कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि आप कुछ ऐसा लिख जाते हैं जिसे कुछ समय बाद आप जब खुद पढ़ते हैं और ठंडे दिमाग से समझते हैं तो लगता है यह मैं क्या लिख गया । मन में कभी ग्लानि होती है तो कभी पछतावा । मुझे तो इस समय खुद अपने ऊपर शर्मिंदगी भी हो रही है । चलिए ज्यादा पहेलियाँ न बुझाते हुए सीधे असल बात पर आता हूँ ।
आजकल जब मैं यह किस्सा लिख रहा हूँ पूरे विश्व में कोरोना वायरस की महामारी का जान लेवा संकट सब के सर पर मंडरा रहा है । हमारे देश में भी लॉक -डाउन घोषित किया जा चुका है । इस ताला बंदी ने सारे समाज को आइस क्रीम की तरह से जमा कर रख दिया । जहाँ तक नजर दौड़ाते हैं सब कुछ बंद – इंसान घर में बंद, सड़कों पर ट्रेफिक बंद, कारखाने बंद, दुकाने बंद और इन सब की वजह से वातावरण में प्रदूषण बंद, शोर बंद । घर की छत पर बैठ कर मैं नीले आकाश को निहार रहा था । पंछी सामने के पार्क में चहचहा रहे थे । रात के समय आसमान में फिर से तारे भी नज़र आने लगे थे जो महानगर के प्रदूषित वातावरण से कभी के गायब हो चुके थे । हद तो तब हो गई जब नोएडा की वीरान पड़ी सड़कों पर नील गाय को भी घूमते पाया । लगता था जैसे दुनिया अब से तीस साल पहले के समय में पहुँच गई हो जब साँस लेने के लिए साफ हवा भी नसीब हो जाती थी । इस बदली हुई आबो-हवा में तरो-ताजगी महसूस करते हुए कुछ दिनों पहले मैंने एक कविता लिखी :
सच में मैंने आज गौर से,
रूप नया दुनिया का देखा,
सारे दिन जो व्यस्त रहे थे,
उन्हें भी कविता लिखते देखा,
नील गगन पर सुबह - सवेरे
स्वर्णिम सूरज उगते देखा ।
नजर नहीं आया करते,
उन पंछी को भी उड़ते देखा।
भूली बिसरी यादों के
मीठे सपनो को फिर से देखा।
छत के नीचे अपनों को
प्यार से गपशप करते देखा।
अम्मा - दादी के साथ बैठ कर,
वक्त बिताते हंसते देखा ।
लेकिन फिर भी
हाथ जोड़ कर
दुआ मांगता
मालिक से,
दीन दुखी की रक्षा करना,
संकट हरना विपदा से ।
दरअसल मेरे दिल को गहरी चोट तब लगी जब समाचारों के जरिए रोज़ की रोटी रोज़ कमाने वाले गरीब मजदूरों की बेबसी को जाना । जीविका की तलाश में दिल्ली -मुंबई जैसे महानगरों में बसेरा किए हुए रिक्शा चलाने वाले, खोमचा -फेरी लगाने वाले, दिहाड़ी पर काम करने वाले, फैक्ट्रियों के कामगार – सभी एक ही झटके में आसमान से गिरे पंख-कटे पंछी की तरह से फड़फड़ा रहे थे । उन गरीबों की तड़प थी – मजदूरी छिनने की, रोटी छिनने की , घर -बार-बसेरा छिनने की । इक्कीस दिनों तक घर का गुजारा कैसे होगा यह उनकी खाली जेब और पेट की समझ में नहीं आ रहा था । इक्कीस दिनों के बाद भी क्या हालात होंगे यह भी तो कुछ पक्का नहीं था । ताला -बंदी की लक्ष्मण रेखा के बावजूद भी भूखे पेट ने मजबूर कर दिया उन दीन -हीन इंसानों को घर के बाहर कदम रखने को । जब सरकारी भोंपुओं के झूठे वादे भी रोटी का जुगाड़ नहीं कर सके तब सर पर पोटली और गोद में छोटे-छोटे बच्चों को उठाए उन बदनसीबों का कारवां निकल पड़ा