आम इंसान की फितरत में ही कुछ ऐसी बात है कि अपने को किसी भी तुर्रमखां से कम नहीं समझता । कुछ तो ऐसे होते हैं कि अपनी शेखी बघारने के चक्कर में इतनी लंबी -लंबी छोड़ेंगे कि आप चक्कर खाकर धाराशाही हो जाएंगे । हमारी देसी भाषा में इस तरह के सत्पुरुषों को शेखचिल्ली कहा जाता है । कभी आप इनकी संगत में थोड़े समय के लिए भी बैठ जाइए – यह खुद अपनी झूठी प्रशंसा इस सीमा तक करेंगे कि आपको अपने आप से शर्म आने लगेगी कि काश हम भी इतने काबिल हो पाते । अपनी नौकरी के दौरान मैंने पाया कि जितना बड़ा अफसर – उतना ही बड़ा गपोड़िया । अब अफसर के नीचे काम करने वाला वह बेचारा अदना सा मातहत – बेचारे की क्या औकात कि साहब को उनके गप्प-पुराण के बीच में टोक दे । भैया अगर साहब से दस तरह के फ़ायदे लेने हैं तो उनकी जी-हुजूरी तो करनी ही पड़ेगी । चलिए छोड़िए इन सब शेखचिल्लियों की गाथा को , मेरा तो मानना है कि इंसान को अपनी उपलब्धियों से ज्यादा अपनी गलतियों पर ध्यान देना चाहिए । अपनी किसी भी ऊटपटाँग कारगुजारी को केवल याद ही नहीं रखना चाहिए वरन दूसरों को जब भी मौका मिले बताना भी चाहिए कि हमने तो ऐसी नालायकी करदी पर तुम मत करना । बरसों पुराना एक ऐसे किस्से को आज आपको सुना रहा हूँ जिसे आज तक मैंने सबसे छुपा कर रखा । वजह – जबरदस्त कान-खिचाई और डाट-डपट के डर से माँ -बाप तक को बताने की हिम्मत ही नहीं पड़ी । पिता जी आज इस दुनिया में हैं नहीं और माँ खुद इतनी बुजुर्ग हैं कि आज मेरी उस कारगुजारी को सुन कर गुस्सा तो जरूर होगी पर अपने इस सफेद बालों वाले रिटायर्ड बालक की पिटाई तो हरगिज नहीं करेगी ।
बात यह तब की है जब मैं बारहवीं कक्षा का छात्र था – वर्ष 1972 । घर दिल्ली-शाहदरा में था और कॉलेज – सेठ मुकुंद लाल इंटर कॉलेज, गाजियाबाद में । रोज़ का आना-जाना ट्रेन से ही हुआ करता था ।
समय पर कॉलेज जाना और समय पर वापिस घर लौटना यही दिनचर्या थी । मुंबई की लोकल ट्रेन की तरह से उन दिनों भी भीड़-भड़क्का काफ़ी होता था पर मजबूरीवश उस धक्का-मुक्की का आदी हो चुका था । उस दिन जब घर वापिस जाने के लिए कॉलेज से स्टेशन पहुँचा तो भीड़ पूरे उफ़ान पर थी । दरअसल अगले दिन ही होली का त्योहार था इसलिए भी स्टेशन पर कुंभ के मेले का नज़ारा दिख रहा था । प्लेटफ़ार्म पर पैर रखने की भी जगह नहीं थी । दम साध कर ट्रेन के आने का इंतजार कर रहा था । साथ में एक अन्य दोस्त भी था जो मेरी ही क्लास में पढ़ता था और साथ में शाहदरा से ही आता था । थोड़ी देर बाद ही ट्रेन भी आ गई – लेकिन उस ट्रेन की भीड़ को देखकर मेरे छक्के छूट गए । 1947 में भारत -पाकिस्तान के विभाजन के समय पाकिस्तान से आने वाली रेलगाड़ियों में भेड़ -बकरियों की तरह शरणार्थी लोगों का हुजूम खचाखच ठुसा रहता था । ऐसा ही मुझे इस शाहदरा जाने वाली ट्रेन को देख कर लग रहा था । जितने यात्री डिब्बे के अंदर थे उससे कहीं अधिक छत पर सवार थे ।
