन्म लिया जिसमें राजा और नटनी की कहानी को एक नया ही आयाम मिला | आप भी आनंद लीजिए उस कविता का :    
    

कवि  स्व० श्री रमेश कौशिक 
राजा और नटनी


नटनी को
वचन दिया राजा ने 

यदि कच्चे धागे पर चलकर
कर लेगी नदी पार
और वापस चली आएगी
तो आधा राजपाट उसका पाएगी |

नटनी ने विश्वास किया
राजा का 

आखिरकार प्रजा थी उसकी
कच्चे धागे पर चलकर
जब नदी पार कर ली उसने
और लगी वापस आने
तब राजा ने
आधा राजपाट देने के डर से
बीच धार कटवाया धागा |

गिरी नदी में नटनी
मर कर दूर बह गई
तब से नाम नदी का पड़ गया ‘गिरी’
विशवासघात के कारण
राजा का सिरमौर राज्य हो गया नष्ट |

अब आप कहेंगें
राजा बहुत बुरा था
नटनी से छलघात किया था
लेकिन वह भी तो मूरख थी
क्यों विश्वास किया राजा का |

राज अगर मिल भी जाता
तो भी क्या करती –
नाचा करती |
क्या करती .... बस नाचा करती 😄


लगभग चालीस वर्ष पहले लिखी यह कविता आज के राजनीतिक सन्दर्भ में भी सन्देश दे रही है कि अयोग्य व्यक्ति के हाथ में सत्ता आना कितना हानिकारक हो सकता है | 

Saturday, 27 October 2018

इंसानियत का सांता क्लाज

दावत की तैयारी 
सुबह-सवेरे घर के सामने सड़क पर एक अजीबो-गरीब नज़ारा रोज़ ही नज़र आ जाता है | गली-मौहल्ले के सारे कुत्ते बड़ी बेसब्री से पीपल के पेड़ के नीचे झुण्ड में खड़े होकर मानों किसी का इंतज़ार कर रहें हों | वे सब सच में इंतज़ार ही कर रहे होते हैं जो पूरा होता है जब वे देखते हैं कि दूर से एक साइकिल ठेला धीरे-धीरे सड़क पर आरहा है | उस ठेले पर दो-तीन बड़े-बड़े कचरे के थेले लदे होते हैं | ठेले वाले की हालत भी लगभग ठेले  और उस पर लदे कचरे जैसी ही होती है | कमीज़-पतलून पहने  दुबला-पतला शरीर जिस पर  सर्दी-गरमी से बचने के लिए  सिर पर  साफ़े की तरह से  बाँधा हुआ कपड़ा और सबसे अलग चेहरे  पर अत्यंत आकर्षक,निर्मल, मनमोहक  मुस्कान | पीपल के पेड़ के नीचे पहुँचते ही सारे कुत्ते पूँछ हिलाते उसके कचरा-ठेले को घेर लेते हैं | यह शख्स धीरे से से अपने साइकिल ठेले की गद्दी से उतरता है और आस-पास की जगह पर बिखरा हुआ कूड़ा ठेले में रखे थेलों में भरना देता है | इस बीच इक्कठे हुए कुत्तों की जमात का सब्र का बाँध जैसे टूटना शुरू हो जाता है और सब दबी हुई आवाज़ में कूँ-कूँ करते एक अनोखे राग को  गा कर मानों ध्यान खींचने की कोशिश करने लगते हैं | अब उस शख्स का एक नया ही रूप नज़र आने लगता है | वह अपने उन थेलों  में से उस एक थेले में हाथ डालता है जिसमें उसने कूड़ा नहीं वरन लोगों का फेंका हुआ बचा-कुचा खाने का सामान, रोटियाँ,दाल-सब्जी वगैरा भरा हुआ है | बड़े प्यार से अपने हाथ से वह उस खाने को इन निरीह भूखे-प्यासे जानवरों को खिलाता है जिसे हम तथाकथित सभ्य और पढ़े-लिखे होने का दंभ भरने वाले समाज ने बर्बाद करके फेंक दिया | ऐसे लगता है जैसे  भूख के मारे कुत्तों की मानों दावत हो रही है और मेरी बात तो छोडिए, शायद उन कुत्तों को उस इंसान में सांता क्लाज का रूप नज़र आता होगा | अगर वे बोल सकते तो शायद उनके यही शब्द होते : अन्नदाता सुखी भव : ( मुझे भोजन देने वाले तू सुखी रह)| 
हमारा सांता क्लाज - श्रीपत 

