Sunday 23 September 2018

जीना इसी का नाम है - गूँज





आज आपको मैं कोई कहानी किस्सा सुनाने नहीं जा रहा | पर बात एक तरह से जुडी है एक प्यारी सी याद से और उससे मिलने वाली सीख से |


बचपन में साथियों की टोली के साथ एक खेल खेला करते थे | गाँव के कोने में एक खेत के अंधे कुँए पर जाकर कुँए की मुंडेर से भीतर तरह- तरह की आवाज लगाने का खेल | जब अपनी ही आवाज की गूँज वापिस सुनाई देती तो वह हम बच्चों के लिए किसी जादू से कम नहीं होता था जिसे सुनकर हम खुशी से खिलखिला पड़ते | अब जब गाँव ही धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं तो बेचारे कुँए की क्या बिसात और कुँए की गूँज तो रह गई है सिर्फ कहानियों में |


बचपन के साथ ही लगे हाथों आपको एक प्यारे से गाने की याद भी दिला देता हूँ | शैलेन्द्र जी का लिखा एक बहुत ही पुराना गीत है जिसे सभी ने कभी न कभी जरुर सुना होगा :

किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार,
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार ,
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार ,
जीना इसी का नाम है |

कितने सीधे-सादे शब्दों में पूरी जिन्दगी का फ़लसफ़ा बयाँ कर दिया है लिखने वाले ने | कभी मौक़ा मिले तो इस गीत को पूरा सुनिए या कभी इसके बोल पढ़िए, दोनों ही हालात में आपको दिल की गहराइयों तक सुकून और आत्मिक शान्ति महसूस होगी | शब्दों की यही तो जादूगरी और करिश्मा होता है , बैठे बैठे आपको प्रेम और आत्मिक सुख के सागर में गोते लगवा सकते हैं तो दूसरी ओर ईर्ष्या- द्वेष की अंगारों भरी भट्टी में भस्म भी कर सकते हैं |

इस गीत के बोलों को कुँए की गूंज के रूप में सुनिए | प्रतिध्वनि भी उसी सुरीले गीत की सुनाई देगी | कुँए की गूँज आपको सिखा रही है जैसा आप बोएँगे, वैसा ही काटेंगे |

किसी का भला करके देखिए आपको जो आत्मिक सुख मिलेगा वह किसी दुश्मन का नुकसान करने या बदला लेने में कभी प्राप्त नहीं हो सकता | पर इस बात को समझने वाले आज हैं ही कितने | हर जगह वही भीड़- भाड़,धक्का-मुक्की, मारकाट और इस सबके बदले में हासिल क्या होता है – ब्लड प्रेशर, डिप्रेशन और ढ़ेरों अनगिनत बीमारियाँ | जैसा हम करेंगे सूद सहित वापिस भी तो मिलेगा क्योंकि कहने वाले तो यह भी कह गए हैं कि बोए पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए | आज अपनी छोटी सी दिल की बात कहते हुए (‘मन की बात’ नहीं क्योंकि यह तो आज की तारीख में बहुत ही भारी-भरकम और परम पावन पूज्य प्रवचन बन चुका है) मुझे अपने पिता स्वर्गीय श्री रमेश कौशिक की एक कविता याद आ रही है जिसे पढ़कर आपको इस कविता और आज के माहौल के बीच सीधा-सपाट संबंध साफ़-साफ़ नज़र आ जायेगा | यह भी हो सकता है कि आप खुद अपने-आप को भी को भी इस कविता के किसी पात्र के रूप में देख पाएं : 

 जाला 

मकड़ी जाला बुनती है
तुम भी जाला बुनते हो
मैं भी जाला बुनता हूँ 
हम सब जाले बुनते हैं।


जाले इसीलिए हैं 
कि वे बुने जाते हैं 
मकड़ी के द्वारा 
तुम्हारे मेरे या 
हम सब के द्वारा।

मकड़ी, तुम या मैं
या हम सब इसीलिए हैं
कि अपने जालों में
या एक-दूसरे के बुने
जालों में फँसे।

जब हम जाले बुनते हैं
तब चुप-चुप बुनते हैं
लेकिन जब उनमें फँसते हैं
तब बहुत शोर करते है।

इसीलिए बेहतर है हम सब के लिए राजनीति छोडिए, जग-कल्याण के सच्चे और सरल मार्ग पर चलिए और पूरी तरह से यह संभव न हो तो कम से कम प्रयत्न तो कर के देखिए | दूसरों के लिए जाले मत बुनिए, जब जाले ही नहीं होंगे तब उनमें कोई नहीं फँसेगा, आप स्वयं भी नहीं |

आज मैंने कोई नई बात आपको नहीं बताई है, मिठाई वही पुरानी है पर तश्तरी में रखा अपने अंदाज़ से है | स्वाद कैसा लगा बताईयेगा जरूर

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