जिन्दगी में किस चीज़ का ज्यादा महत्त्व है – मेहनत का या भाग्य का, यह सवाल अरसे से मेरे दिमाग में घूमा करता था और हो सकता है मेरी तरह से आप भी बहुत से लोगों को यह सवाल परेशान करता हो | इस सीधे से पर टेढ़े सवाल का जवाब खोजने में लोगों को बरसों लग गए पर आज भी सवाल वहीं का वहीं है, बिना किसी भी जवाब के, ठीक उसी तरह जैसे कोई पूछे कि मुर्गी पहले आयी या अंडा ? कुछ-कुछ इसी तरह के जलेबी की तरह गोल सवाल के इर्द-गिर्द घूमती है आज की कहानी – एक जीते –जागते इंसान की सच्ची आपबीती |
उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जिले बुलंदशहर के लगभग नामालूम से कस्बे खुर्जा से शुरू होती है यह कहानी | यह कहानी घूमती है एक ऐसी मेधावी छात्रा के इर्द – गिर्द जिसकी अब तक की उथल-पुथल से भरी ज़िंदगी में लगातार जंग होती रही, समय – समय पर टकराने वाली मुसीबतों से, जिनकों को पार करने के लिए कभी सामना किया मेहनत से और कभी सहारा मिला किस्मत का | बस यही तो है आज की दिलचस्प कहानी का छोटा सा परिचय | संघर्षों से लड़ने वाले जिन किरदारों से आपको ‘उड़ान’ श्रंखला के अंतर्गत अब तक आपसे मिलवाया है, आज का किरदार उम्र में उन सबसे छोटा है | मज़े की बात यह कि इस किरदार का नाम भी श्रंखला ही है – जी हाँ, श्रंखला पालीवाल, एक कुशाग्र छात्रा, जो एम.बी.बी.एस की पढाई कर रही हैं –जवाहर लाल नेहरु राजकीय मेडीकल कालेज, अजमेर से | अगर अपनी कहानी खुद श्रंखला ही सुनाए तो शायद ज्यादा अच्छा रहे | तो शुरू होती है श्रंखला की कहानी खुद उसी की ज़ुबानी :
*******************मैं : श्रंखला पालीवाल
नाम तो अब तक आप मेरा जान ही चुके हैं, दोबारा दोहराने से कोई लाभ नहीं | मुझे खुद यह कभी नहीं लगा कि अब तक जिन्दगी में कुछ ऐसा ख़ास घटा है जिससे मैं स्वयं को विशेष समझ पाऊं | वजह केवल यही रही कि होने वाली हर घटना को बहुत ही सामान्य तरीके से लिया | मेरी बाल-बुद्धि बस यही कहती है कि अपने आप को जितना आम ( खाने वाला नहीं ) समझेंगे, यह जीवन उतना ही सरल रहेगा | मेरा बचपन एक बहुत ही छोटे से शहर खुर्जा में बीता | बहुत ही साधारण पर अनोखी पारिवारिक पृष्ठभूमि, जिसमें शिक्षा और खेती-बाड़ी, कस्बे और ग्रामीण संस्कृति का अद्भुत संगम था |
बचपन की मेरी पहली यादें जाकर पहुँचती हैं मेरे दादा जी- श्री शिव चरण पालीवाल जी पर जो आज इस दुनिया में नहीं हैं, पर जिनका प्रभावशाली व्यक्तित्व आज भी मेरी स्मृति में पूरी तरह से स्पष्ट है | उनकी दी हुई नसीहतें और समझदार सोच आज तक मुझे समय-समय पर रास्ता दिखाती हैं | मेरे दादा अपने ज़माने के लखनऊ विश्वविद्यालय से इंग्लिश और मनोविज्ञान में डबल एम.ए थे | आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र के वह जाने-माने रेडिओ-एनाउंसर थे | मेरी दादी भी इस मामले में कम नहीं रहीं, वह भी मेरी मां की तरह, आगरा यूनिवर्सिटी से एम.