नकली सांता क्लाज तो 
उपहार देने के लिए क्रिसमस के मौके पर ही में एक ही बार आता है  पर यह इंसानी फ़रिश्ता  तो रोज़ ही हाज़िर हो जाता है एक ऐसा उपहार देने के लिए जो अनमोल है | भूख से बढ़ कर कोई कष्ट नहीं, जो उस कष्ट को हरे उससे बढकर कोई इंसान नहीं | जो भी यह कष्ट मिटाता है भूखे-प्यासे, दुनिया के ठुकराए मूक-निरीह जीव जंतुओं का, मेरे मानना है कि  वह इंसान से भी ऊपर देवताओं की श्रेणी में आता है | हममें से शायद ही कुछ लोग होंगें जो खुद के  बचे-कुचे खाने को भूखे-प्यासे जानवरों तक पहुंचाने की कोशिश करते हों | यह इंसान तो हालाँकि अपनी सहूलियत के अनुसार उस खाने को सीधे बड़े कचरे घर में भी डाल सकता है पर गरीब अशिक्षित सांता  क्लाज की सोच परोपकार से भरी हुई है | आज के जमाने में जब लोग पशु कल्याण के नाम पर अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं, अखबारों में फोटो छपवाने के लिए राजनीति कर रहे हैं, पशुओं का चारा तक हजम कर रहें हैं,  बड़े-बड़े एन.जी. ओ. चला रहे हैं और मिलने वाली सहायता राशि डकार रहे हैं , हमारा सांता क्लाज खामोशी से अपनी नेकी की राह पर अकेला चला जा रहा है | उसे कोई आस नहीं किसी प्रचार की, किसी पुरस्कार की | उसका जीवन संघर्ष केन्द्रित है अपना खुद का  पेट भरने में और सड़क पर आवारा  घूमते-फिरते इन भूखे-प्यासे कुत्तों को खाना खिलाने में |आज उस प्यारे इंसान से बात करने पर पता चला कि उसका नाम श्रीपत है जो रोजी-रोटी की तलाश में सुदूर गोरखपुर से नोएडा आया है | हम सब को बहुत कुछ अभी भी सीखना बाकी है इस सांता क्लाज से – अपने  श्रीपत से | हम सब को प्रार्थना करनी चाहिए ईश्वर से कि श्रीपत और उसके जैसी पशु-पक्षियों के लिए भली सोच रखने वाले हर इंसान का भला हो |   
अन्न दाता सुखी भव:

