Wednesday, 20 November 2019

🎧यूँ होता तो क्या होता 🎧


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यूँ होता तो क्या होता 
- करुण  शर्मा ,
सहायक महाप्रबंधक (से॰ नि॰ )- भारतीय स्टेट बैंक
  


हुई मुद्दत कि ‘गालिब’ मर गया पर याद आता है ,
वो हर बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता । 

मिर्ज़ा गालिब का यह शेर मुझे बरबस याद आ गया जब मुझे बरसों पहले की आपबीती याद आ गई । इस आपबीती से मुझे ज़िंदगी को एक अलग नए नज़रिये से देखने का मौका मिला | बात यह उन दिनों की है जब मैं कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर नया-नया नौकरी पर लगा था । एक नामी -गिरामी उद्योगपति के औद्योगिक समूह के मुख्यालय के कंप्यूटर डिवीजन में तैनाती थी । यह आज से लगभग छत्तीस साल पुराना वह ज़माना था जब देश में कंप्यूटर किसी अजूबे से कम नहीं समझा जाता था । यहाँ तक कि कंप्यूटर के क्षेत्र से जुड़े सभी नौकरी – पेशा लोगों को वह सम्मान हासिल होता था जैसे वह इस धरती का नहीं वरन स्वर्ग-लोक से उतरा कोई आलौकिक प्राणी है । पूरे दफ्तर में अलग ही रुतबा होता था । और हो भी क्यों ना, जब ऊँचे से ऊँचे ओहदे के आला अफसरों को भी एयर कंडीशनर की सुविधा आसानी से उपलब्ध नहीं होती थी , हम गद्देदार रिवोलविंग कुर्सी पर बैठ कर ए॰ सी॰ आफिस का मज़ा लूटा करते थे । अब यह बात अलग है कि वह ए॰ सी॰ हमारे लिए नहीं वरन उन देवलोक से उतरी मशीनों के लिए होता था जिन्हें सब कंप्यूटर के नाम से जानते थे । सब कुछ मज़े में चल रहा था पर दिल के किसी कोने में कहीं कुछ कसक भी बाकी थी । वह कसक थी ज़िंदगी में कुछ कर गुज़रने की, कुछ ऐसा करने की जिसे दुनिया लंबे समय तक याद रखे । लेकिन मुझे यह भी पता था कि ऊँची, उन्मुक्त उड़ान भरने के लिए खुला आकाश चाहिए । उन दिनों भी प्राइवेट सेक्टर की नौकरी चाहे जितनी भी लुभावनी हो, घूम- फिर कर कहलाती तो लाला की नौकरी ही थी । सरकारी नौकरी का तिलिस्म तब भी सर चढ़ कर बोला करता था । 

शाहरुख खान ने किसी फिल्म में सही डॉयलाग मारा था – अगर किसी चीज़ को शिद्दत ( दिल) से चाहो तो पूरी कायनात (सृष्टि) आपको उससे मिलाने में जुट जाती है । मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में अपने मतलब की नौकरी का विज्ञापन देखा । तुरंत आवेदन भर कर भेज दिया । उम्मीद के अनुसार जल्द ही बैंक के मुख्यालय से साक्षात्कार के लिए बुलावा भी आ गया। इंटरव्यू मुंबई में ही होना था सो ट्रेन का रिज़र्वेशन करवाने में भी कतई देर नहीं की । इंतज़ार की घड़ी लंबी हो चली थीं । अब मेरा सपना था देश के सबसे बड़े बैंक के कंप्यूटर विभाग का सर्वोच्च अधिकारी बनने का । आखिर मुंबई जाने का नियत दिन भी आ ही गया । हाथ में एक अदद सूटकेस थामें नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गया । प्लेटफॉर्म पर पूछताछ कर ट्रेन के डिब्बे में बैठ गया और तुरंत ही ट्रेन चल भी पड़ी । अचानक ही पास बैठे दो यात्रियों की बातचीत से पता चला कि यह तो मुंबई जाने वाली ट्रेन नहीं है । मुझे तो जैसे चार सौ चालीस वोल्ट का करेंट लग गया । लगा जैसे किसी ने सर पर हथोड़ा दे मारा हो । उछल कर सीट से खड़ा हो गया और भागा दरवाजे की ओर । तब तक ट्रेन ने धीर-धीरे रफ्तार भी पकड़नी शुरू कर दी थी । किसी ने ठीक ही कहा है – ऐसे आपात काल में इंसान का दिमाग भी काम करना बंद कर देता है । मेरे एक हाथ में भारी-भरकम सूटकेस था फिर भी ट्रेन की खतरे की जंजीर खीच कर रोकने की चेष्टा करने के स्थान पर मैंने आव देखा ना ताव चलती ट्रेन से प्लेटफार्म पर सीधे छलांग लगा दी । मेरे उस खतरनाक कारनामे को देख रहे प्लेटफार्म पर खड़े प्रत्यक्षदर्शी यात्रिओं के हुजूम में खलबली सी मच गई । सब की साँसे एक पल के लिए मानो रुक सी गयीं । वह क्षण विशेष जब मैं डिब्बे से छलांग मार चुका था और प्लेटफार्म पर कदम पड़ने से पहले स्लो मोशन में हवा में तैर रहा था, आज भी मेरी यादों के पर्दे पर जैसे फ्रीज़ हुआ पड़ा है। वह ख़ास लम्हा ही मेरी ज़िंदगी का वह मुक़ाम था जहाँ से मेरी ज़िंदगी और भविष्य का फैसला होना था ठीक ग़ालिब के उसी शेर की तर्ज़ पर कि यूँ होता तो क्या होता । नहीं समझे – चलिए ज़रा तफ़्सील से समझाता हूँ । 
अब चलती गाड़ी से हाथ में सूटकेस लिए मैं भारी जोखिम उठाते मैं प्लेटफार्म पर कूद तो गया पर उस दिन ईश्वर और भाग्य मेरे साथ था जिसके कारण मैं सॉफ्ट लेंडिंग करने में सफल रहा । ज्यादा सोचने का समय था नहीं, भागते -दौड़ते मुंबई जाने वाली सही गाड़ी में बैठा । मुंबई पहुँच कर नौकरी के लिए साक्षात्कार देकर वापिस दिल्ली लौट आया । 

