Thursday 27 September 2018

ऊँची उड़ान (भाग 1 ) - जमीं से आसमां तक

मोदी कॉलेज 

उन दिनों यानी वर्ष 1972-1974 के दौरान  मैं मोदीनगर स्थित मुलतानीमल मोदी कालेज से बी.एस.सी कर रहा था जो मेरठ विश्वविद्यालय जिसे अब चौधरी चरण सिंह विश्विद्यालय के नाम से जाना जाता है, से सम्बद्ध था | पढ़ाई और अनुशासन के लिए इस कॉलेज की गिनती अच्छे कालेजों में की जाती थी | घर वालों ने मेरा दाखिला वहाँ के छात्रावास में ही करवा दिया था | आस-पास के ग्रामीण और कस्बाई परिवेश से आने वाले सीधे-साधे सरल स्वभाव छात्रों की छात्रावास में बहुतायत थी | पढाई का वातावरण कॉलेज और छात्रावास दोनों ही जगह रहता था |

कथा का नायक -गोल घेरे में मेरा मित्र तब 
अब आप यह भी मत समझ लीजियेगा कि हमारा कॉलेज और छात्रावास स्वामी रामदेव का गुरुकुल की श्रेणी में था | हंसी-ठिठोली और मौज-मस्ती भी चलती थी | जूनियर छात्रों की रेगिंग-रगड़ाई भी एक सामान्य सी बात थी | वैसे तो हर कक्षा में बहुत से छात्र होते हैं पर उनमें से कुछ ही होते हैं जो किन्हीं विशेष कारणवश अपनी छाप छोड़ देते हैं | यह कारण कुछ भी हो सकता है – मसलन दमदार दिमाग़ (मित्र) , खुराफाती खोपड़ी (हर्ष), महाबौड़म (मैं), ऊधमी पंगेबाज (बहुत सारे- किसी एक का नाम लेना बाकी के साथ नाइंसाफी ) , ग्रेट गायक (हरिकिशोर)   वगैरा वगैरा | हमारी क्लास का ही एक छात्र वाकई में सबसे अलग था और सच कहूँ तो मुझे काफी हद तक उससे ईर्ष्या भी होती थी | हापुड़ के पास के ही एक गाँव में एक मध्यम वर्गीय किसान परिवार से ताल्लुक रखता था |  मध्यम कद काठी का, गोरा चिट्टा रंग और खिलखिलाती हुई उसकी हँसी तो ऐसी मानो स्कूल की छुट्टी की घंटी बज रही हो | स्वभाव से अत्यंत विनम्र और वास्तविकता के धरातल पर रहने वाला | हमारा यह मित्र कभी भी अपनी ग्रामीण पृष्टभूमि को बताने में कभी संकोच नहीं करता | कभी-कभी मौज मस्ती के क्षणों में कहता “हम तो भैया गाँव के टाट-पट्टी के स्कूल की उपज हैं | अपने से ज्यादा हमें अपने पाजामें की फिकर रहती थी कि स्कूल पहुँचने से पहले ही कहीं गंदा न हो जाए , इसलिए उसे भी अपने बस्ते में रख कर ही ले जाते थे |”   कुछ भी कहिए कमबख्त दिमाग का बहुत तेज था | सब विषयों में अव्वल नंबर लाता, सभी प्रोफेसरों का लाडला और कक्षा की छात्राओं का भी-  जो कि मेरी ईर्ष्या  की असली वजह थी  | छात्रावास में ही पास के दो-चार कमरे छोड़ कर ही रहता था | दुष्ट सारे दिन तो छात्रावास में हो हल्ला मचाता  धींगा-मस्ती मारता फिरता पर फिर भी पता नहीं कैसे हर परीक्षा में हमारे हिस्से के नंबर भी अल्ला-ताला उसकी झोली में डाल देता था | काफी अन्वेषण और अनुसंधान के बाद इस परिणाम पर पहुँचा कि जब मैं  रात को जोरदार खर्राटों की सुरीली स्वर लहरी के पार्श्व संगीत में स्वप्निल संसार में हिंडोले ले रहा  होता था तो यह कलम का सिपाही जुटा होता किताबों की युद्ध भूमि में | बात यहीं तक होती तब भी गनीमत थी, इतना तो तब था जब कभी कभी उसकी किताब की बगल में बोतल और गिलास की जुगल बंदी भी ऐसी महफ़िल सजा लेती थी जैसे हारमोनियम के साथ तबला सारंगी की जोड़ी | रही सही कसर सिगरेट के सुट्टे से पूरी हो जाती थी | झूठ नहीं बोलूँगा, एक बारगी तो मुझे यही लगने लगा कि उसके  दिमाग़ के घोड़े दौड़ाने का एकमात्र मार्ग बोतल और धुंए के तीर्थ स्थानों से होकर ही गुजरता है |  अब हम उसके दिमाग के मामले में तो उससे टक्कर ले नहीं सकते थे क्योकि उसके दिमाग के पुर्जे मर्सीडीज़ कार के थे और हमारे पुराने लेम्ब्रेटा स्कूटर के तो सोचा चलो भाई का कुछ ऊपरी रंग-ढंग ही पकड़ लो | एक दिन देखा श्रीमान के बाल शशि कपूर के स्टाइल में और वह भी सुनहरे रंग के | तुरंत जाकर राज़ पूछा और भाई ने तुरंत बता भी दिया कि यह सब हाड्रोजन पराक्साइड का खेल है जिसे बालों में लगाने से बाल सुनहरे हो गए हैं | सुना तो आपने भी होगा कि असल बन्दर वही होता है जो नक़ल करने में देर न करे सो तुरंत बाज़ार जाकर केमिस्ट की दुकान से हाड्रोजन पराक्साइड की शीशी ले आया और कर दी अपने बालों की खेती की अच्छी तरह से सिंचाई | अब बैठे थे हम नारद मुनि  की तरह से शीशे में अपना रूप निहारते कि हमारे  बाल कैसे सुनहरी छटा बिखरते हैं | अब नारद मुनि को तो फिर भी अपना वानर रूपी मुख शीशे में नज़र आगया था पर हमारे बाल तो सुनहरी हुए नहीं | हाँ, थोड़ी ही देर बाद सर में भयंकर खुजली होनी अवश्य शरू हो गई मानों चीटियों की सेना सर में कवायद कर रही हो और और हम थे कि खोपड़ी और बालों को खुरचे जा रहे थे |  एक बारगी तो लग रहा था कि इस नक़ल की हरकत को देखते हुए परम पिता परमेश्वर मुझे पूर्ण रूपेण बन्दर बना कर ही मानेगा | खुजली से मुक्ति पाने के लिए छात्रावास के कामन बाथरूम की तरफ सुपर सोनिक रफ़्तार से दौड़ लगाई और पानी का नलका खोलकर खोपड़ी के खेत को बाढ़ के पानी में लगभग डुबा ही डाला | जैसे तैसे करके 10 मिनट के बाद कुछ आराम आया | अब अपनी हालत और हालात किसी ओर को तो क्या बताता पर काफी दिनों के बाद पता चला कि उनके द्वारा दिया ज्ञान भी उसी तरह से अधूरा था जैसे महाभारत का उद्घोष – अश्वत्थामा हत: ही प्रत्यक्ष रूप से सुनाई दिया, और  नरो व् कुंजर दब गया शंखनाद में | हमें हाड्रोजन पराक्साइड के घोल को सर पर लगाने से पहले उसकी तीव्रता को पानी डालकर कम करना चाहिए थी जो हमने किया नहीं और नतीजा आप सबके सामने मैं बता ही चुका हूँ | इस तरह से इस ज्ञानी बालक के सानिध्य में जीवन का एक सबक मिला- आप जैसे हो संतुष्ट रहो, नक़ल मत करो और अगर करते भी हो तो अकल से करो |

