इससे पहले कोई लाए,
तुम्हें लोटे या जार में,
इक बार तो आ जाइए ,
जीते-जी हरिद्वार में |
ज़िंदगी का पूरा फ़लसफ़ा महज़ कुछ शब्दों में बयाँ करती ये पंक्तियाँ अपने आप में एक पूरी कहानी समेटे हुए है | कहानी आपकी क्षण-भंगुर ज़िंदगी की, कहानी एक शहर की और सबसे बड़ी कहानी आपके लोक-परलोक और उस शहर के बीच अनंत सम्बन्ध की जिसे हरिद्वार के नाम से जाना जाता है | आज की कहानी में आपको उसी हरिद्वार के दर्शन होंगें और साथ ही मुलाक़ात होगी वहाँ के एक रोचक किरदार से जिससे आपका कभी न कभी जरूर सामना हुआ होगा और जिन्हें आप पण्डे या तीर्थ पुरोहित के नाम से जानते हैं | इनके पास आपके पूर्वजों का वह लेखा-जोखा मिल सकता है जिससे देख कर आप अचम्भे में पड़ जाएगें |
तो चलिए शुरू करते हैं बात हरिद्वार की | हरिद्वार दरअसल हिन्दुओं का बहुत ही पवित्र और प्राचीन धार्मिक स्थान है | उत्तराखंड में गौमुख /गंगोत्री से निकली भागीरथी नदी आगे रुद्रप्रयाग में अलकनंदा से मिलकर गंगा का रूप लेती है तो ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों से लगभग 250 कि.मी की यात्रा इठलाती, बल खा कर, हिलोरे लेेती जब मैदानी इलाके में आकर शांत भाव ग्रहण करती है वह गंगा का प्रवेश द्वार हरिद्वार ही है | एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार धन्वन्तरी जब समुद्र मंथन के बाद निकले अमृत को जब कलश में लेकर जा रहे थे तो उसमें से अमृत की कुछ बूंदें जिन चार जगहों पर गिर गयी थीं उनमें से एक हरिद्वार भी था | अन्य तीन स्थान थे – नासिक, प्रयाग और उज्जैन | इन सभी तीर्थ स्थानों की महिमा अपरम्पार है | धार्मिक ग्रंथों के अनुसार हरिद्वार के बारे में यह मान्यता है कि यहाँ गंगा मैय्या में स्नान करने वाला सभी पाप कर्मों से मुक्ति पा जाता है | यहाँ प्राण त्यागने वाला सीधे मोक्ष को प्राप्त होता है और जिसका भी पिंडदान या अस्थिविसर्जन होता है वह भी सीधे बैकुंठ धाम की प्राप्ति कर लेता है | तीर्थ स्थान है तो सीधी सी बात है कि यहाँ पर पूजा-पाठ और कर्मकांड के लिए आने वाले श्रद्धालु और इन सब धार्मिक अनुष्ठानों को संपन्न करवाने वाले पंडित तो होंगे ही | शायद आपने भी सुना तो होगा ही - इन श्रद्धालुओं को कहते हैं यजमान और पंडित जी को – तीर्थ पुरोहित या पंडा | इन तीर्थ-पुरोहितों की कार्य शैली भी उतनी ही अदभुत है जितनी कि मुम्बई की डब्बे वालों की | फर्क सिर्फ इतना है कि जहां डिब्बे वाले बहुत ही सटीकता और कुशलता से खाने के डिब्बे लोगों के घरों से उनके दूर दराज स्थित दफ्तरों तक समय पर पहुँचा देते हैं, वहीं दूसरी ओर तीर्थ पुरोहितों के पास अपने यजमानों के पूर्वजों की कई पीढ़ियों तक का लेखा-जोखा इतने व्यवस्थित रूप से रखा जाता है कि आज के जमाने के कम्प्यूटरों में रिकार्ड रखने वाले बड़े से बड़े लाइब्रेरियन भी दाँतों तले उंगली दबा लें |
तो चलिए शुरू करते हैं बात हरिद्वार की | हरिद्वार दरअसल हिन्दुओं का बहुत ही पवित्र और प्राचीन धार्मिक स्थान है | उत्तराखंड में गौमुख /गंगोत्री से निकली भागीरथी नदी आगे रुद्रप्रयाग में अलकनंदा से मिलकर गंगा का रूप लेती है तो ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों से लगभग 250 कि.