कुछ समय बाद मुझे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से अपने सफल होने की सूचना के साथ नियुक्ति-पत्र भी मिल गया । पुरानी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर मैंने बैंक के आई ॰ टी डिवीज़न से जुड़ गया । लगभग चौंतीस साल का कार्यकाल कोई थोड़ा समय नहीं होता है । उस कार्यकाल की एक अपनी ही अलग कहानी है जो भरी पड़ी है ढेरों खट्टे -मीठे अनुभवों , संघर्षों, जगह -जगह हुए ट्रान्सफर, उपलब्धियों और समय-समय पर मिलने वाले प्रमोशन्स के किस्सों से । सपने काफी हद तक पूरे हुए जब मेरी अतिरिक्त महाप्रबंधक के पद से सेवा-निवृत्ति हुई । 
पर इस कहानी का एक दूसरा पहलू भी है जो जा कर अटकता है उन लम्हों में जब मैं गलत डिब्बे में जा बैठा था । क्या होता अगर मैं चलती ट्रेन से नहीं कूदता ? ज़ाहिर सी बात है मैं मुंबई नहीं पहुँच पाता । उसी तरह अगर डिब्बे से कूदते वक्त कोई हादसा हो जाता, तब भी मुंबई की नौकरी पाना तो दूर की baat- ज़िंदगी , हाथ- पाँवों और लगी-बधीं लाला की नौकरी के भी लाले पड़ जाते । मैं ट्रेन से कूदा, मेरे कदम नहीं डगमगाए, अपने सही-सलामत हाथ-पाँवों के साथ सही गाड़ी में बैठ कर मुंबई पहुँचा, इंटरव्यू दिया, सफल हुआ – सिर्फ इसलिए तब वक्त और भाग्य मेरे साथ था । हाँ उसके बाद बैंक की नौकरी के दौरान कड़ी मेहनत, मधुर व्यवहार, मिलन-सारिता और संघर्षों ने अपना पार्ट अदा किया जिसका मुझे आत्मसंतोष की हद तक फल भी मिला । इसीलिए ग़ालिब गलत नहीं हैं जब वह कहते हैं : यूँ होता तो क्या होता ।
( प्रस्तुति : मुकेश कौशिक )
(तकनीकी सहायता : मेड एंगिल फिल्म्स  )

Thursday, 14 November 2019

बाल सखा : मान सिंह

मेरी यादों का पिटारा दरअसल एक बाबा आदम के जमाने का डिब्बा- कैमरा है | वही डब्बेनुमा तिपाई के ऊपर टिका काले कपड़े से ढ़का कैमरा जिसे पुरानी पीढ़ी के लोगों ने अक्सर सड़क किनारे या नुमाइशों – मेलों में देखा होगा और हो सकता है खुद फोटो खिचवाई भी हो | उसी कैमरे के अंदर झाँकने पर मुझे कभी -कभी यादों के ढ़ेर में बहुत ही पुरानी और धुंधली सी कुछ ऐसी तस्वीरें नज़र आ जाती हैं जो आज भी दिल में एक गहरी सी टीस छोड़ जाती हैं | ऐसी भावुक स्मृतियाँ जिन्होने दिल की गहराइयों में उतर कर गहरी जड़ें जमा लीं हों, वह तो सारी ज़िंदगी आपके कंधों पर सवार रहकर हर क्षण अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाती रहेंगी ही | मान सिंह भी मेरे बचपन से जुड़ी एक ऐसी ही याद है जिसे आज आप सबसे साझा कर रहा हूँ |

मान सिंह से मिलने के लिए आपको मेरे साथ वक्त की पटरी पर बहुत ही पीछे चलना पड़ेगा | मेरठ – रुड़की -सहारनपुर रेल मार्ग पर एक नन्हा सा स्टेशन है – डौसनी | वह आज से साठ साल पहले भी तन्हा और वीरान था और आज भी उसी हालत में है | शायद वह भी आज तक अच्छे दिनों का इंतज़ार ही कर रहा है | सभी मेल और एक्सप्रेस गाडियाँ अभी भी तूफानी गति से उस स्टेशन पर बिना रुके धूल उड़ाते गुज़र जाती हैं | उस स्टेशन की हमदर्द हैं केवल कुछ गिनी -चुनी मरियल पेसेंजर गाडियाँ जो अपनी मर्जी से लखनवी अंदाज़ में शरमाती-सकुचाती आती हैं, आराम से ठहरती हैं और फिर किसी बूढ़े गठिया के मरीज की तरह कलपती -कराहती होले-होले विदा हो जाती हैं | मेरे नाना वहीं पर स्टेशन मास्टर थे यानी एक तरह से सर्वे-सर्वा | मेरे बचपन की प्राचीनतम यादें वहीं से जुड़ी हुई हैं | रेलवे के क्वाटर में रहते थे | उस समय मेरी उम्र होगी यही कोई चार –पाँच साल की | सारे दिन घर के आसपास और उस वीरान से स्टेशन पर ही खेलकूद में व्यस्त रहता | मुझे वह शाम अभी भी अच्छी तरह से याद है – शाम के तीन-चार बजे का सा समय था | मैं अपनी नानी के साथ रेलवे क्वाटर के सामने बैठा धूप सेक रहा था | तभी स्टेशन पर ही काम करने वाला एक कर्मचारी आया | उसके साथ एक बच्चा था जिसकी उम्र लगभग दस साल होगी| बच्चे के हाथ में एक झोला था जिसमें दो-चार कपड़े थे | पूछने पर बच्चे ने अपना नाम मान सिंह बताया |उसके पिता बहुत ही बेरहमी से मारपीट किया करते थे इसलिए तंग आकर पौड़ी गढ़वाल के गाँव के घर से भाग लिया | स्टेशन पर आवारा भटकते उस बच्चे पर जब रेलवे कर्मचारी की नज़र पड़ी वह उसे लेकर हमारे घर आ गया | बहुत समझाने –बुझाने पर भी वह वापिस अपने घर लौटने को तैयार नहीं था | आखिरकार नानी का दिल पसीज ही गया और इस तरह उस बेसहारा बच्चे को मिला बसेरा और मुझ एकल और तन्हा बच्चे को मिला अपने जीवन का पहला दोस्त – बालसखा मान सिंह |

 पिकनिक : बाएँ से - मैं , पिता, बहन, भाई, माँ और अंत में मान सिंह  

अब मेरा समय और ज्यादा मस्ती कटने लगा – मान सिंह का साथ जो मिल गया था | घर के काम -काज में भी मानसिंह नानी का हाथ बटा देता था | घर में जल्द ही एक परिवार के सदस्य की तरह से घुल-मिल गया | मैंने तो यहाँ तक सुना कि एक बार किसी परिचित ने नाना के सामने मान सिंह का ज़िक्र एक नौकर के रूप में कर दिया | इतना सुनना भर था कि नाना  ने गुस्से में  रौद्र रूप दिखलाते हुए दहाड़ मारी कि मेरे  बच्चे को नौकर कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई | यह था मेरे नाना -नानी के मान सिंह से आत्मीय लगाव की पराकाष्ठा जिससे उस बच्चे के मन में पारिवारिक सदस्य होने की भावना के शुरुआती बीज पनपे | जहां कहीं भी हम जाते मान सिंह हमारी टीम का स्थायी हिस्सा होता | अगर किसी रिश्तेदारी में भी जब कभी जाते तो वह बच्चा वहाँ भी अपनी मिलनसारिता से सभी में ऐसे घुल-मिल जाता जिसे दूध में बताशा |

कुछ समय बाद डौसनी स्टेशन से बदली होकर पास के स्टेशन पथरी भी रहे | यह वही पथरी है जिसके बारे में पूरी कहानी बचपन की बहार: पथरी की पुकार में पढ़ी होगी | अगर नहीं तो दिये गए लिंक पर क्लिक करके फिर से याद ताज़ा कर सकते हैं |  मानसिंह का साथ बना रहा | खेलकूद में तो वह साथ रहता ही, मुझे अपने रोज़मर्रा के कामों में भी शामिल कर लेता जिसमें मुझे भी बहुत मज़ा आता | लालटेन की चिमनी साफ करना, अँगीठी सुलगाना, कोयले वाली प्रैस से कपड़ों पर इस्तरी होते अचरज से देखना मेरे लिए एक तरह से खेल और मनोरंजन का साधन बन चुके थे | 

