Saturday 1 September 2018

झूठ बोले कौवा काटे

हिंदी फ़िल्म जगत के एक बड़े ही प्रसिद्ध खलनायक हुए है जयंत । पुरानी फ़िल्मों के शौक़ीन लोगों को शायद आज भी उनकी याद हो । शोले फ़िल्म के गब्बर सिंह यानी अमजद खान के वालिद हुआ करते थे । अब आप कहेंगे ये मियाँ जयंत का ज़िक्र कहाँ से अचानक आ टपका । सो भाई मेरे , किसी ज़माने में हमारे एक सी एम डी थे , उनका डील डोल , क़द काठी जब भी याद करता हूँ , गब्बर के मरहूम अब्बा जान याद आ जाते हैं ।  क़द भरा पूरा ६ फ़ीट से भी ऊँचा, वज़न माशा अल्लाह १ क्विंटल से कम क्या ही रहा होगा । खाने पीने के हद से ज़्यादा ही शौक़ीन । सुना तो यहाँ तक की एक बार तो एयरपोर्ट पर ही खाने के चक्कर में महामहिम की फ़्लाइट ही उड़न छू हो गई । किसी भी होटल में डाइनिंग टेबल पर बैठने से पहले , टाइलेट का सदुपयोग करना कभी नहीं भूलते थे । मीटिंग के सिलसिले में जब कभी भी दिल्ली से निर्देश माँगे जाते तो दबे ज़ुबान सलाह मिल जाती कि श्रीमान और कुछ तैयारी हो ना हो ,  पर खान पान की व्यवस्था ज़बरदस्त होनी चाहिए । 

हाँ एक ख़ास बात और , लोगों को हड़काने में उन्हें कुछ ख़ास ही क़िस्म के आनंद के अनुभूति होती थी । कई बार तो सुना जाता है कि फ़ोन पर अपनी धर्मपत्नी को भी हड़काते हुए धमका देते कि तुम्हें पता है तुम किससे बात कर रही हो । उनके सामने अपनी इज़्ज़त बचाने का एक ही मूल मंत्र था कि आपको पता होना चाहिए क्या बोलना है, कब बोलना है और कितना बोलना है । अब यह बात अलग है कि इस मूल मंत्र में महारत हासिल करने में ही लोगों की उमर निकल गई ।
उन दिनों मैं देहरादून ज़ोनल आफ़िस में कार्यरत था । प्रमुख होने के नाते सभी समय समय पर महामहिम को झेलने की ज़िम्मेदारी भी बहुत ही सावधानी से निभानी पड़ती थी क्योंकि बक़ौल भारतीय रेल बख़ूबी जानता था ' सावधानी हटी , दुर्घटना घटी ' । सी सी आई में दुर्घटना का मतलब हर कोई बख़ूबी जानता था जिसमें आसाम से लेकर आंध्रप्रदेश तक कहीं का भी टिकट फुर्र से कट जाता है ।
मीटिंग तक की तैयारी तक तो सब ठीक रहता था , पर सब से मुश्किल होता था साहब बहादुर को एयरपोर्ट से रिसीव करना और वापिस छोड़ना । इस पूरे दौरान पीछे साहब सीट पर पूरे चौड़े होकर सही मायने में मदमस्त विराजमान रहते और हम आगे ड्राईवर के साथ । यूँ कि नज़र सामने पर कान लगे रहते पीछे कि कब पता नहीं किस सवाल का गोला दाग़ दिया जाए । अब मज़े कि बात यह कि उनके सवालों का कोई ओर छोर नहीं । अभी पूछा कि अबतक की सीमेंट सेल कितनी हुई है और तुरंत ही अगली साँस में पूछेंगे कि यह सड़क किनारे कौन सा गाँव है । आप ज़रा सा भी चूके नहीं कि तुरंत डंडा बरसा " कैसे मार्केटिंग के आदमी हो , गाँव का नाम भी नहीं पता । "  तो भैया जी , राज़ की बात बताएँ , अपुन तो चुप रहने की बजाए , जान बचाने के लिए जो मुँह में आए फट से वही बोल देते थे क्योंकि पता हमें भी था अगर गाँव के नाम से अगर हम अनजान हैं तो  श्रीमान के दादा जान कौन से यहाँ के तहसीलदार थे जो उन्हें हमारे झूठ का पता चलेगा ।
लेकिन कहते हैं होनी को कौन टाल सकता है और बकरे की माँ कब तक खेर मनाएगी । सो हुआ यूँ कि एक़बार भारत हेवी इलेक्ट्रेकल के हरिद्वार यूनिट  का साहब के साथ जाने का कार्यक्रम बना । गाड़ी अपनी पूरी रफ़्तार में बी एच ई एल के परिसर की सड़क पर दौड़ रही थी और हम हमेशा की तरह उनके सवालों की गोलियों को पूरी क्षमता से झेलते जा रहे थे । अचानक खिड़की से एक ओर  उँगली का इशारा करके पूछा कि वह क्या है । समझ में तो हमें भी कुछ नहीं आ रहा था पर मरता क्या ना करता  हमने भी घुटे हुए शातिर के अन्दाज़ में तुरंत अपना ज्ञान बघारा : सर ये बी एच ई एल का हेलीपेड है । पर यह क्या , साहब ने चलती गाड़ी को वापिस मौड़ने का आदेश अब तक ड्राईवर को सुना दिया । गाड़ी से उतरकर हम हनुमान चालीसा याद करते हुए आगे आगे और  साहब पीछे पीछे । मेन गेट के अंदर जाकर हम आँख मिच मिचाकर चारों और देख रहे थे और पीछे से शेर की दहाड़ गरज रही थी , कौशिक यह तो स्टेडियम है , और तुम कह रहे थे हेलीपेड ?  सच मानिए , अपनी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे । एक बार तो लगा कि बेटा यह महाभारत का यक्ष इस बार युधिष्ठिर की बखिया उधेड़ कर ही मानेगा । पर मन में ठान लिया , अब चाहे ये स्टेडियम हो या हर की पौड़ी , एक बार कह दिया तो हेलीकाप्टर तो अब बस यहीं उतरेगा । आख़िर बंदे की ज़ुबान है , कोई बकरे की नहीं । सो हिम्मत जुटाकर धड़ल्ले से  फिर बोल दिया ' सर बी एच ई एल के हेलीकाप्टर इसी स्टेडियम में ही उतरते हैं । '
अब राम जाने , मेरा भाग्य अच्छा था , महिमा हरिद्वार की थी या साहब बहादुर ज़्यादा मगज़ पच्ची के मूड में नहीं थे , साहब मुस्कुराते हुए चुपचाप गाड़ी में बैठ लिए और हो लिए रवाना आगे की यात्रा के लिए । और मैं अगली सीट पर बैठा काफ़ी देर तक जाप करता रहा : जान बची और लाखों पाए ।

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