Sunday, 11 August 2019

ऐसा भी होता है


यह ज़िंदगी भी बड़ी अजीब चीज़ है , पूछिए मत क्या रंग दिखलाती है | कुछ रंग ऐसे पक्के होते हैं जो अपने पीछे यादों के परदे पर ऐसे निशान छोड़ जाते हैं जो उम्र भर मिटाए नहीं मिटते | आज ऐसा ही अजीबोगरीब किस्सा सुनाने जा रहा हूँ जिसे सुनने के बाद आप भी बरबस कह उठेंगे क्या ऐसा भी होता है?
 
इस किस्से को सुनने के लिए आप को मेरे साथ आज से पचास साल पीछे जाना पड़ेगा | राशन, कंट्रोल और परमिट का ज़माना था | उस ज़माने में आज की तरह से दोपहिया वाहनों की सडकों पर ऐसी भरमार नहीं होती थी | स्कूटर खरीदने के लिए भी बाकायदा बुकिंग करानी पड़ती थी जिसमें बारी आने में सालों भी लग जाते थे | पिता जी सरकारी नौकरी में थे अत: सरकारी कोटे के हकदार थे जिसमें नंबर प्राथमिकता के आधार पर जल्दी आ जाता था | अपनी बरसों की पाई-पाई करके जोड़ी थोड़ी सी बचत के पैसों से , उन्होंने सरकारी कोटे में ही स्कूटर खरीदा | मुझे आज भी याद है , वह पीले रंग का वेस्पा स्कूटर था | बड़ी ही हिफाजत से रखा जाता , यहाँ तक कि शुरूआत में तो उसे घर के अन्दर उसी कमरे में रात को रखते जहां हम सोते थे | आखिर बड़े मेहनत के पसीने की कमाई का था सो डर स्वाभाविक था कि कहीं चोरी न हो जाए | उस समय हमारी उम्र भी होगी यही कोई दस-बारह बरस की | सुबह-सुबह हम दोनों भाइयों की ड्यूटी उसे साफ़ करने की लगती | रविवार के दिन उस स्कूटर को बाकायदा विशेष स्नान करवाया जाता जिसके बाद पालिश लगा कर खूब चमकाया जाता | हमारी सुबह की ड्यूटी में उस स्कूटर को घर के रेम्प से सड़क पर उतरवाने और शाम को पिता जी के दफ्तर लौटने पर धक्का देकर वापिस ऊपर चढ़वाने में मदद करना भी होता था | शाम को उस स्कूटर की पतली सी पी-पी की आवाज के हॉर्न का इंतज़ार रहता जो एक तरह से हमारे शाम की स्कूटर धक्का-पेल ड्यूटी पर तुरंत हाजिर होने सायरन होता था | 
सो दिन उसी तरह से गुज़रते जा रहे थे | एक दिन जब रोज़ शाम की तरह से स्कूटर के हार्न का इंतज़ार कर रहे थे तब  हार्न तो नहीं बजा, हाँ गेट पर दस्तक की आवाज जरूर हुई | देखा तो पिता जी तो खड़े हैं पर स्कूटर नदारत | पिता जी का चेहरा मुरझाया, पीला पड़ा हुआ | ठीक ऐसे जैसे कोई घुड़सवार युद्ध के बाद लौटता है किसी पैदल सैनिक के रूप में | माँ ने स्कूटर के बारे में पूछा तो कोई उत्तर नहीं | चुपचाप आकर कमरे में बैठ गए, रोज की तरह एक गिलास पानी पिया| माँ ने स्कूटर के बारे में दोबारा वही प्रश्न दोहराया तो इस बार छत पर लगे पंखे को देखते हुए धीमें स्वर में जवाब दिया – “चोरी हो गया |” पहले लगा कि शायद पिता जी मज़ाक कर रहें हैं, पर उनके चेहरे पर छाये गहरे परेशानी के बादलों को देखकर वह ख्याल दिमाग से तुरंत निकालना पड़ा | वह रात पिता जी ने करवट लेते ही काटी | सुबह के समय हाथ में ब्रीफकेस लेकर घर से धीर-धीरे पैदल निकलते समय उनके चेहरे पर छाई मायूसी की तस्वीर आज तक मेरी आँखों के सामने ताज़ा है | काफी दिनों तक घर में उदासी का माहौल रहा | अक्सर कहा करते मेरी मेहनत की कमाई का स्कूटर ऐसे कैसे चोरी हो सकता है | चोरी की रिपोर्ट भी पुलिस थाने में दर्ज करवा दी थी पर कुछ नतीजा नहीं | हाँ, अखबारों में जरुर यह खबर छपी थी कि कविवर श्री रमेश कौशिक का स्कूटर चोरी हो गया है |