खैर बी०एस०सी  पूरी करनी के बाद मोदीनगर से नाता छूट गया | आगे की पढाई करने पहले दिल्ली और उसके बाद शिमला गया | उसके बाद नौकरी में व्यस्त हो गया | अब उन दिनों इंटरनेट के साधन और फेसबुक वगैरा तो होती नहीं थी सो पुराने साथियों से कोई संपर्क नहीं रहा |

समय चक्र गतिमान हुआ और तब  वर्ष 2009  चल रहा था | डिजिटल क्रान्ति के फलस्वरूप कंप्यूटर और इंटरनेट सुलभ हो चले थे | तब तक मैं देहरादून आंचलिक कार्यालय में तैनात था | थोड़ी बहुत दोस्तों की खोजबीन करने पर पता चला कि हमारा मोदीनगर का ज्ञानी छात्र अब तो शालिग्राम का रूप ले चुका है | डबल पीएचडी की डिग्री, ढ़ेरों किताबें और रिसर्च पेपर लिख मारे और  अब गोविन्द बल्लभ पन्त विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर बनकर परम ज्ञान बाँट रहा है | तभी से मैं उसके  उसके संपर्क में दोबारा आया और अब तक हूँ |
कथा का नायक अब - डा ०  वीर सिंह  

मेरे इस मित्र का नाम है डा० वीर सिंह, जो पन्तनगर स्थित गो.व.पंत कृषि एवं प्रोद्योगिक विश्वविद्यालय में पर्यावरण विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं | उन्हें 30 से अधिक वर्षों का पढ़ाने और अनुसंधान का अनुभव है | इनकी लिखी 50 से अधिक पुस्तकें और 200 से अधिक शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं | उन्होंने अनेक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सेमीनार आयोजित की हैं|   दोहरी पीएचडी डिग्री धारी, प्रोफेसर सिंह कई प्रतिष्ठित भारतीयों और विदेशी विश्वविद्यालयों और संस्थानों में शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं जिसमें इज़राइल का  गैलीलि इंटरनेशनल मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट भी शामिल है| उन्होंने कई एशियाई, यूरोपीय देशों और उत्तरी अमेरिका में वृहद रूप से यात्रा की है और दुनिया की कई संस्कृतियों को बहुत निकट से जाना और परखा । इन्होंने हाल ही में इजराएल पर एक अत्यत रोचक पुस्तक लिखी है : THE SPEAKING STONES जिसकी थोड़ी सी झांकी आपको अपने इस ब्लॉग के माध्यम से देना चाह रहा हूँ | हालांकि मेरे कुछ मित्रों को इस इंग्लिश भाषा की किताब के बारे में हिन्दी में जानकारी अटपटी भी लग सकती है पर मेरे इस ब्लॉग का पाठक वर्ग मुख्यत: हिन्दीभाषी ही है अत: बड़ी विनम्रता से अपनी इस धृष्टता के लिए क्षमा चाहूँगा |  
         
आपने बादलों से लुका छुपी करते चाँद को देखा तो जरुर होगा | आपको चाँद दिखेगा भी और नहीं भी | जब कभी इजराइल देश के बारे में सोचा करता हूँ कुछ ऐसा ही विचार आता है मन में | यह देश दुनिया के उन चुनिंदा देशों में से है जिन्होंने बहुत थोड़े समय में ही हर ओर चाहे वह आर्थिक हो, सामजिक या तकनीकी  क्षेत्र हो हर जगह बहुआयामी प्रगति की है | यह प्रगति भी ऐसी जिसे पूरी दुनिया ने स्वीकार किया और प्रशंसा  भी करी  चाहे सबके सामने या छिप कर | यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि राजनैतिक कारणोंवश इजराएल का मतभेद और विरोध मुस्लिम बाहुल्य देशों के साथ शुरू से ही रहा है | तेल की राजनीति सिद्धांतों की नैतिकता पर भारी पड़ गयी और अकेला पड़ गया इजराएल | विश्व के अधिकतर देशों ने  तेल उत्त्पादक मुस्लिम देशों को नाराज़ न करने के चक्कर इजराएल से दूरी बना कर रखी और अपने राजनीतिक संबंध भी सीमित स्तर पर रखे |  पर इजराएल ने हार नहीं मानी और अपने दम पर न केवल अपनी विरोधी शक्तियों को परास्त करके शांत किया बल्कि इसके बाद अपनी कड़ी मेहनत , दृढ़ इच्छा शक्ति और मजबूत राष्ट्रीय चरित्र की बदौलत विश्व के मानचित्र पर रोल माडल बनकर उभरा |
यह पुस्तक इजराइल के बहुआयामी रूप पर समग्रता से बहुत ही रोचक ढंग से प्रकाश डालती है| पुस्तक का हर अध्याय शुरू से अंत तक पाठक को बांधे रखता है | ईसा मसीह का जन्म स्थल येरुशलम इसी देश में है तो जाहिर सी बात है यहाँ की सभ्यता की जड़े बहुत गहरे तक फ़ैली हैं | येरुशलम पर लिखी कविता पुस्तक की विशेषताओं में से एक है |  डॉ० सिंह ने इस देश में इन ऐतिहासिक स्थलों की सटीक जानकारी फोटो सहित इस पुस्तक में प्रस्तुत की है | इस देश के विश्व के मानचित्र पर उदय की कहानी और बाद में उत्पन्न अरब जगत से सैन्य संघर्षों की गाथा अत्यंत ज्ञानवर्धक है |  इजराइल के शिक्षा जगत के साथ साथ वहाँ के शिक्षकों के व्यक्तिगत और मिलनसारिता से भरपूर मानवीय पहलू भी जानने को मिलते हैं | लेखक ने सेमीनार के दौरान भारतीय संस्कृति और योग में  कैसे अन्य प्रतिभागियों की रूचि उत्पन्न की यह पढ़कर आनंद मिश्रित गर्व की अनुभूति हुई | सांस्कृतिक कार्यक्रम में भारतीय राष्ट्रीय पोशाक में मेरा जूता  है जापानी गीत सुनाकर श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध करने वाला प्रसंग सुन्दर है | सैनिटरी लैंडफिल और कचरा प्रबंधन पर इस देश द्वारा अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीके से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं |  इस पुस्तक में लेखक ने अपनी लेखनी के माध्यम से ही हमें इस देश के सभी मनमोहक रूपों – सागर, मरुस्थल, पर्वत, जंगल की भी सैर करा दी है |
इस विशिष्ट प्रबुद्ध लेखक डा० वीर सिंह को इस रोचक पुस्तक की सफलता के लिए शुभकामनाएं |
Title : THE SPEAKING STONES
Publisher : Nortionpress.com
Price : Rs. 199/-  
मेरी इस पोस्ट का उद्देश्य आपको एक खुशनुमा माहोल में लेजाकर, मेरे बाल सखा  डा० वीर सिंह के विगत  परिवेश से लेकर आज तक की ऊँची बौद्धिक उड़ान का हल्के-फुल्के अंदाज में परिचय कराने का रहा और उसी क्रम में उनकी पुस्तक की जानकारी भी आप सब तक पहुँचाई है |              

