इस संसार में कोई भी पूरी तरह से स्वाबलंबी नहीं है | हर किसी को किसी न किसी पर कुछ हद तक निर्भर तो रहना ही पड़ता है | एक तरह से यह भी कह सकते हैं कि बेशक आप कितने ही आला दर्जे के फन्ने खां क्यों न हों, कहीं तो आपको सज़दा करना ही पड़ेगा | अब किसी से अपना काम निकलवाना भी अपने आप में एक हुनर है जो हर किसी के बूते की बात नहीं | कुछ लोग इस कला में माहिर होते हैं तो कुछ फिस्सडी | पुराने से भी बहुत पुराने ज़माने में एक अत्यंत विद्वान व्यक्ति थे जिनका दिमाग चाचा चौधरी से भी तेज़ चलता था | उनके नाम से आप सभी भली- भांति परिचित होंगे – चाणक्य | वह भी लुकमान हकीम की तरह हर मर्ज़ की दवा बता गए थे – अब यह बात अलग है कि उनके बताये इलाज़ शारीरिक कष्टों से सम्बंधित न होकर, दुनियादारी, राजनीति और कूटनीति से ताल्लुक रखते हैं | हज़ारों वर्ष बीत जाने के बाद आज भी चाणक्य नीति के विचार आपको व्हाट्सेप के सुविचारों की दुनिया में उड़ान भरते नजर आ जायेंगे | किसी से भी काम निकलवाने के लिए चाणक्य नीति का एक बहुत ही कारगर और दमदार नुस्खा है – “ साम- दाम- दंड- भेद” | साम : समझा कर , दाम : लालच दे कर , दंड : धमका कर, भेद : कुटिल, तिकड़मबाजी और घाघ तरीके अपना कर ( जैसे ब्लेकमेलिंग ) | अब आप कहेंगे मैं यह सब आपको क्यों बता रहा हूँ | कारण केवल इतना है कि आज तक एक मजेदार घटना और चाणक्य नीति के बीच ताल-मेल नहीं बैठा पा रहा हूँ |
यह किस्सा भी बहुत पुराना है और उस किस्से को मुझे सुनाने वाले मेरे ख़ास मित्र भी उतने ही पुराने हैं | उनका नाम भी बता ही देता हूँ - श्री रविन्द्र निगम | देश -विदेश में सीमेंट उद्योग के तकनीकी क्षेत्र में एक तरह से भीष्म पितामह का रुतबा हासिल कर चुके हैं | विदेशों में भी अपने कार्य-कौशल के झंडे गाढ़ चुके हैं | इतिहास के पुराने पन्नों से निकाला यह किस्सा भी आज से तकरीबन तीस साल पुराना तो होगा ही | निगम साहब उन दिनों भारतीय सीमेंट निगम के हरियाणा में स्थित चरखी दादरी प्लांट में तैनात थे | लगे हाथ यह भी बताता चलूँ कि हमारे निगम साहब और सीमेंट निगम में कहीं से भी दूर-दूर तक कोई रिश्तेदारी नहीं है ठीक उसी तरह से जैसे प्राचीन गणितज्ञ -वैज्ञानिक आर्य भट्ट और आज की आलिया भट्ट में | चरखी दादरी जो आज के समय में अपने आप में एक जिला बन चुका है, रोहतक और भिवानी के साथ भौगोलिक रूप से सटा हुआ है | देश के सबसे पुराने सीमेंट कारखानों में से एक वहीं पर था| इसे उद्योगपति डालमिया ने वर्ष 1940 के दौरान बनवाया था | ज़ाहिर सी बात है , समय के साथ-साथ कारखाना पुराना और बीमार पड़ता चला गया और वर्ष 1980 के आते -आते एक तरह से दम ही तोड़ दिया | अब उस फेक्ट्री के बंद होने से सैकड़ों कर्मचारी बेरोजगार हो गए | तत्कालीन सरकार पर जब तरह-तरह के राजनैतिक दबाव पड़ने लगे तब उस बंद पुराने बीमार कारखाने को केंद्र सरकार के आधीन सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया (सी.सी.आई ) के सुपर्द कर दिया गया | एक पुरानी कहावत है – मरी गैय्या , बामन के नाम | बस कुछ उसी तर्ज़ पर उस फटे - पुराने ढ़ोल को सी.सी.आई के गले में लटका दिया गया कि बेटा बजाते रहो अगर बजा सकते हो तो | सी.सी.आई ने अपने जिन अनुभवी और प्रतिभाशाली अधिकारियों की टीम को उस मरियल बैल को हांकने की जिम्मेदारी सौपीं थी , हमारे निगम साहब भी उन्हीं में से एक थे |