अपनी मंजिल की ओर । यह मंजिल थी सैकड़ों मील दूर बसे वे गाँव जिनमें आज भी उनके सगे-संबंधी रहते हैं । वही गाँव जिन्हें रोज़ी -रोटी की मजबूरी में छोड़ कर आना पड़ा था पर आज भी यह यकीन है कि वापिस पहुंचेंगे तो दो रोटी तो जरूर दे देंगें । महानगरों की तरह कम से कम भूखा तो नहीं मरने देंगे । पेट की आग और अपने गाँव पहुँचने की चाह ने उनके कमजोर शरीर में भी वह ताकत भर दी जिसे ना तो पुलिस के डंडे रोक पाए और ना ही तपती धूप में पैदल चलने की मजबूरी । रेल नदारत , बस नदारत – यातायात का कोई साधन नहीं फिर भी निकल पड़े भूखे -प्यासे लंबे सफ़र पर । मैं अंदर तक हिल गया जब ऐसे ही किसी मजबूर इंसान को यह कहते सुना कि कोरोना तो बाद में मारेगा उससे पहले तो हम भूख से ही मर जाएंगे ।
मीठे सपनो को फिर से देखा।
छत के नीचे अपनों को
प्यार से गपशप करते देखा।
अम्मा - दादी के साथ बैठ कर,
वक्त बिताते हंसते देखा ।
लेकिन फिर भी
हाथ जोड़ कर
दुआ मांगता
मालिक से,
दीन दुखी की रक्षा करना,
संकट हरना विपदा से ।
इस कविता को मैंने सोशल मीडिया पर भी पोस्ट कर दिया । दोस्तों को पसंद भी आई , अच्छे-अच्छे कमेंट्स भी मिले । पर आज मुझे लगता है कि कुछ दोस्तों ने शायद इस कविता को पढ़ कर खामोश रहना ही उचित समझा होगा । उन्होंने शायद सौजन्यता-वश अपने दिल की बात दिल में ही दबा ली होगी क्योंकि सच्चाई कड़वी जो होती है । लेकिन उनकी इस खामोशी की भाषा ने भी मुझे बता दिया कि दर्द बयाँ करने के लिए जुबान की जरूरत नहीं है ।
दरअसल मेरे दिल को गहरी चोट तब लगी जब समाचारों के जरिए रोज़ की रोटी रोज़ कमाने वाले गरीब मजदूरों की बेबसी को जाना । जीविका की तलाश में दिल्ली -मुंबई जैसे महानगरों में बसेरा किए हुए रिक्शा चलाने वाले, खोमचा -फेरी लगाने वाले, दिहाड़ी पर काम करने वाले, फैक्ट्रियों के कामगार – सभी एक ही झटके में आसमान से गिरे पंख-कटे पंछी की तरह से फड़फड़ा रहे थे । उन गरीबों की तड़प थी – मजदूरी छिनने की, रोटी छिनने की , घर -बार-बसेरा छिनने की । इक्कीस दिनों तक घर का गुजारा कैसे होगा यह उनकी खाली जेब और पेट की समझ में नहीं आ रहा था । इक्कीस दिनों के बाद भी क्या हालात होंगे यह भी तो कुछ पक्का नहीं था । ताला -बंदी की लक्ष्मण रेखा के बावजूद भी भूखे पेट ने मजबूर कर दिया उन दीन -हीन इंसानों को घर के बाहर कदम रखने को । जब सरकारी भोंपुओं के झूठे वादे भी रोटी का जुगाड़ नहीं कर सके तब सर पर पोटली और गोद में छोटे-छोटे बच्चों को उठाए उन बदनसीबों का कारवां निकल पड़ा अपनी मंजिल की ओर । यह मंजिल थी सैकड़ों मील दूर बसे वे गाँव जिनमें आज भी उनके सगे-संबंधी रहते हैं । वही गाँव जिन्हें रोज़ी -रोटी की मजबूरी में छोड़ कर आना पड़ा था पर आज भी यह यकीन है कि वापिस पहुंचेंगे तो दो रोटी तो जरूर दे देंगें । महानगरों की तरह कम से कम भूखा तो नहीं मरने देंगे । पेट की आग और अपने गाँव पहुँचने की चाह ने उनके कमजोर शरीर में भी वह ताकत भर दी जिसे ना तो पुलिस के डंडे रोक पाए और ना ही तपती धूप में पैदल चलने की मजबूरी । रेल नदारत , बस नदारत – यातायात का कोई साधन नहीं फिर भी निकल पड़े भूखे -प्यासे लंबे सफ़र पर । मैं अंदर तक हिल गया जब ऐसे ही किसी मजबूर इंसान को यह कहते सुना कि कोरोना तो बाद में मारेगा उससे पहले तो हम भूख से ही मर जाएंगे ।