पथरी आने के कुछ ही साल बाद वक्त ने बड़ी ज़बरदस्त करवट ली | मुझे अपने माता-पिता के पास उड़ीसा जाना पड़ा | नाना का कैंसर से आकस्मिक निधन हो गया | नानी और मान सिंह को मेरे मामा- जो नेवी में लेफ्टिनेंट थे, अपने पास दिल्ली ही ले आए | कुछ साल बाद मेरे पिता भी उड़ीसा छोड़ कर दिल्ली आ गए थे | यहीं पर मुझे अपना बाल- सखा दोबारा मिला | मान सिंह  के साथ हम सभी भाई -बहन मिल कर जो हल्ला -गुल्ला और शोर शराबा मचाते थे उन सभी शरारतों की मिठास आज भी मेरी ज़िंदगी में मौजूद है | इस धमा-चौकड़ी में शामिल होने में मामा भी तब पीछे नहीं रहते |

बाएँ से : आगे ; मैं , मामा और पीछे भाई, माँ , बहन और मान सिंह  

बाएँ से :  मान सिंह, मैं, भाई -राकेश जी , सबसे आगे बहन पारुल 
उसी दौरान दिल्ली में ही नेवी वाले मामा की शादी हुई- वह भी बहुत ही धूम-धाम से | मान सिंह जो तब किशोरावस्था में प्रवेश कर चुका था, शादी की तैयारियों और प्रबंध करने में घर के किसी बड़े- बुज़ुर्ग की सी ज़िम्मेदारी दौड़-दौड़ कर निभा रहा था | यह घर उसका है – यह ख्याल बहुत अंदर तक उसके मन में घर कर चुका था | घर के सभी सदस्यों को रिश्तों के नाम से ही संबोधित करना उसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार लगता था | शादी के बाद मामा दिल्ली से ट्रान्सफर हो कर अपनी पत्नी , माँ और मानसिंह के साथ बंबई ( आज की मुंबई) चले गए | बाल-सखा फिर बिछड़ गया |

समय अपनी रफ्तार से दौड़ रहा था | मैं स्कूल की पढ़ाई में व्यस्त था | फिर एक दिन खबर आई मान सिंह बंबई में घर छोड़ कर कहीं चला गया | ऐसी क्या बात हुई जिसने उसके दिल को इतना झकझोर दिया यह बात लंबे समय तक रहस्य ही रही | इस मुद्दे पर कहानी से जुड़े सभी पात्र लंबे समय तक खामोश ही रहे कभी कुछ बताया नहीं |

तब तक मैं आठवीं कक्षा में आ गया था | दिल्ली में मानसरोवर पार्क में रहा करते थे | एक दिन मान सिंह घर पर अचानक आ पहुंचा | मेरी खुशी का मानो ठिकाना ही नहीं था | इतनी खुशी कि उस दिन स्कूल का भी चुपचाप बहिष्कार कर दिया | माँ अध्यापिका थी , रोजाना की तरह से  तब तक घर वापिस लौटी नहीं थी | अब घर पर कोई रोकने वाला था नहीं सो उनकी अनुपस्थिति का पूरा फायदा लेते हुए  उठाई साइकिल और पास के ही सिनेमाघर में पहुँच गए पिक्चर देखने मानसिंह के साथ | पिक्चर के बाद इधर-उधर घूमते रहे | शाम को जब वापिस घर पहुंचे तब हमारी खुद की जो पिक्चर बनी वह आज तक मुझे याद है | मानसिंह तो कुटाई से बच गया पर मेरी जो कान खिचाई हुई….. तौबा-तौबा | उसने माँ को बताया कि वह दिल्ली में ही किसी डाक्टर के यहाँ काम कर रहा था |उसके बाद लंबे अरसे तक मान सिंह से कोई संपर्क नहीं रहा | मां को वह जीजी कहा करता था | नानी –मामा के घर को वह मुंबई में बहुत पहले ही छोड़ चुका था इसीलिए शायद उसने सोच समझ कर ही दूरी बना कर रखी थी | वह दोनों परिवार के बीच किसी भी प्रकार की गलतफहमी संभवत: नहीं चाहता होगा |
कई बरस इसी प्रकार बीत गए | मैं भी कॉलेज की पढ़ाई के सिलसिले में दिल्ली से बाहर चला गया | जब वापिस लौटा – शायद वर्ष 1977 चल रहा था | मेरे उम्र भी तब तक बीस साल की रही होगी | घर के आँगन में बैठा कुछ पढ़ रहा था | दरवाजे पर ठक-ठक हुई| जा कर दरवाजा खोला – आँखे आश्चर्य से खुली की खुली रह गईं | सामने मान सिंह था | लेकिन दूसरे ही पल मुझे लगा मैं चक्कर खा कर नीचे गिर पड़ूँगा | मानसिंह बैसाखियों के सहारे खड़ा था | उसकी बड़ी -बड़ी आँखे मुझे बरबस निहार रहीं थी | उसके होठों पर अपने बचपन के बाल –सखा को देख कर वही पुरानी मुस्कान होठों से निकलने का मानों भरसक असफल प्रयास कर रही थी | मैं उसे सहारा देकर अंदर घर में लाया | उसकी हालत को याद करके आज भी मेरे आँसू निकल आते हैं | जब वह बैठा तब मुझे पता चला उसकी गरदन भी पूरी तरह से जकड़ चुकी थी | टांग में बुरी तरह से जख्म हुआ पड़ा था | उसे हड्डियों की तपेदिक हो चुकी थी | पाँव का आपरेशन हुआ था जिसमें हड्डी को काटना पड़ा जिसके कारण एक पाँव छोटा हो गया और बैसाखियों का सहारा लेना पड़ा | वह मान सिंह जिसके साथ मैं बचपन में खेला करता था, जो कभी तीन पहिये की साइकिल पर मुझे बैठा कर पीछे से धक्का लगाता था और मेरी खिलखिलाहट आसमान को छूती, उसी बाल- सखा को आज बैसाखियों का सहारा लेने की मजबूर हालत में देख कर दिल पता नहीं कैसा-कैसा हो चला था | मेरे आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे | उसने काँपते हाथों से अपनी जेब से कुछ रुपये निकाल कर मेरी माँ को दिये, बोला जीजी अभी तो रखो , वक्त जरूरत पर मांग लूँगा | माँ ने तभी घर के पास के पोस्ट ऑफिस में उसका खाता खुलवा दिया | बातों ही बातों में उस दिन मान सिंह ने बताया कि तपेदिक होने के बाद, उस डाक्टर के यहाँ से भी काम छूट गया | फिलहाल वह नई दिल्ली में ही विकलांगों के लिए बने सरकारी पुनर्वास केंद्र में सिलाई का काम करता है | वहीं से जो थोड़ी-बहुत आमदनी हो जाती है उसी की पाई-पाई जोड़ कर यहाँ जमा करवाने आया है | मैं चुपचाप बैठा सोच रहा था कि यह वही मान सिंह है जिसके हाथों में किसी समय पूरे घर की चाबियाँ होती थीं | वक्त ने उस अच्छे –भले इंसान की क्या दुर्दशा कर दी | 
मैं उसके बाद फिर अपनी नौकरी के सिलसिले में घर से दूर चला गया | मान सिंह से मेरी फिर कोई मुलाक़ात नहीं हुई , कोई संपर्क नहीं हुआ | माँ ने बताया वह वापिस अपने उसी गाँव चला गया जहां से बचपन में किसी समय अपने निर्दयी पिता की मार से बचने के लिए भाग आया था | शायद जीवन के शेष दिन अपनी उसी मिट्टी में बिताना चाहता हो |
अब अंत में बात उस कड़वे सच की जिससे उस किशोर वय मानसिंह का जीवन ही उलट-पुलट कर रख दिया | पहले दिन से ही नाना –नानी ने उसे हमेशा घर का सदस्य ही माना | यही बात उसके मन में अंदर तक घर कर चुकी थी | नाना के निधन के बाद उसे नानी अपने नेवी वाले अफसर बेटे यानी मेरे मामा के पास चली गईं | मामा की शादी भी अत्यंत प्रभावशाली और ऊंचे खानदान में हुई थी | उस बदले परिवेश में मानसिंह को शीघ्र ही महसूस होने लगा अब वह परिवार का सदस्य नहीं है – बस रह गया है महज़ एक खानदानी नौकर | डाट-डपट के माहोल को वह सह नहीं पा रहा था | जिन नाना –नानी ने घर से भागे उस आठ साल के बेसहारा बच्चे को आसरा दिया, उनके परिवार को छोड़ने का निर्णय कोई आसान काम नहीं था | पर यहाँ प्रश्न आत्म सम्मान का था जिसने उसे हिम्मत दी यह सोच कर कि अगर नौकर बनना ही है तो किसी गैर के यहाँ बनो, कम से कम दिल तो नहीं दुखेगा | और इस तरह मेरा दोस्त चल पड़ा आत्म –सम्मान की डगर पर – निडर और निर्भीक हो कर | इस आत्म-सम्मान की लड़ाई में उसने बहुत कुछ गवायाँ भी लेकिन विपरीत परिस्थितियों के आगे उसने आत्म- समर्पण नहीं किया | 
मुझे नहीं पता मेरा बाल-सखा मान सिंह आज कहाँ है, किस हाल में है , और है भी या नहीं | उसका आधा अधूरा पता आज भी किसी डाक टिकट की तरह मेरे ज़हन के लिफाफे पर  चिपका है: 
मान सिंह बिष्ट, 
गाँव व पोस्ट ऑफिस : दुगड्डा
जिला: पौड़ी गढ़वाल 
उत्तराखंड 
मुझे आज भी यह आस है शायद कोई तो चमत्कार मुझे उससे फिर से मिला दे और मैं उसके गले से चिपट कर एक बार फिर उसी साठ वर्ष पहले की दुनिया में पहुँच जाऊँ जब वह मुझे डौसनी स्टेशन पर पहली बार मिला था |
( इस आपबीती कहानी के लिए सादर आभार आदरणीय विमल कुमार जी  और घर के बड़े-बूढ़ों का जिन्होने मेरी यादों के चश्में से धूल हटा कर इस संस्मरण को प्रामाणिकता दी )     

