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यूँ होता तो क्या होता
- करुण शर्मा ,
सहायक महाप्रबंधक (से॰ नि॰ )- भारतीय स्टेट बैंक
सहायक महाप्रबंधक (से॰ नि॰ )- भारतीय स्टेट बैंक
वो हर बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता ।
मिर्ज़ा गालिब का यह शेर मुझे बरबस याद आ गया जब मुझे बरसों पहले की आपबीती याद आ गई । इस आपबीती से मुझे ज़िंदगी को एक अलग नए नज़रिये से देखने का मौका मिला | बात यह उन दिनों की है जब मैं कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर नया-नया नौकरी पर लगा था । एक नामी -गिरामी उद्योगपति के औद्योगिक समूह के मुख्यालय के कंप्यूटर डिवीजन में तैनाती थी । यह आज से लगभग छत्तीस साल पुराना वह ज़माना था जब देश में कंप्यूटर किसी अजूबे से कम नहीं समझा जाता था । यहाँ तक कि कंप्यूटर के क्षेत्र से जुड़े सभी नौकरी – पेशा लोगों को वह सम्मान हासिल होता था जैसे वह इस धरती का नहीं वरन स्वर्ग-लोक से उतरा कोई आलौकिक प्राणी है । पूरे दफ्तर में अलग ही रुतबा होता था । और हो भी क्यों ना, जब ऊँचे से ऊँचे ओहदे के आला अफसरों को भी एयर कंडीशनर की सुविधा आसानी से उपलब्ध नहीं होती थी , हम गद्देदार रिवोलविंग कुर्सी पर बैठ कर ए॰ सी॰ आफिस का मज़ा लूटा करते थे । अब यह बात अलग है कि वह ए॰ सी॰ हमारे लिए नहीं वरन उन देवलोक से उतरी मशीनों के लिए होता था जिन्हें सब कंप्यूटर के नाम से जानते थे । सब कुछ मज़े में चल रहा था पर दिल के किसी कोने में कहीं कुछ कसक भी बाकी थी । वह कसक थी ज़िंदगी में कुछ कर गुज़रने की, कुछ ऐसा करने की जिसे दुनिया लंबे समय तक याद रखे । लेकिन मुझे यह भी पता था कि ऊँची, उन्मुक्त उड़ान भरने के लिए खुला आकाश चाहिए । उन दिनों भी प्राइवेट सेक्टर की नौकरी चाहे जितनी भी लुभावनी हो, घूम- फिर कर कहलाती तो लाला की नौकरी ही थी । सरकारी नौकरी का तिलिस्म तब भी सर चढ़ कर बोला करता था ।
शाहरुख खान ने किसी फिल्म में सही डॉयलाग मारा था – अगर किसी चीज़ को शिद्दत ( दिल) से चाहो तो पूरी कायनात (सृष्टि) आपको उससे मिलाने में जुट जाती है । मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में अपने मतलब की नौकरी का विज्ञापन देखा । तुरंत आवेदन भर कर भेज दिया । उम्मीद के अनुसार जल्द ही बैंक के मुख्यालय से साक्षात्कार के लिए बुलावा भी आ गया। इंटरव्यू मुंबई में ही होना था सो ट्रेन का रिज़र्वेशन करवाने में भी कतई देर नहीं की । इंतज़ार की घड़ी लंबी हो चली थीं । अब मेरा सपना था देश के सबसे बड़े बैंक के कंप्यूटर विभाग का सर्वोच्च अधिकारी बनने का । आखिर मुंबई जाने का नियत दिन भी आ ही गया । हाथ में एक अदद सूटकेस थामें नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गया । प्लेटफॉर्म पर पूछताछ कर ट्रेन के डिब्बे में बैठ गया और तुरंत ही ट्रेन चल भी पड़ी । अचानक ही पास बैठे दो यात्रियों की बातचीत से पता चला कि यह तो मुंबई जाने वाली ट्रेन नहीं है । मुझे तो जैसे चार सौ चालीस वोल्ट का करेंट लग गया । लगा जैसे किसी ने सर पर हथोड़ा दे मारा हो । उछल कर सीट से खड़ा हो गया और भागा दरवाजे की ओर । तब तक ट्रेन ने धीर-धीरे रफ्तार भी पकड़नी शुरू कर दी थी । किसी ने ठीक ही कहा है – ऐसे आपात काल में इंसान का दिमाग भी काम करना बंद कर देता है । मेरे एक हाथ में भारी-भरकम सूटकेस था फिर भी ट्रेन की खतरे की जंजीर खीच कर रोकने की चेष्टा करने के स्थान पर मैंने आव देखा ना ताव चलती ट्रेन से प्लेटफार्म पर सीधे छलांग लगा दी । मेरे उस खतरनाक कारनामे को देख रहे प्लेटफार्म पर खड़े प्रत्यक्षदर्शी यात्रिओं के हुजूम में खलबली सी मच गई । सब की साँसे एक पल के लिए मानो रुक सी गयीं । वह क्षण विशेष जब मैं डिब्बे से छलांग मार चुका था और प्लेटफार्म पर कदम पड़ने से पहले स्लो मोशन में हवा में तैर रहा था, आज भी मेरी यादों के पर्दे पर जैसे फ्रीज़ हुआ पड़ा है। वह ख़ास लम्हा ही मेरी ज़िंदगी का वह मुक़ाम था जहाँ से मेरी ज़िंदगी और भविष्य का फैसला होना था ठीक ग़ालिब के उसी शेर की तर्ज़ पर कि यूँ होता तो क्या होता । नहीं समझे – चलिए ज़रा तफ़्सील से समझाता हूँ ।
