Saturday, 27 October 2018

इंसानियत का सांता क्लाज

दावत की तैयारी 
सुबह-सवेरे घर के सामने सड़क पर एक अजीबो-गरीब नज़ारा रोज़ ही नज़र आ जाता है | गली-मौहल्ले के सारे कुत्ते बड़ी बेसब्री से पीपल के पेड़ के नीचे झुण्ड में खड़े होकर मानों किसी का इंतज़ार कर रहें हों | वे सब सच में इंतज़ार ही कर रहे होते हैं जो पूरा होता है जब वे देखते हैं कि दूर से एक साइकिल ठेला धीरे-धीरे सड़क पर आरहा है | उस ठेले पर दो-तीन बड़े-बड़े कचरे के थेले लदे होते हैं | ठेले वाले की हालत भी लगभग ठेले  और उस पर लदे कचरे जैसी ही होती है | कमीज़-पतलून पहने  दुबला-पतला शरीर जिस पर  सर्दी-गरमी से बचने के लिए  सिर पर  साफ़े की तरह से  बाँधा हुआ कपड़ा और सबसे अलग चेहरे  पर अत्यंत आकर्षक,निर्मल, मनमोहक  मुस्कान | पीपल के पेड़ के नीचे पहुँचते ही सारे कुत्ते पूँछ हिलाते उसके कचरा-ठेले को घेर लेते हैं | यह शख्स धीरे से से अपने साइकिल ठेले की गद्दी से उतरता है और आस-पास की जगह पर बिखरा हुआ कूड़ा ठेले में रखे थेलों में भरना देता है | इस बीच इक्कठे हुए कुत्तों की जमात का सब्र का बाँध जैसे टूटना शुरू हो जाता है और सब दबी हुई आवाज़ में कूँ-कूँ करते एक अनोखे राग को  गा कर मानों ध्यान खींचने की कोशिश करने लगते हैं | अब उस शख्स का एक नया ही रूप नज़र आने लगता है | वह अपने उन थेलों  में से उस एक थेले में हाथ डालता है जिसमें उसने कूड़ा नहीं वरन लोगों का फेंका हुआ बचा-कुचा खाने का सामान, रोटियाँ,दाल-सब्जी वगैरा भरा हुआ है | बड़े प्यार से अपने हाथ से वह उस खाने को इन निरीह भूखे-प्यासे जानवरों को खिलाता है जिसे हम तथाकथित सभ्य और पढ़े-लिखे होने का दंभ भरने वाले समाज ने बर्बाद करके फेंक दिया | ऐसे लगता है जैसे  भूख के मारे कुत्तों की मानों दावत हो रही है और मेरी बात तो छोडिए, शायद उन कुत्तों को उस इंसान में सांता क्लाज का रूप नज़र आता होगा | अगर वे बोल सकते तो शायद उनके यही शब्द होते : अन्नदाता सुखी भव : ( मुझे भोजन देने वाले तू सुखी रह)| 
हमारा सांता क्लाज - श्रीपत 

नकली सांता क्लाज तो 
उपहार देने के लिए क्रिसमस के मौके पर ही में एक ही बार आता है  पर यह इंसानी फ़रिश्ता  तो रोज़ ही हाज़िर हो जाता है एक ऐसा उपहार देने के लिए जो अनमोल है | भूख से बढ़ कर कोई कष्ट नहीं, जो उस कष्ट को हरे उससे बढकर कोई इंसान नहीं | जो भी यह कष्ट मिटाता है भूखे-प्यासे, दुनिया के ठुकराए मूक-निरीह जीव जंतुओं का, मेरे मानना है कि  वह इंसान से भी ऊपर देवताओं की श्रेणी में आता है | हममें से शायद ही कुछ लोग होंगें जो खुद के  बचे-कुचे खाने को भूखे-प्यासे जानवरों तक पहुंचाने की कोशिश करते हों | यह इंसान तो हालाँकि अपनी सहूलियत के अनुसार उस खाने को सीधे बड़े कचरे घर में भी डाल सकता है पर गरीब अशिक्षित सांता  क्लाज की सोच परोपकार से भरी हुई है | आज के जमाने में जब लोग पशु कल्याण के नाम पर अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं, अखबारों में फोटो छपवाने के लिए राजनीति कर रहे हैं, पशुओं का चारा तक हजम कर रहें हैं,  बड़े-बड़े एन.जी. ओ. चला रहे हैं और मिलने वाली सहायता राशि डकार रहे हैं , हमारा सांता क्लाज खामोशी से अपनी नेकी की राह पर अकेला चला जा रहा है | उसे कोई आस नहीं किसी प्रचार की, किसी पुरस्कार की | उसका जीवन संघर्ष केन्द्रित है अपना खुद का  पेट भरने में और सड़क पर आवारा  घूमते-फिरते इन भूखे-प्यासे कुत्तों को खाना खिलाने में |आज उस प्यारे इंसान से बात करने पर पता चला कि उसका नाम श्रीपत है जो रोजी-रोटी की तलाश में सुदूर गोरखपुर से नोएडा आया है | हम सब को बहुत कुछ अभी भी सीखना बाकी है इस सांता क्लाज से – अपने  श्रीपत से | हम सब को प्रार्थना करनी चाहिए ईश्वर से कि श्रीपत और उसके जैसी पशु-पक्षियों के लिए भली सोच रखने वाले हर इंसान का भला हो |   
अन्न दाता सुखी भव:

Thursday, 25 October 2018

कण-कण में भगवान (भाग -2 ) – बचपन की बहार और स्कूल की पुकार

यह बात भी बचपन के दिनों की ही है | उड़ीसा से हम लोग शिफ्ट होकर दिल्ली में ही आ चुके थे | मेरी उम्र रही होगी यही कोई नौ-दस बरस की | किराए के मकान में दिल्ली की यमुना-पार की ही एक कॉलोनी कृष्णानगर में रहते थे | अब यमुना पार के बारे में तो आपने भी यह सुना ही होगा कि “नानक दुखिया सब संसार और सारे दुखिया यमुना पार” | तो इसी यमुना-पार के इलाके में घर से थोड़ी ही दूर पर मेरा स्कूल था | यह स्कूल आठवी कक्षा तक के लिए था और दिल्ली नगर निगम द्वारा संचालित था इसलिए आम बोलचाल की भाषा में इसे चुंगी का स्कूल भी कहते थे | इसकी बिल्डिंग बैरकनुमा शैली में थी जिसकी छत एस्बेस्टस शीट्स की थी | जमीन पर ही टाट-पट्टी पर पालथी मार कर बैठा करते थे जिसकी बदौलत आज तक अपने घुटने ईश्वर ने दुरस्त रखे हैं | इसी वजह से ही  हर मौसम का भरपूर मज़ा भी  लिया करते थे | गरमी में पसीने से तरबतर, कडकती सर्दी में बला की ठिठुरन जिसमें अगर मास्टर जी को दया आ जाती तो क्लास को बाहर मैदान में धूप में बिठा देते थे | पर भाई हमारे लिए सब से मस्ती का मौसम होता बरसात का | ऊपर से छत टपकती और बरसात का पानी सड़क से होता स्कूल के कमरों तक निरीक्षण करने आजाता | ऐसे में स्कूल की हो जाती छुट्टी हम बच्चों की तो सच में मौज आजाती | बरसती बारिश में घुटनों तक पानी में भीगते पानी में शोर मचाते घर की ओर घुड़दौड़ करने का मज़ा ही कुछ और ही था |               
अगर मैं ठीक से याद कर पा रहा हूँ तो तब तक उस स्कूल में बिजली नाम की विलासिता ने अवतार नहीं लिया था | अब आप ही बताइये, आठ पैसे प्रति माह की फ़ीस में आपको और क्या मिलता |अब इस आठ पैसे के पीछे भी कई बार काण्ड हो जाते| मास्टर जी फ़ीस के हमारे  दस के सिक्के में से दो पैसे वापिस नहीं करते और बाद में किसी लड़के को पास के पनवाड़ी की दुकान भेजकर इस काले धन की एकत्रित जमापूंजी से पान मंगवा कर खाया करते थे | अब विद्रोही छात्र पैदा करने का सारा ठेका जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी ने ही तो लिया नहीं हैं | ऐसे छात्र अब भी हैं और हमारे ज़माने में भी थे | एक बच्चा बुला लाया अपने कड़क बापू को और पहुँच गई शिकायत हेडमास्टर तक | हमारे मास्टर जी की उस समय किरकिरी तो खूब हुई पर बाद में वो उस शिकायती बच्चे के पीछे हमेशा के लिए हाथ धो कर ऐसे पड़ गए जैसे दलाई लामा के पीछे चीन |
अब एक आश्चर्य की बात – हमें होल्डर या कलम से लिखने की ही अनुमति होती थी | किसी भी विद्यार्थी के  लिए अपने पास पेन रखना उतना ही बड़ा गुनाह समझा जाता जितना किसी तपस्वी के कमंडल में दारु | सो समय-समय पर बाकायदा छापे पड़ा करते जिनमें मास्टर जी सबके बस्तों की तलाशी लेते और जिसके पास भी पेन बरामद होता, वह कोहिनूर हीरे की तरह जब्त होकर मास्टर जी की मिलकियत बनकर उनके घर के खजाने में सदा के लिए जमा हो जाता | मेरे रिश्ते के मामा भी उसी स्कूल में पढ़ाया करते थे | जब भी उनके घर जाता तो मैं उनके विशाल पेन भण्डार से दो-चार पेन हथिया कर भांजे होने का फर्ज बखूबी निभा दिया करता |    
बच्चों को सुधारने और अच्छी आदतें डालने के लिए नए-नए तरीके तब भी ईजाद हो ही जाते थे | एक बार मास्टर जी ने क्लास के सारे बच्चों को एक-एक पतली सी कॉपी थमा दी और बोले कि जब भी कोई भला काम करो इस कॉपी में लिखना जिसे नियमित रूप से जांचा जाएगा | अब मास्टर जी तो उस भलमनसाहत की पुस्तिका को थमा कर मुक्त हो गए पर हम सब बच्चों के गले में आफत की घंटी बंध गई | हालत यह कि पढाई-लिखाई गई तेल लेने, सोते जागते यही फितूर रहता कि अब सुन्दर काण्ड में कौन सी चौपाई लिखनी है | सो हुआ कुछ यूँ कि  हमेशा की तरह क्लास के  बच्चे समूह बनाकर दोपहर के खाने की छुट्टी में टाट-पट्टी पर जमीन बैठ कर ही खाना खा रहे थे | मेरे बड़े भाई साहब, जो मेरे से लगभग दो वर्ष ही बड़े थे, वह भी उस वक्त साथ ही आ बैठते थे |  अब आलम यह कि हमारे भाई जी बहुत ही आग्रह करके अपने साथ में बैठे बच्चे जबरदस्त ना-नुकर के बावजूद उसकी रोटी पर आलू की सब्जी के चंद टुकड़े झोंक ही दिए | यहाँ तक तो सब ठीक था , पर उस शाम जब उत्सुकतावश मैंने  उनकी “भलमानस पुस्तिका” को चोरी से पढ़ा तो उनके उस दिन के आदर्श कार्य में लिखा हुआ था : “आज मैंने एक भूखे को खाना खिलाया”| आज भी उस बात को याद करते हुए मुझे हँसी आ जाती है | सच में, जब किसी भी काम का बलपूर्वक अनिवार्य दैनिक कोटा निर्धारित कर दिया जाता है तब वही हालत होती है जिसमें जबरदस्ती उस अंधे को भी सड़क पार करवा दी जाती है जो बेचारा पार करना ही नहीं चाह रहा |
अब सोच तो आप भी रहे होंगे कि जनाब किस्से तो दुनिया जहान के सुना रहे हो, खुद क्या राम जी की गैया थे | सही सोचा आपने, पंगे तो मैं भी लेता था पर ज़रा छोटी-मोटी श्रेणी के ही | एक बार मास्टर जी ने  निबंध लिखने को दिया – मेरी पहली रेल यात्रा | अब शाम को बैठ कर किसी तरह जल्दबाजी में होम वर्क जैसे-तैसे निबटाया क्योकि दोस्तों के साथ खेलने जाना था | अगले दिन जब कापियों की जांच करी गई तो मास्टर जी ने मेरा नाम पुकारा और बोले इससे पहले मैं तुम्हे मुर्गे के रूप में बदल दूँ , जो निबंध लिखा है उसे ज़रा पढ़ कर सारी क्लास को भी सुना दो | सहमते झिझकते मैंने कुछ यूँ पढ़ना शुरू किया :
मेरी पहली रेल यात्रा     