Thursday, 25 October 2018

कण-कण में भगवान (भाग -2 ) – बचपन की बहार और स्कूल की पुकार

यह बात भी बचपन के दिनों की ही है | उड़ीसा से हम लोग शिफ्ट होकर दिल्ली में ही आ चुके थे | मेरी उम्र रही होगी यही कोई नौ-दस बरस की | किराए के मकान में दिल्ली की यमुना-पार की ही एक कॉलोनी कृष्णानगर में रहते थे | अब यमुना पार के बारे में तो आपने भी यह सुना ही होगा कि “नानक दुखिया सब संसार और सारे दुखिया यमुना पार” | तो इसी यमुना-पार के इलाके में घर से थोड़ी ही दूर पर मेरा स्कूल था | यह स्कूल आठवी कक्षा तक के लिए था और दिल्ली नगर निगम द्वारा संचालित था इसलिए आम बोलचाल की भाषा में इसे चुंगी का स्कूल भी कहते थे | इसकी बिल्डिंग बैरकनुमा शैली में थी जिसकी छत एस्बेस्टस शीट्स की थी | जमीन पर ही टाट-पट्टी पर पालथी मार कर बैठा करते थे जिसकी बदौलत आज तक अपने घुटने ईश्वर ने दुरस्त रखे हैं | इसी वजह से ही  हर मौसम का भरपूर मज़ा भी  लिया करते थे | गरमी में पसीने से तरबतर, कडकती सर्दी में बला की ठिठुरन जिसमें अगर मास्टर जी को दया आ जाती तो क्लास को बाहर मैदान में धूप में बिठा देते थे | पर भाई हमारे लिए सब से मस्ती का मौसम होता बरसात का | ऊपर से छत टपकती और बरसात का पानी सड़क से होता स्कूल के कमरों तक निरीक्षण करने आजाता | ऐसे में स्कूल की हो जाती छुट्टी हम बच्चों की तो सच में मौज आजाती | बरसती बारिश में घुटनों तक पानी में भीगते पानी में शोर मचाते घर की ओर घुड़दौड़ करने का मज़ा ही कुछ और ही था |               
अगर मैं ठीक से याद कर पा रहा हूँ तो तब तक उस स्कूल में बिजली नाम की विलासिता ने अवतार नहीं लिया था | अब आप ही बताइये, आठ पैसे प्रति माह की फ़ीस में आपको और क्या मिलता |अब इस आठ पैसे के पीछे भी कई बार काण्ड हो जाते| मास्टर जी फ़ीस के हमारे  दस के सिक्के में से दो पैसे वापिस नहीं करते और बाद में किसी लड़के को पास के पनवाड़ी की दुकान भेजकर इस काले धन की एकत्रित जमापूंजी से पान मंगवा कर खाया करते थे | अब विद्रोही छात्र पैदा करने का सारा ठेका जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी ने ही तो लिया नहीं हैं | ऐसे छात्र अब भी हैं और हमारे ज़माने में भी थे | एक बच्चा बुला लाया अपने कड़क बापू को और पहुँच गई शिकायत हेडमास्टर तक | हमारे मास्टर जी की उस समय किरकिरी तो खूब हुई पर बाद में वो उस शिकायती बच्चे के पीछे हमेशा के लिए हाथ धो कर ऐसे पड़ गए जैसे दलाई लामा के पीछे चीन |
अब एक आश्चर्य की बात – हमें होल्डर या कलम से लिखने की ही अनुमति होती थी | किसी भी विद्यार्थी के  लिए अपने पास पेन रखना उतना ही बड़ा गुनाह समझा जाता जितना किसी तपस्वी के कमंडल में दारु | सो समय-समय पर बाकायदा छापे पड़ा करते जिनमें मास्टर जी सबके बस्तों की तलाशी लेते और जिसके पास भी पेन बरामद होता, वह कोहिनूर हीरे की तरह जब्त होकर मास्टर जी की मिलकियत बनकर उनके घर के खजाने में सदा के लिए जमा हो जाता | मेरे रिश्ते के मामा भी उसी स्कूल में पढ़ाया करते थे | जब भी उनके घर जाता तो मैं उनके विशाल पेन भण्डार से दो-चार पेन हथिया कर भांजे होने का फर्ज बखूबी निभा दिया करता |    
