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बचपन से ही फूल -पौधे मेरी आत्मा का हिस्सा रहे हैं । ईश्वर की कृपा से नौकरी भी ऐसी मिली कि जीवन का अधिकांश समय प्रकृति की हरी-भरी वादियों में ही गुजारने का सौभाग्य मिला । अब वह बात अलग है कि मेरे बहुत से दोस्तों को वह भगवान की दी हुई हरी-भरी दुनिया भी किसी काले पानी की सज़ा से कम नहीं लगती थी । हाँ अलबत्ता मुझे इतने लंबे समय तक पेड़-पौधों का साथ मिला कि उनके साथ आज भी ख़ामोशी की भाषा में बातें कर लेता हूँ । इसीलिए बागवानी का शौक भी एक तरह से मेरी रग -रग में समाया हुआ है । आज का किस्सा भी कुछ हद तक उसी से जुड़ा है।
इस कहानी की शुरुआत होती है आज से तीन साल पहले । श्रीमती जी के साथ बाज़ार गया था । याद आया पास की नर्सरी से पौधों के लिए खाद-पानी का प्रबंध भी कर लूँ । मेरी आदत रही है कि जहाँ तक हो सके पौधे खरीदने ना पड़े । अक्सर नाते-रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ पौधों की अदला-बदली कर लेता हूँ । और हाँ, जब भी किसी नई जगह घूमने फिरने जाता हूँ तो वहाँ के स्मृति चिन्ह के रूप में कुछ पौधे भी ले आता हूँ जो बरस-दर-बरस उन दोस्तों और स्थानों की यादें ताज़ा कराते रहते हैं । नर्सरी से जरूरत का सामान खरीद कर बाहर निकल ही रहा था कि किनारे पर रखे गमले में लगे गुड़हल के छोटे से पौधे ने बरबस ही अपनी ओर ध्यान खींच लिया । गुड़हल के पौधे पर सुर्ख लाल रंग के फूल आते हैं लेकिन जो पौधा मैं देख रहा था उस पर पीले रंग का फूल था । वह छोटा सा पौधा एक नन्हें बच्चे की तरह से मानों मुझे एक निश्चल मुस्कान लिए ऐसे निहार रहा था कि मेरे बढ़ते कदम भी ठिठक गए । अपनी मूक भाषा में जैसे वह जिद कर रहा था मुझे अपने साथ ले चलो । पौधे नहीं खरीदने की भीष्म-प्रतिज्ञा एक तरह से टूटने की कगार पर आ गई थी । मन में चल रहे अंतर्द्वंद को श्रीमती जी अब तक भाँप चुकी थीं । वह सीधे काउंटर पर बैठे नर्सरी के मालिक से उस पीले-गुड़हल के लिए मोल-भाव करने लगीं । मैंने तो सारी ज़िंदगी सीमेंट बेचा इसलिए आपको शायद यह बात मज़ेदार लगे कि मैं किसी भी सामान को बेचने के मामले में उस्ताद हूँ पर जब बात ख़रीदारी पर आ जाए तो मेरी हवा निकल जाती है । कुछ ही देर में पूरे मोल-भाव के बाद श्रीमती जी ने उस पौधे का मालिकाना हक़ प्राप्त कर मेरे संरक्षण में दे दिया । इस तरह से उस पौधे को मेरे साथ आना ही था सो आया ।
अब घर पर उस पीले-गुड़हल के पौधे को विशेष दर्जा मिला – क्योंकि अपनी भीष्म प्रतिज्ञा तोड़ गाढ़े पसीने की कमाई से गांठ का पैसा खर्च करके जो लाये थे । घर आने वाले सभी मेहमानों को बड़े गर्व से उस पीले फूल को भी दिखाते । कुछ दिनों के बाद वह पीला फूल तो अपनी उम्र पूरी कर मुरझा कर चल बसा । अब नए फूल के आने का इंतज़ार बड़ी बेसब्री से शुरू हुआ । इंतज़ार की घड़ियाँ लंबी होती हैं यह तो पता था पर अच्छे दिनों से भी ज्यादा इंतज़ार करना पड़ेगा यह अंदाज़ा कतई नहीं था । फिर सोचा कि खाली हाथ पर हाथ धर कर बैठने से तो कुछ होने वाला नहीं सो इन्टरनेट पर लंबी चौड़ी रिसर्च कर डाली । तरह- तरह की खाद डाली , दवाइयाँ डाली, टोने-टोटके किए पर फूल को नहीं खिलना था तो नहीं खिला। उस पौधे के इतने नखरे देख कर गुस्सा भी बहुत आया और खीज भी । आज भी सोचता हूँ , इतनी रिसर्च अगर मैंने गंजी खोपड़ी पर बाल उगाने के लिए किसी तेल को ईजाद करने में की होती तो सफलता पाँव चूम रही होती ।