Sunday, 10 November 2019

मजबूर हूँ पर निराश नहीं : चंद्रभान

कबीर दास जी के एक दोहे की पंक्ति है : मन के हारे हार है, मन के जीते जीत | अर्थात सब कुछ आपके आत्म विश्वास पर निर्भर करता है | अगर आप हिम्मत हार बैठे तो सफलता नहीं मिल सकती | आज यह बात याद आने के पीछे भी एक विशेष कारण है | मेरी आदत है घर के पास बने पार्क में घूम कर आने की | वहीं पर कसरत करने की तरह -तरह की मशीनें भी लगी हैं जिन पर स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बच्चे, बूढ़े और जवान , सभी जोर-आजमाइश करते रहते हैं | मैं भी सामर्थ्य के अनुसार व्यायाम करता हूँ | आज का दिन भी और अन्य दिनों की तरह सामान्य ही था | पार्क में एक कोने में आवारा कुत्तों की टोली आराम फरमा रही थी | पेड़ों पर पक्षी चहचहा रहे थे | ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी | कसरत-मशीनों पर वही नियमित रूप से आने वाले पुराने जाने-पहचाने चेहरे पसीना बहाने में व्यस्त थे | एक नए चेहरे पर नज़र पड़ी | वह बड़ी तन्मन्यता से दीनो-दुनिया से बेखबर एक जिम मशीन पर कसरत कर रहा था |
कड़ी मेहनत - पक्का इरादा : चंद्रभान 
 एक बार सरसरी नज़र से देखने के बाद जब उस शख्स को दोबारा ध्यान से देखा तो अवाक रह गया - वह नेत्रहीन था | सफ़ेद कमीज़ और नीली जींस में उसका दुबला-पतला शरीर मानो कुछ अलग ही कहानी सुना रहा था |अपनी जिज्ञासा को मैं अधिक देर तक नहीं दबा सका और अंत में उस युवक के पास पहुँच ही गया - मन में उठ रहे तरह-तरह के सवालों के साथ | उस युवक ने जो कुछ भी अपने बारे में बताया वह मन को छू लेने वाला तो था ही , साथ ही प्रेरणादायक भी था | उस युवक जिसका नाम था चंद्रभान, की आपबीती कहानी को आप सब तक पहुंचाने के लोभ से मैं अपने आप को नहीं रोक सका हूँ | 
चंद्रभान का बचपन शुरू होता है उत्तरप्रदेश के इलाहबाद जिले के एक छोटे से गाँव – अकोढा से | बचपन के शुरुआती दिनों में वह बिल्कुल ठीक -ठाक था | चार साल की उम्र में उसे गंभीर बीमारी ने घेर लिया | सारे शरीर पर फुंसी -फोड़े निकल आये थे | गाँव के ही एक डाक्टर ने इलाज़ करना शुरू किया पर रोग था कि काबू में नही आ पाया | आँखों पर भी बहुत बुरा असर हुआ और धीरे -धीरे दिखना बंद होता चला गया | बाद में जब तक पता चला कि गाँव में इलाज करने वाला डाक्टर फ़र्जी – झोला छाप है, तब तक बहुत देर हो चुकी थी | आस-पास के शहरों में भी दूसरे डाक्टरों को दिखाने का कोई लाभ नहीं हुआ और इस तरह से नन्हे चंद्रभान की हंसती -खेलती दुनिया भयावह अंधेरों के आगोश में समा गयी | दुर्भाग्य की इतनी बड़ी मार उस छोटे से बच्चे के लिए कुछ कम नहीं थी | लगभग पूरा बचपन ही माता-पिता और रिश्तेदारों के इस दिलासे पर निकल गया कि इलाज चल रहा है – आँखे ठीक हो जायेंगी | सोचिए उस बच्चे की मनोदशा जिस के लिए सारी दुनिया गहन काली रात में बदल चुकी थी और जिसे हर दिन उस नयी सुबह का इंतज़ार रहता जिसमें वह फिर से देख पायेगा – अपनी मां , पिता , भाई-बहन , संगी -साथी, उगता सूरज, गाँव की पगडंडी और दूर तक फैले खेत | वह खुशनुमा सुबह कभी नहीं आयी और उसे अब इस अन्धेरा दुनिया में ही रहने की आदत डालनी पड़ेगी इसे स्वीकार करने में बहुत वक्त लगा |
इतनी घोर विपत्ति के बावजूद अब एक बात तो उस बच्चे के मनो-मस्तिष्क में धीरे -धीरे घर करने लगी – और वह यह कि इस दुनिया में अगर भविष्य में उसका कोई सहारा होगा तो वह स्वयं | उसके लिए जरुरी होगा पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खुद खड़े होना | गाँव के सामान्य स्कूल में ही शुरुआती पढ़ाई की | बाद में इलाहबाद के एक संस्थान से ब्रेल लिपि का अध्ययन किया | नेत्रहीनों के लिए पुस्तकें ब्रेल लिपि में ही लिखी जाती हैं जिनके उभरे हुए विशेष प्रकार के बिंदुदार अक्षरों को उँगलियों से स्पर्श करके पहचाना और पढ़ा जाता है | इसे सीखने का लाभ यह हुआ कि अब किसी और से पाठ सुनकर याद करने की निर्भरता लगभग समाप्त ही हो गयी | इसके बाद दिल्ली की ओर रुख किया| चन्द्र ने किसी तरह से सी.बी.एस .सी, दिल्ली बोर्ड से इंटर पास किया | गाँव में घर के आर्थिक हालात ठीक नहीं थे | जैसे-तैसे दिल्ली विश्वविद्यालय में बतौर प्राइवेट छात्र के रूप में दाखिला लिया | तमाम समस्याओं के बावजूद कई प्रयासों में आखिरकार बी.ए पास कर ही लिया | 
चन्द्रभान 
