जिन्दगी में जहाँ एक ओर तरह तरह की विभिन्नताएं
हैं वहीं अगर दूसरी तरफ देखें तो लगता है यह जीवन पूरी तरह से नीरसता से भरा हुआ
है | सच मानिए मैं तो आज तक भी यह निश्चित
रूप से नहीं कह सकता कि इस जीवन में बहुरंगी चटपटा स्वाद ज्यादा है या बोरियत से भरी जिन्दगी की घिसी-पिटी
कहानी का सूनापन | नहीं समझ में आया तो चलिए जरा
खुलकर समझाता हूँ | क्या कभी-कभी आपको ऐसा नहीं लगता कि आप में किसी विद्वान
ज्योतिषी की आत्मा उतर आयी है | आप का ब्रह्मज्ञान आपको पहले से ही बता देता है कि
आज रात जिस शादी की पार्टी में जाने वाले हैं उसमें में खाने के मेन्यु में क्या-क्या होगा | आप सिनेमा देख रहें हैं और आगे की सिचुएशन भांप जाते हैं कि अब तो गाने का सीन बनता है | मैं यह परम ज्ञान की बात अपने अनुभव के आधार पर ही बता रहा हूँ | बचपन में जब कभी अपना होमवर्क पूरा नहीं हो पाता था तो मुझे तो
पहले ही पता चल जाता था कि आज तो मास्टर जी से पिटाई पक्की है और भगवान झूठ न
बुलवाए, इस मामले में मेरी भविष्यवाणी कभी गलत भी नहीं हुई | बड़े होकर नौकरी
में भी यही पाया कि दफ़्तर की लगभग हर मीटिंग की इस हद तक वही कहानी कि उनमें होने
वाली कारवाई की रिपोर्ट पहले से ही तैयार
कर लेता था | हर मीटिंग का एक ही हाल : साहब ने गुर्राना है, अफसर ने खिसियाना है
और बाबू ने मिमियाँना है और नतीजे के नाम पर ले दे कर वही ढ़ाक के तीन पात |
आज आप को ऐसे ही एक अवसर की बानगी देता हूँ जो
मीटिंग तो नहीं वरन समारोह है और समारोह भी एक ख़ास किस्म का जिसका नाम आपने भी
अवश्य सुना होगा और सुनना तो क्या खुद शामिल भी रहे होंगें – स्कूल से लेकर शादी
ब्याह और नौकरी तक में | जी हाँ, मैं विदाई समारोह या फेयरवेल पार्टी की ही आज बात करने जा रहा हूँ |
शादी में दुल्हन की बिदाई तो जरूर ही देखी होगी | वहाँ
मानों रोने की प्रतियोगिता चल रही हो जहाँ
हर बन्दा या बंदी एक दूसरे को पीछे पछाड़ने में मशगूल | एक बार देखा दुल्हन अपनी मां के गले से चिपट कर दहाड़ें मार
कर आँसू बहा कर रो रही थी और बीच में अचानक रुक कर माँ को याद दिलाया कि मोबाइल का
चार्जर कमरे में ही रह गया है, याद करके भिजवा देना | मज़े की बात यह कि इस हिदायत के बाद रोने का शेष भाग फिर से
बदस्तूर जारी हो गया गोया माँ को नहीं वरन मोबाइल के चार्जर को याद करके रोया जा
रहा है|
अब आइये अब एक दूसरी तरह के विदाई समारोह यानि फेयरवेल पार्टी की बात करते हैं | सच मानें तो इस प्रकार के
समारोह मुझे हद दर्जे के नीरस, उबाऊ और नौटंकी से भरे लगते हैं जिनमें दिखावेपन और
बनावट का मुल्लमा कूट-कूट के भरा होता है |इनमें हर कोई देवताओं की श्रेणी में
अवतरित होने की बलात चेष्टा करते नज़र आते हैं |
जाने वाले मुलाजिम की शान में इतने झूठे-सच्चे कसीदे पढ़े जाते हैं कि बड़े
से बड़ा अभिनेता भी शर्म से पानी भरता नज़र आए | मज़े की बात होती है जब जिस अफसर ने
झूठी-सच्ची शिकायत करके पूरी जी-जान लगवा
कर अपने मातहत बाबू का ट्रांसफ़र करवाया हो, उसी की विदाई पार्टी में वही अफसर छाती पीट-पीट कर मुनियादी कर रहे होते हैं कि इस
बाबू के जाने से मैं अनाथ हो गया | कभी देखने में आता है कि महा-कामचोर और मक्कार
मातहत को बिदाई पार्टी में महान, मेहनती, कर्मठ जैसे सारे विशेषणों से सुशोभित किया जाता है कि एक बारगी
तो लगने लगता है कि बन्दे का नाम अगली बार भारत सरकार द्वारा पद्मश्री या पद्मभूषण पुरस्कार के लिए शर्तिया
पक्का है | अपने सेवा काल में अनगिनत विदाई समारोहों का संचालन करने का मौक़ा मिला
और विदाई भाषण में सही मायने में वही मक्खी पर मक्खी नक़ल मार कर एक ही भाषण से काम