बच्चों को सुधारने और अच्छी आदतें डालने के लिए नए-नए तरीके तब भी ईजाद हो ही जाते थे | एक बार मास्टर जी ने क्लास के सारे बच्चों को एक-एक पतली सी कॉपी थमा दी और बोले कि जब भी कोई भला काम करो इस कॉपी में लिखना जिसे नियमित रूप से जांचा जाएगा | अब मास्टर जी तो उस भलमनसाहत की पुस्तिका को थमा कर मुक्त हो गए पर हम सब बच्चों के गले में आफत की घंटी बंध गई | हालत यह कि पढाई-लिखाई गई तेल लेने, सोते जागते यही फितूर रहता कि अब सुन्दर काण्ड में कौन सी चौपाई लिखनी है | सो हुआ कुछ यूँ कि  हमेशा की तरह क्लास के  बच्चे समूह बनाकर दोपहर के खाने की छुट्टी में टाट-पट्टी पर जमीन बैठ कर ही खाना खा रहे थे | मेरे बड़े भाई साहब, जो मेरे से लगभग दो वर्ष ही बड़े थे, वह भी उस वक्त साथ ही आ बैठते थे |  अब आलम यह कि हमारे भाई जी बहुत ही आग्रह करके अपने साथ में बैठे बच्चे जबरदस्त ना-नुकर के बावजूद उसकी रोटी पर आलू की सब्जी के चंद टुकड़े झोंक ही दिए | यहाँ तक तो सब ठीक था , पर उस शाम जब उत्सुकतावश मैंने  उनकी “भलमानस पुस्तिका” को चोरी से पढ़ा तो उनके उस दिन के आदर्श कार्य में लिखा हुआ था : “आज मैंने एक भूखे को खाना खिलाया”| आज भी उस बात को याद करते हुए मुझे हँसी आ जाती है | सच में, जब किसी भी काम का बलपूर्वक अनिवार्य दैनिक कोटा निर्धारित कर दिया जाता है तब वही हालत होती है जिसमें जबरदस्ती उस अंधे को भी सड़क पार करवा दी जाती है जो बेचारा पार करना ही नहीं चाह रहा |
अब सोच तो आप भी रहे होंगे कि जनाब किस्से तो दुनिया जहान के सुना रहे हो, खुद क्या राम जी की गैया थे | सही सोचा आपने, पंगे तो मैं भी लेता था पर ज़रा छोटी-मोटी श्रेणी के ही | एक बार मास्टर जी ने  निबंध लिखने को दिया – मेरी पहली रेल यात्रा | अब शाम को बैठ कर किसी तरह जल्दबाजी में होम वर्क जैसे-तैसे निबटाया क्योकि दोस्तों के साथ खेलने जाना था | अगले दिन जब कापियों की जांच करी गई तो मास्टर जी ने मेरा नाम पुकारा और बोले इससे पहले मैं तुम्हे मुर्गे के रूप में बदल दूँ , जो निबंध लिखा है उसे ज़रा पढ़ कर सारी क्लास को भी सुना दो | सहमते झिझकते मैंने कुछ यूँ पढ़ना शुरू किया :
मेरी पहली रेल यात्रा     
मुझे नानी के घर जाना था | मुझे रेल से जाना था | मैं रेलवे स्टेशन गया | रेल आयी | मैं रेल के डब्बे में बैठ गया | मैं खिड़की के पास की सीट पर बैठ गया | रेल चल पडी | ठंडी ठंडी हवा में मुझे नींद आ गयी | मैं सो गया | जब नींद खुली तो नानी के घर वाला स्टेशन आ गया था | मैं स्टेशन पर उतर कर नानी के घर चला गया |
  समाप्त
उस भरे- पूरे निबंध का यह बिकनी स्वरूप सुनकर पूरी क्लास जोरों से हँस रही थी और गुरु द्रोणाचार्य हो रहे थे  गुस्से से लाल पीले | अपने अर्जुन से ऐसी उम्मीद उन्हें हरगिज नहीं थी कि निबंध के नाम पर उन्हीं को चकमा दे देगा | अपने मोटे  चश्में से गोल-गोल कंचे जैसी आँखे तरेर कर बोले – “बेटा अब बन जा मुर्गा| अगर तू निबंध लिख कर नहीं लाता तो सिर्फ तुझे हाथ उठवा कोने में खड़ा करवा देता, पर तुझे मुर्गा इसलिए बनाया जा रहा है कि तूने मुझे बुड़बक  समझा |” यह मेरी जिन्दगी का पहला सबक था कि जहां पतलून पहन कर जाना हो वहां चड्डी पहन कर जाने से मुसीबत खड़ी हो जाती है|       
उस यादगार चुंगी के स्कूल में, मैं तीन वर्ष रहा और फिर समय के साथ, कृष्णा नगर का मकान बदला, स्कूल बदला, कॉलेज बदला और इन सब बदलते परिवेश के बीच मैं भी बदलता चला गया | नहीं बदली तो सिर्फ एक मीठी सी याद जो मेरे उस चकाचौंध से दूर, सीधे-साधे, सरल-सच्चे, गरीब स्कूल की  जिसके चंद सहपाठियों (चंद्रशेखर, हरिओम)   और कर्मठ अध्यापकों  जैसे आ० गोपीराम जी, छोटे लाल जी, राजेन्द्र शर्मा जी  तक के नाम पचास वर्षों के अंतराल के बाद आज  भी याद हैं | दरअसल विद्यालय कभी भी छोटा या बड़ा उसकी ब्रांड इमेज,  साज-सज्जा या चमक दमक से नहीं होता | ये तो विद्या के मंदिर होतें हैं, जहाँ से  इनके  ज्ञान के प्रकाश को नि:स्वार्थ भाव से उत्सर्जित किया जाता है | विद्यालय वह स्थल है जहाँ शिक्षा प्रदान की जाती है। विद्यालय एक ऐसी संस्था है जहाँ बच्चों के शारीरिक,मानसिक, बौद्धिक एवं नैतिक गुणों का विकास होता है। आजकल इन्हीं  विद्या के मंदिरों में व्यावसायिकता का अंश घर कर गया है जिससे आज के अधिकाँश छात्रों में न तो अपने विद्यालयों के प्रति सम्मान रह गया है और न ही अध्यापकों के प्रति श्रद्धा | दूसरे शब्दों में कहें तो जब मंदिरों में से भक्ति विलुप्त हो गई तो मंदिर और दूकान में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाता |
अब फिर आपके समय चक्र को वर्ष 1967 से सीधे 2004 पर ले आता हूँ | दिल्ली का पूरा नक्शा ही बदल चुका था | हम लोग भी नोएडा मैं अपना घोंसला स्थापित कर चुके थे | मेरे पिता श्री रमेश कौशिक का साहित्यिक लेखन कार्य पूरे जोर-शोर से चरम पर चल रहा था | कई कविता संग्रह एक के बाद एक प्रकाशित हो रहे थे | एक दिन उन्होंने मुझे शाहदरा के प्रकाशक तक अपनी पुस्तक की पांडुलिपि पहुँचाने का काम सौंपा | नोएडा से शाहदरा कोई ज्यादा दूर तो था नहीं,  होगा यही कोई दस- बारह किलोमीटर , सो तुरंत स्कूटर उठा कर निकल लिया | काम निपटा कर , जब वापिस लौट रहा था तो रास्ते में कृष्णा नगर के पास से गुजरते हुए  पता नहीं कैसे अचानक दिमाग में विचार कौंधा कि क्यों न आज अपने उस चुंगी वाले स्कूल को जा कर देखूं | दिमाग ने दुबारा सोचने का मौक़ा ही नहीं दिया और मैंने किसी मंत्रमुग्ध यंत्रचलित रोबोट की तरह स्कूटर का रुख स्कूल की दिशा की ओर मोड़ दिया | गली-गलियारे, सडक, चौराहे सब अपना पुराना चौला बदल कर नए रूप में आ चुके थे जोकि स्वाभाविक भी था | जब मैं तब का तीन फुटिया बालक अब छह फीट का मलंग हो सकता हूँ तो इनको भी पूरा अधिकार था समयानुसार परिवर्तन का |
खैर, अता–पता पूँछता, अटकता-भटकता आखिर ख़ोज ही निकाला अपने पुराने नालंदा-तक्षशिला को | पुराना बैरकनुमा भवन अब बहुमंजिली इमारत में बदल चुका था | रविवार का  दिन होने के कारण स्कूल में शांति थी | स्कूल के परिसर में और अन्दर तक चला जा रहा था कि बीच मैदान में आकर अचानक ठिठक गया | आँखों ने कुछ ऐसा देखा जिसे देख कर भी विश्वास करने को दिल नहीं मान रहा था | सामने उन बहुमंजली इमारतों से चारों ओर से घिरे उस मैदान के एक हिस्से में कुछ तोड़-फोड़  का काम हो रहा था और यह तोड़-फोड़ थी उस पुरानी एस्बेस्टस की छतों वाली बैरक को पूरी तरह से हटाने के लिए | ये वही कमरे थी जिनमें मैं पढ़ा करता था | मैं वही मैदान में एक तरफ बैठ कर खामोशी से ताक रहा था उस खंडहरनुमा इमारत को जो मेहमान थी केवल आज भर की | शायद उन्हें इंतज़ार था अंतिम समय में मेरे जैसे भावुक, संवेदनशील इंसान की जिसकी नियति में पुरानी यादों को अपनी गठरी में जिन्दगी भर ढ़ोते रहना है | छत ढह चुकी थी पर ब्लेक बोर्ड अन्दर से मुझे बड़ी दयनीय दृष्टि से निहार रहा था | यह  वही ब्लेक बोर्ड था जिस पर मैंने टाट-पट्टी  पर बैठ कर जिन्दगी के प्रारंभिक पाठ पढ़े और सीखे | यह याद आज भी मेरे रोम-रोम में सिहरन भर देती है | क्या इसे भी मैं केवल एक संयोग ही कहूँ कि अंतिम दिन अंतिम क्षणों में मेरे बचपन का शिक्षा स्थल मुझे खींच कर अपने पास खींच कर ले आया | क्या यह उस ज्ञान के मंदिर में बसी कोई पवित्र आत्मा थी जो ईश्वर का ही रूप थी |
ऐसा ही मिलता-जुलता अनुभव मुझे एक और अवसर पर भी हुआ जिसे आप पथरी की पुकार में पढ़ सकते हैं | यह तो आप भी मानेंगे कि एक ही प्रकार के अनुभव दोहराव  मात्र संयोग नहीं हो सकता  | सच बताइये क्या कभी-कभी आपको नहीं लगता कि कुछ तो है ऐसा आलोकिक जिसे आप शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते, केवल महसूस कर सकते हैं और वह भी दिमाग से नहीं सिर्फ और सिर्फ अपने दिल से | 