अब चंद्रभान अपने लिए काम की तलाश में है | बहुत ही मायूसी में कहता है “ आज के ज़माने में जब अच्छे-भले लाखों लोग बेरोजगार घूम रहे हैं तो मुझे कौन पूछेगा | इसके बावजूद मेरे हौसले बुलंद हैं और मैंने हिम्मत नहीं हारी है |” मुझे सबसे अच्छी बात चंद्रभान की यह लगी कि वह अपने स्वास्थ के प्रति जागरूक है | वह कहता है – भगवान् ने मुझे जो कमी देनी थी वह तो दे ही दी, पर इस दिए हुए शरीर को मजबूत और ताकतवर रखना तो मेरी ही जिम्मेदारी है | यही कारण है कि जब भी मौका मिलता है चंद्रभान आसपास के पार्क में बने खुले जिम में कसरत करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते हैं | जैसे की आपको लेख के शुरू में ही आपको बताया था उससे मेरी पहली मुलाक़ात भी ऐसे ही एक पार्क में हुई | जीवन के प्रति भी वह बहुत ही जिंदादिल और सकारात्मक सोच रखता है | मैं आश्चर्यचकित रह गया जब उसने मुझे बताया कि वह व्हाट्स एप और फेसबुक के माध्यम से सोशल मीडिया पर भी सक्रिय है | इस काम में टेक्स्ट से स्पीच जैसे कई सहायक एप्लीकेशन मदद करते हैं | 
आजकल वह दिल्ली के नंदनगरी में स्थित नेत्रहीनों के लिए बने एक संस्थान में रह रहा है | चंद्रभान के सामने समस्याओं का पहाड़ है लेकिन उसे विश्वास है गिरजा कुमार माथुर के उस गीत पर “मन में है विश्वास , पूरा है विश्वास, हम होंगे कामयाब एक दिन” | नौकरी की तलाश जारी है ..... मुझे भी उम्मीद है उसे मंजिल जरुर मिलेगी | मेरा मानना है कि कठिनाई के दौर से गुजरने वाले के लिए सहायता का हाथ और हिम्मत बंधाने वाले दो मीठे बोल से बढ़ कर और कुछ नहीं | अपने सभी समर्थ और सवेंदनशील पाठको से मेरी अपेक्षा है अगर उनके प्रयास से किसी की मजबूर बीच मझधार में डूबती ज़िंदगी को सहारा मिल जाए तो हम समाज और ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्य को कुछ हद तक पूरा कर सकेंगे | अपनी इसी आशा और अपेक्षा के साथ मैं चंद्रभान का फोन नंबर 9599853201 उसकी सहमति से आप सभी से साझा कर रहा हूँ, इस अपील के साथ कि इस संघर्षरत नेत्रहीन लेकिन शिक्षित नौजवान को जीवन में स्थापित करने में मार्गदर्शन करें , सहायता करें अन्यथा कम -से- कम हिम्मत तो जरूर बढ़ाएं |

Friday, 8 November 2019

खुशहाली का प्रतीक : सिरमौर की माता ला -देवी

इस पोस्ट को पढ़ कर मेरे कुछ दोस्त मुझ पर दक़ियानूसी और अंधविश्वासी का ठप्पा लगा सकते हैं | मेरी आज की बातें ही कुछ ऐसी हैं | अपने बचाव में इतना ही कहूँगा कि धर्म, भक्ति और ईश्वर एक आस्था का विषय है | इसमें क्यों, कैसे, तर्क और वाद-विवाद के लिए कोई जगह नहीं है | इन्हें वैज्ञानिक तर्कों की कसौटी पर परखना अपेक्षित नहीं होता | आज भी ऐसे अनगिनत अनसुलझे रहस्य हैं जिनका इतनी उन्नति के बावजूद विज्ञान के पास कोई स्पष्टीकरण नहीं है |ब्रह्मांड और जीवन का रहस्य भी कुछ ऐसा ही है – इंसान कहाँ से आता है, कहाँ जाता है -आज भी विज्ञान इस पर केवल माथा-पच्ची ही कर रहा है | इंसान की फितरत में है – चाहे खुशी में याद आए या न आए, पर जब संकट में गाड़ी रेत में फँस जाती है तब ईश्वर, अल्लाह और जीसस सब एक साथ याद आ जाते हैं | इसी लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और गिरजाघर उसी आदि-शक्ति तक पहुँचने की कोशिश के रास्ते इंसान ने खोज रखे हैं | आज आपको एक ऐसे मंदिर के दर्शन करवाता हूँ जिसके बारे में बहुत ही कम लोगों ने सुना होगा | पर जिन लोगों को इसके बारे में पता है उन सबका इस पर अटूट आस्था, विश्वास और मान्यता है | मैंने इस मंदिर में एक से ऊंचे एक अनेक दिग्गज हस्तियों को श्रद्धा से माथा टेकते और मनौती माँगते देखा है | यह छोटा सा लेकिन सादगी से परिपूर्ण मंदिर हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर की तहसील पाँवटा साहिब के निकट राजबन के एक सुनसान पहाड़ी जंगल में स्थित है | यह माता ला- देवी का मंदिर है | यह लेख मेरे स्वयं के राजबन निवास के लंबे अनुभव और वहाँ के निकटवर्ती गांवों में बसे मेरे अनेक दोस्तों और स्थानीय निवासियों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है |
इस मंदिर के इतिहास की जड़ें प्राचीन सिरमौर राज्य के राजा तक पहुँचती हैं | ज्यादा जानकारी मेरे ब्लाग की राजबन और सिरमौर पर लिखी पोस्ट (राजबन : राजा का बन और उजाड़ नगरी) में मिल जाएगा जिसका लिंक साथ ही दिया गया है | समय निकाल कर वह भी पढ़ लेंगे तो इस लेख का भी और अधिक आनंद उठा पाएंगे | संक्षेप में कहें तो किसी समय प्राचीन सिरमौर राज्य की राजधानी रहे इस राजबन क्षेत्र में भारी तबाही हुई थी | सब कुछ नष्ट हो गया था – राजा का महल भी | समय बीतता गया .... बरसों बाद उधर के घने जंगल में जिन्हें राजबन के नाम से जाना जाता था, एक सुनसान पहाड़ी पर तेंदु के पेड़ (जिसके चौड़े पत्तों से पत्तल और बीड़ियाँ भी बनती हैं ) के नीचे कुछ प्राचीन पत्थरों की प्रतिमाएँ पायी गईं | ये पत्थर पर खुदी मूर्तियाँ थीं जिन पर किसी अज्ञात प्राचीन लिपि में कुछ लिखा भी हुआ था | आज की बुजुर्ग हो चली पीढ़ी भी अपनी यादों को ताज़ा करते हुए कहती है कि अब से साठ वर्ष पहले राजबन के जंगलों में वे भेड़ चराया करते थे तब भी उस पहाड़ी पर तेंदु के पेड़ के नीचे रखी उन मूर्तियों को देखा करते थे |


