आज के इस शीर्षक को पढ़ कर शायद एक बारगी तो आपका अच्छा-भला दिमाग भी चकरा गया होगा | इस छुक –छुक-छैयां में समाई हुई हैं रेलगाड़ी की ढेरों रूमानियत से भरपूर बचपन की यादें, वे यादें जो जुड़ी हुई हैं दूर-दराज के छोटे-मोटे रेलवे स्टेशनों पर बिताए बचपन की जहाँ मेरे नाना स्टेशन मास्टर हुआ करते थे | मेरे उस बचपन की बानगी से अगर आप अब तक अनजान हैं तो संस्मरण “कण-कण में भगवान (भाग- 1 ): बचपन की बहार - पथरी की पुकार” को भी अवश्य पढ़ लीजिएगा, जिसका लिंक शीर्षक के साथ ही दिया हुआ है |
रेलगाड़ी से जुड़ी कभी एक जीवन-सीख देने वाली कविता भी पढी थी :
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अगर तुम्हारा पथ
निश्चित है
तब तो घने अँधेरे में भी
पहुँच जाओगे अपनी मंजिल
जैसे ट्रेने दौड़ लगातीं
रातों में भी
पहुँचा करती हैं स्टेशन |
अगर नहीं
तो भरी दोपहरी में भी
अपना पथ भूलोगे
जैसे नावें भटका करती हैं
सागर में |
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( साभार : स्व० श्री रमेश कौशिक, कविता संग्रह: मैं यहाँ हूँ )
******** सो ज़ाहिर सी बात है रेल तो आज तक मेरे दिलो-दिमाग में छुक-छुक-छैय्याँ कर ही रही है |
उन्हीं यादों को फिर से ताज़ा करने के लिए बैठे-बिठाए दिमाग में फितूर उठा कि चलो रेल म्यूजियम चलते हैं | नई दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित रेल म्यूजियम, भारतीय रेल के इतिहास और विकास दोनों को ही बहुत आकर्षक और मनोरंजक रूप में प्रस्तुत करता है | यहीं का एक प्रमुख आकर्षण है छोटी से रेलगाड़ी जिसमें बैठ कर बच्चे और बड़े सभी एक सामान आनंदित होते हैं | उस छोटी सी रेलगाड़ी के छोटे से स्टेशन के छोटे से प्लेटफार्म पर बच्चे और बड़ों की भीड़ में चहलकदमी करते हुए दिल के किसी कोने से आवाज उठी कहाँ है वह शख्स जो इस छोटी सी खिलौना ट्रेन को चलाता है और सभी को बहुत बड़ी खुशी दे रहा है | मन में एक धूमिल सी तस्वीर थी कि कैसा होगा वह इंसान – शायद ढीले-ढाले बेतरतीब से कपड़ों में अधेड़ उम्र का, कच्चे-पक्के बालों वाला जिसकी आँखों पर नज़र का मोटा सा चश्मा लगा होगा | इसी दिमागी-तस्वीर से मेल खाता इंसान खोजने की कोशिश कर रहा था पर नाकामयाब रहा | हाँ , अलबत्ता इंजिन के पास ही सूट-बूट पहने एक बहुत ही स्मार्ट, गोरा –चिट्टा नवयुवक दिखाई पड़ा| कुल मिलाकर व्यक्तित्व ऐसा कि एक बार देखकर भी दोबारा नज़र चुम्बक की तरह मजबूरन वापिस खिंची चली जाए | सच में, मुझे संकोचवश शब्द भी नहीं मिल रहे थे कि पूंछ लूँ- “क्या यह रेलगाड़ी आप ही चलाते है ?” समय कम था और मन में उमड़ रहे सवाल कहीं ज्यादा अत: हिम्मत करके सवाल का जवाब मिल ही गया – “आपने सही पहचाना | मैं अनिल सेंगर हूँ जो इस छुक-छुक गाड़ी को चलाता हूँ |” बस फिर क्या था मन में बसे ढेरों सवाल और उन सवालों के बहुत ही विनम्रता से दिए गए शालीन जवाब जो अपनी कहानी खुद ही बयाँ कर रहे हैं, और इसी पर आधारित है आज की कहानी – अनिल भैय्या – छुक-छुक छैयां
छोटा इंजिन पर जिम्मेदारी बड़ी |
मेरा नाम अनिल सेंगर है | भारतीय रेलवे में काम करता हूँ , लोको पायलेट के पद पर | वैसे मेरी कहानी में कहने को कुछ भी ख़ास नहीं है, पर दूसरी तरह से सोचा जाए तो बहुत कुछ है | मेरा बचपन एक तरह से गाँव, कस्बे और शहर का मिला-जुला खिचडी रूप रहा है | आठवीं तक की पढाई दिल्ली में ही हुई जहां मेरे पिता जी की पोस्टिंग थी जो रेलवे में ही काम करते थे | लिहाजा उसके बाद हाथरस से विज्ञान विषयों से इंटरमीडिएट किया | सच कहूँ तो मुझे एक तरह से नौकरी करने की जल्दी थी | वजह मुझे आजतक खुद भी नहीं पता | अब नतीज़ा यह कि इंटर के बाद जहां मेरे दूसरे साथी बी.