Saturday 31 August 2019

डी.एम्. साहब की चाय

श्री सुनील दुबे 
मेरे एक बहुत पुराने मित्र हैं सुनील दुबे जी | किसी समय साथ ही नौकरी करते थे | परिस्थितियाँ बाद में कुछ ऐसी बनीं कि नौकरी छोड़ कर वकालत के पेशे में आ गए | समय -समय पर हाल-चाल लेने के लिए अब भी फोन करते रहते हैं | कुछ हमारी सुनते हैं और कुछ अपनी सुनाया करते हैं | गाज़ियाबाद में रहते हैं | अभी कुछ दिन पहले फोन पर बातो ही बातों में उन्होंने एक ऐसा किस्सा बताया जो रोचक भी था और प्रेरणादायक भी | हमारे आस-पास की दुनिया में मौजूद ऐसे ही किस्से और किरदारों से जीवन को नई चेतना देने वाले सन्देश भी निकल आते हैं | तो चलिए सुनील दुबे जी के माध्यम से प्राप्त आज के खबरी किस्से की शुरुआत करता हूँ| 

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को दिल्ली जाना था | अपने विशेष राजकीय विमान से लखनऊ से पहले हिंडन एअर बेस पहुंचे जहां पर कुछ देर रुकने के बाद उन्हें आगे सड़क मार्ग से दिल्ली के लिए निकलना था | हिंडन एअर बेस गाजियाबाद और दिल्ली की आपस में लगती सीमा पर ही स्थित है | सुबह-सुबह का वक्त था और जिलाधिकारी डा० अजय शंकर पांडेय,(आई.ए.एस.), प्रोटोकॉल ड्यूटी के तहत हवाई अड्डे पर मुख्यमंत्री के स्वागत के लिए मौजूद थे |

श्री  अजय शंकर पांडेय , आई.ए.एस , जिलाधिकारी -( गाज़ियाबाद ) 
सब तरफ गहमागहमी का माहौल था | इसके विपरीत दूसरी तरफ गाजियाबाद कलेक्टर कार्यालय में काफी हद तक तनाव रहित, हल्का-फुल्का हिसाब किताब चल रहा था | कुछ कर्मचारी आराम के से मूड में थे | दफ्तर में साढ़े नौ बजे से ही कर्मचारियों को आना होता है पर किसी भी हालत में दस बजे के बाद अनुमति नहीं होती | पर उस दिन की बात ही कुछ और थी | सबके दिमाग में शायद यही घूम रहा था : मियाँ हमारे घर नहीं, हमें किसी का डर नहीं | कुछ कर्मचारियों को शायद पिछले दिन ही पता चल गया था कि कल साहब बाहर के कार्यक्रमों में व्यस्त रहेंगें, इसलिए दफ्तर कब आयेंगे राम ही जाने | यही सोचकर उन्होंने खुद भी आराम से ही दफ्तर पहुँचने की योजना बना कर रख ली |
पर देखिए, होनी को भी कुछ और ही मंजूर था | ज्ञानी ध्यानी कह गए हैं : मेरे मन कुछ और है, दाता के कुछ और | भगवान से भी शायद आराम-तलब और आलसी प्राणियों का सुख देखा नहीं जाता | सो हुआ कुछ ऐसा कि हवाई अड्डे से मुख्यमंत्री जी तो तुरंत – फुरंत फ़ारिग हो कर चल पड़े आगे दिल्ली के लिए और इधर जिलाधिकारी साहब  ने भी गाड़ी घुमा दी वापिस अपने दफ़्तर की ओर| साहब को दफ्तर में दस बजे से पहले ही अपनी कुर्सी पर विराजमान होने का समाचार बिजली की तरह से पूरी कलेक्ट्रेट में आनन-फानन में फ़ैल गया | यहीं पर बात ख़त्म हो जाती तब भी गनीमत थी, पर जिलाधिकारी महोदय ने तो हाजिरी रजिस्टर अपने पास मंगवा लिया और शुरू करदी जांच-पड़ताल | आखिरी बिजली गिरनी मानो अभी भी बाकी थी – सो साहब ने आदेश दिया कि देर से आने वाले सभी कर्मचारी उनके पास सीधे भेज दिए जाएं | 
अब आने वाले जितने भी लेट-लतीफ़ थे सबकी सांस आफत में | अब ये डी.एम साहब आये भी तो नए-नए ही थे | उनके स्वभाव के बारे में ज्यादा कुछ पता भी नहीं था कि बकरे की कुर्बानी कैसे देंगे – झटके से या हलाल करके | अब साहब के कमरे में सब एक- एक करके जा रहे थे, अपने-अपने देवी- देवताओं को याद करते हुए, मन्नत मानते हुए कि बस इस बार कैसे भी हो बचा लो, आगे के लिए कान पकड़े |
अब आगे के दृश्य की आप कैसी कल्पना कर रहे हैं ? यही कि साहब ने एक -एक लेट-लतीफ़ बन्दे को जम कर लताड़ा होगा | खूब खरी खोटी सुना कर चलता कर दिया होगा | जी नहीं – यहाँ आप से चूक हो गई | हर आने वाले कर्मचारी को पहले रजिस्टर में आने का समय दर्ज करवाने के बाद बाकायदा जिलाधिकारी महोदय ने अपनी जेब से पैसा खर्च करके चाय पिलवाई | किसी भी किस्म की कोई पूछताछ नहीं | अगर किसी ने दबी जुबान से देर से आने का स्पष्टीकरण देना भी चाहा तो उसे भी अनसुना ही कर दिया | चाय का प्याला हाथ में लिए पर अन्दर ही अन्दर शर्म से पानी -पानी हुए जा रहे उन कर्मचारियों की क्या हालत हो रही होगी इसका कुछ अंदाजा तो आप लगा ही सकते हैं | उस उनसे वक्त चाय का घूंट ना उगलते बन रहा था और ना ही निगलते | यह उनके जीवन का ऐसा अटपटा अनुभव था जिससे वह किसी भी हालत में दोबारा तो हरगिज़ नहीं गुज़रना चाहेंगे | उस घटनाक्रम से पूरे कार्यालय में सभी अधिकारी और कर्मचारियों को जो सन्देश मिला वह अत्यंत स्पष्ट था : सभी के लिए बेहतर है कि मीठी गोली से ही उपचार हो जाए और कड़वी गोली की आवश्यकता ही न पड़े | 


जिलाधिकारी श्री अजय शंकर पांडेय  के बारे में अक्सर सुनने में आता है कि वह स्वयं नियत समय से भी दस मिनिट पहले ही दफ़्तर पहुंच जाते हैं , और अपने हाथों से अपने कमरे की सफ़ाई करते हैं | कार्यालय में उनके कमरे के बाहर लगा नोटिस बोर्ड पर सूचित किया गया है कि कार्यालय की सफ़ाई स्वयं उनके द्वारा की गयी है अत: गन्दगी फैला कर उनके काम के बोझ को और अधिक न बढ़ाएं | सफ़ाई के प्रति अपने अधीनस्थ कर्मचारियों और सामान्य जनता तक जागरूकता फ़ैलाने का इससे अधिक अच्छा तरीका और उदाहरण और क्या हो सकता है | यही वज़ह है कि उन्हें  उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा स्वच्छ शक्ति सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है | आज के बनावटी और आडम्बर से भरी अफसरशाही की दुनिया में पांडेय  जी जैसे अधिकारी वास्तव में प्रशंसा के पात्र हैं |

Monday 26 August 2019

विपिन वत्स : वर्दी और कविता

मेरे एक ख़ास मित्र हैं, मुलाक़ात उनसे केवल एक ही बार हुई और वह भी आज से लगभग चार वर्ष पहले, साल 2015 में आसाम के घने जंगलों में | मुलाक़ात केवल एक बार की, फिर भी इतनी ख़ास कि आज तक हैं साथ | अभी भी समय-समय पर फ़ोन पर संपर्क बनाए रखते हैं | बात अजीब सी है पर है सच | कारण केवल इतना है कि उनके शौक और काम-धंधें में छत्तीस का आंकड़ा है | उनकी रुचियाँ बहुत ही कोमलता से भरी हैं , शायद यही एक वजह है जो मुझे उनसे जोड़ती है | मुझे पता है आप को अभी भी नज़ारा पूरी तरह से साफ़ नहीं हुआ होगा तो चलिए थोड़ा तफ़सील से बात करी जाए | 

