22
साल की उम्र में वर्ष 1978 में सीमेंट
कॉर्पोरेशन आफ़ इंडिया के हिमाचल प्रदेश स्थित
राजबन फेक्ट्री में नयी-नयी नौकरी लगी थी | उम्र और तजुर्बा, दोनों के ही
मामले में पूरी तरह से अपरिपक्व | यह उम्र का वह दौर था जब बचपन पूरी तरह से गया
नहीं था और जवानी पूरी तरह से आयी नहीं थी | बस यह समझ लीजिए कि बीच की दहलीज पर
थे | मेरा मानना है कि नौकरी के लिहाज से उम्र की वह दहलीज बड़ी खतरनाक होती है
क्योंकि उस समय तक दुनियादारी की पूरी तरह समझ आयी नहीं होती है और दफ्तर में भी
कालेज जैसी शरारतें इस हद तक कर दी जाती हैं कि अगर नौकरी सरकारी है तो सालाना
रिपोर्ट खराब हो सकती है, ट्रांसफ़र हो सकता है| बदकिस्मती से अगर प्राइवेट सेक्टर
या लाला की नौकरी है तब तो ऐसी नादान कारस्तानियाँ घर बिठाने की नौबत भी ले
आती हैं| एक बारगी ऐसे ही किसी खुराफ़ाती लम्हें में अपने एक दक्षिण भारतीय सहकर्मी
की नेम प्लेट के नीचे चुपके से बड़ा सुंदर
सा चमचे का चित्र बना दिया था | कारण सिर्फ इतना था कि वह सहकर्मी तत्कालीन
महाप्रबंधक का खासम-खास मुंह लगा सिपहलसार था | यानी पल पल की चुगलखोर खबरें बिजली की भी तेज रफ़्तार से मास्टर कंप्यूटर तक
पहुंचाने वाला उस ज़माने का वाई-फाई | इन हरकतों की वजह से बस यह समझ लीजिए कि ‘
सारी दुनिया - सारा जहान, सारे दुखी-
सारे परेशान’ | अब नज़ारा देखने लायक था – जो भी कारीडोर में उस मित्र के कमरे के
आगे से गुजरता, नेम प्लेट पर नज़र पड़ते ही जबरन मुस्कराहट को रोकने का प्रयत्न करता
| कारगिल पर हुई पाकिस्तानी घुसपैठ की हरकत की तरह बाहर की हलचलों से अनजान हमारा जासूस मित्र अन्दर कमरे में अपने काम -काज में व्यस्त था
जब तक कि उस जासूस के भी जासूस ने उसे बताया कि मी लार्ड ! कोई अनाम हिन्दुस्तानी
सिरफिरा क्रांतिकारी आपको सरे आम बाकायदा
चमचे की पदवी से सम्मानित कर चुका है | मित्र सब काम छोड़ कर झटपट तुरंत दरवाजे की
और लपके | दरवाजे पर लगी नेम प्लेट पर बना सुंदर सा चमचा मानों गागर में सागर भरे
उन्हें मुंह चिढ़ा रहा था | उन्होंने भी
शायद अपने जीवन काल में नेम प्लेट पर नाम के साथ सम्पूर्ण चरित्र-चित्रण का इतना
संक्षिप्त परिचय शायद ही कभी देखा हो | यह देखते ही मित्र की त्योरियां चढ़ गयीं, पहले
से ही सांवली रंगत वाला चेहरा गुस्से से तमतमा कर और काला पड़ गया | लगभग दौड़ते हुए
साथ लगे हुए कमरे में आए और अपनी पतली सी कांपती आवाज में मदरासी लहज़े में सभी को
सुनाते हुए चीख कर बोले- ‘किसने किया है
ये सब | मैं छोडूंगा नहीं |’ इतना धमाका करने के बाद दिवाली के अनार की तरह जितनी
जल्दी वह आये उतनी ही जल्दी दनदनाते हुए मिसाइल की तरह नदारत भी हो गए| कमरे में बैठे लोग, जिसमें इस सारे
खुराफ़ात की असली जड़ - मैं भी शामिल था, उस अचानक हुए हवाई हमले के लिए तैयार नहीं
थे| कुछ देर तक उस कमरे में बिलकुल पिन ड्राप सन्नाटा छा गया | धीरे-धीरे कमरे की