Sunday 23 September 2018

जीना इसी का नाम है - गूँज





आज आपको मैं कोई कहानी किस्सा सुनाने नहीं जा रहा | पर बात एक तरह से जुडी है एक प्यारी सी याद से और उससे मिलने वाली सीख से |


बचपन में साथियों की टोली के साथ एक खेल खेला करते थे | गाँव के कोने में एक खेत के अंधे कुँए पर जाकर कुँए की मुंडेर से भीतर तरह- तरह की आवाज लगाने का खेल | जब अपनी ही आवाज की गूँज वापिस सुनाई देती तो वह हम बच्चों के लिए किसी जादू से कम नहीं होता था जिसे सुनकर हम खुशी से खिलखिला पड़ते | अब जब गाँव ही धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं तो बेचारे कुँए की क्या बिसात और कुँए की गूँज तो रह गई है सिर्फ कहानियों में |


बचपन के साथ ही लगे हाथों आपको एक प्यारे से गाने की याद भी दिला देता हूँ | शैलेन्द्र जी का लिखा एक बहुत ही पुराना गीत है जिसे सभी ने कभी न कभी जरुर सुना होगा :

किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार,
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार ,
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार ,
जीना इसी का नाम है |

कितने सीधे-सादे शब्दों में पूरी जिन्दगी का फ़लसफ़ा बयाँ कर दिया है लिखने वाले ने | कभी मौक़ा मिले तो इस गीत को पूरा सुनिए या कभी इसके बोल पढ़िए, दोनों ही हालात में आपको दिल की गहराइयों तक सुकून और आत्मिक शान्ति महसूस होगी | शब्दों की यही तो जादूगरी और करिश्मा होता है , बैठे बैठे आपको प्रेम और आत्मिक सुख के सागर में गोते लगवा सकते हैं तो दूसरी ओर ईर्ष्या- द्वेष की अंगारों भरी भट्टी में भस्म भी कर सकते हैं |

इस गीत के बोलों को कुँए की गूंज के रूप में सुनिए | प्रतिध्वनि भी उसी सुरीले गीत की सुनाई देगी | कुँए की गूँज आपको सिखा रही है जैसा आप बोएँगे, वैसा ही काटेंगे |

किसी का भला करके देखिए आपको जो आत्मिक सुख मिलेगा वह किसी दुश्मन का नुकसान करने या बदला लेने में कभी प्राप्त नहीं हो सकता | पर इस बात को समझने वाले आज हैं ही कितने | हर जगह वही भीड़- भाड़,धक्का-मुक्की, मारकाट और इस सबके बदले में हासिल क्या होता है – ब्लड प्रेशर, डिप्रेशन और ढ़ेरों अनगिनत बीमारियाँ | जैसा हम करेंगे सूद सहित वापिस भी तो मिलेगा क्योंकि कहने वाले तो यह भी कह गए हैं कि बोए पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए | आज अपनी छोटी सी दिल की बात कहते हुए (‘मन की बात’ नहीं क्योंकि यह तो आज की तारीख में बहुत ही भारी-भरकम और परम पावन पूज्य प्रवचन बन चुका है) मुझे अपने पिता स्वर्गीय श्री रमेश कौशिक की एक कविता याद आ रही है जिसे पढ़कर आपको इस कविता और आज के माहौल के बीच सीधा-सपाट संबंध साफ़-साफ़ नज़र आ जायेगा | यह भी हो सकता है कि आप खुद अपने-आप को भी को भी इस कविता के किसी पात्र के रूप में देख पाएं : 

 जाला 

मकड़ी जाला बुनती है
तुम भी जाला बुनते हो
मैं भी जाला बुनता हूँ 
हम सब जाले बुनते हैं।


जाले इसीलिए हैं 
कि वे बुने जाते हैं 
मकड़ी के द्वारा 
तुम्हारे मेरे या 
हम सब के द्वारा।

मकड़ी, तुम या मैं
या हम सब इसीलिए हैं
कि अपने जालों में
या एक-दूसरे के बुने
जालों में फँसे।

जब हम जाले बुनते हैं
तब चुप-चुप बुनते हैं
लेकिन जब उनमें फँसते हैं
तब बहुत शोर करते है।

इसीलिए बेहतर है हम सब के लिए राजनीति छोडिए, जग-कल्याण के सच्चे और सरल मार्ग पर चलिए और पूरी तरह से यह संभव न हो तो कम से कम प्रयत्न तो कर के देखिए | दूसरों के लिए जाले मत बुनिए, जब जाले ही नहीं होंगे तब उनमें कोई नहीं फँसेगा, आप स्वयं भी नहीं |

आज मैंने कोई नई बात आपको नहीं बताई है, मिठाई वही पुरानी है पर तश्तरी में रखा अपने अंदाज़ से है | स्वाद कैसा लगा बताईयेगा जरूर

