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अनिल डी शर्मा
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यादों के समंदर में गोते लगाना भला किसे अच्छा नहीं लगता – मुझे भी लगता है । मैं भी उम्र के उस पड़ाव पर हूँ जब सीनियर सिटीजन की उम्र की दहलीज को छू ही लिया है । यद्यपि अभी भी अपने आपको हर तरह से सक्रिय रखा हुआ है फिर भी जब कभी फुरसत के क्षणों में बैठ कर सोचता हूँ कि इस भाग-दौड़ की ज़िंदगी में अब तक क्या खोया और क्या पाया तब बीती हुई ज़िंदगी की कहानी किसी सिनेमा के परदे पर चल रही तस्वीरों की तरह बंद आँखों में सपने की तरह दौड़ने लगती है । यह आज की बात नहीं है – मेरे साथ पिछले दस सालों से यादों की आंधी कुछ ज्यादा ही झकझोर रही है । इन पुरानी यादों में सबसे करीब हैं वह मीठी यादें जो बचपन से जुड़ी हुई हैं । उन यादों ने दिल में कुछ ऐसी अमिट छाप और कसक छोड़ी हुई है कि आज भी मैं उन लम्हों को फिर से जीना चाहता हूँ ।
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गुलधर रेलवे स्टेशन
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थोड़े में कहूँ तो मेरा जन्म वाराणसी में हुआ जहाँ मेरी ननसाल हुआ करती थी । एक तरह से आप मुझे बनारसी बाबू भी कह सकते हैं । पिता रेलवे में थे – कुछ यादें छुटपन की गाजियाबाद – मेरठ लाइन पर स्थित छोटे से रेलवे स्टेशन गुलधर से भी जुड़ी हैं । बाद में राजस्थान के कोटा में बस गए । मैं भी नौकरी के सिलसिले में काफ़ी घूमा -फिरा । भारत सरकार के सीमेंट कार्पोरेशन के मार्केटिंग विभाग में काफी समय तक जगह -जगह काम किया । आजकल कोटा के एक जाने-माने कोचिंग इंस्टीट्यूट में अपनी सेवाएं दे रहा हूँ । रोजमर्रा की काम – काज की व्यस्तता ही कुछ ऐसी रहती है कि दम मारने की फुरसत ही नहीं मिलती । लेकिन इतना जरूर है कि जब भी दो घड़ी सुकून के मिलते हैं तब भी यह कमबख्त दिमाग चैन से नहीं बैठ पाता । तब इस दिमाग पर दिल हावी हो जाता है जो ले जाता है मुझे पुरानी बचपन की प्यारी – प्यारी यादों में ।
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मेरी नानी - प्यारी नानी
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इंसान को इस दुनिया में माँ से प्यारा कोई नहीं होता । ज़ाहिर सी बात है कि माँ की भी माँ यानि नानी तो दिल के सबसे प्यारे कोने में रहती है । मुझे भी अपनी ननसाल से इतना जबरदस्त लगाव और जुड़ाव रहा है जिसके आगे फेविकोल का जोड़ भी कुछ मायने नहीं रखता । मेरी उम्र तब रही होगी यही कोई आठ – नौ वर्ष की । अपने नाना को तो मैंने कभी नहीं देखा । उनका स्वर्गवास मेरी माँ की शादी से भी पहले ही हो चुका था । वह सही मायने में अंग्रेजों के जमाने के जेलर थे । माँ और नानी के मुंह से उनके राजसी ठाठ -बाट और रहन- सहन के किस्से सुनकर मैं अचंभित रह जाता । नानी के घर अक्सर छुट्टियों में जाया करता था ।
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मेरे नाना : सचमुच अंग्रेजों के ज़माने के जेलर
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नानी का घर : अहमद मंजिल