मुझे नानी के घर जाना था | मुझे रेल से जाना था | मैं रेलवे स्टेशन गया | रेल आयी | मैं रेल के डब्बे में बैठ गया | मैं खिड़की के पास की सीट पर बैठ गया | रेल चल पडी | ठंडी ठंडी हवा में मुझे नींद आ गयी | मैं सो गया | जब नींद खुली तो नानी के घर वाला स्टेशन आ गया था | मैं स्टेशन पर उतर कर नानी के घर चला गया |
  समाप्त
उस भरे- पूरे निबंध का यह बिकनी स्वरूप सुनकर पूरी क्लास जोरों से हँस रही थी और गुरु द्रोणाचार्य हो रहे थे  गुस्से से लाल पीले | अपने अर्जुन से ऐसी उम्मीद उन्हें हरगिज नहीं थी कि निबंध के नाम पर उन्हीं को चकमा दे देगा | अपने मोटे  चश्में से गोल-गोल कंचे जैसी आँखे तरेर कर बोले – “बेटा अब बन जा मुर्गा| अगर तू निबंध लिख कर नहीं लाता तो सिर्फ तुझे हाथ उठवा कोने में खड़ा करवा देता, पर तुझे मुर्गा इसलिए बनाया जा रहा है कि तूने मुझे बुड़बक  समझा |” यह मेरी जिन्दगी का पहला सबक था कि जहां पतलून पहन कर जाना हो वहां चड्डी पहन कर जाने से मुसीबत खड़ी हो जाती है|       
उस यादगार चुंगी के स्कूल में, मैं तीन वर्ष रहा और फिर समय के साथ, कृष्णा नगर का मकान बदला, स्कूल बदला, कॉलेज बदला और इन सब बदलते परिवेश के बीच मैं भी बदलता चला गया | नहीं बदली तो सिर्फ एक मीठी सी याद जो मेरे उस चकाचौंध से दूर, सीधे-साधे, सरल-सच्चे, गरीब स्कूल की  जिसके चंद सहपाठियों (चंद्रशेखर, हरिओम)   और कर्मठ अध्यापकों  जैसे आ० गोपीराम जी, छोटे लाल जी, राजेन्द्र शर्मा जी  तक के नाम पचास वर्षों के अंतराल के बाद आज  भी याद हैं | दरअसल विद्यालय कभी भी छोटा या बड़ा उसकी ब्रांड इमेज,  साज-सज्जा या चमक दमक से नहीं होता | ये तो विद्या के मंदिर होतें हैं, जहाँ से  इनके  ज्ञान के प्रकाश को नि:स्वार्थ भाव से उत्सर्जित किया जाता है | विद्यालय वह स्थल है जहाँ शिक्षा प्रदान की जाती है। विद्यालय एक ऐसी संस्था है जहाँ बच्चों के शारीरिक,मानसिक, बौद्धिक एवं नैतिक गुणों का विकास होता है। आजकल इन्हीं  विद्या के मंदिरों में व्यावसायिकता का अंश घर कर गया है जिससे आज के अधिकाँश छात्रों में न तो अपने विद्यालयों के प्रति सम्मान रह गया है और न ही अध्यापकों के प्रति श्रद्धा | दूसरे शब्दों में कहें तो जब मंदिरों में से भक्ति विलुप्त हो गई तो मंदिर और दूकान में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाता |
अब फिर आपके समय चक्र को वर्ष 1967 से सीधे 2004 पर ले आता हूँ | दिल्ली का पूरा नक्शा ही बदल चुका था | हम लोग भी नोएडा मैं अपना घोंसला स्थापित कर चुके थे | मेरे पिता श्री रमेश कौशिक का साहित्यिक लेखन कार्य पूरे जोर-शोर से चरम पर चल रहा था | कई कविता संग्रह एक के बाद एक प्रकाशित हो रहे थे | एक दिन उन्होंने मुझे शाहदरा के प्रकाशक तक अपनी पुस्तक की पांडुलिपि पहुँचाने का काम सौंपा | नोएडा से शाहदरा कोई ज्यादा दूर तो था नहीं,  होगा यही कोई दस- बारह किलोमीटर , सो तुरंत स्कूटर उठा कर निकल लिया | काम निपटा कर , जब वापिस लौट रहा था तो रास्ते में कृष्णा नगर के पास से गुजरते हुए  पता नहीं कैसे अचानक दिमाग में विचार कौंधा कि क्यों न आज अपने उस चुंगी वाले स्कूल को जा कर देखूं | दिमाग ने दुबारा सोचने का मौक़ा ही नहीं दिया और मैंने किसी मंत्रमुग्ध यंत्रचलित रोबोट की तरह स्कूटर का रुख स्कूल की दिशा की ओर मोड़ दिया | गली-गलियारे, सडक, चौराहे सब अपना पुराना चौला बदल कर नए रूप में आ चुके थे जोकि स्वाभाविक भी था | जब मैं तब का तीन फुटिया बालक अब छह फीट का मलंग हो सकता हूँ तो इनको भी पूरा अधिकार था समयानुसार परिवर्तन का |
खैर, अता–पता पूँछता, अटकता-भटकता आखिर ख़ोज ही निकाला अपने पुराने नालंदा-तक्षशिला को | पुराना बैरकनुमा भवन अब बहुमंजिली इमारत में बदल चुका था | रविवार का  दिन होने के कारण स्कूल में शांति थी | स्कूल के परिसर में और अन्दर तक चला जा रहा था कि बीच मैदान में आकर अचानक ठिठक गया | आँखों ने कुछ ऐसा देखा जिसे देख कर भी विश्वास करने को दिल नहीं मान रहा था | सामने उन बहुमंजली इमारतों से चारों ओर से घिरे उस मैदान के एक हिस्से में कुछ तोड़-फोड़  का काम हो रहा था और यह तोड़-फोड़ थी उस पुरानी एस्बेस्टस की छतों वाली बैरक को पूरी तरह से हटाने के लिए | ये वही कमरे थी जिनमें मैं पढ़ा करता था | मैं वही मैदान में एक तरफ बैठ कर खामोशी से ताक रहा था उस खंडहरनुमा इमारत को जो मेहमान थी केवल आज भर की | शायद उन्हें इंतज़ार था अंतिम समय में मेरे जैसे भावुक, संवेदनशील इंसान की जिसकी नियति में पुरानी यादों को अपनी गठरी में जिन्दगी भर ढ़ोते रहना है | छत ढह चुकी थी पर ब्लेक बोर्ड अन्दर से मुझे बड़ी दयनीय दृष्टि से निहार रहा था | यह  वही ब्लेक बोर्ड था जिस पर मैंने टाट-पट्टी  पर बैठ कर जिन्दगी के प्रारंभिक पाठ पढ़े और सीखे | यह याद आज भी मेरे रोम-रोम में सिहरन भर देती है | क्या इसे भी मैं केवल एक संयोग ही कहूँ कि अंतिम दिन अंतिम क्षणों में मेरे बचपन का शिक्षा स्थल मुझे खींच कर अपने पास खींच कर ले आया | क्या यह उस ज्ञान के मंदिर में बसी कोई पवित्र आत्मा थी जो ईश्वर का ही रूप थी |
ऐसा ही मिलता-जुलता अनुभव मुझे एक और अवसर पर भी हुआ जिसे आप पथरी की पुकार में पढ़ सकते हैं | यह तो आप भी मानेंगे कि एक ही प्रकार के अनुभव दोहराव  मात्र संयोग नहीं हो सकता  | सच बताइये क्या कभी-कभी आपको नहीं लगता कि कुछ तो है ऐसा आलोकिक जिसे आप शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते, केवल महसूस कर सकते हैं और वह भी दिमाग से नहीं सिर्फ और सिर्फ अपने दिल से | 