प्राचीन मंदिर 




प्रस्तर प्रतिमाएँ -प्राचीन मंदिर 



प्राचीन मंदिर - पुरातन अवशेष 
( ऊपर के सभी चित्र - सौजन्य : श्री अनिल शर्मा - राजबन ) 

इन मूर्तियों के बारे में उनके गाँव के बड़े-बूढ़े भी बताया करते थे कि ये भी राजा के समय के प्राचीन मंदिर के अवशेष हैं | गाँव के लोगों के जब मवेशी गुम हो जाते थे तब वे यहाँ आकर मनौती मांगते थे जो पूरी भी हो जाती थी | इस मंदिर के इतिहास से आस्था और विश्वास की यहीं से शुरुआत हुई जो समय के साथ -साथ बढ़ती गई| बहुत ही कम लोगों को यह ज्ञात है कि असली प्राचीन ला देवी का मंदिर वास्तव में आज भी वही छोटा मंदिर है जो तेंदु के पेड़ के नीचे बना हुआ है | वहाँ तक जाने के लिए तब कच्ची पहाड़ी पगडंडी होती थी | इसके ठीक सामने कुछ ऊंचाई पर बना बड़ा मंदिर बाद की सरंचना है | पुराने समय में यहाँ आस-पास जंगली जानवर भी घूमते-फिरते आ जाते थे | रात को कई बार शेर भी देखा गया | शायद यही कारण है आज भी शेर की प्रतिमा मंदिर परिसर के प्रवेश द्वार पर विद्यमान है | 

( नीचे के सभी चित्र श्री श्याम सुंदर माहेश्वरी के सौजन्य से )

मंदिर परिसर मुख्य द्वार 



मंदिर  की 108 सीढ़ियाँ 


अब देखिए चमत्कार - यह पूरा क्षेत्र बहुत ही पिछड़ा हुआ और गरीबी की मार झेल रहा था | उस पहाड़ी गाँव में सिवाय छोटी-मोटी खेती-बाड़ी और मवेशी पालने के और कोई जीवन बसर करने के अलावा कोई अन्य साधन नहीं था | भारत सरकार द्वारा 1970 के आरंभिक दशक में एक निर्णय लिया गया- देहारादून जो कि उस समय उत्तर प्रदेश में आता था , के निकट एक सीमेंट फेक्टरी लगाने का | तब हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री यशवंत सिंह परमार ने अपने प्रभाव से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि वह सीमेंट कारख़ाना देहरादून के बजाय हिमाचल प्रदेश में लगाया जाए | परमार साहब क्योकि खुद सिरमौर जिले से थे अत: उन्होने जोड़-तोड़ करके राजबन में फ़ैक्टरी लगवाने का जुगाड़ पक्का कर दिया | अब यह चमत्कार नहीं तो क्या था – जहां पर रेल लिंक आज तक नहीं पहुँच पाया है – उस जगह पर हिमाचल प्रदेश में सीमेंट उद्योग की पहली फ़ैक्टरी ने अपने पैर जमाये | अब सीमेंट फ़ैक्टरी बननी शुरू हुई , स्थानीय लोगों को रोजगार मिला | गाँवों में खुशहाली आनी शुरू हुई | 

फ़ैक्टरी बनने के दौरान एक दिलचस्प वाकया हुआ | फ़ैक्टरी  से लेकर चूना पत्थर की खानों तक लगभग तेरह किलोमीटर का रोप-वे बनाने का ठेका कलकत्ता की जेसप एंड कंपनी को दिया गया था | दुर्गम पहाड़ी रास्तों और नदी के ऊपर से जाता रोप-वे के निर्माण में बहुत दिक्कते आ रहीं थीं | रोप-वे का रस्सा बार-बार टूट जाता था | हार कर उस कंपनी के अधिकारियों ने उसी माता ला देवी के मंदिर में सफलता के लिए मन्नत माँगी | मुराद पूरी हुई – रोपे- वे बना भी , कामयाब भी हुआ और उसी जेसप एंड कंपनी ने माता ला देवी की श्रद्धा में पक्के मंदिर का निर्माण करवाया | उन दिनों मेरे पोस्टिंग राजबन में ही थी इसलिए घटनाएँ कानों- सुनी नहीं वरन आँखों- देखी हैं | 



नया मंदिर : माता ला - देवी 




देवी प्रतिमा (नवीन )

लोगों का मानना है की इस मंदिर ने इस पिछड़े इलाके को गरीबी से उबारा, संपन्नता दी, हजारों लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार दिया | बात केवल यहीं तक नहीं रुकी – राजबन के निकट ही पांवटा साहिब में सिक्खों का पवित्र गुरुद्वारा है | आज उस स्थान ने भी भरपूर प्रगति की है | पास में ही तारुवाला जो कभी ग्रामीण इलाका होता था आज औद्योगिक क्षेत्र में बदल चुका है | अब इधर यह सब विकास हो रहा था – उधर ला- देवी के भक्तों और श्रद्धालुओं की संख्या भी बढ़ती जा रही थी | सीमेंट फ़ैक्टरी के कर्मठ कर्मचारियों और प्रबंधन ने एक तरह से देखा जाए तो इस मंदिर को अपने सरंक्षण में ले लिया | समय-समय पर भक्तों के सहयोग से इस मंदिर का जीर्णोद्धार और काया-कल्प भी होता जा रहा है । यहाँ समय-समय पर भंडारे होते हैं जिन में हजारों की संख्या में आस-पास के गांवों के निवासी आते हैं | फ़ैक्टरी की सुख-शांति और सफलता के लिए हवन-पूजा भी होती रहती है | एक समय ऐसा भी आया कुछ लोगों की सलाह पर ला-देवी मंदिर के स्थान पर फ़ैक्टरी के टाउनशिप में बने मंदिर में ही भंडारे किए जाने लगे | अब इसे संयोग कहिए या कुछ और – इसके नतीजे बड़े घातक और दुर्भाग्यशाली रहे | अंत में उसी पुरानी परंपरा पर लौटने में ही सबने भलाई समझी | 
अभी कुछ वर्षों पहले ला देवी मंदिर के परिसर में ही भगवान शिव के मंदिर की भी स्थापना हुई है | 
वक्त के साथ सीमेंट फ़ैक्टरी भी उम्र दराज़ हो चली है | अन्य सरकारी उपक्रमों की तरह इसे भी अनेक बीमारियों ने जकड़ लिया है | यह धीरे-धीरे काल के गर्त में समाती जा रही है | सुनने में यह बुरा जरूर लगता है पर वास्तविकता से मुँह भी तो नहीं मोड़ा जा सकता | अब हुआ दूसरा चमत्कार – ठीक सीमेंट फ़ैक्टरी के सामने ही भारत सरकार ने इसी इलाके में रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत बहुत विशाल संस्थान की स्थापना कर दी है | डी०आर०डी०ओ के अधीन उस संस्थान का महत्व केवल इसी बात से समझा जा सकता है कि यहाँ से गुज़रने वाली पतली सी टूटी-फूटी सड़क भी अब फर्राटेदार चोड़े राष्ट्रीय राजमार्ग में बदल चुकी है | कुल मिला कर बदलती परिस्थितियों में भी दैवीय शक्तियों ने इस स्थान पर अपना आशीर्वाद बनाए रखा है | मेरा मानना यह भी है कि देवी की कृपा केवल उन मेहनतकश कर्मयोगी इन्सानों तक ही सीमित रही है | जहाँ मेहनत का स्थान आलस, बेईमानी और भ्रष्टाचार ले लेता है, देवी का आशीर्वाद भी रूठ कर चला जाता है | 