समस्या गहन थी कि घर वापिस कैसे पहुंचेंगे । घर वाले क्योंकि ट्रेन का मासिक पास बनवा कर दे देते थे इसलिए जेब में अलग से कोई खर्चा -पानी भी नहीं होता था । अब सवाल करो या मरो का आ पड़ा था । । प्लेटफ़ॉर्म पर गाड़ी के एक छोर से दूसरे छोर तक चक्कर लगा डाला पर अंदर घुसने का कहीं कोई जुगाड़ नहीं लग पाया । अब ट्रेन के छूटने का टाइम हो चुका था, सिग्नल डाउन था – लाइन क्लियर थी और गार्ड साहब ने सीटी बजा कर हरी झंडी दिखानी शुरू करदी थी । अचानक पता नहीं दिमाग में क्या आया – अपने दोस्त का हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए इंजिन की अगाडी बने चबूतरे पर चुपके से सवार हो गया । ड्राइवर का ध्यान उस समय पीछे गार्ड की हरी झंडी देखने में केंद्रित था इस लिए वह हमारी हरकत को नहीं देख पाया । इंजिन ने जबरदस्त कानफोडू अंदाज में सीटी मारी और जबरदस्त हिचकोले खाता चल पड़ा । यह उन दिनों की बात है जब अधिकतर गाड़ियां काले -कलूटे भाप के इंजिन से चला करती थीं । उन कोयले पानी से चलाने वाली रेल गाड़ियों को आज तक छुक -छुक गाड़ी के नाम से भी याद किया जाता है ।
जब उस इंजिन पर चुपके से सवार हुए थे तब दिल मे एक तरह की खुशी थी जैसे किला फतह कर लिया हो । पर यह खुशी ज्यादा देर तक बरकरार नहीं रह पायी । धीरे-धीरे इंजिन रफ्तार पकड़ता जा रहा था । गाड़ी की रफ्तार के हिसाब से ही दिल की धड़कनें और साँसे बढ़ती जा रहीं थी । रही सही कसर कमबख्त इंजिन की सीटी पूरी कर देती थी । रह - रह कर जब भी ठीक सिर के ऊपर बजती, लगता कान के परदे फट जाएंगे , कलेजा मुंह को आ रहा था । हम दोनों ही दोस्त पालथी मार कर कस कर एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बैठे हुए थे । इंजिन पूरी तूफ़ानी रफ्तार पर आ चुका था । कमर तोड़ भयानक हिचकोले खतरनाक ढंग से शरीर को हिला रहे थे । कभी लगता था जैसे शरीर में मिर्गी का दौरा पड़ रहा हो – और कभी लगता रेगिस्तान में किसी दौड़ते हुए ऊंट की सवारी कर रहे हैं । सामने से आती आती तेज हवा में आँखे खोल कर रखना मुश्किल हो रहा था । कमर के पीछे इंजिन की धधकती कोयला भट्टी की गर्मी से इतनी तेज हवा के झोंकों के बीच भी शरीर पसीने से नहा रहा था । सामने से आती धूल भरी गरम आंधी नुमा तेज हवा, इंजिन का काला धुआँ , यहाँ -वहाँ बिखरी कोयले और राख की कालिख ने हमारा ऊपर से लेकर नीचे तक ऐसा काला -कलूटा मेकअप कर दिया था कि कोई भी ब्लेक केट कमांडो समझने की भूल कर सकता था । डर के मारे एक तरह से घिग्गी बंध गई थी । किताब – कापियाँ तेज हवा और झटकों की वजह से हाथ से छूट – छूट कर इधर उधर फिल्मी गाना गाते हुए भाग रहीं थी – मुझे रोको ना कोई मैं चली , मैं चली । उन किताब कापियों को संभालता था तो उस तेज रफ्तार में खुद का संतुलन बिगड़ने लगता था । लगता जैसे साक्षात ईश्वर प्रश्न कर रहे हों – “ वत्स तुझे ज्ञान प्यारा है या प्राण”? बार -बार अपने सभी देवी – देवताओं से मनौती मना रहा था – बस इस बार सही सलामत घर के दर्शन करवा दो प्रभु – इसके बाद कभी ऐसा पंगा हरगिज नहीं लूँगा । शाहदरा स्टेशन – जहाँ मुझे उतरना था , वह भी अब पास ही आ रहा था । हम दोनों दोस्त ही अब थोड़े निश्चिंत हो चले थे और सोच रहे थे कि ईश्वर ने हमारी प्रार्थना सुन ली है । पर नहीं रे नहीं – अभी तो उस ऊपर वाले ने अभी इस किस्से का क्लाइमेक्स भी दिखाना था । तो हुआ कुछ यूँ , कि रेल की पटरी के साथ -साथ कुछ शरारती स्कूल के बच्चों का झुंड गुजर रहा था । उन्होंने जब इस तेज रफ्तार इंजिन के आगे बैठे हम अजूबों को दूर से ही देखा तो उन्होंने आव देखा न ताव – हो – हो की आवाजें कर मचाने लगे शोर । इतने पर भी गनीमत थी – उन दुष्टों ने पास पड़े पत्थर उठा लिए और हो गए शुरू – दे दनादन । अब आप खुद सोचिए – तेज रफ्तार दौड़ते इंजिन पर बैठे किसी इंसान को अगर एक छोटा सा भी पत्थर लग जाए तो कपाल क्रिया की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी । कुछ हमारे पुण्य कर्म रहे होंगे और कुछ उस ऊपर वाले की मेहरबानी , उस पत्थर -वर्षा से हम सकुशल बच गए । हाँ , हमारी मौजूदगी से अनजान, उस इंजिन के ड्राइवर उन पत्थर बरसाते शरारती बच्चों के बर्ताव पर जरूर अचंभा कर रहे होंगे।