अब चलती गाड़ी से हाथ में सूटकेस लिए मैं भारी जोखिम उठाते मैं प्लेटफार्म पर कूद तो गया पर उस दिन ईश्वर और भाग्य मेरे साथ था जिसके कारण मैं सॉफ्ट लेंडिंग करने में सफल रहा । ज्यादा सोचने का समय था नहीं, भागते -दौड़ते मुंबई जाने वाली सही गाड़ी में बैठा । मुंबई पहुँच कर नौकरी के लिए साक्षात्कार देकर वापिस दिल्ली लौट आया ।
कुछ समय बाद मुझे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से अपने सफल होने की सूचना के साथ नियुक्ति-पत्र भी मिल गया । पुरानी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर मैंने बैंक के आई ॰ टी डिवीज़न से जुड़ गया । लगभग चौंतीस साल का कार्यकाल कोई थोड़ा समय नहीं होता है । उस कार्यकाल की एक अपनी ही अलग कहानी है जो भरी पड़ी है ढेरों खट्टे -मीठे अनुभवों , संघर्षों, जगह -जगह हुए ट्रान्सफर, उपलब्धियों और समय-समय पर मिलने वाले प्रमोशन्स के किस्सों से । सपने काफी हद तक पूरे हुए जब मेरी अतिरिक्त महाप्रबंधक के पद से सेवा-निवृत्ति हुई ।
कुछ समय बाद मुझे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से अपने सफल होने की सूचना के साथ नियुक्ति-पत्र भी मिल गया । पुरानी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर मैंने बैंक के आई ॰ टी डिवीज़न से जुड़ गया । लगभग चौंतीस साल का कार्यकाल कोई थोड़ा समय नहीं होता है । उस कार्यकाल की एक अपनी ही अलग कहानी है जो भरी पड़ी है ढेरों खट्टे -मीठे अनुभवों , संघर्षों, जगह -जगह हुए ट्रान्सफर, उपलब्धियों और समय-समय पर मिलने वाले प्रमोशन्स के किस्सों से । सपने काफी हद तक पूरे हुए जब मेरी अतिरिक्त महाप्रबंधक के पद से सेवा-निवृत्ति हुई ।
पर इस कहानी का एक दूसरा पहलू भी है जो जा कर अटकता है उन लम्हों में जब मैं गलत डिब्बे में जा बैठा था । क्या होता अगर मैं चलती ट्रेन से नहीं कूदता ? ज़ाहिर सी बात है मैं मुंबई नहीं पहुँच पाता । उसी तरह अगर डिब्बे से कूदते वक्त कोई हादसा हो जाता, तब भी मुंबई की नौकरी पाना तो दूर की baat- ज़िंदगी , हाथ- पाँवों और लगी-बधीं लाला की नौकरी के भी लाले पड़ जाते । मैं ट्रेन से कूदा, मेरे कदम नहीं डगमगाए, अपने सही-सलामत हाथ-पाँवों के साथ सही गाड़ी में बैठ कर मुंबई पहुँचा, इंटरव्यू दिया, सफल हुआ – सिर्फ इसलिए तब वक्त और भाग्य मेरे साथ था । हाँ उसके बाद बैंक की नौकरी के दौरान कड़ी मेहनत, मधुर व्यवहार, मिलन-सारिता और संघर्षों ने अपना पार्ट अदा किया जिसका मुझे आत्मसंतोष की हद तक फल भी मिला । इसीलिए ग़ालिब गलत नहीं हैं जब वह कहते हैं : यूँ होता तो क्या होता ।
( प्रस्तुति : मुकेश कौशिक )
(तकनीकी सहायता : मेड एंगिल फिल्म्स )
(तकनीकी सहायता : मेड एंगिल फिल्म्स )
Too good sir your voice is too beautiful like radio jockey.... Chha गए sir presentation too beautiful
ReplyDeleteThanks a lot Vipin ji for words of encouragement 🙏
DeleteInteresting, entertaining n impressive . Keep it up . 👍
ReplyDeleteधन्यवाद 🙏🙏
Deleteमैं भी यही समझता हूं कि आप छा गयै।
ReplyDeleteमुझे अपनी भविष्यवाणी साकार होती नजर आ रही है जब शुरुआत के एक ब्लॉग में मैंने इच्छा जाहिर की थी कि आपकी पटकथा पर फिल्म बने। लगता है कि आप अपनी ही production को अंजाम दोगे।
धन्यवाद प्रभु 🙏🙏🙏👏
Deleteबहुत सुंदर - जीवंत व्याख्यान।लग रहा है, मैं भी सहयात्री था।
ReplyDeleteधन्यवाद बंधु 🙏🙏
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