Friday 3 January 2020

🎧 माँ

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अक्सर समय -समय पर मैं अपने दोस्तों और परिचितों से अनुरोध करता रहता हूँ कि मुझे इस ब्लाग में लिखने के लिए कुछ मसाला दो । मसाले से मेरा मतलब है – कुछ अनुभव, कुछ किस्से -कहानी । ज़्यादातर मामलों में भाई-लोग खामोश ही रहते हैं जिसका कारण मैं आज तक समझ नहीं पाया। हो सकता है वे व्यस्त हों या किसी प्रकार का संकोच हो । नतीजा यह होता है कि मेरा काफी समय सोचने में ही निकल जाता है कि अब किस विषय पर लिखा जाए । उस दिन भी दिमाग में कुछ इसी प्रकार की उधेड़-बुन चल चल रही थी । उसके साथ ही बिजली की चमक की तरह विचार कौंध उठा - अरे जिस तरह के प्रेरणादायक व्यक्तियों  को मैं दुनिया भर में खोजता फिरता हूँ उनमें से एक तो ठीक मेरे घर में ही मौजूद है – मेरी अपनी माँ । आज की कहानी मेरी माँ । 

बिखेरे खुशियाँ जो हर पल - वही तो है माँ 
माँ किसी की भी हो , हमेशा माँ हमेशा ख़ास होती है । उसकी हर बात ख़ास होती है ।हर किसी को अपनी माँ प्यारी होती है, मुझे भी है । ज़िंदगी की पढ़ाई की पहली शिक्षक माँ ही तो होती है । बहुत कुछ उससे सीखने को मिलता है अब यह आप पर निर्भर है कि आप क्या और कितना ग्रहण कर पाते हैं । बदनसीब हैं वह जो इस लाड़ -दुलार और स्नेह की देवी को वह सम्मान, आदर और प्यार नहीं देते जिसकी वह हकदार है । 
फूल ने भी सीखा मुस्कराना - माँ से 
आज मेरी माँ की उम्र 85 वर्ष है । इतनी उम्रदराज होने बावजूद पूरी तरह से सक्रिय । गठिया की परेशानी के कारण चलने-फिरने की दिक्कत है – व्हीलचेयर का सहारा लेना पड़ता है । इतना सब होने पर भी खुश- मिजाज़ । अभी भी पढ़ने का इतना शौक कि आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे । रोज़ चार घंटे का समय पढ़ने में लगता है जिसकी शुरुआत हर सुबह के अँग्रेजी समाचारपत्र हिंदुस्तान टाइम्स से होती है । उनके लिए नियमित रूप से पुस्तकालय से पाँच किताबें लाता हूँ जिन्हें दो हफ्ते में पढ़कर मुझे वापिस थमा दिया जाता है । बाकी समय अपने स्मार्ट फोन से पसंद के बेहतरीन गाने – गज़ल सुनने में व्यतीत होता है । और हाँ, इंटरनेट टेलीविज़न पर अच्छे कार्यक्रम या फिल्म्स तो ढूँढ -ढूँढ कर देख लेती हैं । कुल मिला कर अपना कीमती समय बहुत ही समझदारी और आनंददायक तरीके से बिता रहीं हैं । ना किसी से कोई नौंक -झौंक , ना ही किसी किस्म की शिकवा -शिकायत । आत्म-संतोष की एक तरह से जीते-जागती मिसाल, जिसे आप कह सकते हैं - कछु लेना ना देना, मगन रहना । 
कछु लेना ना देना-  मगन रहना 
तीन बातों का मैं विशेष रूप से ज़िक्र करना चाहूँगा । पहली – हर किसी की सहायता को हमेशा तैयार- चाहे वह अंध- विद्यालय के लिए नियमित रूप से चंदा हो, या गरीब विद्यार्थियों के लिए आर्थिक मदद । किसी जमाने में दिल्ली में 1984 में हुए सिक्ख विरोधी दंगों के दौरान शरणार्थी शिविर के लिए घर से ही खाना-पीने का सामान खुद ले जाती थीं । इतना सबके बावजूद भी मैंने आज तक उन्हें किसी भी प्रकार का कर्म-कांड या पूजा-पाठ करते नहीं देखा । दूसरा आश्चर्य – मैंने उनको आज तक गुस्सा करना तो दूर, किसी से ऊँची आवाज़ में बात करते भी नहीं देखा ।हर समय साथ रहने वाला अगर एक बेटा यह बात कह रहा है तो इस बात में कितना दम है आप अच्छी तरह से समझ सकते हैं । यही दो विशेष दो बातें हैं जो बहुत कम ही देखने को मिलती हैं । शायद आज की इस कहानी को आप तक पहुंचाने की वजह भी यही है । 
माँ - हर हाल में खुश 
तीसरी विशेषता है – जीवन की समस्याओं से हार नहीं मानना बल्कि संघर्ष करते हुए उन पर जीत हासिल करना । इस के बारे जानने के लिए उनकी जीवन यात्रा की एक छोटी सी झलक ही काफ़ी होगी । जैसे कि पहले ही आपको बता चुका हूँ, उनका जन्म आज से लगभग 85 वर्ष पूर्व हुआ – उत्तरप्रदेश के जिला बुलंदशहर के एक छोटे से गाँव कतियावली में ।उनके  पिता एक योग्य शिक्षित वैद्य थे । अच्छा -खासा नाम और प्रेक्टिस थी । दुर्भाग्य ने दस्तक दी – महज़ 28 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही चल बसे । पत्नी के साथ पीछे छोड़ गए तीन छोटे-छोटे बच्चे – जिनमें सबसे बड़ी थी सात वर्ष की पुष्पा ( यानी मेरी माँ ), उनसे छोटे दो भाई एक की उम्र पाँच वर्ष और दूसरे की सिर्फ नौ माह । अचानक सर पर टूटे इस दु:ख के पहाड़ को विधवा नानी ने बहुत ही हिम्मत से झेला ।
मेरी माँ - अपनी माँ के साथ 
हालात इतने कठोर हुए कि ना चाहते हुए भी आर्थिक मजबूरियों के चलते, पालने -पौसने के लिए एक प्रकार अपने तीनों बच्चों का भी बंटवारा करना पड़ गया । इस तरह मेरी माँ – पुष्पा का बचपन अपनी बुआ -फूफा के पास बीता । उनके सबसे छोटे नौ माह के भाई को मौसी ने गोद ले लिया । केवल मझला भाई ही अपनी माँ यानी मेरी नानी के पास रह सका । कठिन परिस्थितियों में नानी ने किस प्रकार अपनी पढ़ाई पूरी की , उसके बाद खुद टीचर बन कर अपने पाँव पर खड़ी हुई यह अपने आप में अलग ही कहानी है । 
पिता और माँ 
मेरी माँ का विवाह तभी हो गया था जब वह मेट्रिक में पढ़ रही थी। जिस परिवार में शादी हुई वहाँ के गुज़र -बसर के हालात भी बस काम – चलाऊ ही थे । पढ़ने -लिखने में माँ का दिमाग शुरू से ही तेज़ रहा । बस थोड़े में यह समझ लीजिए कि जीवन में आने वाली हर कठिनाई को सहज भाव से चुनौती देते हुए, आने वाले समय में उन्होने पढ़ाई जारी रखी । बुरे दिनों में ऐसे मौके भी आए जब परीक्षा की फीस भरने को भी पैसे नहीं थे । एक के बाद एक सीढ़ी - इंटर , बी०ए, बी०एड और एम०ए तक पहुँचने पर ही दम लिया ।

