मेरी यादों का पिटारा दरअसल एक बाबा आदम के जमाने का डिब्बा- कैमरा है | वही डब्बेनुमा तिपाई के ऊपर टिका काले कपड़े से ढ़का कैमरा जिसे पुरानी पीढ़ी के लोगों ने अक्सर सड़क किनारे या नुमाइशों – मेलों में देखा होगा और हो सकता है खुद फोटो खिचवाई भी हो | उसी कैमरे के अंदर झाँकने पर मुझे कभी -कभी यादों के ढ़ेर में बहुत ही पुरानी और धुंधली सी कुछ ऐसी तस्वीरें नज़र आ जाती हैं जो आज भी दिल में एक गहरी सी टीस छोड़ जाती हैं | ऐसी भावुक स्मृतियाँ जिन्होने दिल की गहराइयों में उतर कर गहरी जड़ें जमा लीं हों, वह तो सारी ज़िंदगी आपके कंधों पर सवार रहकर हर क्षण अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाती रहेंगी ही | मान सिंह भी मेरे बचपन से जुड़ी एक ऐसी ही याद है जिसे आज आप सबसे साझा कर रहा हूँ |
मान सिंह से मिलने के लिए आपको मेरे साथ वक्त की पटरी पर बहुत ही पीछे चलना पड़ेगा | मेरठ – रुड़की -सहारनपुर रेल मार्ग पर एक नन्हा सा स्टेशन है – डौसनी | वह आज से साठ साल पहले भी तन्हा और वीरान था और आज भी उसी हालत में है | शायद वह भी आज तक अच्छे दिनों का इंतज़ार ही कर रहा है | सभी मेल और एक्सप्रेस गाडियाँ अभी भी तूफानी गति से उस स्टेशन पर बिना रुके धूल उड़ाते गुज़र जाती हैं | उस स्टेशन की हमदर्द हैं केवल कुछ गिनी -चुनी मरियल पेसेंजर गाडियाँ जो अपनी मर्जी से लखनवी अंदाज़ में शरमाती-सकुचाती आती हैं, आराम से ठहरती हैं और फिर किसी बूढ़े गठिया के मरीज की तरह कलपती -कराहती होले-होले विदा हो जाती हैं | मेरे नाना वहीं पर स्टेशन मास्टर थे यानी एक तरह से सर्वे-सर्वा | मेरे बचपन की प्राचीनतम यादें वहीं से जुड़ी हुई हैं | रेलवे के क्वाटर में रहते थे | उस समय मेरी उम्र होगी यही कोई चार –पाँच साल की | सारे दिन घर के आसपास और उस वीरान से स्टेशन पर ही खेलकूद में व्यस्त रहता | मुझे वह शाम अभी भी अच्छी तरह से याद है – शाम के तीन-चार बजे का सा समय था | मैं अपनी नानी के साथ रेलवे क्वाटर के सामने बैठा धूप सेक रहा था | तभी स्टेशन पर ही काम करने वाला एक कर्मचारी आया | उसके साथ एक बच्चा था जिसकी उम्र लगभग दस साल होगी| बच्चे के हाथ में एक झोला था जिसमें दो-चार कपड़े थे | पूछने पर बच्चे ने अपना नाम मान सिंह बताया |उसके पिता बहुत ही बेरहमी से मारपीट किया करते थे इसलिए तंग आकर पौड़ी गढ़वाल के गाँव के घर से भाग लिया | स्टेशन पर आवारा भटकते उस बच्चे पर जब रेलवे कर्मचारी की नज़र पड़ी वह उसे लेकर हमारे घर आ गया | बहुत समझाने –बुझाने पर भी वह वापिस अपने घर लौटने को तैयार नहीं था | आखिरकार नानी का दिल पसीज ही गया और इस तरह उस बेसहारा बच्चे को मिला बसेरा और मुझ एकल और तन्हा बच्चे को मिला अपने जीवन का पहला दोस्त – बालसखा मान सिंह |