उन दिनों के निगम साहब ( बाएं) के साथ मैं मुकेश कौशिक |
स्व० श्री एच.सी. मित्तल |
ऐसी ही एक समस्या निगम साहब के घर में भी खड़ी हो गयी जब उनके फ्लेट में छत से ऊपर की मंजिल पर बने मकान का पानी टपक-टपक कर गिरना शुरू हो गया | निगम साहब ने भी अपनी फ़रियाद मित्तल साहब के डिपार्टमेंट में करवा दी| कुछ दिनों बाद एक-आध बार मित्तल साहब को याद भी दिलवा दिया | दिन बीतते गए और निगम साहब के फ्लेट में बेमौसम का सदाबहार सावन बदस्तूर जारी रहा | थक हार कर निगम साहब भी अपने दिल को तस्सली देकर चुप बैठ गए कि चेरापूंजी में भी तो लोग रहते ही हैं | समय एक सा नहीं रहता, आखिर एक दिन वक्त ने करवट ली और सड़क पर निगम साहब और सिविल डिपार्टमेंट के प्रमुख मित्तल साहब का आमना -सामना हो गया | मित्तल साहब खुद ही पूछ बैठे – आपके घर की जो प्रोब्लम थी वह ठीक हो गयी क्या ? निगम साहब थोड़ा सा मुस्कराए फिर बोले – “सर अभी तक तो नहीं | हाँ इतना जरूर है कि मैंने उस टपकती आलमारी के ठीक नीचे अपने पूजा घर के सभी देवी-देवता बिठा दिए हैं यह कह कर कि भगवन मैं तो अब मजबूर हूँ | जब तक मित्तल साहब की दया- दृष्टि नहीं होती तब तक इसी प्रकार से स्नान करते रहिए |हम से तो हो नहीं पाया, आप काम करवा सकते हैं तो करवा लीजिए |” सुनकर मित्तल साहब कुछ नहीं बोले , सिर्फ मुस्करा कर चल दिए और निगम साहब भी अपने काम काज में व्यस्त हो गए |
अगले दिन जब रोज की तरह फेक्ट्री के लंच टाइम में निगम साहब अपने फ्लेट पर पहुंचे तो वहां का नज़ारा देख कर हक्के-बक्के रह गए | सुपरवाइज़र के साथ करीब दस -बारह मजदूर हल्ला बोल चुके थे | सभी उस टपकती छत के इलाज़ में मुस्तैदी से व्यस्त थे | उनके सुपरवाइजर ने बताया कि मित्तल साहब का आदेश है जब तक निगम साहब की ( या यूँ कह लीजिए देवी-देवताओं की ) शिकायत दूर नहीं होती है, वापिस मत लौटना | और इस प्रकार से निगम साहब के यहाँ से सदाबहार सावन की विदाई हुई |
मैं आज तक यह नहीं समझ पाया हूँ कि इस सारे प्रकरण में “साम-दाम-दंड-भेद “ की चाणक्य नीति, या मित्तल साहब की शराफत या भक्ति-भाव के कौन से फार्मूले ने काम कर दिया | अगर आप बता सकते हैं तो मुझे ज़रूर बताइयेगा |
दशकों पुराने छोटे मोटे क़िस्से जो की लोग अक्सर भूल जाते है उन्हें अपने शब्दों में पिरो कर ब्लॉग का रूप देने की कला शायद कौशिक जी से बेहतर कौन जानता है। आपके ब्लॉग में एक साधारण से क़िस्से को हास्य का पुट देकर उसे अपने अन्दाज़ में पेश करने की कला ही आपको दूसरे ब्लॉग लिखने वालों से उत्तम श्रेणी में रखती है। आपकी इसी कला का मैं मुरीद हूँ और चाहता हूँ कि ब्लॉग में रुचि रखने वाले सभी पाठक इनके ब्लॉग पढ़कर लगातार आनंद लेते रहें।
ReplyDeleteराजेश मित्तल
Loved it Uncle. I never knew about this incident and smiled while reading it. Thank you for sharing in such a funny way ��
ReplyDeleteमेरे चरखी दादरी के अनुभव का बहुत सुन्दर चित्रण किया है।यह सही है जब इंसान हार जाता है तब उसके अंदर का चाणक्य जाग जाता है और कुछ ऐसा हो जाता जो लेखनी का भोग बन जाता है। मेरे जहन में ऐसे अनेक पृसंग है जो आगे लेखनी क भोग बनेंगे।मजेदार बात यह है कि उनमें से अघिकतर सिविल के हैं, जो मेरे 40-45 साल के अनुभव से हैं।आगे आप से साझा करूंगा।आपकी लेखनी का में कायल हूं। शुभ कामनायें।
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