Monday, 22 October 2018

कण-कण में भगवान ( भाग 1 ) : बचपन की बहार, पथरी की पुकार

शीर्षक पढ़ कर आज आप सोच रहे होंगें कि आज तो कौशिक जी कुछ धार्मिक प्रवचन देने के मूड में लग रहे हैं | आप थोड़े सही हैं पर थोड़े से गलत | आज मैं कोई हंसी मजाक से भरपूर कोई किस्सा नहीं सुना रहा | लेकिन बाकी किस्सों की तरह से है यह भी आपबीती जिसने मेरी सोच को एक नई दिशा दी है | अब आप उस सोच को जाहिल, अपरिपक्व, अंधविश्वास से परिपूर्ण भी कह सकते हैं, मुझे कोई आपत्ति नहीं पर मैं भी क्या करूँ जब एक विशेष प्रकार की कई घटनाएं मेरे साथ घटित हों तो मैं भी उन्हें मात्र संयोग कह कर टाल भी तो नहीं सकता | 


सपनों की दुनिया 
चलिए बात शुरू करता हूँ अपने बचपन से जिसकी सबसे पुरानी यादें जो ज़हन में अभी तक अंकित हैं वो है जब मेरी उम्र मात्र चार वर्ष की होगी| शायद वह 1960 का साल रहा होगा | शायद कुछ आर्थिक हालातों की मजबूरियां ऐसी रहीं कि नाना-नानी के पास रहना पड़ रहा था | म्रेरे पिता उन दिनों नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कारपोरेशन के उडीसा स्थित जिला क्योंझार के दूर दराज के घने जंगलों में डोनीमलाई लोह अयस्क प्रोजेक्ट में मेरी मां, मेरे बड़े भाई और छोटी बहन के साथ अपनी नई नौकरी पर कार्यरत थे | 

मेरे नाना 

मेरे नाना रेलवे में स्टेशन मास्टर थे और नाना-नानी के लाड़-प्यार से भरपूर मेरा बचपन मस्ती में बीत रहा था | बीच-बीच में नाना का तबादला एक से दूसरे स्टेशनों पर होता रहता था | ये सभी जगह हरिद्वार के आस-पास की ही थी जैसे काकाठेर, डौसनी, पथरी | सारे स्टेशन पर मानों अपना ही एक छत्र राज्य लगता क्योंकि बालमन में गहरे तक यह बात कहीं समा गई थी कि नाना ही इस सारे स्टेशन के मालिक हैं | स्टेशन पर काम करने वाले खलासी, मजदूर , केबिनमेन , पॉइंट्समेन और न जाने कौन कौन सभी मुझे सर माथे चढ़ाए रखते | स्टेशनों पर आती-जाती गाड़ियों को बड़ी उत्सुकता से निहारा करता | स्टेशन का प्लेटफार्म मानों एक तरह से मेरा क्रीडा स्थल बन गया था | स्टेशन मास्टर के कमरे में बैठ कर वहाँ लगे टेलीफोन, लोहे का टोकन गोला निकालने वाले मशीन, टिटहरी की तरह टिक-टिक करने वाली टेलीग्राफ मशीन को देखकर मुझे लगता जैसे किसी जादू के अजब देश में आ गया हूँ | कुल मिलाकर स्टेशन की सारी दुनिया मुझे बहुत ही कौतुहलपूर्ण और मायावी लगती | शरारती अब भी हूँ और तब बचपन में तो खैर पराकाष्ठा ही थी | 


पथरी स्टेशन 
यह बात पथरी रेलवे स्टेशन की है, नाना बाहर प्लेटफार्म पर खड़े होकर हरिद्वार से बंबई जाने वाली देहरादून एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाकर रवाना कर रहे थे और मैं उनके कमरे में लगी एक मशीन से पंगा ले रहा था | स्टेशन से गाडी रवाना करा कर नाना कमरे में आए तो मैं एक आदर्श बालक का रूप लिए बिलकुल शान्तिदूत के अवतार में आ चुका था | इतने में उनके फोन की घंटी बजी फोन सुनते ही नाना प्लेटफार्म की तरफ भागे | वापस आकर मुझे लगभग हड्काने के अंदाज में पूछा तुमने क्या शरारत की | बस उठो और तुरंत घर भागो | अब तो उस उम्र में उन्हें अपनी कारगुजारी क्या बताते, पर बाद में शाम को घर आने पर मैंने उन्हें नानी को कहते सुना कि तुम्हारे लाड़ले ने आज मेरी नौकरी तो लगभग खा ही ली थी | इस की करतूत ने देहरादून एक्सप्रेस को आउटर सिग्नल पर ही खड़ा करवा दिया | बस यह समझ लीजिए उस दिन के बाद स्टेशन का वह जादुई कमरा मेरी पहुँच से ऐसे दूर हो गया जैसे किसी धर्मभीरु पंडित के लिए दारु का अड्डा |

मैं दीनो-दुनिया से बेखबर अपने आप में मस्त था, सब कुछ मज़े में चल रहा था | देर रात घर में एक सज्जन का आना हुआ जिन्हें मेरे पिता ने भेजा था अपने पास उडीसा बुलवाने के लिए | सुबह तड़के ही मुझे जगा कर बोला गया कि तैयार हो जाओ और अधखुली अलसाई आँखे मलता हुआ आधा जागा आधा सोया उन सज्जन के साथ बैठ लिया मैं, रेल गाडी में उड़ीसा के लिए, अपने उन नाना नानी जो मुझ पर जान छिड़कते थे और प्यारे पथरी को छोड़कर , जिनकी मैं आँख का तारा था | मुझे भली प्रकार से याद है तब तक पूरी तरह से दिन भी नहीं निकला था | नाना-नानी से इस प्रकार अचानक अप्रत्याशित रूप से एक झटके में बिछड़ना मेरे बालमन पर एक ऐसी अमिट छाप छोड़ गया जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाया | इसके पीछे एक कारण और रहा और वह था कुछ समय के बाद मेरे नाना का कैंसर से आकस्मिक दुखद निधन | यानी कुछ यूँ समझ लीजिए कि नाना-नानी की याद के प्रतीक पथरी स्टेशन से नाता पूरी तरह से टूट गया | 
अब कहने को तो मैं अपने मां बाप और भाई-बहनों के पास जा कर खुश था पर पथरी की याद, उस घर की याद, उस जगह की महक मेरे दिलो दिमाग में हमेशा के लिए कुछ ऐसी जगह कर चुकी थी कि रात को सपने में भी वही जगह नज़र आती | अब यह सिलसिला था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था | कभी कभी तो लगता अगर मर भी गया तो अतृप्त इच्छा के कारण पथरी रेलवे स्टेशन के पेड़ पर ही भूत बन कर बैठूँगा | 