ए हैं | अब खुर्जा एक छोटा सा कस्बे-नुमा दकियानूसी शहर जहाँ लड़के और लड़कियों की पढ़ाई में अभी भी भेद-भाव किया जाता है | वह तो भला हो मेरे दादा-दादी के प्रगतिशील विचारों का जो अड़ गए कि पोती भी वहीं दाखिला लेगी जहाँ पोता | इस तरह भारी-भरकम कमर तोड़ फीस के बावजूद मेरे भाई के साथ मुझे भी शहर के जाने-माने महंगे पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलवा दिया गया| यह किस्मत की परी की मेरे लिए पहली सौगात थी जो इतने समझदार दादा-दादी और माँ - पापा के रूप में मेरी जिन्दगी में आए |
दादा -दादी
अब मैनें भी उसी स्कूल में जाना शुरू कर दिया जहाँ मेरा बड़ा भाई रजत जाता था | मैं तब सबसे छोटी क्लास के.जी. में थी| सुबह-सुबह रोज की तरह स्कूल बस में बैठ कर स्कूल के लिए जा रही थी | तबियत कुछ खराब सी थी और रास्ते में ही बस में ही मुझे उल्टी आ गयी | स्कूल पहुँच कर जब सब बच्चे बस से उतर रहे थे, मैं अपनी पानी की बोतल से बस के फर्श पर उस फ़ैली हुई गन्दगी को साफ़ करने में लगी हुई थी | तब तक सब बच्चे बस से उतर चुके थे और मेरी मौजूदगी से अनजान ड्राइवर ने बस आगे बढ़ाना शुरू कर दिया| बस चलती देख कर मैं बुरी तरह से घबरा गयी और अपने नन्हे-नन्हे कदमों से लगभग दौड़ते हुए ही बस के दरवाजे तक पहुँची और नीचे उतरने का प्रयत्न किया | इस सब हड़बड़ाहट में, बस के पायदान पर मेरा संतुलन लड़खड़ा गया और मैं धड़ाम से नीचे गिर गयी जहाँ एक नुकीली ईंट सीधे मेरी आँख से कुछ ऊपर माथे में बुरी तरह से घुस गयी | खून का एक जोरदार फव्वारा मेरे माथे से फूट निकला और जैसे बेहोशी के अंधे कुँए में अपने आप को मैंने गिरते हुए महसूस किया | इतनी छोटी सी बच्ची होने के बावजूद भी मुझे इतना होश था कि बस आगे बढ़ रही है और मैंने अपने बचाव में तुरंत एक करवट ली वरना पिछला टायर मेरे ऊपर से निकल जाता | इसके बाद मुझे कुछ होश नहीं रहा | जब होश आया तो मैंने अपने आप को एक अस्पताल में पाया | बाद में पता चला कि उस भयानक हादसे के बाद मुझे मुझे स्कूल वाले ही शहर के ही अस्पताल ले गए जहाँ उन्होंने प्राथमिक उपचार के बाद हाथ खड़े कर दिए और सलाह दी कि जान बचाने के लिए तुरंत दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में शिफ्ट कर दिया जाए | दिल्ली में सर गंगा राम अस्पताल में मेरे चेहरे के एक के बाद कई आपरेशन किए गए | जख्म इतने गंभीर थे कि आंख और दिमाग तक पर असर पड़ने के आसार थे | डाक्टरों ने साफ़ कह दिया कि अव्वल तो जान ही खतरे में है, अगर जान बच भी गयी तो आँखों की रोशनी जा सकती है, साथ ही याददाश्त भी जा सकती है | मैं उस समय एक छोटी सी नन्ही सी जान, आपरेशन के बाद पट्टियों में लिपटा चेहरा, हड्डियों तक को दर्द से पिघला देने वाला दर्द और उन सबसे ऊपर मेरे दुःख से ज्यादा दुखी मेरे मम्मी-पापा | खैर ..... थोड़े में अगर कहूँ तो, डाक्टरों की लगातार बारह साल की मेहनत और भगवान की कृपा से मुझ पर किये गए सभी आपरेशन और प्लास्टिक सर्जरी सफल रहे, मेरी जान , मेरी आँख और मेरी याददाश्त सभी बच गयी | यह किस्मत की परी की मेरे लिए दूसरी सौगात थी जिसने मुझे एक नई जिन्दगी दी |