Friday 14 September 2018

अजब दफ्तर की गज़ब कहानी ( भाग 2) : सर्कस का शेर


मैं इससे पहले अपने अजीबोगरीब सर्कसनुमा गाज़ियाबाद दफ़्तर की बानगी आपको ‘अजब दफ़्तर की गज़ब कहानी (भाग-1)’ में करा चुका हूँ | यहाँ के ऐसे-ऐसे अनगिनत किस्सों की भरमार है जिन्हें अगर लिखने बैठ जाऊं तो राम कसम लतीफों की एक पूरी किताब ही बन जाएगी | इस दफ्तर में काम कम  और खाली दिमाग की  खुराफातें ज्यादा होती थी | अपने पूरे जीवनकाल में इतने मातहत ( गिनती में पुरे 17 ) कभी नहीं मिले जितने गाज़ियाबाद में मेरी दुम से बाँध दिए गए थे | सारे के सारे सिफारिशी , कोई किसी नेता का चेला, कोई भाई तो कोई भतीजा | सब के ठाट गज़ब  और जलवे निराले जिसे देख- देख हम मन ही मन कुढ़ते रहते और सोचा करते हाय हुसैन हम ना हुए | हाँ कभी कभार हमारे पास सजा-याफ्ता मुजरिम भी भेज दिए जाते थे विशेष हिदायतों के साथ कि इन मरखने सांडों से निपटना कैसे है | कई बार चुपचाप बैठा-बैठा सोचता रहता कि भगवान तूने क्या सोचकर मुझ गरीब को इस पागलों के स्कूल का हेड मास्टर  बना दिया |
एक बार सुना कि किसी स्टेनो को ट्रांसफ़र करके गाज़ियाबाद भेजा जा रहा है | सुनकर पहले तो ऐसा  लगा जैसे मुगलों के अंतिम बादशाह बहादुर शाह ज़फर को ब्रिटिश सरकार ने रंगून से वापिस बुलाकर लाल किले का तख्ते ताउस सौंप दिया हो | सोचा चलो अब खतो किताबत करने में थोड़ी सुविधा हो जाएगी वरना अब तक तो चिट्ठियों को हाथ से ही लिख कर भेजा करता था | पर बाद में  दिमाग में यह ख्याल भी मुझे भी पागल करने लगा कि हिन्दुस्तान की आबादी तो पहले से इतनी विस्फोटक हुई पडी है अब इस नवजात शिशु को किस पालने में पालूँगा | पर कर भी क्या सकता था, बुझे दिल से उस 9 बच्चे वाले बिहारी नेता की तरह खुद को समझाया कि जो  परवर दिगार मुँह देता है वही निवाला भी देगा |  
तो जनाब जिन श्रीमान को हमारे यहाँ भेजा वो कद काठी में स्टेनो कम पर पहलवान ज्यादा लगते थे | मुर्गीखाने में हर आने वाले नए मुर्गे की जैसे पूरी जांच पड़ताल की जाती है ऐसे ही कुछ छानबीन करनी मेरे लिए आवश्यक भी थी | पुराने स्कूल के हेडमास्टर से पता चला कि बन्दा बिगड़ा हुआ नेता है | अब नेता भी ऐसा जिसे हर गर्मी में दिमाग में इतनी गरमी चढ़ जाती है कि इस बन्दे और मरखने सांड में कोई अंतर नहीं रह जाता यानी कि कुल मिलाकर मेडीकल प्रोब्लम भी | हो गई न वही बात : एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा  |  अपराध : दिल्ली ग्राइंडिंग यूनिट में फेक्ट्री गेट पर खड़े होकर सरे आम कंपनी के सर्वेसर्वा उस  चेयरमेन के लिए गालियाँ बरसाना जिसके नाम मात्र से ही अच्छे अच्छों का पेंट में ही सूसू निकल जाता था | सब कुछ जानकार अपने आप को समझाया कि  कोई बात नहीं पंडित जी  जब अपना सर इस गाज़ियाबाद के दफ्तर रूपी ओखली में डला ही हुआ है तो इन सांड रूपी मूसलों से क्या डर, जो होगा देखा जाएगा |
कहने वाले कह गए हैं कि बिगडैल घोड़े पर शुरू में ही हंटर नहीं बरसाने चाहिए | फार्मूला काम कर गया , प्यार से बन्दे ने काम शुरू कर दिया | कोई शिकवा नहीं ,कोई शिकायत नहीं, अपने काम में माहिर था और सोने पे सुहागा बला का मेहनती | सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था | कभी-कभी मज़ाक में मुझे वह कह बैठता कि सर आपने जंगल के शेर को आखिर सर्कस का शेर बना ही दिया | मैं भी उसे उसी हलके फुल्के अंदाज़ में जवाब देता कि बेटा जी यह गाज़ियाबाद दफ्तर के सर्कस और सर्कस के रिंग मास्टर का कमाल हैं |
समय गुज़रता जा रहा था और फिर धीरे-धीरे गर्मियों भरे दिनों ने दस्तक देनी शुरू कर दी  |  अच्छे खासे बन्दे के व्यवहार में भी परिवर्तन आने शुरू हो गए | दफ्तर आने के समय में अनियमितता होने लगी, कभी आये तो कभी नहीं | कभी सुबह सुबह  देखता कि दफ्तर के सामने के गलियारे के फर्श पर ही अखबार बिछा कर गहरी नींद में सोए पड़ा है | एक बार तो भाई मेरा, मेरे कमरे में ही कुर्सियां आपस में जोड़ कर खर्राटें मार मार कर कुम्भकर्ण से कम्पटीशन कर रहा था | कई बार सोचता करूँ तो करूँ क्या | अगर ऊपर शिकायत कर दी तो मेनेजमेंट तो बैठा ही इस ताक में है , बन्दे की नौकरी जाने में देर नहीं लगेगी जिसके लिए मेरा दिल गवाही नहीं दे रहा था |  मानवता के नाते मानसिक समस्या को नज़र अंदाज़ भी तो नहीं किया जा सकता था | अपने पिता की कही एक बात आज तक मुझे याद है , कहते थे ये जो दुनिया है डूबते सूरज की आँखों में ही आँख डालने की गुस्ताखी करती  हैं क्योंकि उगते सूरज को घूरने की हिम्मत तो है नहीं | सो जिस पर पहले से ही भगवान की मार है उसे आप और क्या मारेंगे |
एक दिन का वाकया है वह चुपचाप खामोशी की चादर ओढ़े मायूस सा मेरे ही कमरे की एक कुर्सी पर बैठा था | अचानक धडधडाते हुए चार –पांच मुशटंडो का जत्था कमरे में घुस आया और घेर लिया उस जंगल के शेर को |  हद तो तब हो गई जब उन में से एक गुंडे ने अचानक बंदूक की नली उसकी खोपड़ी पर लगा कर धमकाना शुरू कर दिया | एक तरह से पूरा फ़िल्मी सीन सामने पेश हो गया था, पर उस दिन जिन्दगी में पहली बार जाना कि बेटा बंदूक को सिनेमा के पर्दे पर देखना एक बात है पर जब असल में दुनाली से सामना होता है तो अल्लाह, जीसस और ईश्वर तीनों ही एक साथ प्रकट हो जाते हैं यह पूछने के लिए कि बचुआ तुम्हारे पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार के लिए किसे बुलाना है - पंडित को, मौलवी या पादरी को | पूरे दफ्तर में एक बारगी तो हंगामा मच गया पर उस बंदूक वाले की वजह से  किसी भी शख्स में आकर बीच-बचाव करने की भी हिम्मत नहीं थी| मैंने भी मौके की नजाकत को भांपते हुए उस बंदूकची के पारे को नीचे आने का इंतज़ार किया | खैर जैसे तेसे हालात काबू में आए और पता लगा कि दफ्तर आते समय हमारा शेर पता नहीं किस पिनक में रास्ते के कुछ बदमाशों से किसी बात पर उलझ बैठा था बिना यह जाने बूझे कि यह जगह कायदे की दिल्ली नहीं गुंडों का गाज़ियाबाद है | अब बंदूक के सामने तो वह भी कतई पत्थर की खामोश मूर्ती बना उस तूफ़ान के गुज़र जाने का इंतज़ार कर रहा था | दफ्तर के दूसरे कमरे से भी अब लोग आकर जमा हो गए थे और बीच-बचाव के बाद लंका काण्ड जैसे-तेसे सम्पूर्ण हुआ |
उस वाकये के बाद मैंने उस शख्स को फिर कभी नहीं देखा | उसने दफ्तर आना छोड़ दिया, वजह क्या रही पता नहीं, शायद उस दिन की फजीयत के कारण उत्पन्न लज्जा, कुंठा या कुछ और जो केवल वही जानता था | कंपनी में आई वी०आर०एस (Voluntary Retirement Scheme) के तहत उसने नौकरी छोड़ दी | बाद में किसी ने बताया उसकी तबियत  ज्यादा  ही खराब हो चली | आँखों से दिखना भी बंद हो गया था | एक दिन पता चला बीमारी में ही मेरा जंगल का शेर इस दिल्ली के कंक्रीट जंगल को छोड़ ब्रह्माण्ड के विराट जंगल में विलुप्त हो गया | अगर मैं ठीक से याद कर पा रहा हूँ तो वह वर्ष 2005 था |            