मेरे हमउम्र और सिनेमा के शौक़ीन लोगों को शायद ध्यान हो, आज से लगभग तीस साल पहले 1970 में देवानंद साहब की फिल्म आयी थी – प्रेमपुजारी | वह कहानी थी एक ऐसे कोमल कवि ह्रदय इंसान की जो अपने फ़ौजी पिता की इच्छा को पूरा करने की मजबूरी लिए सेना में भर्ती तो हो जाता है पर अपने आपको उस माहौल और वातावरण में ढाल नहीं पाता और अंत में - सेना की नौकरी को छोड़ देता है | दिल में देश-प्रेम का जज़्बा लिए वह अपने ही तरीके से देश के दुश्मनों का सामना करता है | आज जब अपने उस दोस्त- विपिन के बारे में लिखने बैठा तो मुझे यह कहानी भी बरबस याद आगई | 

विपिन वत्स 
विपिन वत्स का बचपन भी कुछ ऐसे ही मिलते जुलते वातावरण में बीता | पिता दिल्ली पुलिस में रहे | दिल्ली विश्वविद्यालय से पढाई- लिखाई पूरी करने के बाद खुद भी दिल्ली पुलिस में आ गए | बाद में केन्द्रीय ओद्योगिक सुरक्षा बल (सी.आई.एस.एफ ) में भी काम किया | लेकिन वहां भी ज्यादा समय तक मन नहीं रमा | एक नामी गिरामी अस्पताल और बेनेट कोलमेन जैसी कंपनी में भी अपनी सेवाएं दी | फिलहाल सीमेंट कार्पोरेशन ऑफ़ इण्डिया की फेक्ट्री , बोकाजान (असम) में कार्मिक और प्रशासन विभाग के प्रमुख हैं | विपिन ने पुलिस और सी.आई.एस.एफ जैसे कठोर वातावरण में भी काम किया वहीं अस्पताल की संवेदनशील दुनिया को भी बहुत नज़दीक से अनुभव किया | उनकी प्रतिभा छिपी है उस पारखी नज़र और संवेदनशीलता में जो कविता के रूप में जन्म लेती है | बहुत ही सरल भाषा में लिखी उनकी कविताएं सीधे दिल में उतर जाती हैं | लिखा तो उन्होंने बहुत है पर बानगी के लिए एक कविता खास आप के लिए ;                              गुज़ारिश



आप समझ सकते हैं यह कविता उस व्यक्ति की कलम से निकली है  जिन हाथों में कभी बंदूक और रिवाल्वर होती थी और आज भी जो ईंट , पत्थरों और सीमेंट की दुनिया में बसर कर रहा है  | हाथों में चाहे कुछ भी रहा हो पर उस शख्स के अन्दर हमेशा से  ही बसा है  एक प्यारा सा दिल और उस दिल में कोमल भावनाएं | ईश्वर से कामना है विपिन के कोमल  हृदय, भावनाएं और कल्पना की उड़ान सदा ऐसे ही अठखेलियाँ करती रहे और उनमें से निकलती रहें ऐसी ही दिल को  छू लेने वाली कवितायें |
विपिन वत्स 

Friday 16 August 2019

तिहाड़ के परिंदे


आज सुबह –सुबह अखबार पढ़ते हुए एक ऐसी खबर मेरी नज़रों के सामने से गुज़री जिसने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया | इस बात में कोई संदेह नहीं कि यह ज़िंदगी वाकई में बहुत रंगीन है | इस को कभी भी काले- सफ़ेद के नज़रिए से नहीं देखा जा सकता | अब इंसानों की ही बात ले लीजिए – उन्हें भी आप केवल अच्छे या बुरे की श्रेणी में नहीं विभाजित कर सकते | हर इंसान में अच्छाई और बुराई का सम्मिश्रण होता है, अब यह अलग बात है कि उन अच्छे और बुरे गुणों का आपस में अनुपात क्या है | यह सचमुच की दुनिया उस सिनेमा की रूमानी दुनिया से बिलकुल अलग है जहां परदे पर नज़र आने वाला किरदार या तो देवता होता है या खलनायक के रूप में रावण का अवतार | अब अगर मैं रावण का उदाहरण दे रहा हूँ तो यह भी तो सच है कि कुछ अच्छाइयां तो रावण में भी थीं | चलिए अब ज्यादा पहेलियाँ न बुझाते हुए अब सीधे उस खबर पर आता हूँ जिसका सम्बन्ध तिहाड़ जेल से है |

तिहाड़ जेल 

दिल्ली की तिहाड़ जेल का नाम आप में से ज्यादातर लोगों ने सुना ही होगा | एक बहुत पुराना गाँव है तिहाड़ा, उसी गाँव में वर्ष 1957 में इस जेल का निर्माण हुआ था | यह देश की ही नहीं वरन पूरे दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी जेल है | वास्तव में तिहाड़ एक तरह से विराट जेल क्षेत्र है जिसके अंदर 9 अलग-अलग जेल हैं | आप यह भी कह सकते हैं कि यहाँ जेल के अन्दर भी एक नहीं बल्कि कई जेल हैं | बनी तो यह 6 हज़ार कैदियों के लिए है पर यहाँ चौदह हज़ार से ज्यादा कैदी ठूंस –ठूंस कर भरे रहते हैं | देश ने हर क्षेत्र में तरक्की की है, सडकों पर मोटर गाड़ियों ने, आबादी ने, बेरोजगारी ने, तो फिर अपराध और अपराधियों की दुनिया कैसे पीछे रह सकती है | यही कारण है कि तिहाड़ जेल सदा लबालब भरी रहती है जहां एक से एक खूंखार और हाई- प्रोफाइल कैदी अपना डेरा डाले रहते हैं | यहाँ के बारे में एक रोचक तथ्य यह भी है कि जेल कम्पाउंड के अन्दर कई फेक्ट्रियां भी हैं जिनमें यहाँ के कैदी काम करते हैं जिसकी उन्हें बाकायदा मजदूरी भी मिलती है | टी.जे. के ब्रांड नाम से बहुत तरह का सामान जैसे – डबलरोटी, बिस्किट, अचार , सरसों का तेल, कपड़ा, मोमबत्ती, जूट-बेग, फर्नीचर, पेंटिंग्स इन्हीं कैदियों द्वारा जेल में बनाया जाता है |
जेल की बेकरी में काम करते कैदी 

किसी समय प्रसिद्ध आई.पी.एस अधिकारी किरण बेदी इसी तिहाड़ जेल की डायरेक्टर जनरल रह चुकी हैं | उस समय उन्होंने कैदियों के सुधार कार्यक्रमों पर विशेष जोर दिया जिनमें पढ़ाने-लिखाने से लेकर योग और विप्सना की शुरुआत हुई | आवश्यक नहीं है कि जेल में रहने वाला हर कैदी दुष्ट, भयानक और खूंखार ही हो | यह तो एक अनोखी दुनिया है जहां बहुत से ऐसे लोग भी मिल जायेंगे जो हालात या वक्त के मारे हुए हैं , जो बेगुनाह होते हुए भी गरीबी, व्यवस्था और कानून की चक्की की चपेट में आ गए | ऐसे लोगों ने यहाँ रहते हुए भी पढ़ाई करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा, एक के बाद एक ऊँची से ऊँची परीक्षा पास करते रहे और जेल से बाहर आने पर पर समाज में अपना नया जीवन फिर से सफलतापूर्वक शुरू किया | 