मेरी जिन्दगी स्कूल की पढाई और अस्पतालों के बीच घड़ी के पेंडुलम की तरह घूम रही थी | शायद उस समय ही सफ़ेद कोट पहने डाक्टरों को देख कर दिमाग के किसी कोने में में खुद एक डाक्टर बनने का सपना पाला| बस पढाई में और ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया | इसी बीच मेरे दादा बहुत ही गंभीर रूप से बीमार हो गए |तमाम प्रयत्नों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका| कहीं कुछ लगा कि इलाज मे शायद लापरवाही हुई है | डाक्टर बनने की इच्छा ने और मजबूती से संकल्प का रूप ले लिया| मेरी माँ ने हर वक्त मेरी हिम्मत बंधाई|
अपनी दादी और माँ -पापा के साथ
इसी बीच हालात कुछ ऐसे बने कि खुर्जा छोड़ कर जयपुर बसना पड़ा | अगर ऐसे समय में हमें अपनी पुरवा बुआ जी का सहारा न मिला होता तो आज शायद कहानी ही कुछ और ही होती | जयपुर आ कर स्कूल की पढाई के साथ मेडीकल कॉलेज के दाखिले के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की भी शुरुआत कर दी | ऐसे समय में मेरे अपने फूफा जी, जिनका खुद का अपना कोचिंग सेंटर था, मेरे लिए मानों साक्षात भगवान के रूप में अवतरित हो गए | उनकी निगरानी में मेरी तैयारी और अधिक व्यवस्थित हो गयी | यह किस्मत की परी की मेरे लिए तीसरी सौगात थी जिसने मुझे छोटे से शहर खुर्जा से जयपुर पहुंचाया और अपने कोचिंग सेंटर वाले फूफा जी से मिलवाया जिन्होंने मेरी पढाई को एक निश्चित दिशा दी| अक्सर यह सोचती हूँ कि यहाँ साक्षात किस्मत की परी मेरी बुआ जी श्रीमती पुरवा और देवदूत के रूप में विशाल फूफा जी ही थे |
किस्मत की परी और देवदूत - मेरी पुरवा बुआ और विशाल फूफा जी |
खैर मेडीकल कालेज में दाखिला हो गया | हर साल प्रतिभागी छात्रों के समग्र व्यक्तित्व और बुद्धि-कौशल के मानक माप-दंडों पर कालेज में नई छात्राओं में से मिस फ्रेशर का चुनाव किया जाता है| वर्ष 2015 की मिस फ्रेशर मैं चुनी गयी| कौन यकीन करेगा कि एक छोटे से कस्बे की साधारण सी वह लड़की जिसका कभी दुर्घटना में चेहरा बुरी तरह से बिगड़ चुका था, याददाश्त बचने की कोई उम्मीद नहीं थी, वह लड़की अपनी अब तक पाली गयी सभी हीन-भावनाओं को पूरी तरह से नकार कर, गौरव से अपना सर ऊँचा कर तालियों की गड़गड़ाहट के बीच पुरस्कार ले रही थी | उस दिन पहली बार मुझे महसूस हुआ कि मेहनत और किस्मत की परी के साथ-साथ , मुझे यहाँ तक पहुंचाने का श्रेय जाता है मेरे दादा-दादी, मम्मी-पापा, फूफा जी और सभी गुरुजनों को | इन सभी को मेरा सादर नमन |
फिलहाल मैं मेडीकल के तीसरे वर्ष में हूँ | इंतज़ार है पढाई पूरी करने के बाद, सफ़ेद कोट को पहन कर लोगों की जान बचाऊं, ठीक उसी तरह जैसे किसी ने मेरी जान बचाई थी |
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