खैर , जैसे -तैसे कर अपनी मंजिल के स्टेशन पर पहुँचे । जितनी चालाकी और चोरी से सबकी आँख बचा कर उस इंजिन रूपी शेर पर सवार हुए थे उतनी ही चतुराई से चुपचाप उतर गए । सिर्फ उतरे ही नहीं – कान दबा कर सिर पर पाँव रख कर भाग खड़े हुए । सीधे घर पहुँच कर ही दम लिया । माँ ने देखते ही आश्चर्य से सवाल किया- “यह क्या हुलिया बनाया हुआ है ? क्या हुआ ? ज़रा शीशे में अपनी शक्ल देखो । ” जब सचमुच शीशे में अपनी शक्ल देखी तो सामने शोले फिल्म का काला -भुजंग साक्षात कालिया नजर रहा था । उलझे हुए चीकट बाल, चेहरे पर कोयले की कालिख, कपड़ों पर धूल, ग्रीस और कालिख से बने दुनिया के सभी देशों के नक्शे । माँ के सवाल का लड़खड़ाती जुबान से यही जवाब निकला : “कोयले के ढेर पर फिसल कर गिर गया था । ” भगवान का शुक्र है उसके बाद आगे सवाल -जवाब नहीं हुए ।
चलते -चलते सबको एक सलाह – जो बेवकूफी मैंने की , आप मत करिएगा । भगवान हर इंसान पर हर वक्त मेहरबान नहीं होता ।
Ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha too good sir
ReplyDeleteYou never shared. It was not good to do such mischief. Life risk. Very well expressed as you created the scene as if reader is sitting there. Liked it. Mummy se kahunga kaan to khench he do .
ReplyDeleteRightly said . I have already confessed n apologized my mischief. By the way if I am not wrong it was almost similar adventure when you leaped out from running train 😂😂😂 Any way thanks for concern 🙏🙏🙏
Deleteबहुत अच्छा और सजीव चित्रण किया आपने अपनी शैतानी का ऐसा लग रहा था कि जैसे कि हम खुद इंजन के पहले सामने सवार हुए हैं और रोमांचक सफर कर रहे हो इसकी वजह से दिमाग में पुराने भाप के इंजन को विजुलाइज करना पड़ा कि उसमें कौन सी ऐसी जगह थी जहां पर बैठ सकते थे आशा है आप भविष्य में भी इसी तरह अपनी शैतानियां के किस्से बताते रहेंगे और मनोरंजन करते रहेंगे।
ReplyDeleteमेरे खुराफ़ाती किस्से का आनंद लेने के लिए आभार विनय जी । अगर आप इस किस्से के सबसे पहले स्टीम इंजिन के फोटो को ध्यान से ज़ूम कर के देखें तो इंजिन नम्बर के ऊपर सबसे अगाडी बने चबूतरे को देखकर समझ जाएंगे कि हम कहां गद्दी नशीन हुए थे । 😀😀😀
Deleteसर इंजन के आगे जो चबूतरा बना है वहां कोई रेलिंग ऐसा तो है ही नहीं किस तरह से आप वहां पर बैठे होंगे होंगे और किस तरह से आपने अपने आप को संभाला होगा यह सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं फिर भी इस तरह के एडवेंचर तो जवानी में जायज है ऐसे होते ही रहने चाहिए
ReplyDeleteचलिए प्राण भी बच गए और ज्ञान भी मिल गया।
ReplyDeleteवाकई बहुत ही रोचक प्रसंग था - खतरों के खिलाड़ी जैसा।
इस दुस्साहस का पता घर में यदि तभी पता चल जाता तो कैसा तांडव होता, इस की कल्पना मै कर सकती हूँ ।'यूँ होता तो क्या होता ।'
ReplyDeleteईश्वर की कृपा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
खैर ,भाषा चित्रात्मक और रोचक थी जो एक थ्रिलर फिल्म देखने का अहसास करा रही थी ।