सच मुझे शर्मिंदगी हुई अपनी स्वार्थी सोच पर । मैं कविता की दुनिया में क्यों इनके दर्द को महसूस नहीं कर पाया । क्यों मुझे केवल स्वच्छ नीला आसमान और उड़ते पंछी ही नजर आए – सड़क पर भीड़ में लँगड़ाते हुए अपने गाँव जाता अपाहिज इंसान क्यों नहीं दिखा । मेरी आँखों पर क्यों पट्टी बँध गई थी उस वक्त – यही सोच कर मैं शर्मिंदा हूँ ।
चलते -चलते , जो गलती मुझ से हुई वह आप मत करिएगा । कोरोना की मार के आगे सब एक समान हैं । यह चुटकले बाजी और लतीफों का पुलिंदा नहीं है । मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ – यह बहुत भारी मुसीबत है – मौत की दस्तक है । इसे हल्के में मत लीजिए, मौत से मज़ाक मत कीजिए । यह मुसीबत का समय सभी पर अपनी छाप छोड़ेगा – चाहे अमीर या गरीब । सवाल केवल वक्त का है । गरीब पर मार तुरंत हो रही है – पर जो समाज के ऊंचे तबके के लोग हैं वह प्रभावित तो होंगें पर जरा देर से । इसलिए समझदारी इसी में है कि दूसरों के दुख: दर्द में शामिल रहें, आने वाले कल में आपको भी हमदर्दी की जरूरत हो सकती है ।
I can understand sir.... But the problem is even bigger than we are expecting
ReplyDeleteमैंने आप की कविता पुनः पढ़ी,मुझे तो इसमें परिस्थितियों में आए अच्छे परिवर्तन का ही जिक्र दिखा और शर्मिंदा होने वाली कोई बात नहीं है.
ReplyDeleteजहां तक दैनिक कमियों के हुजूम,जो की बेरोजगार होकर मजबूरी में घर के लिए हजारों की संख्या में निकल पड़े वो सत्य में चिंता और परेशानी का प्रश्न है.
मैंने भी इस विकट परिस्थिति पर एक पोस्ट डाली थी - "आगे कुवान पीछे खाईं" और आशा की थी कि शासन को तुरंत मानवीय आधार के साथ आवश्यक प्रबंध करने चाहिए.
ईश्वर को धन्यवाद की आवश्यक कदम उड़ाए गए और परिस्थितियां सुधार रही है।
Hmm..very correctly observed Mr. Mukesh Kaushik.
ReplyDeleteThe real intensity of the issue is yet to strike us all.
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteजितनी जानकारी लिखते हुए होती है उसी परिपेक्ष्य में लेख उभर कर आता है। शर्मिंदगी तो तब महसूस हो जब जानबूझ कर नज़र अंदाज किया हो। आपने भाव प्रकट किया, हम इसकी सराहना करते हैं।
ReplyDeleteपिंजरे में बंद पंछी की अनुभूति का आधार आकाश का उतना ही टुकड़ा होता है ,जितना उसे पिंजरे से दिखाई देता है ।उससे दावानल के प्रति सहानुभूति रखने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है ।शर्मिंदा तो उन्हें होना चाहिए जो देखकर भी नहीं देखते ।
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