Wednesday 30 January 2019

ऊँची उड़ान (भाग 6 ) : मेरे प्रेरणा-स्रोत की

पिछले काफी समय से मैं इस ब्लॉग की दुनिया से दूर रहा | कारण आज की  इस कहानी में ही छिपा है | 

ले० कर्नल एच .सी. शर्मा (रि 0)
हापुड़ जिले का एक छोटा सा गाँव है नान, जी हाँ वही जिसकी नाम-राशि की चपाती को आप होटल में बड़े स्वाद से खाते हैं | उसी गाँव में एक अच्छा –खासा, खाता-पीता किसान परिवार था श्री होशियार सिंह जी का | गाँव के गिने-चुने सम्मानित और प्रभावशाली परिवारों में से एक| उन्हीं के तीन बेटों में से एक थे श्री हुकुम चंद –यानी आज की कहानी का नायक | अपने सीधे-सरल स्वभाव के कारण यह बच्चा गाँव में सभी की आँख का तारा | सीमित साधनों के बावजूद पढ़ाई -लिखाई में तेज़ | अभी बारह  साल का था कि माँ का निधन हो गया | उस बच्चे के लिए इतना बड़ा सदमा सहना आसान नहीं था | बाल-मन पर पड़ा यह घाव जीवन भर रहा और कभी भी माँ की कमीं से उबर नहीं पाया | अब उस बिन माँ के बच्चे का दिल न तो घर पर लगता था और ना ही बाहर संगी-साथियों के बीच | अच्छा-ख़ासा हंसता-खेलता बच्चा यकायक मानों रातों-रात खामोशी की चादर ओढ़े एक गंभीर इन्सान में परिवर्तित हो गया | माँ की याद वैसे तो किसी भी तरह से भुलाई नहीं जा सकती, पर उस बालक ने आखिर एक तरीका ढूँढ ही लिया उस याद को कम करने का | और वह उपाय था खुद को पूरी तरह से पढ़ाई में समर्पित करना | दिमाग तो पहले से ही तेज था, ऊपर से यह मेहनत , नतीजा सभी परीक्षाओं में अव्वल नंबरों से पास होते चले गए | आठवीं तक की पढ़ाई गाँव के ही स्कूल में और उसके बाद पास के शहर हापुड़ में | गाँव से स्कूल जाने के लिए कभी-कभी हालत ऐसे भी बन जाते कि कपड़ों की पोटली को सर पर बाँध कर रास्ते में पड़ने वाली नदी को तैर कर पार करना पड़ता | इन कठिन परिस्थितियों में मेट्रिक और उसके बाद विज्ञान विषयों के साथ इंटर प्रथम श्रेणी के नंबरों के साथ पास किया | 

उन दिनों शादी कम उम्र में ही कर दी जाती थी | उस बालक,जो कि अब किशोरावस्था में था, के साथ भी ऐसा ही हुआ | अब शादी तो हो चुकी थी पर गौना नहीं हुआ था | यानी पत्नी अपने गाँव में पिता के घर ही रह रहीं थी और हमारी कहानी का हीरो अपने पिता के पास अपने गाँव में | अब यहाँ आता है कहानी में एक जबरदस्त मोड़ |अचानक एक दिन सुबह-सुबह पड़ोसी होशियार सिंह जी के पास पहुंचता है और अनुरोध करता है "मेरा बेटा हापुड़ जा रहा है जहां फ़ौज के लिए भर्ती चल रही है| रास्ते में साथ के लिए अपने बेटे हुकुम को भी भेज दीजिए तो मेरी चिंता दूर हो जायेगी |" अब वहां पहुँच कर पता नहीं क्या सूझी कि हीरो भी लाइन में लग गए और तकदीर का खेल , जिसे भर्ती करवाने आये थे वह तो रह गया टांय-टांय फिस्स और चुन लिया गया हमारा हीरो| अब गाँव में जाकर जब सबको बताया तो मच गया कोहराम और रोआ-पीटन | परिवार का कोई भी बड़ा-बूढ़ा इस पक्ष में नहीं था कि हुकुम जाकर फ़ौज की नौकरी करे | उनका सोचना भी एक हद तक जायज़ था | पहले और दूसरे विश्व-युद्ध की बर्बादी झेल चुके बुजुर्गों के लिए फ़ौज की नौकरी में खतरा ही खतरा था | पर जो होना था सो तो हो चुका था सो बुझे मन से दिल पर पत्थर रख कर घर-परिवार ने हालात को स्वीकार करने में ही भलाई समझी और इस के बाद मन में जोशीले अरमान लिए घर-बार छोड़, निकल पड़ा हमारा बहादुर सिपाही एक नई मंजिल की ओर | वह साल था वर्ष 1954 का | 