इस लेख के माध्यम से मैं उन सब श्रद्धालुओं की प्रशंसा और आभार प्रकट करना चाहूँगा जो निस्वार्थ भाव से इस मंदिर की देखरेख में अपना हर प्रकार से योगदान कर रहे हैं | 

अब आप मुझे अंध-विश्वासी कहें या मोटी बुद्धि वाला बेवकूफ, मेरा मानना है कि इस मंदिर में कुछ तो विशेष जरूर है जिसने इस पिछड़े गाँव और इसके आस-पास के क्षेत्रों को गरीबी के दलदल से बाहर निकाल कर खुशहाली के दिन दिखाये | यह तो मैं पहले ही कह चुका हूँ कि आस्था के पीछे वैज्ञानिक तर्क नहीं होते |
(आभार : सर्व श्री श्याम सुंदर माहेश्वरी, जिगरी राम चौधरी, खेम राज शर्मा , अनिल शर्मा, नारायण सिंह पौखरियाल जी का जिनके अमूल्य योगदान के कारण यह लेख आप तक पहुँच पाया है )   

Friday, 1 November 2019

एक पहेली - अनसुलझी



इस बार की कहानी के ज़्यादातर मुख्य पात्र उस दुनिया के हैं जो इंसानी दुनिया से संबंध नहीं रखते | रिश्तों के उलझे ताने-बाने, मानवीय संवेदना और सबसे ऊपर घूमते कुटिल भाग्य -चक्र के इर्द-गिर्द यह कहानी घूमती है जो अभी कुछ दिन पहले ही घटी| उस घटना ने मुझे अंदर तक कुछ इस कदर झकझोरा कि अभी तक उसके सदमें से उबर नहीं पाया हूँ |
मेरी कॉलोनी के आवारा कुत्तों को मेरे घर के मेन गेट के सामने अड्डा बना कर बैठने में बहुत मज़ा आता है | वे सब वहाँ बैठ कर उतना ही सुरक्षित महसूस करते हैं जितना दाऊद कराची में और जनरल मुशर्रफ दुबई में | उनके झुंड का अपना ही एक अलग किस्म का साम्राज्य है | घर को इतना ज़बरदस्त सुरक्षा कवच प्रदान कराते हैं कि देश के प्रधानमंत्री की ज़ेड प्लस सिक्योरिटी भी उसके सामने पानी भरती प्रतीत होती है | मेरा पालतू कुत्ता चंपू उन सब आतंकवादियों का उसी किस्म का स्व-घोषित लीडर है जैसे अल-बगदादी या बिन लादेन | क्या मजाल है कोई भी ऐरा-गैरा घर की कॉल -बेल भी बजा दे | उन सबका इतने लंबे समय से साथ बना हुआ है कि मैं भी किसी गाँव के बुजुर्ग की तरह उनकी कई पीढ़ियों का गवाह हूँ | कौन कुत्ता किसका नाना है , किसका पोता है , धेवता है- सबका बहीखाता हरिद्वार के किसी पंडे की तरह से मैं बना सकता हूँ | सहूलियत के लिए उस मित्र-मंडली के हर सदस्य का मैंने नाम रख छोड़ा है  | उसी टीम की एक नई मेम्बर थी किशोरी जिसकी उम्र भी रही होगी यही कोई डेढ़ साल के आस-पास | काले-सफ़ेद रंग की , छोटे से कद-काठी की और स्वभाव से बहुत ही चंचल डॉगी | वह उन गिने- चुने वरीयता प्राप्त रेंप बिरादरी की सदस्यों में से एक थी जिन्हें गेट से अंदर आने का भी अधिकार प्राप्त था | जब से यह बात पता चली कि किशोरी गर्भावस्था में है , तब तो उसकी खातिर तवज्जो में और भी इजाफ़ा हो गया | उसके भोजन-पानी का भी ख़ास ही ध्यान रखा जाने लगा | रेंप बिरादरी के दूसरे सदस्यों को बहुत ही ईर्षा होती जब किशोरी कटोरा भर दूध चट कर जाती और बाहर गेट के पार बाकी सब ललचाई नज़रों से जीभ लपलपाते रह जाते | 
मेरे मकान के बगल में ही एक खाली प्लाट है, उसी में किशोरी ने अपना बसेरा कर लिया था | आखिर वह दिन भी आया जब किशोरी ने इकलोते नवजात पिल्ले को जन्म दिया | उस पिल्ले की शरीर पर तेंदुए जैसी चितकबरी पट्टियाँ थीं इसलिए उसका नामकरण भी उसी अनुसार कर दिया - तेंदुल | अब ज़्यादातर समय किशोरी अपने उस नन्हें तेंदुल की देख-रेख में ही व्यस्त रहती| अपने बच्चे की सुरक्षा के प्रति अत्यंत सचेत रहती | पहले की शांत स्वभाव किशोरी, अब आक्रामक हो चली थी | जरा सा भी संदेह होने पर वह रास्ता चलते लोगों को काट खाती | इसी वज़ह से कुछ लोगों के मन में किशोरी के खिलाफ जबर्दस्त गुस्सा भरा पड़ा था | हमारे प्रति उसका स्वभाव अभी भी वही प्रेम भरा था, हम उसके बच्चे को बिना किसी डर के प्यार से सहला भी देते थे और वह बहुत ही भरोसे की नज़रों से हमें टकटकी लगाए निहारती रहती | 
इन्हीं दिनों दिवाली का त्योहार भी आ गया| दिवाली की रात, पटाखों और आतिशबाज़ी के शोर से मेरे इस विशेष रेंप निवासी मित्र मंडली के सदस्यों के साथ, किशोरी भी बहुत परेशान थी | कई बार भाग-भाग कर घर के अंदर सीढ़ियों पर छुपने का प्रयत्न करते | यह सब देख कर बहुत दया भी आती पर मैं भी क्या कर सकता था | दिवाली से अगला दिन था गौवर्धन पूजा का | रोज़ की तरह किशोरी सुबह -सुबह आठ बजे मिलने आ गई | बदकिस्मती से उस समय घर पर दूध नहीं था सो उसके नाश्ते-पानी का प्रबंध नहीं हो सका | बेचारी मन-मार कर वापिस अपने तेंदुल के पास चली गई | अभी एक घंटा ही बीता होगा कि पड़ोस का एक बच्चा भागता हुआ आया और बोला “अंकल मेरे साथ आइये” | वह मुझे घर के बगल के उसी खाली प्लाट में ले गया| वहाँ पर लेटी हुई किशोरी की ओर इशारा करते हुए वह बोला “यह हिल-डुल नहीं रही हैं” | पहली नज़र में देखने में मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगा| किशोरी का प्यारा सा पिल्ला तेंदुल बड़ी व्याकुलता से अपनी माँ का दूध पीने का जतन कर रहा था | पास जा कर ध्यान से देखा तो महसूस हुआ किशोरी के शरीर से प्राण पखेरू उड़ चुके थे | उसकी खुली निस्तेज आँखें मानों मुझ से कह रहीं थी – “मेरे दोस्त तुम क्या समझते हो सुबह मैं दूध पीने आई थी | मैं तो लंबे सफर पर जाने से पहले तुम सबसे हमेशा के लिए विदा लेने आई थी |” तेंदुल तब भी अपनी माँ के पेट से चिपटा दूध पीने के प्रयास में व्यस्त था | मैं इससे अधिक झटका झेलने की हालत में नहीं था सो तुरंत लौट कर घर आ गया | 