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मेरी ननसाल थी बनारस के अर्दली बाजार इलाके में । वहाँ एक अंग्रेजों के जमाने की पुरानी सी दुमंजिला हवेलीनुमा शानदार इमारत थी जिसका नाम था – अहमद मंजिल । उस जैसी शानो-शौकत वाली इमारतें आजकल तो सिर्फ पुरानी फिल्मों में ही देखने को मिलती हैं । जहाँ तक मुझे याद आता है उसमें लगभग अट्ठारह - बीस कमरे थे – ऊंची – ऊंची छत वाले । गुसलखाने से लेकर रसोईघर तक सभी विशालकाय जिनके सामने आजके हाउसिंग सोसायटी के फ्लेट - मकान कबूतरखाने का आभास देते हैं । वह ज़माना था 1960 के दशक का । मेरी ननसाल में भरा-पूरा परिवार था – नानी , मामा , मौसी – सब तरफ से चहल-पहल से भरपूर । अपने जमाने में तब के बनारस में इतनी भीड़-भाड़ नहीं होती थी । घर के पास ही हनुमान मंदिर था । एक दुकान थी बालमुकंद की जहाँ जाकर चटपटी लेमनचूस गोलियां खरीदकर चटखारे ले-ले कर खाते । उन गोलियों का स्वाद और याद आज भी बचपन के झूले पर बैठा देता है । घर के पास ही बरना नदी का पुल था जहाँ तक जाने के लिए रिक्शा या तांगा मिलता था । यह बरना नदी वही है जो मध्य प्रदेश से लंबी दूरी तय कर अंत में बनारस में गंगा में विलीन हो जाती है । |
बरना नदी का पुल
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वक्त के साथ – साथ हालात भी बदलते चले गए । अर्दली बाज़ार की अहमद मंजिल किराये की रिहाइश थी सो एक दिन तो उसे विदा कहना ही था । नानी ने भी इस दुनिया से रुखसत ले ली और नानी की सुनाई कहानियाँ वक्त की धूल के नीचे धीरे -धीरे धूमिल होने लगीं । लेकिन यादों में बसा रही तो वही अहमद मंजिल की ननसाल जो मेरे दिलों-दिमाग पर कुछ इस कदर हावी थी कि समय – समय पर दिल में हूक मारती – चल उसी आशियाने में जहाँ बचपन के पंछी ने अपने छोटे- छोटे पंखों से उड़ान भरना सीखा । नौकरी की व्यस्तता और तरह-तरह की मजबूरियों के जंजाल में यह सब संभव नहीं हो पाया । पर कहने वाले कह गए हैं लाख टके की बात – अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो नीली छतरी वाला भगवान भी खुद आपकी मदद को हाज़िर हो जाता है । मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । कोटा के जिस कोचिंग इंस्टीट्यूट की प्रशासकीय जिम्मेदारी निभा रहा हूँ वहाँ के लिए अध्यापकों की नियुक्ति करने के सिलसिले में केम्पस सलेक्शन के लिए एक बारगी आई.आई.टी, वाराणसी ( इंजीनियरिंग कॉलेज – भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) जाने का कार्यक्रम बना । मुझे लगा भगवान ने मेरे अंतर्मन की पुकार आखिर सुन ही ली । शायद अर्दली बाजार और अहमद मंजिल भी उस मासूम बच्चे से मिलने को बेताब थी जिसके छोटे – छोटे कदमों की आहट और खिलखिलाहट से उसकी शान में भी चार चाँद लग जाते थे । मैंने मन में उसी क्षण ठान लिया कि इस सुनहरे मौके को मैं हाथ से व्यर्थ नहीं जाने दूंगा । अपनी पुरानी यादों के सपने को साकार करने का समय सचमुच आ चुका था । वाराणसी में आई. आई. टी के गेस्ट हाउस में ही ठहरा । सबसे पहले तो कॉलेज के जिस काम के लिए आया था उसे निपटाया । अब बारी थी अपने बचपन में लौटने की । वाराणसी में ही मेरा ममेरा भाई भी रहता है । स्थानीय व्यक्ति की मदद के बिना मेरे ननसाल खोजी अभियान की सफलता संभव नहीं थी इसलिए वाराणसी में ही रहने वाले अपने ममरे भाई से संपर्क साधा । आशा के मुताबिक वह भी तुरंत हाजिर हो गया और फिर निकाल पड़े हम दोनों भाई अपनी पुरानी यादों के सफर पर ।