यह कहानी है इसी तिहाड़ जेल के एक कैदी - भास्कर की | उम्र – लगभग 40 वर्ष |हत्या के अपराध में उम्र कैद की सजा काट रहा था | घर पर पत्नी के अलावा बारह साल का बेटा और 75 वर्ष का बूढा पिता | भास्कर जेल की जूट बेग बनाने की फेक्ट्री में ही काम करता था | हर महीने उसे चार हज़ार रुपये की आमदनी हो जाती जिसमें से दो हज़ार रुपये वह घर पर भिजवा देता | जेल में तेरह साल इसी तरह से गुज़र चुके थे और इंतज़ार था बस सज़ा के पूरा होने का | जेल में लम्बी सज़ा काट रहे अच्छे चाल चलन वाले कैदियों के लिए पैरोल का प्रावधान होता है जिसके अंतर्गत उन्हें घर परिवार से मिलने- जुलने के लिए कुछ दिनों की जेल से छुट्टी मिल जाती है | भास्कर भी पैरोल पर अपने घर गया जो कि ओडीशा राज्य के एक छोटे से गाँव में था | समय मानों पलक झपकते फुर्र से बीत गया और पैरोल की अवधि निबटने पर जेल वापिस जाने का वक्त भी आ गया | वह 27 जून 2019 का दिन था जब भास्कर घर से विदा लेकर वापिस जेल जाने को चल पड़ा | अभी बीच रास्ते रेलगाड़ी में ही था कि भास्कर को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा | जेल के सींखचों के पीछे की कैद में पहुँचने से पहले वह चलती ट्रेन में ही इस दुनिया की कैद से ही आज़ाद हो चुका था | भास्कर की मौत की खबर उसके परिवार के लिए तो दुःख का पहाड़ थी ही, उसके जेल के सभी साथी भी गहरे सदमें में थे | मैंने पहले भी कहा है - जेल की दुनिया भी एक निराली दुनिया है | यहाँ रहने वालों की जहाँ आपस में दुश्मनी जानलेवा होती है वहीं उनकी दोस्ती भी एक दूसरे पर जान निछावर करने वाली होती है | भास्कर के घर की कमजोर आर्थिक परिस्थियों के बारे में उन्हें पहले से ही थोड़ा बहुत अंदाजा था | उन्हें लगा कि अब वक्त आ गया है कि अपने दिवंगत दोस्त के लिए कुछ किया जाए | सबने मिल कर अपनी –अपनी हैसियत के अनुसार चन्दा इक्कट्ठा करना शुरू किया - किसी ने सौ रुपये , किसी ने दो सौ रुपये | एक साथी ने तो अपनी पूरे महीने की कमाई ही इस नेक काम के लिए अर्पित कर दी | इस प्रकार से जेल के संगी-साथियों ने इतनी कठिन परिस्थितियों में भी अपने दिवंगत साथी के परिवार की मदद के लिए दो महीने से भी कम समय में कुल मिला कर दो लाख चालीस हज़ार रुपये की सहायता राशि जोड़ ली | जेल अधिकारियों ने भी भास्कर के पुत्र और पत्नी को गाँव से दिल्ली बुलवाने का इंतजाम कर दिया | 8 अगस्त 2019 को जब जेल प्रशासन ने जब सहायता राशि का चेक भास्कर की पत्नी के कांपते हाथों में थमाया तो वह बेचारी हैरानी से हतप्रभ रह गयी | आसुँओं से डब-डबाई आँखों को मानों यकीन ही नहीं हो रहा था कि जेल की ह्रदयविहीन, कठोर और निर्मम समझी जाने वाली दुनिया से भी ऐसी घोर मुसीबत के समय सहायता का हाथ मिल सकता है |
भास्कर की पत्नी को सहायता राशि सौंपते हुए 

इस खबर को पढ़ कर मैं अभी तक इस सोच में हूँ कि किसी के बारे में भी बिना सोचे समझे पहले से ही कोई अवधारणा या राय नहीं बना लेनी चाहिए | अपनी नौकरी के दौरान मेरा खुद का यह अनुभव रहा कि अच्छी खासी आमदनी होने के बावजूद भी अगर किसी साथी सहकर्मी की विदाई पार्टी के लिए चन्दा देना पड़ जाए तो कुछ लोगों की सूरत से ऐसा लगता जैसे जीते –जी साक्षात मौत ही आ गयी | दूसरी ओर तिहाड़ जेल के वे कैदी भी हैं जिनमें इतनी मानवता और भाईचारा शेष रहा कि तिनका-तिनका जोड़ कर कठिन मेहनत से जोड़ी कमाई को भले काम में लगाने में एक क्षण की भी देर नहीं की | बात अजीब है पर है सौलह आना सच्ची |

Tuesday 13 August 2019

पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा

मैं एक संभ्रांत परिवार को बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ | पति-पत्नी दोनों बहुत ही मधुर स्वभाव के नौकरी पेशा इंजीनियर हैं, एक छोटी सी लगभग साढ़े तीन वर्ष की उम्र की बड़ी ही प्यारी सी बिटिया भी है- नव्या, जो बहुत ही कुशाग्र बुद्धि है |
छोटी सी नव्या : पढ़ाई का पहाड़ 



अपनी तोतली सी जुबान में ही पूरा राष्ट्रगान, गायत्री मन्त्र और संस्कृत के श्लोक भी सुना देती है | मुझे प्यार से नानू  कहती है और अक्सर टी.वी. पर कार्टून फिल्म्स देखने के लिए मेरे पास आ जाती है | माता और पिता के नौकरी पर जाने के कारण नन्हीं नव्या के लिए प्ले स्कूल में जाने की मजबूरी रहती है | सुबह-सुबह ही उस छोटी सी परी को ले जाने के लिए स्कूल- वेन हाज़िर हो जाती है |स्कूल टाइम के बाद छोटे बच्चों के शिशु पालन गृह (क्रेच) में रहती है | माता –पिता के नौकरी से वापिस लौटने पर ही शाम को नव्या वापिस घर आ पाती है | घर आने के बाद उसे अपना स्कूल से मिला होम वर्क (जी हाँ आपने ठीक सुना ) भी करना पड़ता है जिसे करने की जिम्मेदारी ऑफ़िस से थके-हारे लौटे मम्मी –पापा की | अब जिसे देखिए वही परेशान – नन्ही नव्या परेशान, थके-हारी मम्मी परेशान, पापा परेशान और बाद में उस होम वर्क को अपनी उम्मीद के अनुसार नहीं पाकर स्कूल की टीचर परेशान | कुल मिलाकर खेलने कूदने की उम्र में ही नव्या की छोटी सी दुनिया परेशानियों से भरी हुई है जिससे छुटकारा पाने के लिए वह कुछ समय के लिए टी.वी. कार्टून की काल्पनिक दुनिया का सहारा लेती है | यहाँ उसे खेलने और दिल बहलाने के लिए नटखट चम्पू भी मिल जाता है | जब शुरू –शुरू में वह हमारे यहाँ आती थी तब उसके व्यक्तित्व में तनाव, गुस्सा और जिद साफ़ तौर पर महसूस किया जा सकता था पर धीरे- धीरे घर के तनाव मुक्त, हंसते - खेलते वातावरण में समय गुजारने के बाद अब लगता है एक नयी नव्या आपके सामने है |
यह किसी एक नव्या की कहानी नहीं है | आपको ऐसे बहुत सारे परिवार मिल जायेंगे जो उस प्रकार की समस्या से जूझ रहे हैं | इसमें दोष किसी का भी नहीं है | बदलते सामजिक मूल्य, बिखरते संयुक्त परिवार, असुरक्षित होती नौकरियाँ, ऊँचे जीवन स्तर की इच्छाएं और दूसरों को टंगड़ी मारकर आगे बढ़ने की अंधी दौड़ - इन सबने मिलकर इस जीवन को अजीब तरह की आपाधापी से भर दिया है | हर व्यक्ति मजबूर हो गया है इस आपाधापी से भरे जीवन को जीने के लिए जिसकी शुरुआत नन्ही नव्या की उम्र से शुरू होकर उस उम्र तक लगातार जारी रहती है जिसे मैं नौकरी से रिटायर होने के बाद भी व्यतीत कर रहा हूँ | 
इस बारे में सोचा तो अक्सर करता था पर लिखने का विचार आया अध्यापन के क्षेत्र से जुड़ी सुश्री अर्चना उपाध्याय के सुझाव पर| अर्चना जी एमिटी इंटरनेशनल स्कूल, मयूर विहार, दिल्ली में इंगलिश की वरिष्ठ प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष हैं| एक संवेदनशील शिक्षाविद होने के नाते बाल-मनोविज्ञान पर इनकी गहरी पकड़ है |अपने देश और विदेशों में भी अध्यापन के अनुभव के आधार पर इनकी सोच है कि अधिकाँश अभिभावक अपने बच्चों के भविष्य के प्रति कुछ ज्यादा ही चिंतित हैं | वैसे इसमें कुछ गलत भी नहीं है | पर जब यह चिंता बढ़कर चिता का रूप ले लेती है तो उस चिता में वह सब भी स्वाहा हो जाता है जिसकी किसीने कल्पना भी नहीं की होती है | सभी माँ –बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे ज़िंदगी में उनसे भी आगे जाएँ | जिस मुकाम पर खुद नहीं पहुँच पाए उस मंजिल को हासिल कर उनका अधूरा सपना पूरा करें | अपनी इस चाहत को पूरा करने के लिए किस प्रकार का रास्ता या तरीका अपनाया जाता है यही सबसे महत्वपूर्ण है | 