 घर आकर मन और व्याकुल हो रहा था | दिल में उठ रही उथल-पुथल ने मुझे चैन से नहीं बैठने दिया और कुछ ही देर बाद मैं वापिस फिर उसी जगह पहुँच गया| अब का दृश्य और भी अधिक मार्मिक हो गया था | नन्हें तेंदुल- जिसकी अभी तक आंखे भी नहीं खुल पायी थीं, केवल स्पर्श के सहारे ही अपनी माँ को पहचान पाता था | वह निश्चेष्ट पड़ी अपनी माँ की कोई हरकत नहीं पाकर अब उसके गले और चेहरे से चिपट कर बुरी तरह से रो रहा था | शायद पहली बार उसे अपनी माँ का दुलार नहीं मिल पा रहा था जो उसके लिए बहुत ही अचंभे की बात थी | यह सब देख कर मेरा कलेजा मुँह को आ रहा था | समझ नहीं पा रहा था कि इस दारुण स्थिति मे क्या करूँ | कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा था | आखिरकार पता नहीं क्या सोच कर उस छोटे से पिल्ले तेंदुल को सावधानी किशोरी से अलग किया और अपनी गोद में उठा कर घर ले आया | आँगन में ही छोटी सी चादर बिछा कर तेंदुल को लिटा दिया | डाक्टर से फोन पर ही आवश्यक हिदायतें लीं | पास की दुकान से गाय का दूध ला कर सिरिन्ज से तेंदुल को पिलाया | भूखे से बेहाल तेंदुल पेट भर जाने के बाद फिर से गहरी नींद में सो गया | मेरा पालतू कुत्ता चंपू जो बड़ी देर से यह सब अचरज से देख रहा था, तेंदुल के पास आया,प्यार से उसे सूंघा और फिर खामोशी से उसके पास ही बैठ गया | ऐसा अमूमन होता नहीं है क्योंकि चंपू को हर उस चीज़ से एक तरह से नफरत है जो उसकी सल्तनत में किसी भी तरह की दखलंदाजी करती है | मैं भी कुछ देर तेंदुल के पास बैठ कर अपने कमरे में चला गया | कुछ देर बाद कुछ आहट होने पर मैं बाहर निकला – देखा अधखुले फाटक से एक और परिचित कुत्ता ( सही शब्दों में – डॉगी) अंदर आ रहा था | गौर से देखने पर पहचाना, वह तेंदुल की माँ की भी माँ थी – यानि नानी  | वह भी चंपू के ही अंदाज़ में तेंदुल के पास आई , सूँघा फिर शरीर को चाटने लगी | उसके शरीर की भाव-भंगिमा को देख और सोच कर कि आखिर है तो तेंदुल की नानी, अब तक मैं भी थोड़ा निश्चिंत हो चला था | पता नहीं अचानक क्या हुआ .... नानी ने तेंदुल को जबड़े में भर लिया और बाहर जाने लगी | मेरे मुँह से भय-मिश्रित चीख निकली और दौड़ कर नानी की गरदन से तेंदुल को छुड़ाना चाहा | एक झटके से तेंदुल नानी के मुँह की गिरफ्त से बाहर नीचे फर्श पर गिरा | लेकिन तब तक नानी अपने पैने दांत तेंदुल के शरीर में गड़ा चुकी थी | नीचे फर्श पर गिरे नन्हें तेंदुल के तड़पते शरीर से खून की महीन धार फव्वारे की तरह फूट पड़ी | ऊंची आवाज देकर अपने बेटे को पुकारा | खून में सने नन्हें तेंदुल को अपने सीने से चिपका कर, गाड़ी में तुरंत डाक्टर के पास भागे | बदकिस्मती शायद अब भी हम सब का पीछा कर रही थी | डाक्टर का क्लीनिक तब तक बंद हो चुका था | डाक्टर को फोन किया, उसने शाम को दिखाने के लिए कहा और तब तक के लिए बीटाडिन लगाने की सलाह | तड़पते हुए तेंदुल का दर्द मुझसे देखा नहीं जा रहा था | बार-बार अपनी छोटी सी जीभ मुँह से बाहर निकालता और फिर बेहोश हो जाता | हम भी वापिस घर की ओर लौट चले | काँपते हाथों से बीटाडिन रुई पर लगा कर उसके शरीर को देखा, चोट से निकलता खून अब रुक कर जम चुका था | तेंदुल भी अपने प्राण छोड़ चुका था |

किशोरी और तेंदुल की असमायिक मौत ने मुझे बुरी तरह से हिला दिया | इस दुखद कांड से मेरे दिमाग में कई अनसुलझे सवाल एक के बाद एक आकर परेशान कर रहें हैं | क्या यह सब नियति थी – मृत माँ किशोरी की आत्मा ने दूध पीते नन्हें तेंदुल को चार घंटे के भीतर ही अपनी दुनिया में बुला लिया ? क्या नानी को अपनी बेटी किशोरी के जाने का इतना दुख: था कि गुस्से में तेंदुल को ही जिम्मेदार ठहराते हुए चोट पहुंचाई ? क्या नानी अपने तेंदुल को किसी अन्य सुरक्षित स्थान पर लेजाने के प्रयास में गलती से दाँत चुभ गए ? 

किशोरी की अचानक हुई मौत भी अभी तक अनसुलझा रहस्य है | सुना है किसी ने उस मासूम को शायद ज़हर दे दिया था | अंत में माँ -बेटे की जोड़ी किशोरी और तेंदुल के लिए केवल इतना ही कहूँगा – अगले जन्म में उन्हें किसी धोखे का सामना नहीं करना पड़े | ॐ शांति