अब मेरा समय और ज्यादा मस्ती कटने लगा – मान सिंह का साथ जो मिल गया था | घर के काम -काज में भी मानसिंह नानी का हाथ बटा देता था | घर में जल्द ही एक परिवार के सदस्य की तरह से घुल-मिल गया | मैंने तो यहाँ तक सुना कि एक बार किसी परिचित ने नाना के सामने मान सिंह का ज़िक्र एक नौकर के रूप में कर दिया | इतना सुनना भर था कि नाना ने गुस्से में रौद्र रूप दिखलाते हुए दहाड़ मारी कि मेरे बच्चे को नौकर कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई | यह था मेरे नाना -नानी के मान सिंह से आत्मीय लगाव की पराकाष्ठा जिससे उस बच्चे के मन में पारिवारिक सदस्य होने की भावना के शुरुआती बीज पनपे | जहां कहीं भी हम जाते मान सिंह हमारी टीम का स्थायी हिस्सा होता | अगर किसी रिश्तेदारी में भी जब कभी जाते तो वह बच्चा वहाँ भी अपनी मिलनसारिता से सभी में ऐसे घुल-मिल जाता जिसे दूध में बताशा |
कुछ समय बाद डौसनी स्टेशन से बदली होकर पास के स्टेशन पथरी भी रहे | यह वही पथरी है जिसके बारे में पूरी कहानी बचपन की बहार: पथरी की पुकार में पढ़ी होगी | अगर नहीं तो दिये गए लिंक पर क्लिक करके फिर से याद ताज़ा कर सकते हैं | मानसिंह का साथ बना रहा | खेलकूद में तो वह साथ रहता ही, मुझे अपने रोज़मर्रा के कामों में भी शामिल कर लेता जिसमें मुझे भी बहुत मज़ा आता | लालटेन की चिमनी साफ करना, अँगीठी सुलगाना, कोयले वाली प्रैस से कपड़ों पर इस्तरी होते अचरज से देखना मेरे लिए एक तरह से खेल और मनोरंजन का साधन बन चुके थे |
पथरी आने के कुछ ही साल बाद वक्त ने बड़ी ज़बरदस्त करवट ली | मुझे अपने माता-पिता के पास उड़ीसा जाना पड़ा | नाना का कैंसर से आकस्मिक निधन हो गया | नानी और मान सिंह को मेरे मामा- जो नेवी में लेफ्टिनेंट थे, अपने पास दिल्ली ही ले आए | कुछ साल बाद मेरे पिता भी उड़ीसा छोड़ कर दिल्ली आ गए थे | यहीं पर मुझे अपना बाल- सखा दोबारा मिला | मान सिंह के साथ हम सभी भाई -बहन मिल कर जो हल्ला -गुल्ला और शोर शराबा मचाते थे उन सभी शरारतों की मिठास आज भी मेरी ज़िंदगी में मौजूद है | इस धमा-चौकड़ी में शामिल होने में मामा भी तब पीछे नहीं रहते |
बाएँ से : आगे ; मैं , मामा और पीछे भाई, माँ , बहन और मान सिंह |
बाएँ से : मान सिंह, मैं, भाई -राकेश जी , सबसे आगे बहन पारुल |
समय अपनी रफ्तार से दौड़ रहा था | मैं स्कूल की पढ़ाई में व्यस्त था | फिर एक दिन खबर आई मान सिंह बंबई में घर छोड़ कर कहीं चला गया | ऐसी क्या बात हुई जिसने उसके दिल को इतना झकझोर दिया यह बात लंबे समय तक रहस्य ही रही | इस मुद्दे पर कहानी से जुड़े सभी पात्र लंबे समय तक खामोश ही रहे कभी कुछ बताया नहीं |
तब तक मैं आठवीं कक्षा में आ गया था | दिल्ली में मानसरोवर पार्क में रहा करते थे | एक दिन मान सिंह घर पर अचानक आ पहुंचा | मेरी खुशी का मानो ठिकाना ही नहीं था | इतनी खुशी कि उस दिन स्कूल का भी चुपचाप बहिष्कार कर दिया | माँ अध्यापिका थी , रोजाना की तरह से तब तक घर वापिस लौटी नहीं थी | अब घर पर कोई रोकने वाला था नहीं सो उनकी अनुपस्थिति का पूरा फायदा लेते हुए उठाई साइकिल और पास के ही सिनेमाघर में पहुँच गए पिक्चर देखने मानसिंह के साथ | पिक्चर के बाद इधर-उधर घूमते रहे | शाम को जब वापिस घर पहुंचे तब हमारी खुद की जो पिक्चर बनी वह आज तक मुझे याद है | मानसिंह तो कुटाई से बच गया पर मेरी जो कान खिचाई हुई….. तौबा-तौबा | उसने माँ को बताया कि वह दिल्ली में ही किसी डाक्टर के यहाँ काम कर रहा था |उसके बाद लंबे अरसे तक मान सिंह से कोई संपर्क नहीं रहा | मां को वह जीजी कहा करता था | नानी –मामा के घर को वह मुंबई में बहुत पहले ही छोड़ चुका था इसीलिए शायद उसने सोच समझ कर ही दूरी बना कर रखी थी | वह दोनों परिवार के बीच किसी भी प्रकार की गलतफहमी संभवत: नहीं चाहता होगा |
कई बरस इसी प्रकार बीत गए | मैं भी कॉलेज की पढ़ाई के सिलसिले में दिल्ली से बाहर चला गया | जब वापिस लौटा – शायद वर्ष 1977 चल रहा था | मेरे उम्र भी तब तक बीस साल की रही होगी | घर के आँगन में बैठा कुछ पढ़ रहा था | दरवाजे पर ठक-ठक हुई| जा कर दरवाजा खोला – आँखे आश्चर्य से खुली की खुली रह गईं | सामने मान सिंह था | लेकिन दूसरे ही पल मुझे लगा मैं चक्कर खा कर नीचे गिर पड़ूँगा | मानसिंह बैसाखियों के सहारे खड़ा था | उसकी बड़ी -बड़ी आँखे मुझे बरबस निहार रहीं थी | उसके होठों पर अपने बचपन के बाल –सखा को देख कर वही पुरानी मुस्कान होठों से निकलने का मानों भरसक असफल प्रयास कर रही थी | मैं उसे सहारा देकर अंदर घर में लाया | उसकी हालत को याद करके आज भी मेरे आँसू निकल आते हैं | जब वह बैठा तब मुझे पता चला उसकी गरदन भी पूरी तरह से जकड़ चुकी थी | टांग में बुरी तरह से जख्म हुआ पड़ा था | उसे हड्डियों की तपेदिक हो चुकी थी | पाँव का आपरेशन हुआ था जिसमें हड्डी को काटना पड़ा जिसके कारण एक पाँव छोटा हो गया और बैसाखियों का सहारा लेना पड़ा | वह मान सिंह जिसके साथ मैं बचपन में खेला करता था, जो कभी तीन पहिये की साइकिल पर मुझे बैठा कर पीछे से धक्का लगाता था और मेरी खिलखिलाहट आसमान को छूती, उसी बाल- सखा को आज बैसाखियों का सहारा लेने की मजबूर हालत में देख कर दिल पता नहीं कैसा-कैसा हो चला था | मेरे आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे | उसने काँपते हाथों से अपनी जेब से कुछ रुपये निकाल कर मेरी माँ को दिये, बोला जीजी अभी तो रखो , वक्त जरूरत पर मांग लूँगा | माँ ने तभी घर के पास के पोस्ट ऑफिस में उसका खाता खुलवा दिया | बातों ही बातों में उस दिन मान सिंह ने बताया कि तपेदिक होने के बाद, उस डाक्टर के यहाँ से भी काम छूट गया | फिलहाल वह नई दिल्ली में ही विकलांगों के लिए बने सरकारी पुनर्वास केंद्र में सिलाई का काम करता है | वहीं से जो थोड़ी-बहुत आमदनी हो जाती है उसी की पाई-पाई जोड़ कर यहाँ जमा करवाने आया है | मैं चुपचाप बैठा सोच रहा था कि यह वही मान सिंह है जिसके हाथों में किसी समय पूरे घर की चाबियाँ होती थीं | वक्त ने उस अच्छे –भले इंसान की क्या दुर्दशा कर दी |
