कॉलेज के दिनों की याद |
कॉलेज का मेन गेट |
कुछ दिनों के बाद की ही बात है – कॉलेज की क्लास में पूरे जोर-शोर से पढ़ाई चल रही थी । हम सबका ध्यान सामने ब्लेकबोर्ड और मास्टर जी पर था । अचानक बाहर से हल्ला-गुल्ल और शोर-शराबे की आवाजें आने लगीं । यह शोर धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था – अब इस शोर में नारे-बाजी की आवाजें भी साफ़ तौर पर सुनाई देने लगी थीं । जब तक हम कुछ ठीक से समझ पाते तब तक हमारी क्लास के आगे एक भारी -भरकम भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी । यह भीड़ उसी ऊधमी कॉलेज के हड़ताली छात्रों की थी जो गला फाड़ आवाज में छात्र एकता के नारे लगा रहे थे । उस भीड़ के नेता ने मास्टर जी और सारे पढ़ाकू बच्चों को क्लास में ही आकर धमका दिया “ निकलो बाहर फिर देखते हैं तुम्हें । हम हड़ताल पर हैं और तुम सब यहाँ किताबी कीड़े बन रहे हो । ” इसके बाद तो पूछो मत क्लास में क्या गदर मचा – जिसके जिधर सींग समाए उधर ही पूँछ दबा कर भागता नजर आया । मैं भी सरपट भागा पर गलत दिशा में । कहते हैं ना जब गीदड़ की मौत आती है तो शहर की तरफ भागता है – लेकिन मैं भागा कॉलेज की छत की ओर जहाँ हमारी बायोलॉजी की प्रयोगशाला थी । सीढ़ियों पर रॉकेट की गति से दौड़ता जा रहा था । छत पर बनी उस प्रयोगशाला भवन की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि मुख्यद्वार में घुसने से पहले एक पिंजड़ें जैसा कमरा था । ठीक वैसा ही जैसा आप चिड़ियाघर में देखते हैं जिसमें बंदर उछल-कूद मचाते हैं । उस विशाल पिंजड़े-नुमा कमरे की तीन तरफ की दीवारें लंबी-लंबी सलाखों से बनी हुईं थी । वहीं पर दो-तीन मेज भी रखी हुई थीं । दरअसल उस कॉलेज की स्थापना वर्ष 1955 में ,सेठ मुकुंद लाल द्वारा दान की गई जमीन और हवेली पर हुई थी । इसीलिए उस कॉलेज बिल्डिंग का कुछ हिस्सा पुरानी हवेलीनुमा डिज़ाइन का एहसास कराता था । अब मेरी हालत उस बंदर जैसी हुई पड़ी थी जिसकी दुम में किसी ने आग लगादी हो । नीचे खड़ी ऊधमी कॉलेज की रावण सेना से जान कैसे बचे यही सोच -सोच कर कलेजा मुँह को आ रहा था । ज्यादा सोचने का व्यक्त था नहीं – सीधे उस पिंजड़े की ओर दौड़ा – अंदर जा कर देखा तो प्रयोगशाला भवन का दरवाजे पर ताला लटका हुआ था । अंदर जा नहीं सकता था और नीचे ग्यारह मुल्कों की पुलिस डॉन को गिरफतार करने के इंतजार में खड़ी थीं । अभी सोच ही रहा था कि इतने में खाली बोतल पास ही छत पर आकर फूटी । नीचे खड़ी भीड़ में से किसी ने फैंक के मारी थी पर निशाना चूक गया था । मैं घबरा कर तुरंत पास की बड़ी सी मेज के नीचे दुबक कर छिप गया । पर यह क्या – वहाँ तो पहले से ही एक ओर शरणार्थी दुबका माथे से पसीना पूछ रहा था । ध्यान से देखा तो पहचाना – यह तो मेरे बायलॉजी के ही मास्टर जी थे जो मेरी तरह ही अपनी जान बचाने के लिए भाग कर ऊपर आए तो थे पर चाभी लेब असिस्टेंट के पास होने की वजह से बीच में ही फँस गए । अब मैं और मेरे श्रद्धेय गुरु जी – दोनों ही उस मुसीबत के