चलाया बस फर्क था तो नामों का | एक बार तो हद ही हो गई जब गलती से पुराने भाषण को
ही पढ़ दिया और पार्टी में मौजूद लोगों ने ध्यान दिलाया कि राम लाल तो कबके रिटायर
हो चुके हैं आज तो श्याम लाल की बारी है |
एक बिलकुल ही नई बात भी फिलहाल में ही मुझे पता चली
| फेयरवेल पार्टी के खर्चे कम करके घाटे में चल रही कंपनी को भी ऊंचा लाभ कमा कर नवरत्नों
की जमात में शामिल किया जा सकता है | फूलों के गुलदस्ते की जगह एक गुलाब का
फूल दीजिए और मिठाई की डिबिया में से एक बर्फी का पीस कम कर दीजिए और देखिए फिर कमाल
| बस कुछ यूँ समझ लीजिए कि मुरदे की मूँछ मूँड कर वजन कम कर दिया | पता नहीं ऐसे होनहार प्रकांड अर्थशास्त्री हमारे वित्तमंत्री की नज़रों से कैसे बचे
रह गए वरना देश के संकटग्रस्त जी.डी.पी की यह हालत न होती | अब यह बात अलग है कि इन होनहार
अर्थशास्त्री के चश्में वाली नज़र से भी कंपनी के कारखानों में हो रही प्रचंड बर्बादी की ओर ध्यान नहीं जाता जिसकी वजह से बीच मझधार
में पडी नैय्या डूबने के कगार पर आ चुकी है | इस प्रकार के महानुभावों के कार्यकलाप की यदि आपको थोड़ी बहुत और झलक चाहिए तो एक बारगी इसी ब्लॉग का एक मजेदार लेख (जिसका लिंक भी साथ ही दिया है) "जीना इसी का नाम है - गूँज" लेख जरूर पढ़ लीजिएगा |
इन विदाई पार्टियों में कई बार लोगों को अपने मन का दबा गुबार निकालने का भी मौक़ा मिल जाता है | मुझे आज तक तक याद है तब मैं हरियाणा के चरखीदादरी में सेवारत था | एक ऐसी ही पार्टी में श्री टी .के. भट्टाचार्य जोकि तब कार्मिक अधिकारी हुआ करते थे, के गले की सांस की नली में रसगुल्ला फँस गया और उनकी जान पर ही बन आयी थी |
उस फँसे हुए रसगुल्ले को बाहर निकालने के प्रयत्न में कोई उनकी खोपड़ी पर वार कर रहा था तो कोई पीठ की निहायत ही बेदर्दी से धुनाई कर रहा था | कहने की बात नहीं उन शुभचिंतकों की भीड़ में कई ऐसे पंगेबाज भी शामिल हो गए थे जिन्हें बस केवल अपने हाथों की खुजली मिटानी थी | रसगुल्ला तो खैर बंगाली दादा के हलक से तोप के गोले की तरह बाहर आगया पर सांस आते ही दादा कराहते हुए बोले "अगर इस रसगुल्ले से मैं नहीं मरता तो तुम लोगों के ताबड़तोड़ घूंसों की मार से तो मैं शर्तिया मर जाता | मेरी विदाई तुम फेक्ट्री से कर रहे हो या इस दुनिया से |" जहां तक मुझे पता है उस दिन के बाद दादा ने पार्टियाँ तो बहुत खायीं पर बिना रसगुल्लों के |
उस फँसे हुए रसगुल्ले को बाहर निकालने के प्रयत्न में कोई उनकी खोपड़ी पर वार कर रहा था तो कोई पीठ की निहायत ही बेदर्दी से धुनाई कर रहा था | कहने की बात नहीं उन शुभचिंतकों की भीड़ में कई ऐसे पंगेबाज भी शामिल हो गए थे जिन्हें बस केवल अपने हाथों की खुजली मिटानी थी | रसगुल्ला तो खैर बंगाली दादा के हलक से तोप के गोले की तरह बाहर आगया पर सांस आते ही दादा कराहते हुए बोले "अगर इस रसगुल्ले से मैं नहीं मरता तो तुम लोगों के ताबड़तोड़ घूंसों की मार से तो मैं शर्तिया मर जाता | मेरी विदाई तुम फेक्ट्री से कर रहे हो या इस दुनिया से |" जहां तक मुझे पता है उस दिन के बाद दादा ने पार्टियाँ तो बहुत खायीं पर बिना रसगुल्लों के |