मैं उसके बाद फिर अपनी नौकरी के सिलसिले में घर से दूर चला गया | मान सिंह से मेरी फिर कोई मुलाक़ात नहीं हुई , कोई संपर्क नहीं हुआ | माँ ने बताया वह वापिस अपने उसी गाँव चला गया जहां से बचपन में किसी समय अपने निर्दयी पिता की मार से बचने के लिए भाग आया था | शायद जीवन के शेष दिन अपनी उसी मिट्टी में बिताना चाहता हो |
अब अंत में बात उस कड़वे सच की जिससे उस किशोर वय मानसिंह का जीवन ही उलट-पुलट कर रख दिया | पहले दिन से ही नाना –नानी ने उसे हमेशा घर का सदस्य ही माना | यही बात उसके मन में अंदर तक घर कर चुकी थी | नाना के निधन के बाद उसे नानी अपने नेवी वाले अफसर बेटे यानी मेरे मामा के पास चली गईं | मामा की शादी भी अत्यंत प्रभावशाली और ऊंचे खानदान में हुई थी | उस बदले परिवेश में मानसिंह को शीघ्र ही महसूस होने लगा अब वह परिवार का सदस्य नहीं है – बस रह गया है महज़ एक खानदानी नौकर | डाट-डपट के माहोल को वह सह नहीं पा रहा था | जिन नाना –नानी ने घर से भागे उस आठ साल के बेसहारा बच्चे को आसरा दिया, उनके परिवार को छोड़ने का निर्णय कोई आसान काम नहीं था | पर यहाँ प्रश्न आत्म सम्मान का था जिसने उसे हिम्मत दी यह सोच कर कि अगर नौकर बनना ही है तो किसी गैर के यहाँ बनो, कम से कम दिल तो नहीं दुखेगा | और इस तरह मेरा दोस्त चल पड़ा आत्म –सम्मान की डगर पर – निडर और निर्भीक हो कर | इस आत्म-सम्मान की लड़ाई में उसने बहुत कुछ गवायाँ भी लेकिन विपरीत परिस्थितियों के आगे उसने आत्म- समर्पण नहीं किया |
मुझे नहीं पता मेरा बाल-सखा मान सिंह आज कहाँ है, किस हाल में है , और है भी या नहीं | उसका आधा अधूरा पता आज भी किसी डाक टिकट की तरह मेरे ज़हन के लिफाफे पर चिपका है:
मान सिंह बिष्ट,
गाँव व पोस्ट ऑफिस : दुगड्डा
जिला: पौड़ी गढ़वाल
उत्तराखंड
मुझे आज भी यह आस है शायद कोई तो चमत्कार मुझे उससे फिर से मिला दे और मैं उसके गले से चिपट कर एक बार फिर उसी साठ वर्ष पहले की दुनिया में पहुँच जाऊँ जब वह मुझे डौसनी स्टेशन पर पहली बार मिला था |
( इस आपबीती कहानी के लिए सादर आभार आदरणीय विमल कुमार जी और घर के बड़े-बूढ़ों का जिन्होने मेरी यादों के चश्में से धूल हटा कर इस संस्मरण को प्रामाणिकता दी )
( इस आपबीती कहानी के लिए सादर आभार आदरणीय विमल कुमार जी और घर के बड़े-बूढ़ों का जिन्होने मेरी यादों के चश्में से धूल हटा कर इस संस्मरण को प्रामाणिकता दी )
अतिमार्मिक घटना को बहुत अच्छे तरीके से प्रस्तुत किया ।
ReplyDeleteTears in my eyes.... Sir.... You are truly a good human being love you sir
ReplyDeleteDil ko chu lene wali kahani
ReplyDeleteशशि,
ReplyDeleteतुम्हारी सुंदर कहानी ने मेरी भी यादों को पुनर्जीवित कर दिया। उसके मधुर और दाईत्व भरे व्यवहार के कारण हर रिश्तेदार उसको घर के सदस्य के रूप में देखता था। हम जो उस समय बच्चे थे, सबके लिए वह एक दोस्त था। वह एक बार हमारे यहां दस पंद्रह दिन रहा था, उसके जाते समय ऐसा लग रहा था कि हमारा भाई जा रहा है, साथ खेले हुए खेल याद आ रहे हैं।
विमल
A real life story which touches the core of your heart
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