अगर आप को याद हो – वर्ष 2007 में एक फिल्म आयी थी – तारे जमीं पर | इसी प्रकार के हालातों पर बनी बाल मनोविज्ञान पर आधारित फिल्म थी, कभी मौक़ा मिले तो जरुर देखिएगा | ज्यादातर अभिभावक सोचते हैं कि क्योंकि वे उम्र में, अनुभव में बड़े हैं इसलिए जो भी वे सोचते हैं बस वही सही है | उन्हें लगता है कि बच्चों के सामने दबाव की रणनीति ज्यादा कारगर साबित होती है | उन्हें बस अपना ज़माना और अपने ज़माने के घर पर सख्त पिता जी और स्कूल में मास्टर जी की ही याद रहती है | बच्चे के सामने हर समय केवल एक ही मन्त्र का जाप होता है – पढ़ो, पढ़ो, पढ़ो | अडोस-पड़ोस के दूसरे तेज़ दिमाग बच्चों से तुलना भी होती रहती है | इस सबका नतीजा यह होता है कि बच्चे में धीरे-धीरे हीन भावना उपजने लगती है | उसे लगता है कि वह शायद दुनिया का सबसे नालायक बच्चा है | आत्मविश्वास की कमी होती चली जाती है |बात घर तक ही सीमित रहे तब भी गनीमत है, स्कूल में भी उसी प्रकार का वातावरण मिलता है | अपनी ब्रांड इमेज बनाने के चक्कर में स्कूल को अपने रिजल्ट की चिंता होती है जिसके सहारे अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर अपनी दुकानदारी और बढ़ा सकें | अब सभी बच्चे अच्छे नंबरों ( मतलब नब्बे प्रतिशत और उससे अधिक ) से पास हों इसकी सारी जिम्मेदारी अब मास्टर जी के सिर पर और इस सब चूहा दौड़ के अंत में मास्टर जी का डंडा बजता है शिष्य के सिर पर आकर | अब इस वातावरण में बच्चे को कहीं भी चैन नहीं - न तो घर में और ना ही स्कूल में | सारे साल तो यही मारा- मारी रहती है, हमें होश आता है वर्ष के अंत में जब परीक्षा सिर पर आ खड़ी होती हैं | उस समय बाकायदा  रेडिओ, टी.वी. , अखबारों और चौबीस घंटे खुली रहने वाली हेल्पलाइनों के माध्यम से अभियान शुरू होजाता है बच्चों को उपदेश देने का, परीक्षा के भूत से तनाव मुक्त करने का | बच्चों के समझाने के लिए मंत्री से संतरी तक सब में मानो हौड़ लग जाती है कि इम्तहान से डरो मत | मैं पूछता हूँ कि भाई सारे साल आप सब लोग सो रहे थे क्या ? पूरे वर्ष बच्चे तो घर से लेकर बाहर तक सभी मिलकर पढ़ाई और इम्तहानों का हौवा दिखाते रहे और अब चले हैं मरहम लगाने | कभी सोचा इस बारे में कि यह अंत समय में लगाया जाने वाला बातों का मरहम उस बच्चे पर किस हद तक काम करेगा | अगर इन हवाई उपायों से कुछ असर होना ही होता तो आपको अखबारों में ऐसी खबरें पढ़ने को नहीं मिलती कि फेल होने पर अमुक बच्चे ने आत्मह्त्या कर ली या घर से भाग गया | तनाव की दुनिया से छुटकारा पाने के लिए कुछ बच्चे अपने आप को ड्रग्स, शराबखोरी और नशे और अपराध की दुनिया में भी धकेल लेते हैं | अब स्कूल तो ऐसे मामलों में बच्चे का नाम काट कर छुटकारा पा लेते हैं, रह जाते हैं मां-बाप जिनके पास सिवाय अपना सिर धुनने के और कोई चारा नहीं |
अब आप पूछेंगे इस समस्या का हल क्या है ? तो मेरे भाई ! मेरा मानना है कि कुछ बीमारियाँ ऐसी होती हैं जिनका सर्वश्रेष्ठ इलाज़ यही है कि उन्हें पनपने ही मत दो अर्थात बचाव ही निदान है| पढाई का हौवा और इम्तहान का डर भी कुछ ऐसी ही बीमारी है जो अगर एक बारगी शरीर में घर कर जाए फिर उसका इलाज तो लुकमान हकीम के पास भी नहीं है | यह काम यूँ तो स्कूल और बच्चे के माता-पिता दोनों का ही है, पर बच्चा क्योकि आपका है अत: पहली जिम्मेदारी आपकी ही बनती है | स्कूल में बच्चा पांच घंटे के लिए जाता है , बाकी के उन्नीस घंटे आपके ही तो साथ है | स्कूल तो दूसरे अच्छे विद्यार्थियों का चुनाव कर लेगा आप तो नहीं कर सकते | आपका सम्बन्ध तो बच्चे के साथ जीवनभर के लिए है |इसलिए बच्चे के व्यक्तित्व का समग्र और सम्पूर्ण विकास हो इसके लिए आपको अपनी खुद की आँखें खुली रखनी पड़ेंगी, पूरी तरह से स्कूल के भरोसे मत रहें | 
और सबसे अंत में , आपको इस बारे में करना क्या है ? इस इतनी बड़ी समस्या का बड़ा ही सरल और छोटा सा उपाय है | हिटलरी माँ –बाप मत बनें , दोस्त बन कर रहें | नियंत्रण बस उतना ही जो सहज हो, सामान्य हो | खुद तनाव रहित रहिए और बच्चे की समस्या को खुशनुमा वातावरण में हल करने का प्रयत्न करें | दोस्त बन कर ही आप बच्चे का विश्वास जीत सकते हैं | उस पर विश्वास करें, वह आपको गलत नहीं साबित होने देगा | सबसे बड़ी बात : पांचो उंगलियाँ बराबर नहीं होती हैं, इसी तरह हर बच्चा भी रेंक होल्डर , जीनियस, भावी डाक्टर या साइंटिस्ट नहीं होता | अपने बच्चे की असल क्षमता पहचानिए और उस भगवान की दी हुई प्रतिभा में फेरबदल करने के लिए अपनी टांग तो हरगिज़-हरगिज़ मत अड़ाईये | कलाकार को डाक्टर बनाने की जुर्रत गलती से भी मत कर बैठिएगा| यकीन मानिए , मेरी सलाह पर अमल करेंगे तो सभी सुखी रहेंगें - आप भी, बच्चा भी और उसका आने वाला भविष्य भी |

Sunday 11 August 2019

(#54) बुद्धं शरणं गच्छामि

श्री ब्रजेश राय जिनके सौजन्य से इस लेख के लिए सभी जानकारी और  फोटो प्राप्त हुए 
मैं अक्सर कहा करता हूँ, हमारी आसपास की दुनिया में ही बिखरे होते हैं अनगिनत रोचक इंसान, विचित्र पशु-पक्षी, अदभुत पेड़-पौधे और अपने आप में एक भरा-पूरा इतिहास समेटे ऐसे स्थान जिनसे हम अनजान हैं | इंसान की अक्सर फितरत होती है कि दूर-दूर की दुनिया देखने में इतना खो जाता है कि अपने आसपास की दुनिया से बेखबर रह जाता है | मेरी ज़िंदगी का काफी हिस्सा हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की मनोहर  वादियों में गुजरा | नौकरी ही कुछ ऐसी थी कि काम के सिलसिले में एक तरह से चप्पे-चप्पे की ख़ाक छाननी पड़ती थी | पुरानी यादें अक्सर दिमाग के दरवाजे पर दस्तक दे जाती हैं और आज भी कुछ ऐसी ही धुंधली सी याद आ गयी | उस धुंधली याद पर पड़ी धूल को साफ़ करने का काम किया मेरे मित्र और तत्कालीन सहकर्मी श्री ब्रजेश राय ने | इस लेख के लिए सभी फोटो श्री ब्रजेश राय के माध्यम से ही प्राप्त हुए हैं|