Monday, 22 October 2018

कण-कण में भगवान ( भाग 1 ) : बचपन की बहार, पथरी की पुकार

शीर्षक पढ़ कर आज आप सोच रहे होंगें कि आज तो कौशिक जी कुछ धार्मिक प्रवचन देने के मूड में लग रहे हैं | आप थोड़े सही हैं पर थोड़े से गलत | आज मैं कोई हंसी मजाक से भरपूर कोई किस्सा नहीं सुना रहा | लेकिन बाकी किस्सों की तरह से है यह भी आपबीती जिसने मेरी सोच को एक नई दिशा दी है | अब आप उस सोच को जाहिल, अपरिपक्व, अंधविश्वास से परिपूर्ण भी कह सकते हैं, मुझे कोई आपत्ति नहीं पर मैं भी क्या करूँ जब एक विशेष प्रकार की कई घटनाएं मेरे साथ घटित हों तो मैं भी उन्हें मात्र संयोग कह कर टाल भी तो नहीं सकता | 


सपनों की दुनिया 
चलिए बात शुरू करता हूँ अपने बचपन से जिसकी सबसे पुरानी यादें जो ज़हन में अभी तक अंकित हैं वो है जब मेरी उम्र मात्र चार वर्ष की होगी| शायद वह 1960 का साल रहा होगा | शायद कुछ आर्थिक हालातों की मजबूरियां ऐसी रहीं कि नाना-नानी के पास रहना पड़ रहा था | म्रेरे पिता उन दिनों नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कारपोरेशन के उडीसा स्थित जिला क्योंझार के दूर दराज के घने जंगलों में डोनीमलाई लोह अयस्क प्रोजेक्ट में मेरी मां, मेरे बड़े भाई और छोटी बहन के साथ अपनी नई नौकरी पर कार्यरत थे | 

मेरे नाना 

मेरे नाना रेलवे में स्टेशन मास्टर थे और नाना-नानी के लाड़-प्यार से भरपूर मेरा बचपन मस्ती में बीत रहा था | बीच-बीच में नाना का तबादला एक से दूसरे स्टेशनों पर होता रहता था | ये सभी जगह हरिद्वार के आस-पास की ही थी जैसे काकाठेर, डौसनी, पथरी | सारे स्टेशन पर मानों अपना ही एक छत्र राज्य लगता क्योंकि बालमन में गहरे तक यह बात कहीं समा गई थी कि नाना ही इस सारे स्टेशन के मालिक हैं | स्टेशन पर काम करने वाले खलासी, मजदूर , केबिनमेन , पॉइंट्समेन और न जाने कौन कौन सभी मुझे सर माथे चढ़ाए रखते | स्टेशनों पर आती-जाती गाड़ियों को बड़ी उत्सुकता से निहारा करता | स्टेशन का प्लेटफार्म मानों एक तरह से मेरा क्रीडा स्थल बन गया था | स्टेशन मास्टर के कमरे में बैठ कर वहाँ लगे टेलीफोन, लोहे का टोकन गोला निकालने वाले मशीन, टिटहरी की तरह टिक-टिक करने वाली टेलीग्राफ मशीन को देखकर मुझे लगता जैसे किसी जादू के अजब देश में आ गया हूँ | कुल मिलाकर स्टेशन की सारी दुनिया मुझे बहुत ही कौतुहलपूर्ण और मायावी लगती | शरारती अब भी हूँ और तब बचपन में तो खैर पराकाष्ठा ही थी | 


पथरी स्टेशन 
यह बात पथरी रेलवे स्टेशन की है, नाना बाहर प्लेटफार्म पर खड़े होकर हरिद्वार से बंबई जाने वाली देहरादून एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाकर रवाना कर रहे थे और मैं उनके कमरे में लगी एक मशीन से पंगा ले रहा था | स्टेशन से गाडी रवाना करा कर नाना कमरे में आए तो मैं एक आदर्श बालक का रूप लिए बिलकुल शान्तिदूत के अवतार में आ चुका था | इतने में उनके फोन की घंटी बजी फोन सुनते ही नाना प्लेटफार्म की तरफ भागे | वापस आकर मुझे लगभग हड्काने के अंदाज में पूछा तुमने क्या शरारत की | बस उठो और तुरंत घर भागो | अब तो उस उम्र में उन्हें अपनी कारगुजारी क्या बताते, पर बाद में शाम को घर आने पर मैंने उन्हें नानी को कहते सुना कि तुम्हारे लाड़ले ने आज मेरी नौकरी तो लगभग खा ही ली थी | इस की करतूत ने देहरादून एक्सप्रेस को आउटर सिग्नल पर ही खड़ा करवा दिया | बस यह समझ लीजिए उस दिन के बाद स्टेशन का वह जादुई कमरा मेरी पहुँच से ऐसे दूर हो गया जैसे किसी धर्मभीरु पंडित के लिए दारु का अड्डा |