घर में भी कुछ दिनों के राजकीय शोक के बाद धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो चला | समय के साथ-साथ स्कूटर वियोग का दुःख भी काफी हद तक दिलो-दिमाग से दूर हो चुका था | हमारी दिनचर्या में से भी स्कूटर की दैनिक सफाई, रेम्प पर धक्का-चढ़ाई और साप्ताहिक नह्लाईं से पिंड छूट चुका था | एक दिन शाम के समय हम सब आँगन में बैठे हुए गपशपकर रहे थे | गेट पर किसी ने दस्तक दी | सामने एक यही कोई तीस-पैंतीस साल का दुबला –पतला आदमी खड़ा था | पिता जी का नाम ले कर पूछा कि क्या उन्हीं का घर है | जब मेरे पिता जी ने उसके बारे में जानना चाहा तो उसने धीमी आवाज में कहा कि मैं वह आदमी हूँ जिसने आपका स्कूटर चुराया था | अब हैरान होने की बारी हमारी थी | बड़े अचम्भे से उस इंसान को देख रहे थे और सोच रहे थे कि क्या जो हम देख और सुन रहे हैं वह सच है या सपना | खैर उस आदमी को बाहर आँगन में खाट पर बिठाया, पहले पानी और फिर चाय पिलाई और उसके बाद उससे पूछा कि यह सारा गौरखधंधा आखिर है क्या | उस आदमी ने जो भी बताया वह हमारे दिमाग को चकराने के लिए काफी था | उसने बताया कि स्कूटर चोरी करने के कुछ दिनों बाद ही उस स्कूटर की कहीं छोटी-मोटी टक्कर हो गयी जिस पर पुलिस ने उसे पकड़ लिया था | यह पता लगाने पर कि स्कूटर चोरी का है, पुलिस ने उस स्कूटर को जब्त कर लिया और उस चोर को मार –पीट और डरा-धमका कर भगा दिया | अब पुलिस की नीयत साफ़ तो थी नहीं सो उस जब्त स्कूटर की कहीं भी रिकार्ड में बरामदगी नहीं दर्ज की | साफ़ तौर पर थानेदार साहब उस स्कूटर को गटक जाना चाहते थे | अब इधर चोर भी अपनी हुई पिटाई से आहत था और वह भी घायल मजनू की तरह सोच रहा था कि अगर लैला मेरी नहीं हुई तो कम से कम पुलिस की भी नहीं हो सकती | स्कूटर में मौजूद रजिस्ट्रेशन के कागजों से उसे हमारे घर का पता चल ही चुका था सो हमारे घर आ कर उस चोर ने बाकायदा उस थाने का पूरा अता-पता बता दिया जहां वह स्कूटर थानेदार साहब ने चुपचाप गायब करने की नीयत से छिपा कर रखा था | 
अगले दिन पिता जी पहले तो उसी सम्बंधित थाने में गए पर थानेदार साहब सीधे-सीधे मुकर गए | कोई और रास्ता न होने पर अंत में मजबूरीवश अपने जानकार पुलिस के आला अधिकारी के पास गए जो कि उन्हें एक कवि के रूप में सम्मान करते थे | सारा किस्सा सुनकर जब उस अधिकारी ने ताना बाना खींचा तो थानेदार साहब के तुरंत होश ठिकाने आ गए और उन्होंने उस स्कूटर , जो कि उनके मुंह में पड़ा गर्म आलू बन चुका था, को उगलने में ही अपनी भलाई समझी | इस प्रकार से वह दिल्ली जैसी जगह में खोया हुआ स्कूटर बहुत ही अविश्वसनीय तरीके से कविवर के पास ऐसे लौट आया “जैसे उड़ी जहाज़ का पंछी फिर जहाज़ पर आये”| और उस स्कूटर के साथ ही वापिस लौट आयीं हमारी वे ढेर सारी खुशियाँ जो कभी गुम हो गयीं थी उसी स्कूटर के चोरी होने पर |
बाद में कई बार इस घटना का जिक्र होने पर पिता जी अक्सर कहा करते थे कि यहाँ देखा जाए तो एक तरह से चोरी का काम पुलिस ने किया और पुलिस वाला काम किया चोर ने जिसकी बदौलत स्कूटर बरामद हो सका | इसके साथ ही उनका यह भी पक्का विश्वास था कि मेहनत और ईमानदारी की कमाई पर ही ऐसे चमत्कार होते हैं | पिता जी की सारी बातें अपनी जगह सोलह आने सही हैं पर मेरा मानना है कि इस सारे किस्से को सुखद अंत तक लाने में उनका कवि के रूप में प्रसिद्धी का भी कोई कम योगदान नहीं रहा |

3 comments:

  1. Unbelievable and astonishing story. A very nice read indeed 👍

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  2. At that time it was a great achievement to purchase a scooter and it was a attraction for the neighborhood

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  3. आपके पास कहानीयो का अंबार है। एक सचख घटना।

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