चकरोता उत्तराखंड का एक प्रसिद्ध हिल स्टेशन है | लेकिन आज मैं आपको उस हिल स्टेशन पर नहीं ले कर जा रहा | देहरादून से चकरोता जाने के रास्ते में ही एक छोटा सा पहाड़ी कस्बा पड़ता है नाम है कालसी, इतना छोटा कि अगर आप इस रास्ते से गुज़र रहे हैं तो पहली नज़र में ही इसे पूरी तरह से नज़रंदाज़ कर बैठेंगे |

कालसी की प्राकृतिक सुन्दरता 
ज से लगभग दस वर्ष पहले की बात है जब दफ्तर के काम से ही कालसी जाना पडा था | ब्रजेश जी भी साथ ही थे | काम निपटा कर वापिस लौट ही रहे थे कि सड़क के किनारे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का बोर्ड नज़र आया | सच बताऊँ मुझे एक तरह का नशा है पुरानी चीज़ों का, पुराने रिश्तों का, दोस्तों का और पुरानी जगहों का | इतिहास से जुडी इमारतों को देखने मात्र से एक अलग ही किस्म की अनुभूति होती है | उन को देखते हुए मानों आप किसी और ही दुनिया में खो जाते हैं इस अहसास के साथ कि जब वह इमारत अपना वर्तमान जी रही थी तब की दुनिया कैसे रही होगी | पूछताछ करने पर पता चला कि पास में ही एक स्मारक है जिसमें मौर्यकालीन सम्राट अशोक के समय का प्राचीन शिलालेख है | मन में छुपी उत्सुकता को रोक ना सका और पहुँच गया उस ऐतिहासिक जगह को देखने | बाद में उस शिलालेख और कालसी के इतिहास के बारे में जगह-जगह से अन्य जानकारी भी जुटाई जिसे आपके साथ साझा कर रहा हूँ |

कालसी स्मारक का प्रवेश द्वार 

 इस सारी कहानी की शुरुआत होती है ईसापूर्व 269- 231 के समय में सम्राट अशोक से | वही चक्रवर्ती सम्राट अशोक जिसका शासन अफ़गानिस्तान से लेकर पूर्वी भारत में असम व बर्मा तक व दक्षिण भारत में सिर्फ़ तमिलनाडु व केरल को छोड कर पूरे भारत पर था। ज़रा सोचिए, कितना विशाल साम्राज्य रहा होगा सम्राट अशोक का | कितने ही युद्ध जीते पर अंत में जो युद्ध कलिंग ( आज का ओडीशा ) में जीता उसने उसकी मानों ज़िंदगी और सोच ही बदल दी | उस युद्ध में लगभग डेढ़ लाख से ज्यादा लोग मारे गए थे | इस लड़ाई में हुई भयानक तबाही को देख कर क्रूर सम्राट अशोक का पूरी तरह से ह्रदय परिवर्तन हो गया | उसे लगा युद्ध से कुछ हासिल नहीं होता, राज्य जीतने की बजाय जनता का दिल जीतो | मानवता और शान्ति के मार्ग पर चल कर जनता का उद्धार करो | इस नई सोच के साथ ही सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपना लिया | शान्ति और मानवता के मार्ग पर चलते हुए बौद्ध धर्म के उपदेशों को दूर-दूर के देशों तक फैलाया | यहाँ तक कि अपने बेटे महेंद्र और बेटी संघमित्रा को भी बोद्ध धर्म के प्रचार के लिए सिंहल द्वीप ( आज का श्रीलंका) भेजा | अभी तक सम्राट अशोक द्वारा बनवाए गए कुल 33 अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिन्हें स्तंभों, चट्टानों और गुफाओं की दीवारों में अपने 269 ईसापूर्व से 231 ईसापूर्व तक चलने वाले शासनकाल में स्थापित किया गया । ये आधुनिक बंगलादेश, भारत, अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और नेपाल में जगह-जगह पर मिलते हैं और बौद्ध धर्म के अस्तित्व के सबसे प्राचीन प्रमाणों में से हैं। कालसी में भी ऐसा ही शिला लेख है |

अशोक का शिलालेख 

एक तरह से देखा जाए तो कालसी का महत्त्व भारत के महान सम्राट अशोक के पत्थर पर बने हुए शिलालेख के कारण ही है। ब्रिटिश शासनकाल में जॉन फारेस्ट नाम के एक अंग्रेज ने सबसे पहले घने पहाड़ी जंगलों में छिपे-पड़े इस ऐतिहासिक प्राचीन चट्टान को वर्ष 1860 में दुनिया की नज़रों में लाने का काम किया था | पुराने समय में पत्थरों जैसी कठोर सतह पर कुछ लिखने की परम्परा थी। प्राचीन काल से ही राजा महाराजा अपने आदेश इसी प्रकार लिखवाते थे। जिससे लोग इन्हे पढ़ें, सीख लें औरअपने जीवन में इन का पालन करें |कालसी का शिलालेख वह चट्टान है, जिस पर मौर्य सम्राट अशोक के 14 आदेशों को 253 ई. पू. में चट्टान पर कुरेद-कुरेद कर लिखा गया था | इन आदेशों की जड़ में बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांत ही हैं जिसमे अहिंसा पर सबसे अधिक बल दिया गया है। इन आदेशों में नैतिक तथा मानवीय सिद्धान्तों का वर्णन किया है जैसे जीव- हत्या की मनाही, आम जनता के लिए चिकित्सा व्यवस्था, पानी के लिए कुँए खुदवाने, वृक्ष लगवाने, धर्म प्रचार करने, माता-पिता तथा गुरू का सम्मान करने, सहनशीलता तथा दयाभाव आदि श्रेष्ठ मूल्यों का प्रचार करने का निर्देश दिया है। यह आदेश राजा के बताये गए सुधारों और सलाह का संकलन है, जिसको प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है। इस चट्टान की ऊंचाई 10 फुट और चौड़ाई 8 फुट है।

जब कालसी के अशोक शिला लेख स्मारक में घूम रहा था तो उस स्मारक की हवा में एक मन्त्र मुग्ध करने वाली वह सुगंध थी जिसे केवल महसूस ही किया जा सकता है | वह सुगंध अहसास दिला रही थी कि आज से भी लगभग 2300 साल पहले, जब सारी दुनिया में अज्ञान और हिंसा अपने चरम पर थी, तब भी हमारे देश में एक ऐसा महान शासक था जिसने सर्व शक्तिशाली होते हुए भी धर्म के मार्ग को अपनाया | केवल अपनाया ही नहीं, इतनी दूर-दूर तक प्रचार किया जिसकी बदौलत आज बौद्ध धर्म के अनुयायी भारत के अलावा चीन, बर्मा, जापान, श्रीलंका, भूटान, कोरिया, विएतनाम , मलेशिया , कम्बोडिया, थाईलेंड तक में बहुतायत से हैं | कहना चाहता हूँ कि कालसी का यह अनजान स्मारक देखने में छोटा जरूर है पर उस नन्हे से स्मारक में समाहित सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण और लोक-हित का सन्देश इस पूरे ब्रह्माण्ड से भी विशाल है | इसी भावना को ध्यान में रखते हुए, जब भी मौक़ा मिले, उस नन्हे, अनजान स्मारक को देखने जरूर जाइयेगा |

ऐसा भी होता है


यह ज़िंदगी भी बड़ी अजीब चीज़ है , पूछिए मत क्या रंग दिखलाती है | कुछ रंग ऐसे पक्के होते हैं जो अपने पीछे यादों के परदे पर ऐसे निशान छोड़ जाते हैं जो उम्र भर मिटाए नहीं मिटते | आज ऐसा ही अजीबोगरीब किस्सा सुनाने जा रहा हूँ जिसे सुनने के बाद आप भी बरबस कह उठेंगे क्या ऐसा भी होता है?
 