मैं दीनो-दुनिया से बेखबर अपने आप में मस्त था, सब कुछ मज़े में चल रहा था | देर रात घर में एक सज्जन का आना हुआ जिन्हें मेरे पिता ने भेजा था अपने पास उडीसा बुलवाने के लिए | सुबह तड़के ही मुझे जगा कर बोला गया कि तैयार हो जाओ और अधखुली अलसाई आँखे मलता हुआ आधा जागा आधा सोया उन सज्जन के साथ बैठ लिया मैं, रेल गाडी में उड़ीसा के लिए, अपने उन नाना नानी जो मुझ पर जान छिड़कते थे और प्यारे पथरी को छोड़कर , जिनकी मैं आँख का तारा था | मुझे भली प्रकार से याद है तब तक पूरी तरह से दिन भी नहीं निकला था | नाना-नानी से इस प्रकार अचानक अप्रत्याशित रूप से एक झटके में बिछड़ना मेरे बालमन पर एक ऐसी अमिट छाप छोड़ गया जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाया | इसके पीछे एक कारण और रहा और वह था कुछ समय के बाद मेरे नाना का कैंसर से आकस्मिक दुखद निधन | यानी कुछ यूँ समझ लीजिए कि नाना-नानी की याद के प्रतीक पथरी स्टेशन से नाता पूरी तरह से टूट गया | 
अब कहने को तो मैं अपने मां बाप और भाई-बहनों के पास जा कर खुश था पर पथरी की याद, उस घर की याद, उस जगह की महक मेरे दिलो दिमाग में हमेशा के लिए कुछ ऐसी जगह कर चुकी थी कि रात को सपने में भी वही जगह नज़र आती | अब यह सिलसिला था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था | कभी कभी तो लगता अगर मर भी गया तो अतृप्त इच्छा के कारण पथरी रेलवे स्टेशन के पेड़ पर ही भूत बन कर बैठूँगा | 

समय अपनी रफ़्तार से आगे दौड़ता जा रहा था | उड़ीसा से वापिस आकर परिवार दिल्ली में ही बस गया | मैं भी पढाई पूरी कर के नौकरी में भी लग गया | पहली नियुक्ति सीमेंट कारपोरेशन आफ इण्डिया के हिमाचल प्रदेश स्थित राजबन फेक्ट्री में रही | दिल्ली आना जाना लगा ही रहता था | संयोगवश दिल्ली- देहरादून रेलमार्ग पर पथरी का स्टेशन पड़ता है | उस जगह की एक झलक मात्र देखने के लिए मैं पागलों की तरह से ट्रेन के दरवाजे पर बहुत पहले से ही खड़ा हो जाता और कई बार तो भरी बारिश में भीगना भी पडा | पर मेरी ट्रेन होती थी एक्सप्रेस और पथरी था एक छोटा सा स्टेशन जहाँ उसका स्टोपेज ही नहीं था | हर बार मेरी ट्रेन डायरेक्ट मेन लाइन से धड-धडाती हुई पूरी रफ़्तार से निकल जाती और मुझे कुछ भी नज़र नहीं आ पाता क्योंकि प्लेटफार्म पर दूसरी ओर कोई लोकल गाडी खड़ी होती थी | ऐसा कई बार हुआ पर मैं अपना मन मसोसने के सिवाय कर भी क्या सकता था | दीदारे पथरी न होना बदा था, न ही हुआ | 

समय अब भी आगे दौड़ता जा रहा था | साल बदल रहे थे, म्रेरे भी तबादले पर तबादले एक के बाद एक होते जा रहे थे | हिमाचल से हरियाणा , पंजाब, बंगाल कहाँ कहाँ की ख़ाक नहीं छानी | सन 1978 का कलेंडर अब बदल चुका था वर्ष 2009 में | तब मेरी नियुक्ति देहरादून में हो चुकी थी | एक बार किसी कार्यवश हरिद्वार जाना पडा | परिवार भी साथ ही था और मेरे साथ थी मेरी प्यारी मारुती 800 जिसे मेरे सहकर्मियों ने हास- परिहास में गरीब रथ का नाम दिया हुआ था | जिस होटल में रुका था उसके मेनेजर से जिज्ञासा वश पथरी के बारे में पूँछ बैठा | अब मेनेजर ठहरा उधर का ही स्थानीय निवासी, सो मुझे वहां तक जाने का सड़क मार्ग के बारे में भली प्रकार से समझा दिया | सच मानिए उस वक्त मुझे इतनी खुशी हुई जैसे मुझे हमदर्द कंपनी वालों ने रूह आफज़ा शरबत बनाने का 100 साल से गुप्त चले आ रहे फार्मूले को हाथ में थमा दिया हो | 