क्षण में एक ही नाव में सवार थे । अब नीचे से कोल्ड ड्रिंक और सोडा वाटर की बोतलों की जैसे मिसाइल – बरसात शुरू हो चुकी थी । हमारे कॉलेज के सामने हापुड़ रोड़ से गुजरने वाले एक कोल्ड ड्रिंक ले जा रहे ट्रक को उपद्रवी छात्रों ने लूट लिया था । उन बोतलों को ही अब वे दुष्ट हथगोलों की तरह से कॉलेज में यहाँ -वहाँ फेंक रहे थे । उन्हीं में से कुछ बोतलें हमारे हिस्से में आ रहीं थी । उड़ती हुई बोतलें आकर सीधे उस लोहे के पिंजड़े से टकरातीं – विस्फोट की आवाज होती – कोकाकोला की बरसात होती और साथ ही साथ टूटी बोतल के काँच के टुकड़े हवा में उड़ते यहाँ वहाँ बिखरते नजर आते । एक बार तो लगा कि वे सब मैंढ़क जिन पर मैंने इसी प्रयोगशाला में चीर-फाड़ की , शायद उन्हीं की आत्मा के श्राप का यह सब नतीजा है । कुछ देर तक बोतलों के हथगोले बरसते रहे – और इस भीषण युद्ध में घिरा हुआ मैं खुद को किसी खंदक में छुपे फौजी की तरह महसूस कर रहा था । उन फूटती हुई बोतलों से हवा में उड़ती काँच की किरचियाँ बंदूक की गोलियों की तरह दनदना कर बरस रही थी । वो तो भगवान भले करे उन मेजों का, जिनके नीचे हमने आसरा लिया हुआ था , वह हमारे लिए किसी फौजी बंकर से कम नहीं थी । क्या खतरनाक नजारा था – आज भी याद करता हूँ तो शरीर में सिहरन दौड़ जाती है । कुछ देर बाद बोतल वर्षा बंद हुई । गुरु जी को प्रणाम कर दबे पाँव वापिस सीढ़ियों से नीचे उतर कर आया । आस-पास देखा , ऊधमी वानर सेना अभी भी मौजूद थी । नजर बचा कर मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा बन गया । यहाँ तक तो गनीमत थी पर सभी मेरे कॉलेज और उसके प्रिंसिपल के खिलाफ़ हाय -हाय और मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे । मुझे कोई पहचान ना ले , इस डर से मैं भी उस नारेबाजी में जोर-शोर से शामिल हो गया । अब दूसरी तरफ दिल में धुकधुकी भी थी कि मेरे किसी मास्टर जी ने मुझे जिन्दाबाद – मुर्दाबाद करते देखा तो अगले ही दिन और कुछ हो या ना हो – पर जिंदा मुर्गा जरूर बना दिया जाऊंगा । बस यह समझ लीजिए – इधर कुआं और उधर खाई – जैसी हालत थी । अपने ही कॉलेज की हाय-हाय करता हुआ मैं उस भीड़ में पीछे खिसकता जा रहा था और जैसे ही किनारे पर पहुँचा सर पर पाँव रख कर बाहर भाग खड़ा हुआ । सीधे स्टेशन पहुँचा – गाड़ी पकड़ी और घर पहुँच कर ही दम लिया ।
नज़ारा कुछ -कुछ ऐसा ही था |
एक दिन उस उत्पाती कॉलेज का वही रेल-मित्र भी मिल गया जिसके आगे कभी मैंने अपने कॉलेज की कमरतोड़ पढ़ाई का जिक्र किया था । उसने मुस्करा कर आँख मारते हुए कहा – “अब तो तुम्हें कोई शिकायत नहीं । हड़ताल का बंदर आखिर तुम्हारे पढ़ाकू कॉलेज में हमने एक बारगी तो पहुंचा ही दिया । अब आगे तुम्हारी मर्जी –चाहे तो पालो या उसे भगा दो ।”
आज तक अक्सर अपनी खोपड़ी खुजा – खुजा कर सोचता रहता हूँ – उस बोतल फोड़ आफ़त को क्या मैंने खुद न्योता दे कर बुलाया था ?
रोमांचक किस्सा, दिलचस्प अंदाज़े बयां ।
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