इस किस्से को सुनने के लिए आप को मेरे साथ आज से पचास साल पीछे जाना पड़ेगा | राशन, कंट्रोल और परमिट का ज़माना था | उस ज़माने में आज की तरह से दोपहिया वाहनों की सडकों पर ऐसी भरमार नहीं होती थी | स्कूटर खरीदने के लिए भी बाकायदा बुकिंग करानी पड़ती थी जिसमें बारी आने में सालों भी लग जाते थे | पिता जी सरकारी नौकरी में थे अत: सरकारी कोटे के हकदार थे जिसमें नंबर प्राथमिकता के आधार पर जल्दी आ जाता था | अपनी बरसों की पाई-पाई करके जोड़ी थोड़ी सी बचत के पैसों से , उन्होंने सरकारी कोटे में ही स्कूटर खरीदा | मुझे आज भी याद है , वह पीले रंग का वेस्पा स्कूटर था | बड़ी ही हिफाजत से रखा जाता , यहाँ तक कि शुरूआत में तो उसे घर के अन्दर उसी कमरे में रात को रखते जहां हम सोते थे | आखिर बड़े मेहनत के पसीने की कमाई का था सो डर स्वाभाविक था कि कहीं चोरी न हो जाए | उस समय हमारी उम्र भी होगी यही कोई दस-बारह बरस की | सुबह-सुबह हम दोनों भाइयों की ड्यूटी उसे साफ़ करने की लगती | रविवार के दिन उस स्कूटर को बाकायदा विशेष स्नान करवाया जाता जिसके बाद पालिश लगा कर खूब चमकाया जाता | हमारी सुबह की ड्यूटी में उस स्कूटर को घर के रेम्प से सड़क पर उतरवाने और शाम को पिता जी के दफ्तर लौटने पर धक्का देकर वापिस ऊपर चढ़वाने में मदद करना भी होता था | शाम को उस स्कूटर की पतली सी पी-पी की आवाज के हॉर्न का इंतज़ार रहता जो एक तरह से हमारे शाम की स्कूटर धक्का-पेल ड्यूटी पर तुरंत हाजिर होने सायरन होता था | 
सो दिन उसी तरह से गुज़रते जा रहे थे | एक दिन जब रोज़ शाम की तरह से स्कूटर के हार्न का इंतज़ार कर रहे थे तब  हार्न तो नहीं बजा, हाँ गेट पर दस्तक की आवाज जरूर हुई | देखा तो पिता जी तो खड़े हैं पर स्कूटर नदारत | पिता जी का चेहरा मुरझाया, पीला पड़ा हुआ | ठीक ऐसे जैसे कोई घुड़सवार युद्ध के बाद लौटता है किसी पैदल सैनिक के रूप में | माँ ने स्कूटर के बारे में पूछा तो कोई उत्तर नहीं | चुपचाप आकर कमरे में बैठ गए, रोज की तरह एक गिलास पानी पिया| माँ ने स्कूटर के बारे में दोबारा वही प्रश्न दोहराया तो इस बार छत पर लगे पंखे को देखते हुए धीमें स्वर में जवाब दिया – “चोरी हो गया |” पहले लगा कि शायद पिता जी मज़ाक कर रहें हैं, पर उनके चेहरे पर छाये गहरे परेशानी के बादलों को देखकर वह ख्याल दिमाग से तुरंत निकालना पड़ा | वह रात पिता जी ने करवट लेते ही काटी | सुबह के समय हाथ में ब्रीफकेस लेकर घर से धीर-धीरे पैदल निकलते समय उनके चेहरे पर छाई मायूसी की तस्वीर आज तक मेरी आँखों के सामने ताज़ा है | काफी दिनों तक घर में उदासी का माहौल रहा | अक्सर कहा करते मेरी मेहनत की कमाई का स्कूटर ऐसे कैसे चोरी हो सकता है | चोरी की रिपोर्ट भी पुलिस थाने में दर्ज करवा दी थी पर कुछ नतीजा नहीं | हाँ, अखबारों में जरुर यह खबर छपी थी कि कविवर श्री रमेश कौशिक का स्कूटर चोरी हो गया है |
घर में भी कुछ दिनों के राजकीय शोक के बाद धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो चला | समय के साथ-साथ स्कूटर वियोग का दुःख भी काफी हद तक दिलो-दिमाग से दूर हो चुका था | हमारी दिनचर्या में से भी स्कूटर की दैनिक सफाई, रेम्प पर धक्का-चढ़ाई और साप्ताहिक नह्लाईं से पिंड छूट चुका था | एक दिन शाम के समय हम सब आँगन में बैठे हुए गपशपकर रहे थे | गेट पर किसी ने दस्तक दी | सामने एक यही कोई तीस-पैंतीस साल का दुबला –पतला आदमी खड़ा था | पिता जी का नाम ले कर पूछा कि क्या उन्हीं का घर है | जब मेरे पिता जी ने उसके बारे में जानना चाहा तो उसने धीमी आवाज में कहा कि मैं वह आदमी हूँ जिसने आपका स्कूटर चुराया था | अब हैरान होने की बारी हमारी थी | बड़े अचम्भे से उस इंसान को देख रहे थे और सोच रहे थे कि क्या जो हम देख और सुन रहे हैं वह सच है या सपना | खैर उस आदमी को बाहर आँगन में खाट पर बिठाया, पहले पानी और फिर चाय पिलाई और उसके बाद उससे पूछा कि यह सारा गौरखधंधा आखिर है क्या | उस आदमी ने जो भी बताया वह हमारे दिमाग को चकराने के लिए काफी था | उसने बताया कि स्कूटर चोरी करने के कुछ दिनों बाद ही उस स्कूटर की कहीं छोटी-मोटी टक्कर हो गयी जिस पर पुलिस ने उसे पकड़ लिया था | यह पता लगाने पर कि स्कूटर चोरी का है, पुलिस ने उस स्कूटर को जब्त कर लिया और उस चोर को मार –पीट और डरा-धमका कर भगा दिया | अब पुलिस की नीयत साफ़ तो थी नहीं सो उस जब्त स्कूटर की कहीं भी रिकार्ड में बरामदगी नहीं दर्ज की | साफ़ तौर पर थानेदार साहब उस स्कूटर को गटक जाना चाहते थे | अब इधर चोर भी अपनी हुई पिटाई से आहत था और वह भी घायल मजनू की तरह सोच रहा था कि अगर लैला मेरी नहीं हुई तो कम से कम पुलिस की भी नहीं हो सकती | स्कूटर में मौजूद रजिस्ट्रेशन के कागजों से उसे हमारे घर का पता चल ही चुका था सो हमारे घर आ कर उस चोर ने बाकायदा उस थाने का पूरा अता-पता बता दिया जहां वह स्कूटर थानेदार साहब ने चुपचाप गायब करने की नीयत से छिपा कर रखा था | 
अगले दिन पिता जी पहले तो उसी सम्बंधित थाने में गए पर थानेदार साहब सीधे-सीधे मुकर गए | कोई और रास्ता न होने पर अंत में मजबूरीवश अपने जानकार पुलिस के आला अधिकारी के पास गए जो कि उन्हें एक कवि के रूप में सम्मान करते थे | सारा किस्सा सुनकर जब उस अधिकारी ने ताना बाना खींचा तो थानेदार साहब के तुरंत होश ठिकाने आ गए और उन्होंने उस स्कूटर , जो कि उनके मुंह में पड़ा गर्म आलू बन चुका था, को उगलने में ही अपनी भलाई समझी | इस प्रकार से वह दिल्ली जैसी जगह में खोया हुआ स्कूटर बहुत ही अविश्वसनीय तरीके से कविवर के पास ऐसे लौट आया “जैसे उड़ी जहाज़ का पंछी फिर जहाज़ पर आये”| और उस स्कूटर के साथ ही वापिस लौट आयीं हमारी वे ढेर सारी खुशियाँ जो कभी गुम हो गयीं थी उसी स्कूटर के चोरी होने पर |
बाद में कई बार इस घटना का जिक्र होने पर पिता जी अक्सर कहा करते थे कि यहाँ देखा जाए तो एक तरह से चोरी का काम पुलिस ने किया और पुलिस वाला काम किया चोर ने जिसकी बदौलत स्कूटर बरामद हो सका | इसके साथ ही उनका यह भी पक्का विश्वास था कि मेहनत और ईमानदारी की कमाई पर ही ऐसे चमत्कार होते हैं | पिता जी की सारी बातें अपनी जगह सोलह आने सही हैं पर मेरा मानना है कि इस सारे किस्से को सुखद अंत तक लाने में उनका कवि के रूप में प्रसिद्धी का भी कोई कम योगदान नहीं रहा |