Friday 7 September 2018

अजब दफ्तर की गज़ब कहानी (भाग 1) : मीठी गोली



गाज़ियाबाद में सी०सी०आई (सीमेंट कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया) का किसी समय में रीजनल आफिस हुआ करता था | मेरी पोस्टिंग 1997 के दौरान हिमाचल प्रदेश में थी इस लिए जब मेरा ट्रांसफर गाजियाबाद के लिए हुआ तो बहुत खुश हुआ कि चलो घर ( नोएडा ) के पास पहुँच रहा हूँ | जब आकर आफिस में ज्वाइन किया तो हालात देखकर तोते उड़ गए | आफिस के नाम पर कुल ले देकर दो छोटे-छोटे कमरे थे जिसमें एक कमरा रीजनल मैनेजर यानी मेरे के लिए और दूसरा बाकी स्टाफ के लिए था | अब स्टाफ भी थोड़े बहुत नहीं पूरे 17 बन्दों का था | अब मज़े की बात यह कि जगह की तंगी के कारण कुर्सियां भी बमुश्किल खींच-तान कर 10-12 ही आ पाती थीं और  बची-खुची जगह में अड्डा जमाया हुआ था फाइलों से लदी अलमारियों ने | उन दिनों  सीसीआई के दिन गर्दिश में चल रहे थे इसलिए काम काज भी कोई ख़ास नहीं था | एक दिन हिम्मत करके अपने एक विश्वस्त कर्मचारी से पूछ ही बैठा “भाई ! ये माजरा क्या है ? यह दफ्तर है या सर्कस | कुम्भ का मेला लगा हुआ है | इतने आदमी तो मुझे कभी चलती फेक्ट्री के मार्केटिंग विभाग में नहीं मिले, यहाँ कुछ काम न धाम फिर यह मेहरबानी कैसी ?” उसने मेरे कान में होले से फुसफुसा कर कहा “ साहब ! यहाँ का ज्यादातर स्टाफ सिफारिशी लोगों का है | हर आदमी जैक लगाता है दिल्ली ट्रांसफ़र के लिए | अब ऊपर वाला दिल्ली तो सबको बुला नहीं सकता , इसलिए ऐसे रंगरूटों  की पोस्टिंग ग़ाज़ियाबाद केंट में होती है | अब इन सिफारिशियों की पलटन संभालना आपका काम | रंगरूट आपके,  थानेदार आप और यह थाना आपका | बस यह ध्यान रखियेगा कि तोप जरा संभाल कर चलाइयेगा इन पर , कहीं बेक-फायर ना हो जाए |” सलाह वाजिब थी और वक्त की नजाकत के मद्देनज़र थी क्योंकि मेरे पुराने दोस्त  वाकिफ़ होंगें  उन दिनों बम गिरने से पहले सायरन नहीं बजा करता था |      
अब ऐसे माहोंल में मेरी सुबह सवेरे की पहली सरदर्दी होती मुय्जिकल चेयर कराने की | उपलब्ध कुर्सियों के हिसाब से ही फ़ालतू लोगों को इधर उधर बाहर के फ़ालतू कामों पर बाहर रवाना करना पड़ता , मसलन तुम मार्केट-सर्वे पर जाओ, तुम फलां डिपार्टमेंट में जाओ ( किसलिए ? बस शकल दिखाने ), तुम फलाँ मेनेजर के घर का पानी का बिल भर आओ | अब इतने सब के बाद भी अगर कोई पलटन का रंगरूट बच जाता तो कहना पड़ता कि जा आज तेरे मज़े आ गए , घर जा टी.वी. पर मैच देख | कभी-कभी लगता कि रीजनल मेनेजर हूँ या सुबह-सुबह लेबर चौक पर खड़ा दिहाड़ी मजदूरों को काम बांटने वाला ठेकेदार |