ए या बी.एस.सी में दाखिला लेने की जुगाड़ में थे, मैं पहुँच गया आई.टी.आई के तकनीकी कोर्स में दाखिला लेने | जो मेरे पिता ने समझाया मैंने उसी पर आँखें मूंद कर विश्वास ही नहीं, वरन अमल भी किया | आज के जमाने में जब बी.ए , एम्.ए और अब तो एम्.बी.ए की डिग्री लेने की भेड़ –चाल है, ऐसे बेरोज़गारी के समय में भी तकनीकी शिक्षा लेने वाला कभी और कुछ हो- या- न- हो , पर कम-से-कम भूखा तो नहीं मरेगा, ऐसा उनका विश्वास था | उनका विश्वास और भरोसा समय की कसौटी पर खरा उतरा | आई.टी.आई. का कोर्स करने के बाद ही मैं भारतीय रेलवे की नौकरी में वर्ष 2003 में आ गया | शुरुआत में यहाँ के मेंटेनेंस डिपार्टमेंट की वर्कशाप में काम सीखा, काम किया, मेहनत से किया | हाथ और कपड़े तेल और ग्रीस में भरपूर काले - काले पर माथे पर कोई शिकन नहीं | बस मन के कोने में यही एक विश्वास था कि मेहनत रंग जरूर लाएगी – बेशक देर-सवेर ही सही | और कहा जाए तो मेरे मामले में, यह देर भी कुछ ख़ास नहीं रही | साल 2013 मेरे लिए एक खुशी लाया | मैं लोको रनिंग स्टाफ के केडर के लिए चुन लिया गया | आप इसे कुछ यूं समझ सकते हैं – अब निर्धारित ट्रेनिंग पूरी करने के बाद मैं रेलगाड़ी को चला सकता था |
रेलगाड़ी भी बड़ी और जिम्मेदारी भी बड़ी |
निकल पड़े अपने सफ़र पर |
रही बात रेल म्यूजियम की बच्चा ट्रेन चलाने की, तो जब कभी भी नियमित स्टाफ छुट्टी पर चला जाता है तो ऐसी स्थिति में मेरी ड्यूटी भी लग जाती है | अपने रोजमर्रा के एक ही ढंग के काम से हटकर यहाँ आकर हंसते-खिलखिलाते बच्चों को देखकर मैं पूरी तरह से तरोताज़ा हो जाता हूँ | मुझे अपना खुद का बचपन याद आ जाता है जब मेरे पिता जी ने मुझे इसी बच्चा ट्रेन में सैर करवाई थी | सच मानिए बड़ी ट्रेन की तो बात ही छोडिये , उस वक्त मैंने सपने में भी यह नहीं सोचा था कि एक दिन इस खेल-गाड़ी को भी मैं स्वयं चलाऊंगा| मेरी जिन्दगी इस खेल-गाडी और रेल- गाड़ी के बीच आप सबकी शुभकामनाओं से बहुत ही आनंद से गुज़र रही है |
और हाँ..... चलते-चलते एक बात और | मेरा मानना है कि जीवन के प्रति एक सकारात्मक सोच रखिए | अपने और अपने परिवार के बारे में तो सभी सोचते हैं , कुछ देश के बारे में भी सोचिए | मैं स्वयं भारतीय प्रादेशिक सेना में भी अपनी सेवाएं दे रहा हूँ जिसके लिए प्रति वर्ष एक माह की ट्रेनिंग पर भी जाता हूँ | भारतीय फौज के साथ बिताया यह एक माह मुझे पूरे वर्ष के लिए इतने उत्साह और ऊर्जा से भर देता है जिसे मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता |
कड़ी मेहनत के बाद मौज - मस्ती भी जरुरी |
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तो दोस्तों , यह थी कहानी हमारे अनिल भैया उर्फ़ छुक-छुक-छैय्याँ की | कैसी लगी ? आप सबसे मेरा अनुरोध है कि इस जोशीले नौजवान के सुरक्षित और सफल भविष्य के लिए कामना करें | यदि हमारा- आपका अनिल सुरक्षित रहेगा तभी तो अपनी-अपनी मंजिलों तक पहुँचने का हमारा-आपका सफ़र सुरक्षित होगा |
Nice to read your story
ReplyDeleteGod bless you we are all proud of you beta ji
Thanks n regards 🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteBhai Maja aa gaya
ReplyDeleteधन्यवाद भाई
DeleteDuty of loco driver are very hard. To take time out for recreation is hard to come. Your story writing style is always beautiful and enjoyable.
ReplyDeleteThanks for appreciation 🙏
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