जिन जगहों पर नौकरी में ट्रांसफर आम बात होती है वहां फेयरवेल पार्टी भी उतनी ही आम होती है | अब खुद को पार्टी लेना जितना सुखदायक लगता है दूसरों को देना उतना ही दिलजलाऊ खासतौर पर जब ऐसी पार्टियों की अर्थ व्यवस्था चंदे के कंधे पर सवार हो | खुद ही सोचिए कैसा लगता है जब उस अफसर के लिए जिसने बरसों आपकी नाक में दम कर रखा था उसकी ही पार्टी का इंतजाम करने के लिए एक मोटी रकम मन मार कर चंदे की झोली में डालनी पड़े | इस मामले में मैंने तो और भी अजीबोगरीब हालातों का सामना किया है| देहरादून से दिल्ली मुख्यालय में मेरा ट्रांसफ़र हुआ तो सभी अधीनस्थ कर्मचारियों में मानों खुशी की लहर दौड़ गई | उन्हें लगा जैसे ऊपर वाले ने उनकी प्रार्थना सुन ली है | दशहरे जैसे उत्सव के माहौल में बाकायदा (रावण की ) फेयरवेल पार्टी हुई और एक अच्छा-खासा उपहार दिया और दिल्ली की रेलगाड़ी में स्टेशन तक जाकर, डिब्बे में बैठाकर दरवाज़ा अच्छी तरह से बंद भी कर दिया| ट्रेन ने जब तक देहरादून स्टेशन का आउटर सिग्नल पार नहीं कर दिया तब तक उस पलटन का एक भी सिपाही अपनी जगह से हिला तक नहीं | अब इसे क्या कहूँ जनता का प्यार या गब्बर का बुखार |
खैर कहते
हैं आज तक ऊपर वाले के आगे किस का जोर चला है | शायद इसीलिए भगवान से देहरादून
वालों की खुशी ज्यादा दिन तक देखी नहीं गई
और तीन महीने के बाद ही मेरी तैनाती फिर से वापिस उलटे बांस बरेली की तर्ज़
पर देहरादून कर दी गई | वापिस मुझे फिर उसी दफ्तर में पा कर उन सभी कर्मचारियों की
शक्लें देखने लायक लग रहीं थी | दीवार
फिल्म के अमिताभ बच्चन की तरह से ईश्वर से उनका मानों विश्वास ही उठ गया था|
पर उनके पास भी इस शाश्वत सत्य को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं था कि बाप और अफसर अपनी अपनी इच्छा से नहीं मिलते- जो भी मिल जाए ईश्वर का प्रसाद समझ कर प्रेम भाव से सर माथे स्वीकार करने में ही भलाई है | जिसकी किस्मत में जितना लिखा है, झेलना तो पड़ेगा ही, चाहे रो कर या हँस कर| अब किस्मत की मार, छह महीने बाद फिर से मेरे ट्रान्सफर आर्डर आ गए | लोगों में कानाफूसी शुरू हो गई कि इस बन्दे ने फेयरवेल पार्टी और गिफ्ट लेने के लिए हेड आफिस से सेटिंग कर रखी है | अब भाई शक का इलाज़ तो लुकमान हकीम के पास भी नहीं हैं, मैं तो किस खेत की मूली हूँ| खैर पार्टी भी हुई और गिफ्ट भी दिया गया – पहले कंबल था इस बार रुमाल और विदाई भाषण में इशारों-इशारों में मुझे बता भी दिया गया " श्रीमान अगली बार की पार्टी अगर होगी तो आपके ही खर्चे पर होगी इसलिए जरा सोच-समझ कर ही वापिस आना |" यह अब आप पर है कि इसे सच मानें या झूठ पर मुझकों बरसों बाद तक दु:स्वप्न आते रहे कि मुझे फिर से देहरादून भेजा जा रहा है और मैं जंजीर फिल्म के हीरो की तरह से पसीने में सराबोर डर कर नींद से उठ जाता था |
पर उनके पास भी इस शाश्वत सत्य को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं था कि बाप और अफसर अपनी अपनी इच्छा से नहीं मिलते- जो भी मिल जाए ईश्वर का प्रसाद समझ कर प्रेम भाव से सर माथे स्वीकार करने में ही भलाई है | जिसकी किस्मत में जितना लिखा है, झेलना तो पड़ेगा ही, चाहे रो कर या हँस कर| अब किस्मत की मार, छह महीने बाद फिर से मेरे ट्रान्सफर आर्डर आ गए | लोगों में कानाफूसी शुरू हो गई कि इस बन्दे ने फेयरवेल पार्टी और गिफ्ट लेने के लिए हेड आफिस से सेटिंग कर रखी है | अब भाई शक का इलाज़ तो लुकमान हकीम के पास भी नहीं हैं, मैं तो किस खेत की मूली हूँ| खैर पार्टी भी हुई और गिफ्ट भी दिया गया – पहले कंबल था इस बार रुमाल और विदाई भाषण में इशारों-इशारों में मुझे बता भी दिया गया " श्रीमान अगली बार की पार्टी अगर होगी तो आपके ही खर्चे पर होगी इसलिए जरा सोच-समझ कर ही वापिस आना |" यह अब आप पर है कि इसे सच मानें या झूठ पर मुझकों बरसों बाद तक दु:स्वप्न आते रहे कि मुझे फिर से देहरादून भेजा जा रहा है और मैं जंजीर फिल्म के हीरो की तरह से पसीने में सराबोर डर कर नींद से उठ जाता था |
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