अलबत्ता उस दफ्तर की एक ख़ास जिम्मेदारी थी गाज़ियाबाद स्थित बिक्री कर विभाग से सेल्स टेक्स के फ़ार्म जारी करवाने जोकि एक टेढ़ी खीर था | दरअसल कमज़ोर वित्तीय स्थिति के कारण बिक्री कर विभाग का भारी बकाया था जिसके कारण वहां के अधिकारियों की खरी खोटी भी सुननी पड़ती थी | यहाँ एक बात बता दूँ कि इन फामों के अभाव में फेक्ट्री से सीमेंट का डिस्पेच नहीं हो सकता था अत: येन केन प्रकारेण इन का जुगाड़ करना पड़ता था | इस काम में माहिर थे हमारे तत्कालीन एकाउंटेंट एन.सी सरकार जिन्हें हम सभी प्यार से दादा बोला करते थे |  रंग गौरा चिट्टा, प्रभावशाली व्यक्तित्व , स्वभाव से अत्यंत मृदु भाषी, गुस्सा उन से कोसों दूर और सोने पर सुहागा यह कि बातों के धनी | हम तो आज तक मानते थे कि मार्केटिंग वाले बातों के उस्ताद होते हैं पर इस मामले में सरकार दादा ने सब को पीछे छोड़ रखा था | एक तरह से उन्हें आप हरफनमौला कह सकते हैं | होम्योपथी की भी अच्छी खासी जानकारी रखते थे |  मैं और सरकार दा सेल्स टेक्स के काम के लिए साथ ही जाया करते थे | अब सेल्स टेक्स डिपार्टमेंट में सम्बंधित असिस्टेंट कमिश्नर   थे श्री ए.के दरबारी जोकि थोड़े में कहें तो गब्बर का दूसरा रूप थे | कोई रहम नहीं, कोई दया नहीं | एक दिन हमने जरा चतुरता दिखाते हुए डिप्टी कलेक्टर को बताया कि हमारे सी.एम.डी भी दरबारी ही हैं | हमारी मंशा थी कि इस बहाने से उनका रवैया हमारे प्रति थोडा नरम हो जाएगा | पर यह क्या, यहाँ तो लगा जैसे तोप बेक फायर कर गई | सुनते ही वो तो गुस्से से उबल पड़े,  जोर से बोले मैं अच्छी तरह से जानता हूँ तुम्हारे चेयरमेन को , मेरे ही कुनबे का ख़ास है , पर हर तरह से बकवास है | अब हालत यह कि  आयें-बायें–शायें जो मुंह में आ रहा था वो बोले जा रहे थे | लगा जैसे बर्र का छत्ता छेड़ दिया हो | वो जो कहावत होती है न कि चौबे जी छब्बे बनने चले थे, दूबे ही  रह गए , का मतलब सही मायने में समझ में आ रहा था | हम भी मन में समझ चुके थे कि इन्हें  कोई पुराने  दर्दे जिगर का ग्रेनेड रहा होगा जिसका सेफ्टी पिन हमने गलती से निकाल दिया, अब धमाका तो होना ही था, पर करें तो करें क्या | चुपचाप कान दबाए ज्वालमुखी के शांत होने का इंतज़ार करते रहे | रेलगाड़ी के स्टेशन पर रुकने पर होले  से सरकार दा ने मुस्कराते हुए परशुराम से पुरानी बीमारियों के बारे में पूछना शुरू कर दिया | लगा जैसे तपते तंदूर पर हलवाई ने पानी के छीटें डाल दिए| कमरे का तापमान अब सामान्य के स्तर पर आने लगा था | शेर और मेमने की कहानी के पात्र अब बदल कर डाक्टर और मरीज का रूप लेने लगे थे | मरीज का सारा हाल जानकार अब हमारे एकाउंटेंट उर्फ़ डाक्टर साहिब ने अपना ब्रीफकेस खोला और होम्योपेथी की मीठी गोलियों की छोटी से शीशी उन्हें पकड़ा दी | दादा ने चुपके से मुझे आँख मारकर चलने का इशारा किया और हम दोनों ही उन्हें एक विनम्र नमस्कार करके  वापिस चलने का अभिनय शुरू कर दिया | अभी हम दरवाज़े की चौखट तक ही पहुचे होंगे कि पीछे से गरजदार आवाज़ आई “साथ के कमरे से बाबू से 100 फ़ार्म इशू करवा लेना | फिलहाल के लिए काफी होंगे |” इतने सारे काण्ड के बाद भी सरकार दादा की  मीठी गोली ने  सहारा रेगिस्तान में भी चेरापूंजी की बरसात करवा दी यह याद करके मैं आज भी बेसाख्ता हँस पड़ता हूँ |                            
  


Saturday 1 September 2018

भगवान की महिमा


तो जनाब , अगर आप के  ज़हन में 'किस्साए कोल पत्तर 'है , जिसमें चरखी दादरी के गेस्ट हाउस कीपर का अफ़साना था , तो उससे एक बात तो क़तई साफ़ हो जाती है कि भाई दुनिया में सब से पंगा ले लेना ( चाहे जोरू का भाई ही क्यों ना हो) पर ग़लती से भी रसोईये से मत उलझ जाना वरना आपके फ़रिश्तों को भी पता नहीं चल पाएगा कि आपके साथ हुआ क्या । हाँ ये बात अलग है कि दुनिया में ज़रूर आपके क़िस्से मशहूर हो जाएँगे । इस बार की ख़ास हस्ती जिनसे आपको मिलाने जा रहा हूँ वो जनाब राजबन ( हिमाचल प्रदेश ) सी सी आई के गेस्ट हाउस में काम करते थे । अगर मेरा अनुमान सही है तो अबतक तो शायद रिटायर भी हो चुके होंगे । नाम उनका भगवान सिंह ,हिमाचल के ही मूल निवासी , स्वभाव से फ़क्कड़ । गेस्ट हाउस में आने जाने वाले हर शक्स की सेवा में कोई कोर कसर नहीं रखते । ता उम्र गेस्ट हाउस से ही जुड़ें रहे ।
अब  सीधा-साधा पहाड़ी बंदा, और उन दिनों (सन 1980में )उम्र रही होगी यही कोई 24 -25 साल के आस-पास की । नाम से भगवान , पर तभी तक जब तक सुरा अपना असर ना दिखा दे । सो एक बार हुआ कुछ यूँ कि गेस्ट हाउस में किसी गेस्ट का पदार्पण हुआ । पदार्पण इसलिए कि सामान्य लोगों का तो आगमन होता है पर ख़ास लोगों का पदार्पण । अब बंदा ख़ास है तो उसकी हर बात भी ख़ास ही होगी । सो उन्होंने आने के साथ ही भगवान सिंह को हिदायतें जारी कर दीं - नाश्ते से लेकर रात के डिनर तक की  या कह लीजिए सुबह के आमलेट से लेकर फूले हुए फुल्के तक के बारे में । कहते हैं बात से ज़्यादा बात कहने का ढंग असर करता है । असर तो यहाँ भी हुआ पर कुछ उलटा ही । शायद इसलिए कि जिस समय हिदायतों की कक्षा चल रही थी , हमारे भगवान  का सुर शायद सुरा - प्रभाव से बेसुरा होने की कगार पर था । बोले तो कुछ नहीं, सबकुछ सुनकर चुपचाप अपने रसोई रूपी रणक्षेत्र में चले  गए । लगा बात आई गयी हो गई ।
कुछ दिन शांति से ऐसे ही बीते , लगा सब कुछ ठीक चल रहा है , पर मुझे यह नहीं पता था कि यह तो तूफ़ान से पहले की ख़ामोशी है । एक दिन अचानक किसी कार्यवश किचिन में जाना पड़ गया । शादी ब्याह तब तक अपना हुआ नहीं था इसलिए खाने पीने के लिए  कम्पनी का गेस्ट हाउस ज़िंदाबाद । हाँ तो किचन में घुसते ही क्या देखा कि मेरी उपस्थिति से क़तई अनजान ,हमारे अन्नदाता भगवान सिंह जी सर झुकाए नाश्ते की तैयारी में मशगूल हैं ।  लेकिन यह क्या ...... आमलेट के लिए जो अंडा फेंटा जा रहा था उसमें से पीला योक तो सीधा उनके पेट के हवाले हो रहा था , और अंडे की सफ़ेद ज़र्दी में हल्दी डालकर क्या चम्मच से ज़बरदस्त फेंटाई करी । हद तो तब हो गई जब किचिन में साहब के लिए फुल्के (रोटी) फूलते हुए देखी । हमारे भगवान महाराज बड़े प्रेम से रोटी का कोना काट कर , उस कटे हुए कोने को शंख की तरह से मुँह से लगाकर ग़ुब्बारे कीं तरह से हवा भरकर रोटी को फुल्के के अवतार में बदल रहे थे ।
अब इसे हाथों का हुनर कहिए या चटोरी जीभ का कमाल, अंदर डाइनिंग हाल में साहब बहादुर यही हल्दी आमलेट, फुल्के के साथ  सपड़-सपड़ जीम रहे थे और अंग्रेज़ी में कहते जा रहे थे : भगवान सिंह ! वेरी गुड, वेरी गुड । बाई गॉड की क़सम, उस वक़्त का भगवान सिंह के चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान के साथ छाया आत्मसंतोष का भाव आज तक मुझे याद है ।