पढ़ाई में अव्वल - मेरी माँ 
और हाँ एक विशेष बात – माँ एक बहुत ही प्रभावशाली अध्यापिका रही हैं और उनके पढ़ाए विद्यार्थी अपने जीवन और विभिन्न कार्य क्षेत्रों में नाम कर रहे हैं । घर-परिवार और बाहर दोनों जगहों की ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई और वह भी माथे पर बिना कोई शिकन डाले । सुबह की शिफ्ट का स्कूल होता था जहां जाने से पहले सुबह पाँच बजे उठ कर ब्रह्म मुहूर्त में हम सब के लिए नाश्ता -खाना तैयार करना और दोपहर को वापिस आकर घर के बाकी काम काज में जुट जाना ।
स्कूल में मेरी अध्यापिका माँ 
अध्यापन का उनका लगभग 35 वर्षों का गौरवशाली इतिहास रहा है और दिल्ली प्रशासन के शिक्षा विभाग से बतौर सीनियर लेक्चरार रिटायर हुई । आजकल वह अपने अवकाश प्राप्त जीवन का भरपूर आनंद ले रही हैं जिसकी झलक मैं आपको पहले ही दिखा चुका हूँ ।

मुझे ज़िंदगी में माँ से बहुत कुछ सीखने को मिला है । हो सकता है आपको भी इस कहानी को पढ़ कर अपनी माँ की याद आए और मिलती जुलती कुछ बातें भी मिल जाएँ । तभी तो कहते हैं सब माँ एक जैसी होती हैं पर माँ जैसा कोई नहीं ।

4 comments:

  1. True indeed sir bhagwan हमेशा उनको स्वस्थ्य रखे...

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  2. मांवां ठंडियां छांवां,मातृ शक्ति को नमन 🙏🌹❤️

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  3. मां जी को शतशत् नमन

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  4. प्रभावशाली आवाज़, मधुर संगीत तथा सुन्दर चित्रों ने माँ की कहानी को और अधिक सुन्दर बना दिया है ।जैसे हरि अनंत हरि कथा अनन्ता, वैसे ही माँ की कहानी भी कभी पूरी नहीं होगी।

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