मी की यात्रा इठलाती, बल खा कर, हिलोरे लेेती जब मैदानी इलाके में आकर शांत भाव ग्रहण करती है वह गंगा का प्रवेश द्वार हरिद्वार ही है | एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार धन्वन्तरी जब समुद्र मंथन के बाद निकले अमृत को जब कलश में लेकर जा रहे थे तो उसमें से अमृत की कुछ बूंदें जिन चार जगहों पर गिर गयी थीं उनमें से एक हरिद्वार भी था | अन्य तीन स्थान थे – नासिक, प्रयाग और उज्जैन | इन सभी तीर्थ स्थानों की महिमा अपरम्पार है | धार्मिक ग्रंथों के अनुसार हरिद्वार के बारे में यह मान्यता है कि यहाँ गंगा मैय्या में स्नान करने वाला सभी पाप कर्मों से मुक्ति पा जाता है | यहाँ प्राण त्यागने वाला सीधे मोक्ष को प्राप्त होता है और जिसका भी पिंडदान या अस्थिविसर्जन होता है वह भी सीधे बैकुंठ धाम की प्राप्ति कर लेता है | तीर्थ स्थान है तो सीधी सी बात है कि यहाँ पर पूजा-पाठ और कर्मकांड के लिए आने वाले श्रद्धालु और इन सब धार्मिक अनुष्ठानों को संपन्न करवाने वाले पंडित तो होंगे ही | शायद आपने भी सुना तो होगा ही - इन श्रद्धालुओं को कहते हैं यजमान और पंडित जी को – तीर्थ पुरोहित या पंडा | इन तीर्थ-पुरोहितों की कार्य शैली भी उतनी ही अदभुत है जितनी कि मुम्बई की डब्बे वालों की | फर्क सिर्फ इतना है कि जहां डिब्बे वाले बहुत ही सटीकता और कुशलता से खाने के डिब्बे लोगों के घरों से उनके दूर दराज स्थित दफ्तरों तक समय पर पहुँचा देते हैं, वहीं दूसरी ओर तीर्थ पुरोहितों के पास अपने यजमानों के पूर्वजों की कई पीढ़ियों तक का लेखा-जोखा इतने व्यवस्थित रूप से रखा जाता है कि आज के जमाने के कम्प्यूटरों में रिकार्ड रखने वाले बड़े से बड़े लाइब्रेरियन भी दाँतों तले उंगली दबा लें |
आपके पुरखों का लेखा-जोखा |
तीर्थ पुरोहित पंडित धीरज शर्मा |
वर्ष 1866 का हरिद्वार का गंगा तट |
उस समय तीर्थ यात्री पैदल ही या घोड़ों पर कई –कई दिनों की कठिन यात्रा करके हरिद्वार आते थे | ऐसे समय में उनके राज्य, जिले के लिए सम्बंधित तीर्थ पुरोहित ही उनके लिए पूजा पाठ तो करते ही थे बल्कि जरूरत पड़ने पर उनके रहने-खाने की व्यवस्था भी अपने घरों में ही करते थे | ऐसा प्रगाढ़ और घरेलू किस्म का विश्वास से भरा रिश्ता होता था यजमान और उनके पुरोहित का | तीर्थ यात्री अपने वंश वृक्ष की समस्त जानकारी जैसे बाप-दादा का नाम, आने का प्रयोजन आदि सब कुछ उस बही-खाते में दर्ज करवाते, अपने और साथ आए रिश्तेदारों के हस्ताक्षर भी करते | यही परम्परा पीढी- दर- पीढी से चली आ रही है | अगली बार आने पर यजमान अपने परिवार के विवरण में जरूरी फेरबदल करवा लेते | यह सब कुछ इसी तरह से है जैसे सरकार द्वारा जन्म - मृत्यु पंजीकरण रिकार्ड| आश्चर्य की बात यह है कि सरकारी रिकार्ड की सुईं तो पचास साल पहले जा कर ही टें बोल जायेगी पर आपके पंडे जी आपके सामने 800 साल पहले का भी खाता आपके सामने पेश कर देंगे | यह बात मैं हवा में नहीं मार रहा हूँ, आपको बाकायदा प्रमाण सहित कह रहा हूँ |
आठ सौ वर्ष पुराना बही - देवनागरी और उर्दू लिखित |
पहले यह बही भोज पत्रों पर लिखी जाती थी, फिर समय के साथ कागज़ का प्रचलन चला | ताम्र पत्रों पर भी कुछ वंशावलियों का उल्लेख है | हरिद्वार में करीब 2500 तीर्थ पुरोहित हैं | यह सब वे ब्राह्मण पंडित हैं जो पीढी दर पीढी से अपने यजमानों का लेखा-जोखा वंशावलियों के रूप रखते आए हैं | प्रत्येक जिले की पंजिका जिसे बही भी कहते हैं, का विशिष्ट पंडित होता है।इन हाथ से लिखी बही में यजमानों और उनके पूर्वजों का विवरण उनके असली जिलों व गांवों के आधार पर वर्गीकृत करने के बाद सहेज कर रखी गयीं हैं। यहाँ तक कि भारत के विभाजन के उपरांत जो जिले व गाँव पाकिस्तान में रह गए व हिन्दू भारत आ गए उनकी भी वंशावलियां यहाँ हैं। कई मामलों में तो उन हिन्दुओं के वंशज अब सिख हैं, तो कई के मुस्लिम अपितु ईसाई भी हैं।