समय अपनी रफ़्तार से आगे दौड़ता जा रहा था | उड़ीसा से वापिस आकर परिवार दिल्ली में ही बस गया | मैं भी पढाई पूरी कर के नौकरी में भी लग गया | पहली नियुक्ति सीमेंट कारपोरेशन आफ इण्डिया के हिमाचल प्रदेश स्थित राजबन फेक्ट्री में रही | दिल्ली आना जाना लगा ही रहता था | संयोगवश दिल्ली- देहरादून रेलमार्ग पर पथरी का स्टेशन पड़ता है | उस जगह की एक झलक मात्र देखने के लिए मैं पागलों की तरह से ट्रेन के दरवाजे पर बहुत पहले से ही खड़ा हो जाता और कई बार तो भरी बारिश में भीगना भी पडा | पर मेरी ट्रेन होती थी एक्सप्रेस और पथरी था एक छोटा सा स्टेशन जहाँ उसका स्टोपेज ही नहीं था | हर बार मेरी ट्रेन डायरेक्ट मेन लाइन से धड-धडाती हुई पूरी रफ़्तार से निकल जाती और मुझे कुछ भी नज़र नहीं आ पाता क्योंकि प्लेटफार्म पर दूसरी ओर कोई लोकल गाडी खड़ी होती थी | ऐसा कई बार हुआ पर मैं अपना मन मसोसने के सिवाय कर भी क्या सकता था | दीदारे पथरी न होना बदा था, न ही हुआ | 

समय अब भी आगे दौड़ता जा रहा था | साल बदल रहे थे, म्रेरे भी तबादले पर तबादले एक के बाद एक होते जा रहे थे | हिमाचल से हरियाणा , पंजाब, बंगाल कहाँ कहाँ की ख़ाक नहीं छानी | सन 1978 का कलेंडर अब बदल चुका था वर्ष 2009 में | तब मेरी नियुक्ति देहरादून में हो चुकी थी | एक बार किसी कार्यवश हरिद्वार जाना पडा | परिवार भी साथ ही था और मेरे साथ थी मेरी प्यारी मारुती 800 जिसे मेरे सहकर्मियों ने हास- परिहास में गरीब रथ का नाम दिया हुआ था | जिस होटल में रुका था उसके मेनेजर से जिज्ञासा वश पथरी के बारे में पूँछ बैठा | अब मेनेजर ठहरा उधर का ही स्थानीय निवासी, सो मुझे वहां तक जाने का सड़क मार्ग के बारे में भली प्रकार से समझा दिया | सच मानिए उस वक्त मुझे इतनी खुशी हुई जैसे मुझे हमदर्द कंपनी वालों ने रूह आफज़ा शरबत बनाने का 100 साल से गुप्त चले आ रहे फार्मूले को हाथ में थमा दिया हो | 

तो भाई लोगो, तुरंत ही हांक दिया अपने गरीब रथ को पथरी की दिशा में, उस पथरी की ओर जिससे मैं अचानक बिछड़ गया था लगभग 50 साल पहले, अधमुंदी- अलसाई आँखों लिए निपट अधेंरे में | भरी गरमी में पसीना बहाते ,लगभग दो घंटे की जद्दो जहद के बाद रास्ता अटकते भटकते आखिर पहुँच ही गया साक्षात अपने सपनों की दुनिया में | रेलवे स्टेशन ज्यों-का-त्यों था लगभग वैसा ही जैसा छोड़ा था | हाँ विकास का प्रतीक अब बिजली जरुर आ गई थी स्टेशन पर | कुछ झिझकता हुआ स्टेशन मास्टर के उस कमरे में घुसा जहाँ से कभी नाना ने धमका कर भगा दिया था | स्टेशन मास्टर से परिचय हुआ, मेरा परिचय, इतिहास और आने का प्रयोजन जानकार कुछ अचरज और कुछ अचम्भे में मुझे ऐसे देखने लगे जैसे डायनोसोर की प्रजाति का विलुप्त प्राणी ज़ोरेसिक पार्क से निकल कर साक्षात प्रकट हो गया हो | खैर खासे-भले मानस थे, मुझे आराम से बैठ कर चाय पिलाई, ढ़ेरों बातें करीं और मेरे अनुरोध पर उस मकान को भी दिखाया जहां कभी मेरे नाना-नानी रहते थे | अब मैं पूरी तरह से संतुष्ट हो चुका था या यह कह लीजिए कि आत्मा तृप्त हो गई थी और मेरा गरीब रथ लौट चला वापिस देहरादून घर की ओर |

लेकिन यह प्रकरण यहीं समाप्त नहीं हुआ | एक दिन अचानक दिल्ली मुख्यालय से किसी मीटिंग के सिलसिले में बुलावा आया | देहरादून से दिल्ली के लिए ट्रेन से निकल लिया | रास्ते में हरिद्वार से गाडी छूटने के कुछ ही देर बाद मेरी आँख लग गई और लगभग ऊँघने की स्थिति में आ गया | अभी कुछ ही समय बीता होगा कि लगा किसी ने झकझोर कर अर्ध-निंद्रा से जगा दिया हो | ट्रेन काफी देर से कहीं रुकी हुई थी | डिब्बा वातानुकूलित होने और बाहर शाम की कम रोशनी के कारण खिड़की से बाहर साफ़ नहीं दिख पा रहा था | डिब्बे के दरवाजे पर आकर देखा तो आश्चर्य चकित रह गया | यह वही पथरी का स्टेशन था जिसे देखने के लिए मैं बरसों असफल प्रयत्न करता रहा था | गाडी आज यहाँ क्यों रुकी हुई है और वह भी थोड़ी बहुत देर नहीं पूरे 45 मिनिट | पता लगा कि गाडी का इंजिन फेल हो गया है जिसे ठीक करने की कोशिश की जा रही है | इस बीच मैंने  डिब्बे से उतर कर प्लेटफोर्म पर ही चहलकदमी करने का मन बना लिया | घूमते हुए ज्यों  ही स्टेशन के मुख्य भवन तक पहुँचा, लगा जैसे अचानक बिजली का झटका लगा | जिस जगह को अभी कुछ माह पहले मैं ठीक-ठाक देख कर गया वह इमारत अब अर्ध-खंडहर की हालत में थी | बोर्ड लगा हुआ था जिस पर लिखा था Under Demolition . Renovation in Progress ( इमारत को तोड़कर नवीकरण कार्य प्रगति पर है ) | एकबारगी तो लगा जैसे पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गई हो | मेरी सपनों की जादुई नगरी अंतिम साँसे ले रही थी | उसीने मुझे आवाज देकर आज अपने पास बुलाया, सरपट दौड़ती गाड़ी को तिलस्मी चमत्कार से इतनी देर तक रुका कर रखा | लगा पथरी की आत्मा मुझसे कह रही है “मुझे सपनों में देखने वाले बालक, मुझे अंतिम बार इस रूप में जाते हुए भी देख कर यादों में सजों ले | इसके बाद मुझे याद करना फिर सपनों में ही | अलविदा मेरे बच्चे |” 