दास्ताने कोल पत्तर


यूँ के है तो यह महज़ एक क़िस्सा पर है सच्चा । बात है तक़रीबन 37 साल पुरानी , याने सन 1980 के आसपास की । चरखी दादरी यूनिट का सी सी आई द्वारा अधिग्रहण ताज़ा ताज़ा हुआ ही था । पुरानी काफ़ी समय से बन्द पड़ी फ़ेक्ट्री का काया कल्प करने का काम ज़ोर शोर से चल रहा था । सी सी आई के जगह जगह से टूर पर बुलाए गए अपने अपने तकनीकी क्षेत्रों के एक्सपर्ट पूरी तरह से दिन रात काम पर जुटे रहते थे । इन लोगों का जमावड़ा फ़ेक्ट्री के पुराने हवेलीनुमा गेस्ट हाउस में ही रहता था ।  इस गेस्ट हाउस के कर्ता धरता या यूँ कहिए हनुमान हुआ करते थे जनाब कोल पत्तर । छोटे से क़द के , भारी बदन के स्वामी । हाँ अलबत्ता बेचारे एक आँख से लाचार थे । स्वभाव से बड़े हँसमुख और  मेहमान नवाजी में पक्के माहिर । उम्र होगी यही कोई पचास के आसपास , यानी खासे तजुरबेकार । डालमिया के समय से ही गेस्ट हाउस की रसोई और अन्य व्यवस्था संभालते थे । हमारे जैसे कई अन्य बेचलर्स जिनके खाने पीने का मजबूरी वश इंतज़ाम गेस्ट हाउस में ही था, कोल पत्तर को प्यार से मूँछों वाली मम्मी कह कर बुलाते थे और वह ज़िंदादिल शक्स भी पूरी मस्ती में इस उपनाम के मज़े लेता था ।
सो हुआ यूँ कि एक दिन गेस्ट हाउस में किसी बड़े अधिकारी का आना हुआ । सफ़र की थकान थी या स्वभाव की जन्मजात आदत , उन्होंने किसी बात पर कोल पत्तर को ज़ोरदार डाँट पिला दी । अब श्रीमान कोल पत्तर उर्फ़ हमारी मूँछों वाली मम्मी, कुछ समय तक तो हनुमान रूप में चुपचाप भक्ति भाव से डाँट बर्दाश्त करते रहे, पर ज़्यादा बमबारी होने पर सीधे हनुमान से परश राम के रूप में अवतरित हो गए और बोले : "साहिब , आप हम को जानित नाहीं , हम हैं कोल पत्थर जो आप जैसे कितनन को हम सामान समेत गड्डी चड़ाए दिए है । " अब सच मानिए , साहब बहादुर तो एकदम धड़ाम से जैसे ज़मीन पर आ गए , मानों सर पर किसी ने घड़ों पानी उड़ेल दिया हो । ग़ुस्से और शर्म से चुपचाप वहाँ से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी ।
पर बात यहीं ख़त्म नहीं हुई । साहब बहादुर ठहरे आला अफ़सर , सवाल मूँछों का था जिसे सरे आम भरी महफ़िल में हमारी तथा कथित मूँछों वाली मम्मी ने बड़ी बेदर्दी से कुतर डाला था l जिसका डर था आख़िर वही हुआ - कोल पत्तर को शाही बुलावा अगले ही दिन आ गया । हम समझ गए कि आज तो हनुमान का कोर्टमार्शल तय है । श्री गुप्ता (पूरा नाम याद नहीं ) तब फ़ेक्ट्री के जी एम हुआ करते थे और बहुत ही सरल और सौम्य व्यक्ति थे । उनके दरबार में पेशी हुई हमारे गोलू मोलू की । जी एम साहब ने जो कि ऑर्डिनेन्स फ़ेक्ट्री , से डेपुटेशन पर आए हुए थे ,  पहला गोला दागा " तुमने साहब की बेज्जती करी ? क्या बोला था ज़रा फिर से बोलो ।" कोल पत्तर जी कानों पर हाथ रख कर तुरंत बोले " साहिब हम तो ऐसा सपने में भी नाहीं सोच सक़त । हम ठहरे सेवक माई बाप, हम तो साहिब को बताई रहिल की बड़े बड़े साहिब लोगन को सटेशन तक सामान लेकर हम ही जाता हूँ ।  हमारा क्या ग़लती साहिब । "  चरखी दादरी स्टेशन और फ़ेक्ट्री बिलकुल साथ साथ थीं । कोल पत्तर की बात लगभग उसी तर्ज़ पर थी जैसा महाभारत के युद्ध में बोला गया युधिष्ठिर का अर्ध सत्य - अश्वत्थामा हत: नरो व कुंजर ।  राम जाने उस दिन था क्या  - कोल पत्तर की क़िस्मत थी या जी एम रूपी राम को अपने हनुमान की भक्ति और सेवाएँ याद आ गई । असल माजरा तो जी एम साहब समझ चुके थे , पर शायद हनुमान की हाज़िर जवाबी उन्हें अंदर तक गुदगुदा ग़ई थी । होंठों पर आई हल्की सी मुस्कान को बलात दबाते हुए उन्होंने , नीचे फ़ाइलों में नज़र गढ़ाए हुए ही हाथ के इशारे से मूँछों वाली मम्मी को जाने का इशारा कर दिया ।  और इस  तरह से लंका कांड का हैपी वाला दी एंड हुआ ।
चलिए अब लगे हाथों आपको इस फ़िल्म के नायक के दर्शन भी करवा देता हूँ । साथ में लगे फ़ोटो में बीचों बीच ( बाएँ से तीसरे ) सफ़ेद बुर्राक वर्दी में मुस्कान बिखेरते जो ठिगने से महानुभाव मौजूद हैं वही हैं हमारी  तत्कालीन   ' मूँछों वाली मम्मी ' ।