चहल-पहल फिर से लौट आई और लोग चटकारे ले-ले कर उस घटना का मज़ा लेते हुए उस अज्ञात
वीर सेनानी की ( यानी मेरी ) हिम्मत की
तारीफ़ में जुट गए जिसने सीधे –सीधे इतने मजाकिया अंदाज़ में कुछ न कहते हुए भी बहुत
कुछ कह दिया था | अब एक कोने में चुपचाप बैठे हुए मुझे उस बातचीत में कोई दिलचस्पी
नहीं थी | मेरी हालत तो उस सींकिया पहलवान से भी बदतर हो रही थी जो भांग के नशे में शेर के ऊपर सवार तो हो गया पर नशा उतरने पर यही सोच कर
अधमरा हुआ जा रहा था कि अपने हिस्से का काम तो मैंने कर दिया अब बाकी का काम शेर
जी के हवाले | कहने वाले सच ही कह गए हैं कि चोर के पाँव नहीं होते | अन्दर ही
अन्दर हालत पतली हो रही थी | अब जिसका डर था वही हुआ | अब अगर हमला इजराइल पर होगा
तो शिकायत तो अमरीका तक जानी ही थी | कुछ ही देर बाद जनरल मेनेजर का चपरासी हाजिर
हो गया इस फरमान के साथ कि चलो बुलावा आया है, जी.एम ने बुलाया है | जहाँ तक मुझे
याद पड़ता है उस समय जी .एम भूटियानी साहब थे,
जो कि एक अच्छे-खासे डील-डोल के गोरे – चिट्टे सिंधी व्यक्ति थे | बहुत ही शांत
स्वभाव के मधुर भाषी इंसान | पर भाई, जी.एम तो आखिर जी.एम ही होता है, यानी पूरी
फेक्ट्री का एक तरह से खुदा तो खुदा से खौफ़ तो लाज़मी ही था | सो उस खुदा की दरगाह
में मन ही मन राम-राम कहते दाखिल हुआ | दरगाह के एक कोने में वही मद्रासी फरियादी रुआंसी चमचेनुमा शक्ल बनाए खड़ा था | अब
तक मैं भी समझ चुका था कि लगता है मास्टर कंप्यूटर में मेरी शिकायत पहले ही वाई –फाई
द्वारा अपलोड की जा चुकी है | चमचे की चित्रकारी से सजी मित्र की नेम-प्लेट सामने
मेज पर अपराध के सबूत के रूप में रखी थी जो मुझे तिरछी नज़रों से देख कर इशारों में
ही मानों पूछ रही थी कि गुरु मुझे पहचाना या नहीं ? हम भी मन में ठान चुके थे ,कुछ
भी हो जाए, चाहे तो डी.एन.ए टेस्ट हो जाए इस नामुराद नेम प्लेट का, इस नामाकूल को
हम भी मरहूम एन.डी तिवारी की तरह से कतई
अपना नहीं मानेंगे | जी.एम साहब की दबी हुई मुस्कान से यह तो जाहिर हो रहा था
कि मामला की असल वजह तो जान चुके थे पर
अमरीका और इज़राइल के बीच की रिश्तेदारी की भी तो इज्जत मजबूरीवश ही सही पर निभानी तो पड़ेगी ही , बेशक सरसरी तौर पर
ही सही | सो उन्होंने मुस्कराते हुए ही मुझसे पूछा इस नेम प्लेट को देखा है |
मैनें नेम प्लेट और मित्र दोनों को ही एक नज़र से देखते हुए कहा – सर बहुत बार देखा
है , पर यह चमचा पहली बार देखा है | अब साफ़ लगने लगा कि हँसी रोकना उनके लिए भी
भारी सा पड़ने लगा था | फिर से पूछा कि यह तुम्हारा काम है ? मुझे अच्छी तरह से पता था कि मेरी कारस्तानी का
कोई भी चश्मदीद गवाह नहीं है, सो बे-धड़क कहा ‘नहीं सर , चाहे तो मेरी हेंड-राइटिंग
मिल लीजिए’ | जवाब सुनकर भूटियानी साहब ने मुस्कराते हुए अपने सर पर हाथ फेरते हुए