Wednesday 7 August 2019

बगल में छोरा, नगर में ढिंढोरा


मेहनतकश रंजन 

आपने वह कहावत सुनी ही होगी  कि बगल में छोरा, नगर में ढिंढोरा | यह कहावत कुछ ऐसे अवसरों के लिए कही जाती है जब किसी चीज़ के खो जाने पर हम दुनिया भर में खोज रहें होते है जबकि वह सामान हमारे ही आस-पास कहीं होता है | 
कुछ दिनों पहले एक ऐसी घटना हुई जिसने मुझे पछतावे की आग में कुछ इस तरह से झुलसा दिया जिसका मलाल आज तक दिल के कोने में मौजूद है | मेरे लिए शायद यही सज़ा उचित है कि पश्चाताप के रूप में आप से उस आपबीती और उससे मिली सीख को साझा करूँ | 
शहरों में आजकल एक प्रथा बहुत ही आम हो चली है – आलस और साहबी के रौब में अपनी कार की सफ़ाई ख़ुद तो करते नहीं , किसी नौकर-चाकर से करवाते हैं | वो बेचारा, हर मौसम में चाहे सर्दी, गर्मी या बरसात हो , बिना नागा ,सुबह-सुबह हाथ में बाल्टी और कंधे पर पुराने कपड़े के झाड़न लिए , पूरी मेहनत से कॉलोनी में घरों के आगे कतार में लगी कारों को रगड़-रगड़ कर साफ़ करने में लगा रहता है | एक भी दिन अगर किसी हारी-बीमारी की वजह से नहीं आ पाए या देरी हो जाए तो समझ लीजिए कि बस उस पर डाट-डपट, तानों-उलाहनों का मानों पहाड़ टूट पड़ता है | एक लम्बे समय तक मैं अपनी गाड़ी खुद ही साफ़ करता रहा था | फिर धीरे-धीरे कुछ बढ़ती उम्र और ढलती शारीरिक शक्ति का तकाज़ा समझ लीजिए कि मुझे भी उसी रास्ते को मजबूरन अपनाना पड़ा जिसे मैं नापसंद करता था | अब हर सुबह मेरी गाड़ी भी मौहल्ले की दूसरी गाड़ियों की तरह से एक बंगाली मजदूर – रंजन द्वारा की जाने लगी | रंजन, बहुत ही ईमानदार शख्स, दिन भर रिक्शा चलाता है पर सुबह के खाली समय में कॉलोनी की गाड़ियों की धुलाई-पुछाई करके कुछ अतिरिक्त आमदनी कर लेता है | साल में एक बार रंजन एक महीने के लिए बंगाल में अपने गाँव जरूर जाया करता है | ऐसे समय में वह अपनी जगह किसी दूसरे आदमी का इंतजाम जरूर कर जाता है जिससे उसके साहब ग्राहकों को को किसी प्रकार की समस्या न हो | उस बार भी ऐसा ही हुआ जब दो किशोर उम्र के बच्चों की हमसे पहचान कराते हुए रंजन ने अपने गाँव जाने के बारे में बताया | अगले दिन से ही वे दोनों बच्चे आकर बड़ी मुस्तैदी से गाड़ी की सफ़ाई करने लगे | कुछ दिनों तक सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा | हाँ, एक बात बताना मैं भूल गया, अब गाड़ी मैं तो कभी-कभार ही चलाता हूँ , ज्यादातर काम के सिलसिले में मेरे बेटे प्रियंक को ही जरूरत पड़ती है | एक दिन अचानक प्रियंक आया और बोला कि गाड़ी की डिक्की बंद नहीं है और अन्दर रखा टायर में हवा भरने का पम्प भी नहीं मिल रहा है | मैं तो बस यही कह पाया कि याद करो कहीं और रख कर तो नहीं भूल गए | रहा सवाल डिक्की के खुला रहने की तो वह भी गलती से खुली रह सकती है | अगर किसी ने चोरी करनी ही होती तो वह डिक्की में रखे दूसरे सामान पर भी हाथ साफ़ कर चुका होता | प्रियंक मेरी बात से सहमत नहीं था | इस पूरे विवाद में अब श्रीमती जी भी शामिल हो चुकी थीं | पहले तो वह मेरे साथ थीं पर बाद में उन्हें भी प्रियंक की बात में दम नज़र आया और उन्हें भी लगा कि पम्प तो किसी ने चुराया ही है | अब सवाल उठा कि अगर चोरी हुई तो चोर कौन हो सकता है | पहली नज़र में ही शक की सुईं सीधे-सीधे उन दो लड़कों पर घूमी जो सुबह –सुबह गाड़ी साफ़ करने आया करते थे | इसकी एक वजह यह भी थी कि हर दिन की तरह, अगले रोज़ दो में से केवल एक ही लड़का गाड़ी साफ़ करने आया | इस मामले में उस लड़के को काफी डाट –डपट पिलाई गयी कि तुमने गाड़ी साफ़ करने के बाद डिक्की खुली छोड़ दी और इस लापरवाही की वज़ह से हमारा नुकसान हो गया | अपनी छुटियाँ बिताने के बाद जब रंजन काम पर दोबारा आया तो उसे भी इस घटना के बारे में बताया | खैर , समय के साथ बात आयी-गयी हो गयी और ज़िंदगी अपने पुराने ढ़र्रे पर पहले की तरह से ही चलती रही | हां , इस बीच प्रियंक ने अमेज़न की ऑनलाइन शॉपिंग से दूसरा हवा भरने का पम्प भी खरीद कर मंगवा लिया| एक दिन घूमने-फिरने के लिए प्रियंक और कुछ दोस्त हिमाचल प्रदेश की यात्रा पर निकल पड़े | गाड़ी उसके दोस्त की ही थी | हमेशा की तरह हर दिन अपनी कुशलता देने के लिए प्रियंक फोन करता रहता | उसी दौरान एक दिन फोन पर उसने बताया कि वह पुराना वाला पम्प भी मिल गया है | दोस्त को कभी देकर वापिस लेना भूल गया था और आज टायर पंक्चर होने पर जब उसकी गाड़ी की डिक्की खोली तो उसी में मिल गया | उसने तो इतना कह कर अपनी बात ख़त्म कर दी पर इस छोटी सी खबर ने मेरे दिमाग में एक ज़बरदस्त हलचल खड़ी कर दी | मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि आखिर हमारी सोच इस हद तक क्यों पहुँच गयी है |सबसे बड़ा दुःख यह कि इस सारे प्रकरण के ‘हम’ में मैं भी शामिल रहा | अपने विवेक का इस्तेमाल किए बिना , बहुमत के पक्ष में जाकर मैंने भी अपना पाला बदल लिया था और सीधे-सीधे गुम हुए सामान के लिए एक निर्दोष को जिम्मेदार ठहरा दिया था |
अब उस बात को जाने दीजिए कि बाद में घर आने पर अपने बेटे प्रियंक और उसके दोस्त की अच्छी तरह से खबर ली | इस पूरी घटना ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि हमारी मानसिकता कितने छोटे और निचले स्तर पर पहुँच चुकी है | हमारी मानसिकता में यह बात क्यों समा गयी है कि अगर कोई घर में कोई सामान गुम हो गया है तो पहला शक घर के नौकर-चाकरों पर ही जाता है | क्या इसका कारण यह है कि हमें अपने नौकर से ज्यादा भरोसा अपनी उस याददास्त और स्मरण शक्ति पर होता है जो बढ़ती उम्र के साथ धीरे-धीरे कमजोर और धुंधली पड़ती जा रही है | अब मामला चाहे अक्ल का हो या शक्ल का, इंसान का जन्मजात स्वभाव ही कुछ ऐसा होता है कि अपने आगे उसे सारी दुनिया कमतर ही नज़र आती है | उस पर भी अगर सामने वाला गरीब है तब तो समझ लीजिए कि उसमें सारी बुराइयां केवल आपको ही नहीं बल्कि सारी दुनिया को रातो-रात नज़र आने लगती हैं | कहने वाले एक तरह से ठीक ही कह गए हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा अपराध गरीब होना है | तभी तो कहावत बनी है कि गरीब की जोरू , सबकी भौजाई | लोग यह भी कहते है कि जब कुम्हार का अपनी बीवी पर जोर नहीं चलता है तब वह अपने गधे के कान उमेंठता है | बस यह समझ लीजिए कि जिस की लाठी उसी की भैंस | अगर आप ताकतवर हैं तो आपके सारे दोष माफ़ हैं और आपकी सारी बुराइयां भी ढँक जाती हैं | अब चाहे वह ताकत पैसे के बल पर हो, नेतागिरी के दम पर या कुर्सी की वजह से हो – बन्दे को एक तरह से लाइसेंस मिल जाता है हर तरह से मनमानी करने का | संत कबीर दास का ऐसे ही लोगों के लिए सीख देते हुए कह गए थे :
निर्बल को न सताइये, वा की मोटी हाय |
बिना सांस की चाम से, लोह भसम हो जाय || 
उनके कहने का अर्थ यही है कि हालात के कारण कोई भी व्यक्ति कमजोर हो सकता है | ऐसे व्यक्ति को कभी भी सता कर, परेशान करके उसकी बद्दुआ नहीं लेनी चाहिए | ऐसी बद्दुआ में बहुत ताकत होती है जैसे कि लुहार की धौकनीं का बेजान चमड़ा निर्जीव होते हुए भी लोहे को भस्म कर देता है |
इन सब बातों का यही सार निकलता है कि अपने आसपास के उन सभी समाज के निम्न और गरीब वर्ग के लोगों के प्रति हम सवेंदनशील रहें | यह उनकी मजबूरी ही है जिस के कारण कोई रिक्शा चला रहा है, किसी का घर आपके घर में झाडू- पौचा और बर्तन मांजने से चल रहा है, किसी को पढ़ –लिख कर भी घर-घर जाकर कूरियर- बाय या पिज्जा-बर्गर देने का काम करना पड़ रहा है | भरी गर्मीं में आपकी सेवा में हाज़िर होते हैं तो हम और कुछ नहीं तो कम से कम पानी के लिए तो उनसे पूछ ही सकते हैं | और सबसे बड़ी बात : उन्हें बिना किसी सबूत के चोर या उठाईगीर का तमगा तो हरगिज मत दीजिए | उन्हें चोरी- चकारी से ही पैसा कमाना होता तो दिन रात की बदन तोड़ और मेहनत-मशक्कत का काम क्यों करते | मुझे पता है इस प्रकार की उदार मानसिकता एक दिन में ही रातों-रात नहीं आती | ऐसी सोच धीरे -धीरे ही आपके स्वभाव का अंग बनती है | ऐसी अच्छी सोच के लिए कोशिश करने में क्या हर्ज़ है | मैं भी कर रहा हूँ – आप भी करके देखिए |

