राम सिंह |
घबराइए मत, शीर्षक देख कर यह मत सोच लीजिएगा कि कोई बहुत अधिक ज्ञान -ध्यान से भरा प्रवचन होने जा रहा है । मैं - राम सिंह, अपनी ज़िंदगी का एक छोटा सा किस्सा सुनाने जा रहा हूँ । अब यह आप पर है कि उसे पढ़ कर आपको हंसी आती है, गुस्सा आता है या फिर कुछ सोच में पड़ जाते हैं । चलिए बात को ज्यादा नया खींचते हुए सीधे आपबीती पर आता हूँ।
तो दोस्तों करीब 25 साल पहले की बात है । मैं दिल्ली में ही एक सरकारी कंपनी में काम करता था । कहने को तो लोग कहते हैं कि सरकारी नौकरी के मज़े ही अलग होते हैं पर भाई लोगों ने मेरी कंपनी का वह वक्त नहीं देखा या सही मायने में कहें तो भुगता था । नाम के लिए ही नौकरी सरकारी थी पर हर समय सिर पर खौफ़ की तलवार लटकती रहती थी । कारण था कंपनी के उच्चतम अधिकारी – जिन्हे आप साहब बहादुर कह सकते हैं – का दिल दहला देने वाला प्रकोप । कान-फोड़ू गाली-गलोज करना, सुदूर इलाकों में ट्रांसफर कर देना, नौकरी से ही बर्खास्त कर देना मामूली बात हुआ करती थी । शायद उन जैसे बददिमाग नमूने के लिए ही कभी मशहूर शायर मिर्जा गालिब ने कहा था :
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है,
तुम्ही कहो कि ये अंदाज़े गुफ़्तगू क्या है ।
अरसा बीत गया राजा साहब को गए पर उनकी दहशत के किस्से आज तक उस कंपनी के गलियारों में लोग चटखारे ले-ले कर बयान करते हैं ।
साहब बहादुर |
उस मनहूस दिन मैं हमेशा की तरह ऑफिस में अपने रोज-मर्रा के काम-काज में व्यस्त था । मेरे विभाग के अफसर के केबिन में रखे फोन की घंटी बजी। क्योंकि वह अधिकारी अपने कमरे में मौजूद नहीं थे अत: मैं खुद ही उस फोन को सुनने के लिए चला गया । फोन उठाते ही दूसरी तरफ़ से कड़कती आवाज ने बड़े ही भद्दे तरीके से मेरे अधिकारी का अता-पता पूछा । मुझे बड़ा अटपटा सा लगा फिर भी मैंने अत्यंत विनम्रता से पूछा – “आप कौन ?” जवाब तो कुछ नहीं मिला लेकिन लाइन जरूर कट गई। अपने अधिकारी के लौटने पर उन्हें मैंने सारी घटना से अवगत कराया और उन्होंने भी इसको सामान्य रूप से लिया ।
अगले दिन ऑफिस पहुंचा तो मेज पर रखा एक लिफाफा मेरा स्वागत कर रहा था । लिफाफा खोला तो पता चला उसके अंदर पत्र नहीं बम था । जी हाँ – मेरे लिए तो वह किसी बम से कम नहीं था क्योंकि मेरे विरुद्ध अनुशासनात्मक कारवाई करते हुए मुझे सस्पेन्ड कर दिया गया था । मेरे पैरों के नीचे से जैसे जमीन निकल गई । लड़खड़ाते- काँपते कदमों से अपने विभाग अधिकारी के पास पहुंचा और कारण जानना चाहा । उन्होंने मुझसे पूरी हमदर्दी जताते हुए इस रहस्य से पर्दा उठाया । उन्होंने कहा “दरअसल वह अजनबी फोन "साहब बहादुर" का था और क्योंकि तुम उनकी आवाज नहीं पहचान पाए यही तुम्हारा सबसे बड़ा कसूर है ।“ अब मैं भारी मन से वापिस लौट चला । दफ्तर में सभी जानते थे कि मैं निर्दोष हूँ पर वे सब भी बेबस थे साहब बहादुर के आगे मुंह खोलने से । सस्पेंड हो कर मैं घर बैठ गया और अक्सर अपने दुर्भाग्य को कोसते हुए सोचता कि जमाने में कैंसर जैसी भयानक बीमारी का इलाज संभव हो सकता है पर साहब बहादुर का कौन करेगा । बुरा वक्त भी सदा के लिए नहीं होता है , मेरे लिए भी नहीं रहा । दस दिनों के बाद मुझे ड्यूटी पर वापिस ले लिया गया । बात आई- गई हो गई पर दिल में अक्सर कुछ खालीपन सा कचोटता रहता – मैं अदना सा निरीह प्राणी जिसने कभी किसी का बुरा नहीं किया फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ । मन को यह कह कर तसल्ली देता – कर भला हो भला, अंत भले का भला ।
अरे चले कहाँ आप ? इंटरवल के बाद की पिक्चर अभी बाकी है दोस्त । कई साल ऐसे ही दफ्तर के आतंक राज में गुजर गए । लेकिन कहते हैं ना कि वक्त किसी का सगा नहीं होता । जैसे सब का समय आता है और जाता है, साहब बहादुर का भी आया भी और गया भी । काफी मुकदमेबाजी , जुगाड़बाजी और मेहनत मशक्कत के बावजूद साहब बहादुर के सेवा काल में सरकार द्वारा बढ़ोत्तरी नहीं दी गई और वे भी आम जनमानस की तरह रिटायर हो गए । दूसरे शब्दों में आप यह भी कह सकते हैं कि साहब बहादुर का साहब निकलने के बाद केवल बहादुर शेष रह गया । अपने भूत काल से चिपके रहने वालों के लिए ऐसे में परेशानी होनी स्वाभाविक है । सुना है आजकल 78 वर्ष के उम्रदराज होने के बावजूद भी अक्सर साहब बहादुर दफ्तर पहुँच जाते हैं । मतिभ्रम की हालत में अभी भी अपने को दफ्तर का मुखिया समझते हैं और लोगों को हड़काने और डपटने की आदत बदस्तूर जारी है । उनकी हरकतों को देखकर कार्यालय में प्रवेश पर रोक लगा दी गई है । किसी समय जहाँ उनका आतंक का साम्राज्य था -वहाँ आज खुद हंसी के पात्र बन चुके हैं । पर मेरी नजर में साहब-बहादुर हँसी के नहीं दया के पात्र हैं । किसी जमाने में दूसरों से जो पूछा करता थे “ तू कौन है “ उसे आज स्वयं अपना पता नहीं “ मैं कौन हूँ" ।
आपके बारे में तो मैं कुछ नहीं कह सकता पर अपनी आपबीती से मुझे खुद जो सबक मिला उससे कबीर का दोहा याद आ जाता है :
दुर्बल को नया सताइए , जाकी मोटी हाय ,
मरी खाल की सांस से, लोह भसम हो जाए ।
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(प्रस्तुतकर्ता : मुकेश कौशिक )
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(प्रस्तुतकर्ता : मुकेश कौशिक )
वाह वाह बहुत बेहतरिन और सही लिखा है ज़िन्दगी की सच्चाई यही है कुर्सी को सब सलाम करते हैं। आदमी को नहीं।
ReplyDeleteवाह क्या लिखा है आपने सर मेरा तो दिल ही जीत लिया अपने ऑफिस का पूरा एक्सपीरियंस ही लिख डाला धन्यवाद सर 🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteYou can write a whole book on his misdemeanors. You have written one such incident which happened with you beautifully.
ReplyDeleteSo nice
ReplyDeleteVery nicè
ReplyDeleteAwesome! Heart touching story
ReplyDeleteGreat thoughts, best expression and great msg giving story
ReplyDeleteVery well written Mukesh
ReplyDeleteVery true side of a horrible personality.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा, इनके किस्सों की किताबें लिखी जा सकती है आप ने तो ऐक किसा बढिय़ा लाजवाब लिखा 👍👌👏🙏
ReplyDeleteजो जस करहि सो तस फल चाखा
ReplyDeleteश्रेष्ठ वही है ,जो दूसरे को हीनता का अनुभव न होने दे । इसके विपरीत स्वभाव वालों की यही गति होती है ।
ReplyDeleteBahut sunder. Dushkarmo ki saza zarur milti he. Sasamman pranam
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