इसी दौरान वह पौधा कई बार बीमार भी हुआ , कभी पत्तों पर कीड़े लगे और कई बार तो इतना सूख गया कि लगा अब तो चल बसा । लेकिन कुछ उसका हठीला स्वभाव और कुछ मेरा इलाज़ – हर बार वह विजय-पताका फहराता फिर से मस्त मलंग हो कर प्रकट हो जाता और अपनी भाषा में मुझे चिढ़ाते हुए मानों कहता “ इतनी जल्दी तेरा पीछा नहीं छोड़ने वाला”। धीरे-धीरे मैं भी मायूस हो चला और उस पीले -गुड़हल को बिना फूल के ही स्वीकार करने में अपनी भलाई समझी । दिन बदलते गए महीनों में और महीने बदले साल में । इसी तरह पूरे तीन साल का समय निकाल गया और वह बिना फूल का पीला गुड़हल अब भी किसी उद्दंड बालक की तरह से मेरे सब्र का लगातार इम्तहान लिए जा रहा था ।
अभी कुछ दिन पहले की ही बात है - मेरे यहाँ साले साहब का आना हुआ । घर के पास ही रहते हैं । उन्हें वह गमले में लगा गुड़हल का पौधा दिखाते हुए कहा कि आपके यहाँ तो अच्छा – खासा बगीचा है ,इसे ले जाइए । वहाँ अपनी जमीन पर लगा दीजिएगा तब हो सकता है यह और अधिक पनप सकेगा और फूल भी आ जाएँगे । व्यस्तता के कारण उन्होने उस समय पौधे को ले जाने में असमर्थता जताई लेकिन साथ ही भरोसा भी दिया कि जल्द ही आकर उसे ले जाएँगे ।
अभी कल की ही बात है , पौधों में पानी लगा रहा था । जब गुड़हल की बारी आई तो आश्चर्य से आँखें खुली की खुली रह गयीं । अड़ियल गुड़हल पर पीला फूल शान से लहरा रहा था । मेरी ओर बहुत ही शरारती मुस्कान बिखरते हुए कह रहा था – “क्या अब भी मुझसे छुटकारा पाना चाहते हो भैया जी”। मैंने भी उसी की भाषा में जवाब भी दे दिया “ नहीं रे – कतई नहीं”।
मुझे ना जाने क्यों ऐसा महसूस होता है कि उस अड़ियल गुड़हल ने मेरी बात सुनी, समझी और जब लगा कि अब तो घर से विदा होने की नौबत आ गई है तो उसने भी एक समझदार बच्चे की तरह अपनी जिद छोड़ने में ही भलाई समझी। अकल आयी बेशक तीन साल के लंबे इंतज़ार के बाद ही । यह मात्र संयोग नहीं है – पर मेरी बात पर विश्वास करने के लिए आपको भी मेरी तरह प्रकृति-परिवार का आत्मीय सदस्य बनना पड़ेगा । कुछ गलत तो नहीं कहा मैंने ?
True sir they do understand if you talk to them they are like ur kids
ReplyDeleteVery correct Vipin ji .🙏
DeleteWe are part of 'nature' and should understand that our existence is interdependent.Thanks for weaving a beautiful-emotional-motivating story.
ReplyDeleteThanks for such a logical observation. 🙏🙏
DeleteThis is true that little plants as a little kids. .....when we care them than it shows their naughtiness...that moments is so memorable.. .. plants like a our children and we are correlated to each other
ReplyDeleteआपकी बात से पूर्णतया सहमत हूं। और हां आपकी गंजे सिर वाली बात बेहद पसंद आई। यही सब आपकी लेखनी को चार चांद लगा देते हैं।
ReplyDeleteकथावाचक को भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई ।
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