तो भाई लोगो, तुरंत ही हांक दिया अपने गरीब रथ को पथरी की दिशा में, उस पथरी की ओर जिससे मैं अचानक बिछड़ गया था लगभग 50 साल पहले, अधमुंदी- अलसाई आँखों लिए निपट अधेंरे में | भरी गरमी में पसीना बहाते ,लगभग दो घंटे की जद्दो जहद के बाद रास्ता अटकते भटकते आखिर पहुँच ही गया साक्षात अपने सपनों की दुनिया में | रेलवे स्टेशन ज्यों-का-त्यों था लगभग वैसा ही जैसा छोड़ा था | हाँ विकास का प्रतीक अब बिजली जरुर आ गई थी स्टेशन पर | कुछ झिझकता हुआ स्टेशन मास्टर के उस कमरे में घुसा जहाँ से कभी नाना ने धमका कर भगा दिया था | स्टेशन मास्टर से परिचय हुआ, मेरा परिचय, इतिहास और आने का प्रयोजन जानकार कुछ अचरज और कुछ अचम्भे में मुझे ऐसे देखने लगे जैसे डायनोसोर की प्रजाति का विलुप्त प्राणी ज़ोरेसिक पार्क से निकल कर साक्षात प्रकट हो गया हो | खैर खासे-भले मानस थे, मुझे आराम से बैठ कर चाय पिलाई, ढ़ेरों बातें करीं और मेरे अनुरोध पर उस मकान को भी दिखाया जहां कभी मेरे नाना-नानी रहते थे | अब मैं पूरी तरह से संतुष्ट हो चुका था या यह कह लीजिए कि आत्मा तृप्त हो गई थी और मेरा गरीब रथ लौट चला वापिस देहरादून घर की ओर |

लेकिन यह प्रकरण यहीं समाप्त नहीं हुआ | एक दिन अचानक दिल्ली मुख्यालय से किसी मीटिंग के सिलसिले में बुलावा आया | देहरादून से दिल्ली के लिए ट्रेन से निकल लिया | रास्ते में हरिद्वार से गाडी छूटने के कुछ ही देर बाद मेरी आँख लग गई और लगभग ऊँघने की स्थिति में आ गया | अभी कुछ ही समय बीता होगा कि लगा किसी ने झकझोर कर अर्ध-निंद्रा से जगा दिया हो | ट्रेन काफी देर से कहीं रुकी हुई थी | डिब्बा वातानुकूलित होने और बाहर शाम की कम रोशनी के कारण खिड़की से बाहर साफ़ नहीं दिख पा रहा था | डिब्बे के दरवाजे पर आकर देखा तो आश्चर्य चकित रह गया | यह वही पथरी का स्टेशन था जिसे देखने के लिए मैं बरसों असफल प्रयत्न करता रहा था | गाडी आज यहाँ क्यों रुकी हुई है और वह भी थोड़ी बहुत देर नहीं पूरे 45 मिनिट | पता लगा कि गाडी का इंजिन फेल हो गया है जिसे ठीक करने की कोशिश की जा रही है | इस बीच मैंने  डिब्बे से उतर कर प्लेटफोर्म पर ही चहलकदमी करने का मन बना लिया | घूमते हुए ज्यों  ही स्टेशन के मुख्य भवन तक पहुँचा, लगा जैसे अचानक बिजली का झटका लगा | जिस जगह को अभी कुछ माह पहले मैं ठीक-ठाक देख कर गया वह इमारत अब अर्ध-खंडहर की हालत में थी | बोर्ड लगा हुआ था जिस पर लिखा था Under Demolition . Renovation in Progress ( इमारत को तोड़कर नवीकरण कार्य प्रगति पर है ) | एकबारगी तो लगा जैसे पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गई हो | मेरी सपनों की जादुई नगरी अंतिम साँसे ले रही थी | उसीने मुझे आवाज देकर आज अपने पास बुलाया, सरपट दौड़ती गाड़ी को तिलस्मी चमत्कार से इतनी देर तक रुका कर रखा | लगा पथरी की आत्मा मुझसे कह रही है “मुझे सपनों में देखने वाले बालक, मुझे अंतिम बार इस रूप में जाते हुए भी देख कर यादों में सजों ले | इसके बाद मुझे याद करना फिर सपनों में ही | अलविदा मेरे बच्चे |” 

अब इस सारी घटना के बाद अगर मेरी सोच यह कहती है कि आत्मा हर जगह है उन वस्तुओं और स्थानों में भी जिन्हें आप निर्जीव समझते हैं, निष्प्राण समझते हैं, तो क्या गलत है | असल बात होती है उस विश्वास, भावना और आस्था की तीव्रता की जो हमारे दिलोदिमाग में होता है | अगर पथरी केवल एक नाम मात्र का स्थान भर ही होता तो वह क्यों इतने संयोग करके मुझे अंतिम दर्शन के लिए अपने पास बुलाता | 

कहना न होगा आज का पथरी रेलवे स्टेशन अपनी नयी साजो-सज्जा के साथ एक अलग ही नई पीढ़ी के अवतार में सर उठाए शान से खड़ा है जिससे मेरी हिम्मत नहीं होती आँखे मिलाने की | मैं उसके पुराने रूप में ही खुश था | 

भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...