अब इस सारी घटना के बाद अगर मेरी सोच यह कहती है कि आत्मा हर जगह है उन वस्तुओं और स्थानों में भी जिन्हें आप निर्जीव समझते हैं, निष्प्राण समझते हैं, तो क्या गलत है | असल बात होती है उस विश्वास, भावना और आस्था की तीव्रता की जो हमारे दिलोदिमाग में होता है | अगर पथरी केवल एक नाम मात्र का स्थान भर ही होता तो वह क्यों इतने संयोग करके मुझे अंतिम दर्शन के लिए अपने पास बुलाता | 

कहना न होगा आज का पथरी रेलवे स्टेशन अपनी नयी साजो-सज्जा के साथ एक अलग ही नई पीढ़ी के अवतार में सर उठाए शान से खड़ा है जिससे मेरी हिम्मत नहीं होती आँखे मिलाने की | मैं उसके पुराने रूप में ही खुश था | 

Monday, 15 October 2018

सफरनामा : बुरे फँसे


आइये आज की बात सीधे ही बिना किसी लाग लपेट के, बिना कोई लम्बी चौड़ी भूमिका बाँधे शरू की जाए | सीधी बात का भी कुछ अलग ही मज़ा होता है | तो आज का किस्सा है दरअसल एक आपबीती का, उस अनुभव का जिससे नवयुवक दोस्तों की चौकड़ी उस हद तक गुज़री कि मौज-मस्ती और फोटोग्राफी के नाम पर जोखिम उठाने के शौक ने उन्हें एक तरह से जिन्दगी के उस भयावह मोड़ पर ला खड़ा किया जहां कुछ भी हो सकता था | अब मैं आपलोगों के बीच में से उठ जाता हूँ जिससे आप सुन सकें यह आपबीती कहानी सीधे उसी मित्र मंडली के एक सदस्य प्रियंक की ज़ुबानी :
मैं प्रियंक हूँ , उम्र लगभग 27 वर्ष , शौक-  फोटोग्राफी,  व्यवसाय- फोटोग्राफी और फिल्म निर्माण,  मेरी सांस में, मेरे ख़्वाब में , मेरी रगों में दौड़ते खून में सिर्फ और सिर्फ एक ही चीज़ – कैमरा और फोटोग्राफी की दुनिया | मेरा मानना है कि जब शौक इस हद तक जुनून बन जाए कि आप उसे व्यवसाय के रूप में भी सफलता पूर्वक अपना लेतें हैं तो आप शायद दुनिया के सबसे खुशनसीब इंसान हैं | मेरे साथ के अधिकतर दोस्त भी इसी फोटोग्राफी के क्षेत्र से जुड़े हुए हैं | फोटोग्राफी और फिल्म निर्माण का  काम बाहर से जितना आकर्षक और मायावी लगता है उससे अधिक इसमें लगी होती है कमरतोड़ पसीना बहाऊ मेहनत |  फोटोग्राफी बस कैमरे का शटर दबाकर क्लिक करने पर ही ख़त्म नहीं हो जाती, पता नहीं कितने-कितने दिन और रातें लग जाती हैं उन फिल्म्स  को कंप्यूटर पर सुधार कर बाहरी दुनिया को दिखाने योग्य बनाने में |  मेरी ही टीम के एक बहुत ही होनहार सदस्य हैं अतुल गुप्ता , उम्र 20  वर्ष , बहुत ही मेहनती, समझदार और अपने काम में हर तरह से माहिर | जाहिर है जब लगातार काम के बोझ से मैं  थक जाता हूँ तो अतुल की भी वही हालत हो जाती है |  मेरे ही हमउम्र तीसरे दोस्त हैं देहरादून निवासी  विवेक रावत | इनका मसूरी के निकट हाथी पाँव में  की हरी-भरी वादियों में भीड़ भाड़ से दूर बहुत ही भव्य और सुन्दर होटलनुमा  रिज़ोर्ट  है - Saiva Hills Resort | होटल व्यवसाय भी पूरी तरह से जिम्मेदारी और मेहनत माँगने वाला काम है | जाहिर है विवेक भाई भी हमारी थकेली टीम के मेम्बर हुए | सो हुआ कुछ यूँ कि जब अपने अपने  कामों से पूरी तरह से थक और ऊब चुके थे तो आपस में कुछ ऐसी सलाह बनी कि अपने अपने दड़बों से बाहर निकल कर ताज़ी हवा में सांस ली जाए जिससे आगे आने वाले समय में फिर से चुस्त दुरस्त  होकर फिर से एक नई हिम्मत, ताकत और  तरोताज़गी से भरपूर होकर फिर से काम धंधे में  जुट जाएं |  प्लान कुछ ऐसा बना कि सड़क मार्ग से श्रीनगर और लेह की यात्रा की जाए और लगे हाथों इस  सफ़र पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी तैयार कर ली जाए | अचानक कहाँ से दिमाग में एक फितूर सा उठा कि भाई यह तीन दोस्तों की तिगड्डी का आँकड़ा कुछ तिरछा सा लग रहा है क्योंकि कहतें हैं तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा | तो सोचा कि किसी चौथे दोस्त को भी शामिल कर लिया जाए | अब यह चौथा दोस्त आ गया अभिषेक बंसल जिसका दिल्ली में ही अपना व्यवसाय है | थोड़े में कहूँ तो हमारी मस्त-मलंगों की चौकड़ी पूरी तरह से तैयार हो चुकी थी अपने 2500 कि.मी. के घुमंतू अभियान पर निकलने के लिए|
प्रियंक 
अतुल गुप्ता 