इतना जानने के बाद पंडित धीरज शर्मा जी से पूछ बैठा कि कुछ अपने बारे में भी बताइए | उन्होंने बताया कि उनके भी पीढी-दर-पीढी यही काम चला आ रहा है |उनके पिता का सात भाइयों का परिवार था | अगली पीढी के इच्छुक सदस्य को विरासत में यही काम सौंप दिया जाता है | उनके द्वारा सैकड़ों वर्षो का हस्तलिखित बही जिनमें यजमानों का रिकार्ड होता है वही उनकी पूंजी है | पंडित जी ने एक बहुत दिलचस्प बात भी बताई | वह स्वयं बी.ए , एल.एल.बी हैं , कुछ समय वकालत में भी हाथ आजमाया पर पिता की मृत्यु के बाद उनकी इस विरासत को सम्भाला | कर्मकांड की विधिवत शिक्षा अपने ताऊ जी श्री ज्ञान चंद्र शास्त्री जो कि राष्ट्रपति पुरस्कार से अलंकृत रहे और ऋषिकेश स्थित परमार्थ निकेतन से सम्बद्ध रहे , से प्राप्त की | अपने इस पवित्र सेवा कार्य से पूरी तरह से संतुष्ट हैं | बच्चे पढाई कर रहे हैं – बड़ा बी.सी.ए में और छोटा नवीं कक्षा में | अभी से कुछ नहीं कह सकते कि बच्चे भी यही गद्दी संभालेंगे, सब कुछ उनकी इच्छा पर है | अगर ऐसा होता है तो गद्दी की व्यवस्था परिस्थितियों के अनुसार की जायेगी | अपने रोचक अनुभवों को बताते हुए पंडित जी बताते हैं कि संपत्ति की विरासत को लेकर उपजे मुकदमें के चक्कर में एक बार उन्हें अपनी बही (रिकार्ड) के साथ यमुना नगर की कोर्ट में पेशी पर जाना पड़ा था | बही में दर्ज विवरण को कानूनी मान्यता प्राप्त है | मुझे लगता है कोर्ट में उस समय पंडित जी ने एक बारगी माथे पर पसीना पोछते हुए एक बारगी सोचा तो जरूर होगा – बुरे फँसे पुरोहिताई में |
पंडित धीरज शर्मा जी हरिद्वार में समाज सेवा के कार्यों में भी अत्यंत व्यस्त रहते हैं | किसी भी कठिनाई या समस्या की हालत में उनसे निसंकोच संपर्क 9760339460 नंबर पर किया जा सकता है | उन्होंने एक अपील भी की है | वह कहते हैं कि अब संयुक्त परिवार रहे नहीं, उनकी जगह नाभकीय परिवारों ने ले ली है यानि पति-पत्नी और बच्चे | ऐसे समय में अपनी पीढी का लेखा-जोखा भविष्य के लिए सुरक्षित रखने के लिए, जब भी हरिद्वार आयें, अपने पुरखों, दादा-दादी और अपने कुनबे के अन्य सदस्यों के नाम, रहने के पुराने जिले के नाम, परिवार में हुए शादी -ब्याह और मृत्यु की पूरी जानकारी के साथ आयें| इस जानकारी को अपने तीर्थ पुरोहित के पास दर्ज भी कराएं | आने वाली पीढ़ी के लिए हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं |
पुराने होते रिकार्ड को नष्ट होने से बचाने के लिए रिकार्ड को कम्प्यूटर में संरक्षित रखने के विषय में मेरी कई अन्य परिचितों से भी बात हुई | इस पर कुछ का मत था कि तकनीकी साधनों का प्रयोग अपनी जगह कुछ हद तक उचित हो सकता है पर यह उस असली बही की जगह कभी नहीं ले सकता | पुरोहित की गद्दी पर बैठ कर बही के उस असली कागज़ में अपने बाप-दादाओं के हस्ताक्षर , उनके परिवार का लेखा-जोखा देख कर भावना यजमान के मन में उमड़ती है कि इसी जगह पर मेरे पुरखे आकर अपना ब्योरा दर्ज करवा कर गए थे | कंप्यूटर के स्क्रीन पर उन कागजात की आभासी तस्वीर शायद भावनाओं का वह रोमांच पैदा न कर सके | नए ज़माने की तेज़ रफ़्तार का वैसे तो मैं भी समर्थक हूँ पर लगता है यहाँ यजमान जी भी शायद ठीक कह रहे हैं |
( आभार : इस लेख में संग्रहित सामग्री के लिए श्री संजय कुमार झाड़, गंगा सभा, हरिद्वार एवं श्री राजेश शर्मा, हरिद्वार का विशेष योगदान रहा )