झूठ बोले कौवा काटे

हिंदी फ़िल्म जगत के एक बड़े ही प्रसिद्ध खलनायक हुए है जयंत । पुरानी फ़िल्मों के शौक़ीन लोगों को शायद आज भी उनकी याद हो । शोले फ़िल्म के गब्बर सिंह यानी अमजद खान के वालिद हुआ करते थे । अब आप कहेंगे ये मियाँ जयंत का ज़िक्र कहाँ से अचानक आ टपका । सो भाई मेरे , किसी ज़माने में हमारे एक सी एम डी थे , उनका डील डोल , क़द काठी जब भी याद करता हूँ , गब्बर के मरहूम अब्बा जान याद आ जाते हैं ।  क़द भरा पूरा ६ फ़ीट से भी ऊँचा, वज़न माशा अल्लाह १ क्विंटल से कम क्या ही रहा होगा । खाने पीने के हद से ज़्यादा ही शौक़ीन । सुना तो यहाँ तक की एक बार तो एयरपोर्ट पर ही खाने के चक्कर में महामहिम की फ़्लाइट ही उड़न छू हो गई । किसी भी होटल में डाइनिंग टेबल पर बैठने से पहले , टाइलेट का सदुपयोग करना कभी नहीं भूलते थे । मीटिंग के सिलसिले में जब कभी भी दिल्ली से निर्देश माँगे जाते तो दबे ज़ुबान सलाह मिल जाती कि श्रीमान और कुछ तैयारी हो ना हो ,  पर खान पान की व्यवस्था ज़बरदस्त होनी चाहिए । 

हाँ एक ख़ास बात और , लोगों को हड़काने में उन्हें कुछ ख़ास ही क़िस्म के आनंद के अनुभूति होती थी । कई बार तो सुना जाता है कि फ़ोन पर अपनी धर्मपत्नी को भी हड़काते हुए धमका देते कि तुम्हें पता है तुम किससे बात कर रही हो । उनके सामने अपनी इज़्ज़त बचाने का एक ही मूल मंत्र था कि आपको पता होना चाहिए क्या बोलना है, कब बोलना है और कितना बोलना है । अब यह बात अलग है कि इस मूल मंत्र में महारत हासिल करने में ही लोगों की उमर निकल गई ।
उन दिनों मैं देहरादून ज़ोनल आफ़िस में कार्यरत था । प्रमुख होने के नाते सभी समय समय पर महामहिम को झेलने की ज़िम्मेदारी भी बहुत ही सावधानी से निभानी पड़ती थी क्योंकि बक़ौल भारतीय रेल बख़ूबी जानता था ' सावधानी हटी , दुर्घटना घटी ' । सी सी आई में दुर्घटना का मतलब हर कोई बख़ूबी जानता था जिसमें आसाम से लेकर आंध्रप्रदेश तक कहीं का भी टिकट फुर्र से कट जाता है ।
मीटिंग तक की तैयारी तक तो सब ठीक रहता था , पर सब से मुश्किल होता था साहब बहादुर को एयरपोर्ट से रिसीव करना और वापिस छोड़ना । इस पूरे दौरान पीछे साहब सीट पर पूरे चौड़े होकर सही मायने में मदमस्त विराजमान रहते और हम आगे ड्राईवर के साथ । यूँ कि नज़र सामने पर कान लगे रहते पीछे कि कब पता नहीं किस सवाल का गोला दाग़ दिया जाए । अब मज़े कि बात यह कि उनके सवालों का कोई ओर छोर नहीं । अभी पूछा कि अबतक की सीमेंट सेल कितनी हुई है और तुरंत ही अगली साँस में पूछेंगे कि यह सड़क किनारे कौन सा गाँव है । आप ज़रा सा भी चूके नहीं कि तुरंत डंडा बरसा " कैसे मार्केटिंग के आदमी हो , गाँव का नाम भी नहीं पता । "  तो भैया जी , राज़ की बात बताएँ , अपुन तो चुप रहने की बजाए , जान बचाने के लिए जो मुँह में आए फट से वही बोल देते थे क्योंकि पता हमें भी था अगर गाँव के नाम से अगर हम अनजान हैं तो  श्रीमान के दादा जान कौन से यहाँ के तहसीलदार थे जो उन्हें हमारे झूठ का पता चलेगा ।
लेकिन कहते हैं होनी को कौन टाल सकता है और बकरे की माँ कब तक खेर मनाएगी । सो हुआ यूँ कि एक़बार भारत हेवी इलेक्ट्रेकल के हरिद्वार यूनिट  का साहब के साथ जाने का कार्यक्रम बना । गाड़ी अपनी पूरी रफ़्तार में बी एच ई एल के परिसर की सड़क पर दौड़ रही थी और हम हमेशा की तरह उनके सवालों की गोलियों को पूरी क्षमता से झेलते जा रहे थे । अचानक खिड़की से एक ओर  उँगली का इशारा करके पूछा कि वह क्या है । समझ में तो हमें भी कुछ नहीं आ रहा था पर मरता क्या ना करता  हमने भी घुटे हुए शातिर के अन्दाज़ में तुरंत अपना ज्ञान बघारा : सर ये बी एच ई एल का हेलीपेड है । पर यह क्या , साहब ने चलती गाड़ी को वापिस मौड़ने का आदेश अब तक ड्राईवर को सुना दिया । गाड़ी से उतरकर हम हनुमान चालीसा याद करते हुए आगे आगे और  साहब पीछे पीछे । मेन गेट के अंदर जाकर हम आँख मिच मिचाकर चारों और देख रहे थे और पीछे से शेर की दहाड़ गरज रही थी , कौशिक यह तो स्टेडियम है , और तुम कह रहे थे हेलीपेड ?  सच मानिए , अपनी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे । एक बार तो लगा कि बेटा यह महाभारत का यक्ष इस बार युधिष्ठिर की बखिया उधेड़ कर ही मानेगा । पर मन में ठान लिया , अब चाहे ये स्टेडियम हो या हर की पौड़ी , एक बार कह दिया तो हेलीकाप्टर तो अब बस यहीं उतरेगा । आख़िर बंदे की ज़ुबान है , कोई बकरे की नहीं । सो हिम्मत जुटाकर धड़ल्ले से  फिर बोल दिया ' सर बी एच ई एल के हेलीकाप्टर इसी स्टेडियम में ही उतरते हैं । '
अब राम जाने , मेरा भाग्य अच्छा था , महिमा हरिद्वार की थी या साहब बहादुर ज़्यादा मगज़ पच्ची के मूड में नहीं थे , साहब मुस्कुराते हुए चुपचाप गाड़ी में बैठ लिए और हो लिए रवाना आगे की यात्रा के लिए । और मैं अगली सीट पर बैठा काफ़ी देर तक जाप करता रहा : जान बची और लाखों पाए ।

भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...