Friday 2 August 2019

आया गुस्सा, हुआ बवाल



आज तेरी खैर नहीं 
काफी समय पहले बहुत ही हल्के -फुल्के मूड में एक लेख लिखा था रहिमन गुस्सा कीजिए ... | याद नहीं आ रहा हो तो शीर्षक पर दिए लिंक को क्लिक कर दीजिएगा और फिर से पढ़ कर पुरानी यादें भी ताजा कर लीजिएगा | उस लेख में क्रोध अर्थात गुस्से की तरह -तरह की किस्में बतायी गयीं थी और साथ ही साथ गुस्सा करने के फायदे, जी हाँ आपने ठीक सुना, गुस्सा करने से होने वाले लाभ बताये गए थे | चलिए वह सब तो बातें हँसी -मज़ाक की थीं पर आज सच में जो आपको बताने जा रहा हूँ वह पूरी तरह से गंभीरता से कह रहा हूँ | हो सकता है यही बातें आपने दूसरे लोगों से भी किसी और शब्दों या रूप में सुनी हों | जो भी हो, पर बात काम की और समझदारी से भरी है | वैसे सच में अगर देखा जाए तो , गुस्सा करने के नुकसान ही नुकसान हैं | यह आपको कहीं का भी नहीं छोड़ता| 



क्रोध , गुस्सा, आवेश, जैसे शब्दों से हम क्या अनुमान लगाते हैं ? ये बहुत स्पष्ट है कि ऐसे शब्द हमारे मन की उस अवस्था को बताते हैं, जहां हम आपा खो चुके होते हैं। हमारी बुद्धि-विवेक का ह्रास हो जाता है और हम मन के पूरी तरह नियंत्रण में आ जाते हैं। ऐसे में अक्सर आपा खो बैठने की हालत हो जाती है और अंत में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं लगता है।



वास्तव में  यह एक दयनीय अवस्था होती है, जहां हम दूसरे को दुःख तो पहुंचाते ही हैं लेकिन इससे बुरी बात ये है कि इसमें अंतिम रूप से हमारी ही हानि होती है । व्यवहारिक जीवन में इससे बड़ा दुःख और कुछ नहीं हो सकता कि क्रोध की अवस्था में हम दूसरे को दुःख पहुंचाना चाहते हैं किंतु इसमें हम स्वयं के लिए बहुत से कष्टों को आमंत्रण दे बैठते हैं । 


मानसिक संतुलन का इस तरह बिगड़ना किस हद तक ठीक है? ऐसी अवस्था चिंताजनक होती हैं। बुद्धिमान व्यक्ति वह होता है जो दूसरों की गलतियों से सीख लेता है और स्वयं को आने वाली मुसीबतों से बचाता है | हमारी अनेक पौराणिक कहानियाँ और इतिहास के किस्से ऐसी बहुत सारी घटनाओं से भरे पड़े हैं जब क्रोध से वशीभूत होकर ऐसे निर्णय लिए गए जिनपर बाद में पछताना पड़ा | ऋषि दुर्वासा और विश्वामित्र जी के क्रोध से तो सभी परिचित हैं और इनका क्रोध ही कई बार अत्यंत विनाशकारी परिस्थितियों का कारण बना | 
आज के समय में हर व्यक्ति आपाधापी और तनाव भरा जीवन जी रहा है | इसी तनाव के कारण उसमें सयंम और विनम्रता के गुण धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं | सुबह के समाचारपत्र तरह –तरह के अपराध जगत के समाचारों से भरे पड़े होते हैं जब क्रोध के कारण बिना सोचे समझे हत्या, मारपीट जैसे जघन्य अपराध तक हो जाते हैं | भीड़-भाड़ भरी सड़क पर कार चलाते समय किसी दूसरे की गाड़ी हलके से छू भर जाने से ही हम क्रोध में अपने होश खो बैठते हैं और लड़ने मरने पर उतारू हो जाते हैं | 
क्रोध हमारी वो मनोदशा है जो हमारे विवेक को नष्ट कर देती है और जीत के नजदीक पहुँच कर भी जीत के सारे दरवाजे बंद कर देती है।क्रोध न सिर्फ हार का दरवाजा खोलता है बल्कि रिश्तों में दरार का भी प्रमुख कारण बन जाता है। लाख अच्छाईयाँ होने के बावजूद भी क्रोधित व्यक्ति के सारे फूल रूपी गुण उसके क्रोध की गर्मी से मुरझा जाते हैं। क्रोध पर विजय पाना आसान तो बिलकुल नहीं है लेकिन उसे कम आसानी से किया जा सकता है, इसलिए अपने क्रोध के मूल कारण को समझें और उसे सुधारने का प्रयत्न करें। अनर्थ कोई नहीं चाहता | अनर्थ होने के बाद पछताने से कोई लाभ नहीं होता है | कहने वाले कह गए हैं : अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत | क्रोध एक दुष्ट राक्षस की तरह है | उसे पहचानिए और अपने ऊपर हावी मत होने दीजिए अन्यथा वह आपको कहीं का भी नहीं छोड़ेगा | इस दुष्ट राक्षस को सयंम और विनम्रता की ढाल से ही जीता जा सकता है | आग को शीतल पानी से ही बुझाया जाता है | क्रोध का उत्तर क्रोध नहीं होता | रेलवे स्टेशनों पर लिखा होता है : सावधानी हटी, दुर्घटना घटी | आज के सन्दर्भ में, इसी बात को थोड़ा सा बदल कर इस तरह से भी कहा जा सकता है : 

                    आया गुस्सा , हुआ बवाल  |

भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – ...