Monday, 30 December 2019

दरिंदगी

आपको आज की इस कहानी का शीर्षक शायद किसी हथोड़े की चोट की तरह से लगा होगा । लगना भी चाहिए और आप मेरी बात से पूरी तरह से सहमत भी हो जाएँगे इस पूरी कहानी को जानने के बाद । याद है कुछ समय पहले मैंने आपका परिचय भोलू से कराया था कहानी भोलू का दर्द के माध्यम से । इस तस्वीर को देखने के बाद आपको शायद उसकी कहानी याद आ जाए । भोलू नाम की छोटी सी मादा पिल्ले की बचपन में एक लापरवाह कार वाले ने सड़क पर उसकी टांग को कुचल दिया था । टांग में फ्रेक्चर हो गया था, प्लास्टर बंधा और आप सबने मेरे अनुरोध पर विशेष रूप से उसके जल्द ठीक होने की प्रार्थना की ।
भोली-  बचपन में जब चोट लगी थी 
भगवान ने आप सबकी सुनी भी और भोला उर्फ भोली जल्द ही तंदरुस्त होकर दौड़ती – भागती नज़र आने लगी ।
अभी कुछ पिछले कुछ दिनों से भोली गर्भावस्था में थी । उसके खाने-पीने का जितना हो सकता हम ध्यान रख सकते थे कोशिश कर ही रहे थे । कल सुबह देखा दर्द से कराहती सामने सड़क पर घूम रही थी । किसी बेरहम ने उसे भारी पत्थर मार कर अगला पाँव चोटिल कर दिया था । बात यहीं खत्म नहीं हुई – चोट का असर उसके पेट में पल रहे बच्चों पर भी पड़ा । सभी मर गए । अपने चारों नवजात मरे हुए पिल्लों को देख कर भोली बुरी तरह से विलाप करती रही । मुझ में इस बार में ज्यादा लिखने की भी शक्ति नहीं है । पशु कल्याण से जुड़ी एक सामाजिक संस्था ने भोली का प्राथमिक उपचार किया । फ्रेक्चर है या कंधे का डिसलोकेशन, जानने में अगले दो-तीन दिन लग सकते हैं । ठीक होने के लिए तो आप सबकी दुआओं की जरूरत पड़ेगी ही । 
दुख; की मारी फिर से घायल  भोली -आज 
हम सब अपने आप को इंसान कहते हैं । इंसानियत का मतलब भी समझना चाहिए । अपने अंदर की हैवानियत को निकालने के लिए किसी बेबस- बेजुबान जानवर को निशाना बनाना कहाँ तक न्याय-संगत आप खुद फैसला कीजिए । 
आप सब मुझे मतलबी, स्वार्थी इंसान भी कह सकते हैं जो आने वाले नव वर्ष के खुशनुमा माहोल का आनंद को दुखद घटनाएँ सुना कर कम करना चाहता है और केवल अनुरोध कर रहा है भोली के लिए दुआ करने की । मुझे आपका उलाहना मंजूर है , लेकिन मैं जानता हूँ आपकी शुभकामनाओं और दुआओं की ताकत को । मुझे उम्मीद है आप निराश नहीं करेंगे । साथ ही क्या मैं उम्मीद कर सकता हूँ कि नए साल के लिए आप  अपने आप से एक वायदा करें कि हम अपने आस-पास के पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशील रहेंगे जिससे किसी की भी हालत भोली जैसी ना हो जाए ।  

Thursday, 26 December 2019

🎧🎧 🔊अड़ियल-गुड़हल 🔊 🎧🎧




सुनो कहानी 👆
बचपन से ही फूल -पौधे मेरी आत्मा का हिस्सा रहे हैं । ईश्वर की कृपा से नौकरी भी ऐसी मिली कि जीवन का अधिकांश समय प्रकृति की हरी-भरी वादियों में ही गुजारने का सौभाग्य मिला । अब वह बात अलग है कि मेरे बहुत से दोस्तों को वह भगवान की दी हुई हरी-भरी दुनिया भी किसी काले पानी की सज़ा से कम नहीं लगती थी । हाँ अलबत्ता मुझे इतने लंबे समय तक पेड़-पौधों का साथ मिला कि उनके साथ आज भी ख़ामोशी की भाषा में बातें कर लेता हूँ । इसीलिए बागवानी का शौक भी एक तरह से मेरी रग -रग में समाया हुआ है । आज का किस्सा भी कुछ हद तक उसी से जुड़ा है।

इस कहानी की शुरुआत होती है आज से तीन साल पहले । श्रीमती जी के साथ बाज़ार गया था । याद आया पास की नर्सरी से पौधों के लिए खाद-पानी का प्रबंध भी कर लूँ । मेरी आदत रही है कि जहाँ तक हो सके पौधे खरीदने ना पड़े । अक्सर नाते-रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ पौधों की अदला-बदली कर लेता हूँ । और हाँ, जब भी किसी नई जगह घूमने फिरने जाता हूँ तो वहाँ के स्मृति चिन्ह के रूप में कुछ पौधे भी ले आता हूँ जो बरस-दर-बरस उन दोस्तों और स्थानों की यादें ताज़ा कराते रहते हैं । नर्सरी से जरूरत का सामान खरीद कर बाहर निकल ही रहा था कि किनारे पर रखे गमले में लगे गुड़हल के छोटे से पौधे ने बरबस ही अपनी ओर ध्यान खींच लिया । गुड़हल के पौधे पर सुर्ख लाल रंग के फूल आते हैं लेकिन जो पौधा मैं देख रहा था उस पर पीले रंग का फूल था । वह छोटा सा पौधा एक नन्हें बच्चे की तरह से मानों मुझे एक निश्चल मुस्कान लिए ऐसे निहार रहा था कि मेरे बढ़ते कदम भी ठिठक गए । अपनी मूक भाषा में जैसे वह जिद कर रहा था मुझे अपने साथ ले चलो । पौधे नहीं खरीदने की भीष्म-प्रतिज्ञा एक तरह से टूटने की कगार पर आ गई थी । मन में चल रहे अंतर्द्वंद को श्रीमती जी अब तक भाँप चुकी थीं । वह सीधे काउंटर पर बैठे नर्सरी के मालिक से उस पीले-गुड़हल के लिए मोल-भाव करने लगीं । मैंने तो सारी ज़िंदगी सीमेंट बेचा इसलिए आपको शायद यह बात मज़ेदार लगे कि मैं किसी भी सामान को बेचने के मामले में उस्ताद हूँ पर जब बात ख़रीदारी पर आ जाए तो मेरी हवा निकल जाती है । कुछ ही देर में पूरे मोल-भाव के बाद श्रीमती जी ने उस पौधे का मालिकाना हक़ प्राप्त कर मेरे संरक्षण में दे दिया । इस तरह से उस पौधे को मेरे साथ आना ही था सो आया ।

अब घर पर उस पीले-गुड़हल के पौधे को विशेष दर्जा मिला – क्योंकि अपनी भीष्म प्रतिज्ञा तोड़ गाढ़े पसीने की कमाई से गांठ का पैसा खर्च करके जो लाये थे । घर आने वाले सभी मेहमानों को बड़े गर्व से उस पीले फूल को भी दिखाते । कुछ दिनों के बाद वह पीला फूल तो अपनी उम्र पूरी कर मुरझा कर चल बसा । अब नए फूल के आने का इंतज़ार बड़ी बेसब्री से शुरू हुआ । इंतज़ार की घड़ियाँ लंबी होती हैं यह तो पता था पर अच्छे दिनों से भी ज्यादा इंतज़ार करना पड़ेगा यह अंदाज़ा कतई नहीं था । फिर सोचा कि खाली हाथ पर हाथ धर कर बैठने से तो कुछ होने वाला नहीं सो इन्टरनेट पर लंबी चौड़ी रिसर्च कर डाली । तरह- तरह की खाद डाली , दवाइयाँ डाली, टोने-टोटके किए पर फूल को नहीं खिलना था तो नहीं खिला। उस पौधे के इतने नखरे देख कर गुस्सा भी बहुत आया और खीज भी । आज भी सोचता हूँ , इतनी रिसर्च अगर मैंने गंजी खोपड़ी पर बाल उगाने के लिए किसी तेल को ईजाद करने में की होती तो सफलता पाँव चूम रही होती । 

इसी दौरान वह पौधा कई बार बीमार भी हुआ , कभी पत्तों पर कीड़े लगे और कई बार तो इतना सूख गया कि लगा अब तो चल बसा । लेकिन कुछ उसका हठीला स्वभाव और कुछ मेरा इलाज़ – हर बार वह विजय-पताका फहराता फिर से मस्त मलंग हो कर प्रकट हो जाता और अपनी भाषा में मुझे चिढ़ाते हुए मानों कहता “ इतनी जल्दी तेरा पीछा नहीं छोड़ने वाला”। धीरे-धीरे मैं भी मायूस हो चला और उस पीले -गुड़हल को बिना फूल के ही स्वीकार करने में अपनी भलाई समझी । दिन बदलते गए महीनों में और महीने बदले साल में । इसी तरह पूरे तीन साल का समय निकाल गया और वह बिना फूल का पीला गुड़हल अब भी किसी उद्दंड बालक की तरह से मेरे सब्र का लगातार इम्तहान लिए जा रहा था । 

अभी कुछ दिन पहले की ही बात है - मेरे यहाँ साले साहब  का आना हुआ । घर के पास ही रहते हैं । उन्हें वह गमले में लगा गुड़हल का पौधा दिखाते हुए कहा कि आपके यहाँ तो अच्छा – खासा बगीचा है ,इसे ले जाइए । वहाँ अपनी जमीन पर लगा दीजिएगा तब हो सकता है यह और अधिक पनप सकेगा और फूल भी आ जाएँगे । व्यस्तता के कारण उन्होने उस समय पौधे को ले जाने में असमर्थता जताई लेकिन साथ ही भरोसा भी दिया कि जल्द ही आकर उसे ले जाएँगे । 

अभी कल की ही बात है , पौधों में पानी लगा रहा था । जब गुड़हल की बारी आई तो आश्चर्य से आँखें खुली की खुली रह गयीं । अड़ियल गुड़हल पर पीला फूल शान से लहरा रहा था । मेरी ओर बहुत ही शरारती मुस्कान बिखरते हुए कह रहा था – “क्या अब भी मुझसे छुटकारा पाना चाहते हो भैया जी”। मैंने भी उसी की भाषा में जवाब भी दे दिया “ नहीं रे – कतई नहीं”। 


गुड़हल खुश - मेरी माँ खुश - सब खुश 
मुझे ना जाने क्यों ऐसा महसूस होता है कि उस अड़ियल गुड़हल ने मेरी बात सुनी, समझी और जब लगा कि अब तो घर से विदा होने की नौबत आ गई है तो उसने भी एक समझदार बच्चे की तरह अपनी जिद छोड़ने में ही भलाई समझी। अकल आयी बेशक तीन साल के लंबे इंतज़ार के बाद ही । यह मात्र संयोग नहीं है – पर मेरी बात पर विश्वास करने के लिए आपको भी मेरी तरह प्रकृति-परिवार का आत्मीय सदस्य बनना पड़ेगा । कुछ गलत तो नहीं कहा मैंने ?

Thursday, 19 December 2019

📢प्रेम की भाषा 📢

सुनो कहानी : प्रेम की भाषा 📢

बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है । रोज़ की तरह अपने सदाबहार पालतू कुत्ते चंचल चंपू को घर के सामने के पार्क में सैर करवा रहा था । आप यह भी कह सकते हैं कि इसी बहाने खुद भी मार्निंग-वाक कर रहा था । पार्क के कोने की दीवार के साथ ही गड्ढेनुमा सुरंग बनी हुई थी । उस खोह में दो प्यारे-प्यारे पिल्ले रहते थे जो अक्सर खेलते-कूदते कभी-कभार बाहर भी नज़र आ जाते थे । उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ । मुझे देखते ही वो पिल्ले थोड़ा डरते थोड़ा सहमते मेरी ओर खेलने के लिए दुम हिलाते आगे बढ़ते और फिर डर कर वापिस लौट जाते । दूर से यह खेल देख रहे मेरे कुत्ते चंपू को लगा कि अब उसे अपनी चौधराहट या दादागिरी दिखाने का समय आ गया है । तुरंत ही उसने दूर से ही मेरे और उन पिल्लों की ओर गुर्राते हुए दौड़ लगा दी । मुझे चंपू की आदत का अच्छी तरह से पता है- शायद उसी को देख कर किसी ने यह कहा होगा कि जो भौंकते हैं वे काटते नहीं हैं । जब तक चंपू की दौड़ उन पिल्लों तक आकर समाप्त होती, उससे पहले ही उस पूरे सीन में ना जाने कहाँ से उन पिल्लों की माँ की अचानक एंट्री हो जाती है । वह थी कजरी, जो है तो कमज़ोर शरीर पर बहादुरी में किसी से कम नहीं । अपने पिल्लों पर तनिक सा भी खतरा महसूस होने पर वह कई लोगों के हाथ-पैरों में अपने नुकीले दांतों के इंजेक्शन बहुत ही कुशलता से लगाने का रिकार्ड कायम कर चुकी है । लेकिन यहाँ क्योंकि मैं और मेरे साथ चंपू -दोनों ही कजरी की अपनी ही टीम के मेम्बर रहें हैं तो उसके द्वारा हमारे इंजेक्शन वाले इलाज़ का तो सवाल ही नहीं उठता था । दौड़ लगाती कजरी सीधे आकर चंपू के रास्ते में ही सीधे कमर के बल लेट गई । इस तरह उसने न केवल रास्ता रोका बल्कि अपनी दुम हिलाते हुए बहुत ही अनुरोध भरी अपनी ही भाषा और इशारों से चंपू को समझा दिया कि मेरे बच्चों को परेशान मत करो । 
कजरी और  उसके बच्चे 
कई बार इंसान बेशक प्यार की भाषा ना समझे पर जानवर जरूर समझ जाते हैं । यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ – कुछ देर पहले तक अपने आप को फिल्म दबंग का सलमान खान समझने वाले चंपू पर कजरी के शांत और स्नेह से भरी अनुनय-विनय का ऐसा असर हुआ कि तुरंत ही शाहरुख खान की तरह निहायत शरीफ़ बंदे की शक्ल में बदल गया । यह सब दृश्य मैं बहुत ही अचंभे से देख रहा था - एक माँ के अपने बच्चों के प्रति सुरक्षा की भावना जिसके लिए चाहे कटखना इंजेक्शन लगाना पड़े या प्रेम से समझाना पड़े ।

Friday, 13 December 2019

🎧 गंगा किनारे 🎧

📢सुनो कहानी - गंगा किनारे 🔊

हमें जीवन मेँ कदम-कदम पर तरह -तरह के अनुभव होते हैं – कभी खट्टे तो कभी मीठे । इन्ही अनुभवों से बहुत बार सीख भी मिलती है । हाल ही के दिनों में कुछ ऐसी घटना मेरे साथ घटी जो पूरी तरह से अप्रत्याशित और कल्पना से परे थी | सोचा जब अपने सब सुख – दु:ख आपसे बाँटता रहता हूँ तो यह हरिद्वार के गंगा घाट की आपबीती भी सही । 
हर की पौड़ी  - रात में 
अपने परिवार के दिवंगत बुजुर्ग सदस्य की याद में दीपदान के संस्कार को पूरा करवाने हेतु अपने साले साहब के साथ हरिद्वार गया था ।   अपने विशेष तीर्थ पुरोहित जी से पहले ही फोन पर बातचीत हो गई थी जिस पर उन्होने निश्चित समय पर घाट पर पहुँच कर मिलने को कहा | यद्यपि पंडित धीरज शर्मा जी से काफी अरसे पहले मेरी पहले भी मुलाकात हो चुकी थी पर उनका चेहरा स्मृति में थोड़ा धुंधला गया था । उन पर एक लेख भी लिखा था (गंगा मैया – पार लगाए सबकी नैया ) । नियत समय पर घाट पर पहुंचे और अपने तीर्थपुरोहित जी की खोज शुरू की। हर की पैड़ी पर पुरोहितों के तख्त एक लाइन में ही लगे रहते हैं । अपने पंडित जी का नाम लेकर उनके ठिकाने की पूछताछ वहाँ बैठे अन्य पंडितों ( जिन्हें आप पंडे भी कह सकते हैं ) से की । उन्हीं में से एक ने बगल के पड़ोसी तख्त की ओर इशारा कर दिया । वहाँ बैठे पंडित जी से जब मैंने बाकायदा नाम लेकर पूछा तो उन्होने अपना परिचय उसी नाम से दिया जिन्हे हम खोज रहे थे । संस्कार आदि का कार्य उन्होने सम्पन्न करवा दिए । दक्षिणा भी स्वीकार की और उसके बाद अतिरिक्त की भी माँग कर दी जिसे पूरा भी कर दिया गया । इस बार मुझे पंडित जी कुछ कमजोर भी लग रहे थे और उनके व्यवहार में भी वह पहले जैसी गर्मजोशी और अपनत्व महसूस नही हो रहा था | थोड़ी बहुत बातचीत करने की कोशिश भी की तो अनमने से ही लगे । खैर ... उसके बाद घाट पर ही श्री गंगा सभा के कार्यालय में अपने एक अन्य मित्र श्री संजय झाड़ से मिलने चला गया। वह बहुत ही प्यार से मिले । पता नहीं क्यों तब भी मेरे मस्तिष्क में रह- रह अपने पंडित जी का विचित्र व्यवहार घूम रहा था । जाने क्या सोच कर मैंने फिर से उन्हें फोन कर ही दिया । मेरी आवाज सुनते ही धीरज जी ने अपने उसी पुराने जाने-पहचाने अंदाज़ में सवाल किया कि आप हैं कहाँ , मैं तो आपके इंतज़ार मैं बैठा हूँ । अब चौंकने की बारी मेरी थी । सब कुछ बताया । धीरज जी बोले मैं अभी आपके पास पहुंचता हूँ । थोड़ी ही देर में वह आ गए, अत्यंत स्नेह से मिले । अब तक सारा मामला गंगा के जल की तरह ही साफ़ हो चुका था । दरअसल घाट पर मेरे तीर्थ पुरोहित धीरज जी के नाम पर कोई और ही श्रीमान अपना खेल खेल चुके थे । जितना दु:ख मुझे था उतना ही क्षोभ धीरज जी को भी था । यद्यपि हमारा संस्कार पूरा हो चुका था पर उसमें तीर्थ पुरोहित की अनुपस्थिति मुझे कहीं अंदर तक गहरी चोट दे गई । भारी भीड़ के बावजूद भी धीरज जी ने बहुत ही स्नेह से हमें माँ गंगा की आरती मे शामिल होने का विशेष प्रबंध कर दिया । 
पंडित धीरज पाराशर 
गंगा जी की आरती में आँखें बंद और हाथ जोड़े मैं ईश्वर से सभी के लिए मंगल कामना कर रहा था – उस नटवर लाल के लिए भी जो पंडित के रूप में बीच गंगा की धारा में भी झूठ का सहारा ले कर श्रद्धालुओं की भावनाओं से खिलवाड़ करता है | घाट पर जगह -जगह जेबकतरों और ज़हर खुर्रामों से सावधान रहने की चेतावनी देते बोर्ड मुझे किसी जमाने में चकित कर देते थे कि कोई इंसान इतना गिरा कैसे हो सकता है जो इस पवित्र स्थान पर भी इतने दुष्कर्म कर सकता है । अपने इस अनुभव के बाद मुझे उन जेबकतरों का अपराध भी बहुत छोटा प्रतीत होने लगा है । जहाँ गंगा घाट पर एक ओर धीरज जी जैसे सज्जन व्यक्ति मौजूद हैं वहीं जेबकतरों और ज़हर खुर्रामों के अलावा तीसरी श्रेणी के भी महानुभाव टकरा जाएँगे जिनसे सभी को सावधान रहने की आवश्यकता है |

इन सब छोटे -मोटे किस्सों के बावजूद भी इसमें कोई संदेह  नहीं कि गंगा मैया की महिमा अपरंपार  है। इसीलिए प्रेम सहित बोलिए :
                                                 जय गंगा मैया की 