विवेक रावत 

अभिषेक बंसल 

 बरसाती  मौसम शुरू से ही बार-बार अठखेलियाँ ले रहा था | बीच-बीच में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर के ऊँचे पहाड़ी इलाकों में होने वाली बर्फबारी, भूस्खलन और भारी बारिश की भी खबरें अखबारों और टी .वी. में आजाती थीं जिनको सुनकर हम सबके  घर-परिवार वालों की चिंता होना स्वाभाविक ही था | अब हालात ये कि एक ओर घर वालों का समझाना और दूसरी ओर हम सबके काम-धंधे की व्यस्तता और समय की कमीं की मजबूरी, करें तो करें क्या | खैर किसी तरह घर वालों को समझाया-बुझाया और राम का नाम लेकर यात्रा का कार्यक्रम पक्का कर ही डाला |
सारी तैयारियां पूरी करके अगले दिन   15  सितम्बर को सुबह सवेरे  बाकायदा इस यात्रा की देहरादून से  शुरुआत हुई | पहाड़ों पर सफ़र करने के हिसाब से हमारे पास बोलेरो गाड़ी थी  जिसे मैं और विवेक भाई बारी-बारी से चलाते रहते थे | लम्बे सफ़र में अगर गाडी चलाने वाले कम से कम दो शख्स हों तो सफ़र काफी हद तक सुरक्षित हो जाता है | अ नाम राशि के  अतुल और अभिषेक वैसे तो गाड़ी चलाना जानते थे पर शायद रफ़्तार वाले  हाईवे और पहाड़ी  रास्तों के वे इतने अभ्यस्त नहीं थे | आराम से खाते-पीते ( पीने का वो मतलब नहीं जो आप समझ रहें हैं ) चल रहे थे |  दिन गुजर रहे थे , रास्ते में आ रहे थे पावंटा साहिब, अम्बाला, जालंधर, पठानकोट ,पतनीटॉप , श्रीनगर , लेह , हुन्डर , पेंगांग लेक | सब जगह खूब घूमें फिरे , जहां थक गए वहीं   रात को डेरा वहीं डाला और मस्त खर्राटेंदार नींद ली |
पेंगोंग झील में विवेक भाई 
पेंगोंग झील

अब हमें मनाली होकर  वापसी का रास्ता पकड़ना था | पेंगोंग से 21  तारीख को सुबह उस मस्त झील में मस्ती से भरपूर स्नान ध्यान करके दोपहर दो बजे तक करू पहुच गए और  रात को वहीं डेरा जमा लिया | कुछ तो हम थक चुके थे और ऊपर से आगे का रास्ता बहुत ही लंबा और जोखिम भरा होने का पहले से ही कुछ-कुछ अंदाजा था इसलिए अपने को शारीरिक और मानसिक रूप से पूरी तरह से तैयार करना जरूरी था |

कारू  से 22 सितम्बर को  सुबह 7 बजे ही हम चल दिए | हमारा आज लगभग 319 कि.मी. का सफ़र करके पर केय्लोंग पर  रात्रि पड़ाव करने का इरादा था | मौसम ने अब धीरे-धीरे अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था | बर्फ पड़नी शुरू हो गई थी | अब हमारे अतुल भाई के लिए तो यह सातवे अजूबे  से कम नहीं थी | जिन्दगी में पहली बार इतनी पास से बर्फ जो देखने को मिल रही थी वरना तो अब तक इस सफ़र में भी दूर पहाड़ो की चोटी पर से ही बर्फ देख-देख कर खुश हो लेते थे | बात केवल अतुल की ही नहीं थी, मन ही मन में तो मुझे , विवेक और अभिषेक भी इस बदले हुए मौसम का पूरा आनंद उठा रहे थे | पर यह क्या जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ती जा रही थी वैसे-वैसे बर्फबारी और तेज़ होती जा रही थी | सड़क पर पड़ी बर्फ की परत ड्राइविंग को और अधिक मुश्किल बना रही थी | 

मामला बस कुछ ऐसा ही हो चला था कि सावधानी  हटी और दुर्घटना घटी | बर्फ हटाने के लिए गाड़ी के वाइपर पूरी रफ़्तार पर विंडस्क्रीन की सफाई का काम कर रहे थे | सड़क के किनारे चट्टानों पर भी अब बर्फ के ढेर बढ़ते जा रहे थे | गाड़ी  चलाना भी अब कुछ थोड़ा मुश्किल लग रहा था | अब हालात यह थे कि रास्ते में आगे बढ़ने के सिवाय और कोई चारा भी न था | बीच में कहीं टिकने का ठिकाना भी नहीं था | दोपहर के 1 बजने को आ गए थे पर मौसम में कोई बदलाव नहीं बल्कि और खराब होता जा रहा था | अब तक हम करीब  250  कि.मी. का सफ़र तय कर चुके थे और16000 फीट की ऊंचाई वाले  बारालाचा दर्रे तक पहुंच थे  | 
बदलता मौसम - पर मस्ती में हम 

सड़क से ही दूर पहाड़ की चोटी पर एक आर्मी का वीरान बर्फ से ढका शेल्टर हाउस नज़र आ रहा था जिसमें किसी समय सैनिकों की तैनाती भी रहती थी | एक बार भारी बर्फबारी और हिमस्खलन से वहां कई सैनिक दबकर ज़िंदा दफ़न हो गए | बाद में इस स्थान पर सैनिकों की तैनाती की आवश्यकता नहीं समझी गई और तभी से यह शेल्टर हाउस वीरान पडा है | कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि यह जगह भुतहा है और आने जाने वालों को देर रात उन सैनिकों की परछाइयाँ और दर्द भरी चीखें सुनाई देती हैं | अब सच्चाई तो ऊपर वाला ही जाने पर यह जरूर सच है कि उस जगह से भरी दोपहर में भी गुजरते हुए उस वीरान इमारत को देखने भर से शरीर में डर की एक सिहरन सी दौड़ गई |  
बारालाचा का वीरान भूतहा आर्मी शेल्टर होम 
      