अब अगर थोड़े में कहूँ तो फ़ौज की नौकरी इस बहादुर हीरो ने कुछ इस अंदाज़ में की जैसे जंगल में शेर की चहल कदमी | इस बात का अंदाजा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि सिपाही के रूप में भर्ती हुए इस लाजवाब इंसान ने तरक्की की हर हद को एक के बाद एक आश्चर्यजनक ढंग से पार करते हुए अपने 34 वर्ष के सेवा-काल में लेफ्टिनेंट कर्नल के ओहदे तक पहुँच कर ही दम लिया | इसके लिए काम के प्रति पूरा समर्पण और स्वयं के विकास के लिए लगातार अध्ययन जारी रख कर शैक्षिक योग्यता बढाते रहे | सेना में रहते हुए ही विभिन्न तकनीकी कोर्स के अलावा उन्होंने बी.एस.सी , बी .एड, मेनेजमेंट और विधि क्षेत्रों की  शैक्षिक  योग्यताएं अर्जित की | ईमानदारी से अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए, बिना किसी सिफारिश की बैसाखी का सहारा लिए, जो कुछ पाया बस अपने बल-बूते पर | यही ईमानदारी और सिद्धांत कहीं उनकी नौकरी-नैय्या की पतवार बने तो कहीं इन्हीं जीवन-मूल्यों ने आगे बढ़ने के रास्ते में अड़चने भी खडी कर दीं वरना शायद एक - दो अतिरिक्त प्रमोशन भी मिल गए होते | पर इस बात का उन्हें कभी कोई दुःख नहीं रहा जैसा कि वह स्वयं कई बार कहते भी थे कि जीवन मूल्यों के साथ समझौता करके कोई भी लाभ उन्हें किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं | अपने सेवा-काल में तीनों मुख्य –युद्ध – 1962 चीन के साथ , 1965 और 1971 पाकिस्तान के साथ , में सीमा पर बहुत बहादुरी से दुश्मन का मुकाबला किया | भूटान में हुए सत्ता-संघर्ष के समय विद्रोहियों से निपटने के लिए भेजी गयी भारतीय सेना की पहली टुकड़ी के सदस्य थे जहां बहुत ही खतरनाक हालातों का सामना करना पड़ा | एक से एक कठिन सीमावर्ती स्थानों पर तैनाती रही जिसे बखूबी निभाया | 1962 के भारत-चीन के युद्ध के समय जब इनकी पोस्टिंग बार्डर पर थी, तब अपने पिता श्री होशियार सिंह जी को भी खो बैठे | दरअसल  रेडियो पर आरही लड़ाई और शहीद सैनिकों के समाचारों को सुनते-सुनते ही वृद्ध पिता अपने बेटे की चिंता में हार्ट-अटेक का झटका नहीं झेल पाए थे  |
इनकी उच्च-श्रेणी की ईमानदारी और कर्तव्य-निष्ठा को देखते हुए भारतीय सेना के सिग्नल्स कोर की बहुत ही गोपनीय और संवेदनशील साइफर ब्रांच में कार्यरत रहे| इनके कार्य-कलापों की संवेदनशीलता और गोपीनयता का सम्मान करते हुए मैं इस विषय में अधिक विस्तार से नहीं जा रहा हूँ | केवल इतना कह सकता हूँ कि यह मेरे रोल माडल रहे, जिनसे मैंने सीखा ( या सच कहूँ तो सीखने का प्रयत्न किया पर पूरी तरह से आज तक सफल नहीं हो पाया ) कि कभी भी किसी की बुराई मत करो | उतना बोलो जितना आवश्यक है | जहां तक हो सके लोगों की मदद करो | एक बात और - मेहनत और ईमानदारी अगर आप के पास है तो ज़िन्दगी में सब कुछ हासिल किया जा सकता है |शायद इस ब्लॉग के माध्यम से आप सब तक यही नसीहतें पहुंचाना ही मेरा उद्देश्य है |   


मेरे यह रोल माडल, प्रेरणास्रोत हैं लेफ्टिनेंट कर्नल एच. सी. शर्मा ( सेवा निवृत ) जो अभी कुछ दिन पूर्व ही अचानक 19 जनवरी 2019 को सदगति को प्राप्त हो गए |अपने पीछे भरा-पूरा, सुखी-संपन्न परिवार छोड़ कर जाने वाले कर्नल शर्मा सबकी नज़रों में यूँ तो मेरे स्वसुर थे पर मेरे लिए सही मायने में एक ऐसे पथ-प्रदर्शक रहे जिनकी कमी जीवन- पर्यंत मुझे खलती रहेगी | अभी कुछ दिनों पहले ही मैंने उनसे कहा था कि आपके इतने प्रेरणादायी और साहसिक व्यक्तित्व के बारे में एक लेख लिखूँगा | मुझे यह नहीं आभास था कि थोड़ी से देर के कारण यह लेख श्रद्धांजली-सुमन के रूप में अर्पित  करना पड़ेगा |   




                   सादर नमन – श्रद्धांजली

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