एक ठंडी सांस छोड़ी और कहा यही तो दिक्कत है, तुम्हारी हेंड राइटिंग से किसी भी लिखावट को तो मिलवा
सकता हूँ पर इस चमचे को नहीं | कहने की बात नहीं मुकदमा बर्खास्त, मुलजिम बाइज्ज़त
बरी और फरियादी वापिस अपने कमरे में जिस पर अब कोई नेम प्लेट नहीं थी |
खैर
यह किस्सा तब के लिए ख़त्म हो गया | अपने उस साथी से भी मुझे किसी भी प्रकार का वैर
नहीं था जो वह भी अच्छी तरह से जानते थे |स्कूल - कालेज के दिनों की तरह यह शरारती कांड भी मेरी मौज मस्ती का ही भाग था। उन्होंने भी शिकायत केवल संदेह के आधार
पर ही की थी | स्वभाव मेरा भी शुरू से ही मजाकिया रहा इस लिए बाद में सब कुछ सामान्य हो
गया | कुछ वर्षों के बाद ट्रांसफर होने पर उन मित्र के साथ बाद में एक अन्य स्थान
पर भी साथ ही काम किया पर अपनी कारस्तानी की बात उनके सामने उतनी ही गोपनीय रखी
जितनी आज के समय में राफेल हवाई जहाज़ की कीमत रखी जा रही है |
उस
घटना को हुए तब लगभग पच्चीस साल बीत चुके होंगें | मैं तब तक देहरादून जोनल आफिस में
नियुक्त था | मेरे उसी मित्र का दक्षिण भारत के किसी कोने से फोन आया कि तुम्हारी
तरफ घूमने आ रहा हूँ, संभव हो तो ठहरने का इंतजाम करवा देना | यह कोई बड़ी बात नहीं
थी, सब इंतजाम हो गया | दोस्त से मिलने की खुशी भी थी | पत्नी सहित पधारे मित्र से
बड़े प्यार से मुलाक़ात हुई | रात को खाने की मेज पर खाने के साथ-साथ हँसी-मज़ाक भी
चल रहा था | दोस्त बातें करते हुए बहुत स्वाद लेते हुए सूप पी रहे थे | अचानक मेरा
ध्यान उनके हाथ में थामें सूप के चम्मच पर पड़ा | पल भर में ही मेरे शरारती खोपड़ी
में पच्चीस साल पुरानी कारस्तानी घंटियाँ बजने लगीं | बहुत ही मासूमियत से मित्र
को मैंने उस पुरानी घटना की याद दिलाई | याद आते ही मित्र बोले “हाँ कुछ ऐसा हुआ
तो था, मेरी अच्छी-खासी नेमप्लेट का किसी नालायक ने सत्यानाश कर दिया था | पता नहीं वह कम्बखत
कौन था ?” मित्र की आँखों में आँखें डालते हुए एक शरारती मुसकराहट के साथ मैंने
धीरे स्वर में धमाकेदार बम फोड़ा – “ वह नालायक, नामुराद, कमबख्त मैं ही था जो अब तुम्हारे सामने बैठा तुम्हारे
हाथ के चमचे को देख रहा हूँ |” सुनते ही हाथ का चमचा टन्न की आवाज करता सूप के
बाउल में जा गिरा और दोस्त मुझे आश्चर्य से ऐसी नज़रों से घूर रहा था कि अगर
शाकाहार मजबूरी न होती तो शर्तिया आज मैं उसके डिनर का हिस्सा बन जाता| दोस्त के चेहरे पर एक के बाद एक रंग तेजी से आ रहे थे, जा रहे थे । पर अंत में उनके मुंह से जोरदार हंसी का ठहाका निकला और मेरे लिए तारीफ के दो शब्द : YOU SCOUNDREL!!
दोस्त
की बात तो वही जाने पर उस रहस्य का पर्दाफ़ाश करके मैं तो उस रात भरपूर नींद सोया,
कहते हैं ना सच बोल कर दिल का बोझ हल्का हो जाता है |अब आप भी कुछ ज्यादा ही
सीरियस मत हो जाना..... उस दोस्त से अभी भी खूब मस्ती की गप्पबाजी होती रहती हैं |
Bahut khub sir too good
ReplyDelete