पहले का शांत अर्दली बाजार अब भीड़भाड़ और शोरगुल का केंद्र बन चुका था । बालमुकुंद की टॉफी वाली दुकान अभी भी मौजूद थी पर नए रूप- रंग में जिसकी कमान अब नई पीढ़ी के हाथ में थी । मेरे बचपन की ननसाल रहे अहमद मंजिल के आसपास का इलाका भी काफी बदल चुका था । उस पुरानी इमारत का दरवाजा धड़कते दिल से खटखटाया । दरवाजा खोलने वाले एक मुस्लिम शख्स थे । हमने अपना परिचय दिया और अनुरोध किया कि हमें अपने बचपन की यादों से जुड़े इस घर को एक बारगी देखने का मौका दें । आज के इस हिन्दू- मुस्लिम के बीच अविस्वास के दौर में भी भले लोगों की कमी नहीं है । वह जनाब बड़ी इज्जत से हमें घर के अंदर ले गए । मैं अब एक नई ही दुनिया में आ चुका था – वह दुनिया जो आज भी मेरे सपनों में जिंदा थी । मैं एक के बाद एक उस इमारत के कमरों को देख रहा था – किसी कमरे में मुझे अपनी नानी बैठी नजर या रहीं थी तो किसी में अपने मामा – मौसी । उन अद्भुत क्षणों में मैं बिल्कुल बेबस था क्योंकि यादों पर किसी का वश नहीं चलता । शायद मुझे परखने के इरादे से ही मकान मालिक ने कहा कि आगे आप खुद जाएं क्योंकि आप जब यहाँ रह चुके हैं तब तो यहाँ के चप्पे – चप्पे से वाकिफ़ होंगे । उस दुमंजिला विशाल इमारत के अंदर और छत पर मैं मंत्रमुग्ध सा घूम रहा था और सही मायने में यादों के समंदर में गोते लगा रहा था ।
हर सुनहरे सपने का एक अंत होता है – मेरे सपने का भी हुआ । वापिस चलने का समय आ गया । यहाँ की यादों को हमेशा के लिए मैं अपने साथ समेट कर अपने साथ ले जाना चाहता था । मकान मालिक से वहाँ के फ़ोटो खींचने की अनुमति मांगी । अहमद मंजिल इमारत की विरासत मुकदमेबाज़ी में फंसी होने के कारण उन्होंने फोटोग्राफी के मामले में अपनी असमर्थता जताई । वैसे तो मैं निहायत ही शरीफ़ किस्म का इंसान हूँ पर कुछ मौकों पर थोड़ा-बहुत दाएं – बाएं भी हो जाता हूँ । यहाँ भी कुछ ऐसा ही मामला था सो इज्जत का फ़लूदा होने का खतरा उठाते हुए भी आँख बचा कर कुछ फ़ोटो खीच ही डाले । यह बात अलग है कि वे फ़ोटो आज मेरे पास से भी गुम हो चुके हैं क्योंकि पुरानी कहावत है ‘चोरी का माल मोरी में’।
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पत्नी के साथ
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मेरी माँ और बच्चे
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(फ़ोटो सौजन्य : श्रीमती संगीता और श्री राजीव कुमार)
वापिस कोटा आकर यादों को अपने परिवार के साथ बाँटा । माँ की आँखों में जो खुशी की चमक आई थी उसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है । आज जब भी फुरसत के लम्हों में उन पुरानी यादों की जुगाली करता हूँ वह गीत अक्सर होंठों पर आ ही जाता है :
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन🎵🎵🎵🎵🎵
(प्रस्तुतकर्ता : मुकेश कौशिक)