Saturday, 7 December 2019

🎧सुनो कहानी : मेरी जुबानी ( किशोरी )🎧

एक पहेली : अनसुलझी के शीर्षक से  कुछ समय पहले एक ऐसी घटना आप सबके साथ साझा की थी जिसे याद कर आज भी दिल उदास हो जाता है ।  उसी कहानी को आवाज़ की दुनिया के सहारे  भी आप तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूँ ( तकनीकी सहयोग प्रियंक कौशिक - मेड एंगिल फिल्म्स )। जानता हूँ  शुरुआती प्रयास हैं अत; बहुत से सुधार ज़रूरी हैं | मेरे वह सब दोस्त जिन्हें कहानी सुनने का शौक है अपनी सुझाव जरूर दें -मुझे इंतज़ार रहेगा | 
तो हाजिर है कहानी किशोरी की ;


Monday, 2 December 2019

सुमित कुटानी : अद्भुत साज़ - अनोखा कलाकार

सुमित कुटानी 

मेरे बेटे प्रियंक का सिनेमेटोग्राफी का काम ही कुछ ऐसा है कि उसके पास विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े हुए कलाकारों का आना-जाना लगा ही रहता है | मेरी भी अक्सर उनसे मुलाक़ात हो जाती है | बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है | उस दिन प्रियंक के स्टूडियो से उमड़ती-घुमड़ती संगीत की बहुत ही मधुर धुन कानों में पड़ रही थी | कौतुहल से अपने को रोक नहीं सका, झाँक कर देखा तो एक शूटिंग चल रही थी, जिसमें एक नौजवान लड़का एक अनोखा सा वाद्य यंत्र बहुत ही तल्लीनता से बजा रहा था | उस वाद्य यंत्र से निकलने वाली स्वर लहरी अत्यंत अद्भुत दिव्य आनंद की अनुभूति करा रही थी | कुछ देर खडा मन्त्र मुग्ध सा उस आनंद लोक में खोया रहा और फिर मन में कई अनसुलझे सवाल लिए वापिस लौट चला | सवाल यही कि कौन है यह लड़का और क्या है वह विचित्र साज़ जिसे मैंने आज तक देखा-सुना ही नहीं था | पता चला वह लड़का था सुमित कुटानी, उत्तराखंड का रहने वाला और उस अनोखे साज़ का नाम है हैंगपैन | उस समय तो बात आयी- गयी हो गयी पर दिमाग की गहरी परतों में अठखेलियाँ खेलती रहीं और आज जब फिर से याद आयी तो दोनों के बारे में ही खोजबीन कर डाली | 
( वीडिओ क्लिप श्री प्रियंक कौशिक व मेड एंगिल फिल्म्स के सौजन्य से प्राप्त ) 
चलिए पहले बात शुरू करते हैं उस सुरीले वाद्य यंत्र से | अपने देश में इसे हैंग ड्रम, हैण्ड-पैन या हैण्डपैन के नाम से भी जाना जाता है | यह एक ख़ास तरह की स्टील से बने दो अन्दर से खोखले अर्ध-गोले हैं जो बीच में रिम से आपस में चिपके हैं | यह वाद्य यंत्र ज्यादा पुराना नहीं है, इसका आविष्कार बर्न , स्विटज़रलेंड में वर्ष 1999 में फेलिक्स रोहनर और सबीना स्केयर ने किया | अपने देश में भी यह साज़ ज्यादा प्रचलित नहीं हैं इसीलिए इसे बजाने वाले कलाकार भी बस गिनती के ही हैं | इस वाद्य यंत्र को गोदी में रखकर हथेलियों की थाप से बजाया जाता है | मांग कम होने के कारण, ज्यादातर इसे विदेशों से ही आयात किया जाता है जिसकी शुरुआती कीमत ही होती है लगभग डेढ़ लाख रुपये |
अब बात करते हैं अपने आज के कलाकार सुमित कुटानी की जिसकी कहानी भी कुछ कम दिलचस्प नहीं है | आप भी सुनिए उसी की जुबानी  : 

उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले में छोटा सा कस्बा है श्रीनगर, वहीं मेरा शुरुआती बचपन बीता | सेंट थेरेसस कान्वेंट स्कूल पढ़ाई की | दुर्भाग्य से पंद्रह वर्ष की उम्र में ही मां का निधन हो गया | बस उसके बाद मन ऐसा उचाट हुआ कि आगे पढाई-लिखाई से तौबा कर ली | संगीत से धीरे-धीरे लगाव होने लगा | यह लगाव इस हद तक बढ़ा कि शादी-ब्याह की बैंड-पार्टी में शामिल हो गया| अब बैंड पार्टी में घुस तो गया पर मुझे कोई भी बाजा बजाना नहीं आता था | बैंड-पार्टी के मालिक को आखिर तरस खा कर या अपना सिर पीट कर एक काम देना पड़ा - काम था कंधे पर गैस- लाईट रखकर बरात के साथ चलने का | इस तरह से मेरे दो शौक पूरे हो जाते थे – शादी के हल्ले-गुल्ले में बैंड-बाजे के संगीत का मज़ा लूटने का और साथ ही दावत में लड्डू- पूरी पर हाथ साफ़ करने का | कुछ दिन इसी तरह से मजबूरी में समय काटा और जब मन ज्यादा उचाट हुआ तो घर से ही भाग खड़े हुआ | भगवान भरोसे पहुँच गया बद्रीनाथ जहाँ रहने तक का कोई ठिकाना नहीं था | वहीं पर खोज निकाला अपने दादा के एक परिचित को जो शमशान में अघोरी थे | मैंने भी उसी शमशान में अपना डेरा जमा लिया | अब दिन कटता नदी किनारे बजरी निकालने और पत्थर तोड़ने की ठेकेदार के यहाँ मजदूरी का काम करने में और रात बीतती को अघोरी बाबा के पास शमशान के आसरे में | कल्पना कीजिए मेरी वह किशोर उम्र, जिसमें बचपन अभी पूरी तरह से गया नहीं था और जवानी शुरू हुई नहीं थी, मैं मन्त्र- मुग्ध सा, शमशान के वातावरण में समय गुजारता | शुरुआत में डर भी बहुत लगा करता पर किसी शायर की कही बात सच्ची भी हो गयी - "दर्द का हद से गुज़रना है दवा बन जाना" । पहली बार जाना कि इस नश्वर संसार में सब कुछ अस्थायी है । दिल से डर नाम की चीज़ का धीरे -धीरे नामों-निशान ही मिट गया | डर की जगह दिल में भोले-बाबा ने अपना बसेरा जमा लिया जो आज तक बरकरार है- मुझ में भी और मेरे संगीत में भी । हालात और वक्त की मार ने उस नाज़ुक कम उम्र में ही मुझे जैसे वक्त से पहले परिपक्व कर दिया | मेरी उम्र अब तक बीस साल की हो चुकी थी | कभी-कभी लगता मानो कोई अज्ञात दैवीय शक्ति बारबार कान में कह रही है “ बहुत हुआ, तेरी मंजिल कहीं और है , बस अब यहाँ से निकल चल |” 
बद्रीनाथ में मजदूर और शमशान के अघोरी बाबा के बीच झूलती जिन्दगी जब ज्यादा ही दूभर हो गयी तो एक बारगी फिर मैं बद्रीनाथ से भी भाग चला और पहुँच गया ऋषिकेश | रोजी-रोटी के लिए यहीं पर कॉटेज होटल में काम मिल गया | ऋषिकेश में विदेशी सैलानी भी बहुतायत में आते रहते हैं | कान्वेंट स्कूल की इंगलिश ने काफी सहारा दिया | सैलानियों से बातचीत और मेलजोल बढ़ाने में मुझे कोई कठिनाई नहीं आती | पर जब फितरत मेरी आज़ाद परिंदे की तो होटल की नौकरी में एक जगह बैठ कर मुझे चैन आये तो आये कहाँ से | ऋषिकेश में बहुत से सैलानी आस-पास की जगहों पर ट्रेकिंग का रोमांच लेने भी आते हैं | वहीं पर अपने एक दोस्त बिट्टू के माध्यम से ट्रेकिंग गाइड का काम पकड़ लिया | काम-काज सब मजे में चल रहा था | इस बीच ऋषिकेश में घूमते –फिरते एक दिन ईस्ट-वेस्ट कैफे जा पहुँचा | आज भी मुझे याद है वहां के मालिक नवीन जी थे | वहां सबसे पहले एक विशालकाय ड्रम जिसे जम्बे कहते हैं, मेरा पहली नज़र में ही मन मोह लिया | मैंने वह ड्रम बजाना वहीं पर सीखा और फिर अक्सर बजाया करता | कभी-कभी पास के ही फ्रीडम कैफे भी चला जाता जहां पर समय-समय पर अक्सर कई विदेशी संगीत प्रेमी आते रहते | अब मेरा मन उस ट्रेकिंग की दुनिया से निकल कर संगीत की आलौकिक दुनिया में खोने लगा था | प्यानो और जम्बे ड्रम तो मैं पहले से उन विदेशी सैलानियों के लिए कैफे में बजाया ही करता था लेकिन बाद में एक और अदभुत साज़ ने मुझे जैसे पागल ही कर दिया | शायद वह 2010 या 2011 का वर्ष था जब स्पेन से आये उस सैलानी के हाथ में मैंने उस साज़ को देखा जिसे मैं हैण्डपैन के नाम से ही पुकारता हूं | उसकी मधुर स्वर लहरी ने मुझ पर जादू ही कर दिया | इस साज़ को भी मैंने सीखा, देश-विदेश जगह-जगह पर होने वाले संगीत-समारोहों में अनेक कार्यक्रम करता रहता हूँ | प्रसिद्ध गायक कैलाश खैर जी के साथ भी मुझे कार्यक्रम प्रस्तुत करने का अवसर मिला चुका है | 
मुंबई की दुनिया में भी कदम: गुरु कैलाश खैर जी और सुमित - साथ मे अमेरिकन मित्र जान मेरी हूप्स 
अब मेरी इच्छा संगीत के ज्ञान को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने की है | हैण्डपैन को सिखाने के लिए मैं अब तक अनेक देश जैसे कजाकिस्तान, इंडोनेशिया, कम्बोडिया, नेपाल, थाईलेंड जा चुका हूँ | फिलहाल मैं अपनी छोटी सी संगीत की दुनिया में मस्त हूँ , व्यस्त हूँ | मैं केवल भगवान् से यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे इस काबिल बना दे कि मैं दूर पहाड़ों पर बसे अपने छोटे से गाँव में एक बेहतरीन स्कूल खोल सकूँ जहाँ समाज के कमजोर वर्ग का बच्चा भी अच्छी तालीम प्राप्त कर सके | 
जीवन एक सपना , सपने में हर कोई अपना : सुमित कुटानी 
तो यह कहानी थी संगीत के दीवाने उस नौजवान की जिसकी ज़िंदगी ने इतने उतार-चढ़ाव देखे कि कोई आम आदमी तो शायद हार मान जाता | पर यह सुमित तो किसी और ही मिट्टी का बना है | सुमित वह पौधा है जिसकी जड़े बहुत गहरी हैं | वह आज जो भी है, अपने दम पर है ,बिना किसी बाप-दादा के नाम और पैसे के सहारे | अपने सपनों के वट-  वृक्ष के बीज़ वह बो चुका है जिसमें से उसकी मनोकामना के पौधे का अंकुरण प्रारम्भ हो चुका है । ऋषिकेश में अद्भुत साज़ हैंग –पैन की विधिवत शिक्षा देने के लिए सुमित संगीत अकादमी की स्थापना कर चुका है ।  कौन यकीन करेगा कि कभी बारात में कंधे पर लाईट का हंडा लेकर चलने वाला एक  बच्चा शमशान भूमि में अघोरी और पत्थर तोड़ते मजदूर की जिन्दगी जीने के बाद आज संगीत की रुपहली दुनिया में देश विदेश में नाम कमा रहा है, दिल के कोने में एक छोटा सा सपना लिए – मुझे अपने उस छोटे से पहाड़ी गाँव के लिए कुछ बड़ा करना है