बारालाचा से थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि  आगे ट्रेफिक रुका हुआ था, गाड़ियों की लम्बी कतार लगी हुई थी, आगे भारी बर्फ के कारण रास्ता बंद हो चुका था | हम से आगे कम से कम 250 गाड़ियाँ   तो रहीं ही होंगीं | इनमे कुछ ज्यादातर तेल के टेंकर, रसद और सामन लेजाने वाले ट्रक और टूरिस्टों की गाड़ियाँ थीं | हमने भी काफी देर तक गाड़ियों की लम्बी कतार  में ही इंतज़ार किया जैसे कि और लोग कर रहे थे | अब वहाँ जितने तरह के लोग उतनी ही तरह की बातें | हिम्मत बढ़ाने वाले कम और डराने वाले ज्यादा | एक ट्रक के सरदार ड्राइवर जी ने तो जोर-जोर से शोर मचा कर एक तरह से नौटंकी ही कर रखी थी | हमने तकरीबन 10 घंटे तक तो इंतज़ार किया पर उसके बाद सोचा कि हाथ पर हाथ धर कर बैठने से तो कुछ होगा नहीं इसलिए कुछ न कुछ तो करना ही होगा | रुकी हुई सड़क का आगे तक पैदल ही मुआयना किया तो लगा कि आगे कुछ दूर तक तो जाने का रिस्क लिया ही जा सकता है | इसमें एक फायदा यह भी था कि आगे रास्ते में जाने पर ढलान थी और ऊँचाई कम होती जायेगी जिससे आक्सीजन की कमीं की समस्या से काफी हद तक छुटकारा मिल सकता था | इससे पहले मैं एक बार मोटर साइकिल पर भी लेह तक जा चुका था इसलिए उस जगह से काफी हद तक वाकिफ़ था | सामने से कोई ट्रेफिक आ नहीं रहा था इसलिए खड़ी गाड़ियों की बगल से अपनी गाड़ी सबसे आगे निकाल कर रात के घोर अँधेरे में 10 बजे ही हिम्मत करके उस बर्फीली सड़क पर ही आगे बढ़ा दी |


  हमने आगे जाते देख कर हमारे पीछे बंगाल से आये टूरिस्टों की 2 गाड़ियाँ भी साथ लग लीं | अब ऐसे चाहे हमारा पागलपन कहिए या बहादुरी पर उस घटाटोप अंधेरे में बर्फबारी के बीच हम करीब 12 कि.मी. तक अपनी गाडी को किसी तरह से खींच ही लाए | रात के 2 बज रहे थे और पहुँच चुके थे जिंगजिंग बार जहाँ से आगे बढ़ना कतई नामुमकिन था | इस जगह पर सड़क किनारे बॉर्डर रोड ओर्गेनाइज़ेशन (बी.आर.ओ ) का छोटा सा लेबर केम्प था | अब हमने उसी जगह पर रुकने में भलाई समझी | पिछली  दो गाड़ियों में बैठे टूरिस्टों में महिलायें भी थी इसलिए उनका इंतजाम वहीं लेबर केम्प के हट में करवा दिया | अब रह गए हम , तो अगर पंगा लिया था तो भुगतना भी पड़ेगा यही सोच कर अपनी गाड़ी में ही सोने का जुगाड़ करने लगे |
अब आप सोच सकते हैं उस बियाबान, अंधेरी बर्फबारी के बीच हड्डियाँ जमा देने वाली कड़कती ठण्ड के बीच फँसे हमलोगों पर क्या बीत रही होगी | मोबाइल फोन के सिग्नल का तो सवाल ही नहीं था | उस गाड़ी में हीटर / ब्लोअर  भी खराब पड़ा था | अबतक जिन स्पोर्ट्स शूज़ को पूरे सफ़र में पहने हुए  था उनमें बर्फ पर चलने की वज़ह से पानी भर चुका था और पहनने के लायक ही नहीं रह गए थे | मजबूरी में सेंडल पहने बैठा हुआ था | आँखों से नींद कोसों दूर थी | गाड़ी में बैठे विवेक भाई , अतुल , अभिषेक और मेरी सभी की ड्यूटी लगी हुई थी | किसी को हर आधे घंटे के बाद गाडी को स्टार्ट करके इंजिन को ज़माने से बचाना था तो किसी को गाडी के बाहर निकल कर जमीं हुई बर्फ को साफ़ करना था |

जैसे तैसे करके सवेरा हुआ | बर्फबारी के बंद होने के अब भी कोई आसार नहीं | बी.आर.ओ  लेबर केम्प की छोटी से हटरी नुमा दुकान में चाय-नाश्ते का बमुश्किल इंतजाम हो पाया | 23 सितम्बर का सारा दिन इधर से उधर भटकती आत्माओं की तरह से घूमते रहे इस आस में कि कहीं से कोई मदद आ जाए |  पर मदद ने न आना था और न ही आई | उधर दिन ढलने पर आ रहा था और इधर  मायूसी थी कि बढ़ती चली जा रही थी | अब जो रात आई यह हमारी सड़क पर गाड़ी  में ही बर्फबारी के बीच  माइनस 12 डिग्री के टेम्प्रेचर पर सोने की दूसरी रात थी | घर वालों से पिछले तीन दिनों से किसी भी तरह से कोई संपर्क ही नहीं था | दिल में तरह तरह के ख्याल आ रहे थे | बर्फ इतनी तेजी से गिर रही थी कि गाडी की छत पर लगे कैरियर पर रखे बेग्स और सूटकेस पर इतनी मोटी बर्फ की चादर चढ़ चुकी थी कि अन्दर से कुछ भी गरम कपड़े  और सामान निकालना नामुमकिन था | एक बारगी तो दिल में यहाँ तक ख्याल आया कि पता नहीं घर  वालों से मिलना हो भी पायेगा कि नहीं | पूरी  रात अपनी गाडी के डेशबोर्ड पर लगे भोले बाबा की तस्वीर को देख-देख कर मन ही मन में गुहार लगा रहे थे कि बाबा तुम्हारी नगरी में तुम्हारे ही  बच्चे संकट  में फँसे हुए हैं, बस हमारी रक्षा करो |  यह रात भी बहुत मुश्किल  से बिताई उसी पिछली रात के रूटीन की तरह | थोड़ी-थोड़ी देर में बाहर निकल कर गाडी के ऊपर से जमीं बर्फ को साफ़ करते हुए और बीच-बीच में गाड़ी को स्टार्ट करते हुए |
बर्फ में फंस गई अपनी सवारी  
जिंगजिंग बार की कड़कती बर्फ में आज सुबह हमारा दूसरा सवेरा था और तारीख हो चुकी थी 24  सितम्बर | बर्फबारी  अभी भी जारी थी लेकिन हाँ पहले से कुछ कम | हमारी गाडी पूरी तरह से टायर तक बर्फ में धँस चुकी थी | दरवाज़े भी खुलने का नाम नहीं ले रहे थे | किसी तरह से थोड़ी बहुत जगह बनाकर बाहर निकल पाए और बेलचे से बर्फ हटा कर गाड़ी  के दरवाज़े खुलने लायक किये | सारा दिन फिर इंतज़ार में ही बिताया और इधर मौसम भी  कुछ खुलना शुरू हो रहा था |  आखिरकार मदद आयी एक जे सी बी मशीन के रूप में | बी.आर.ओ. ने इस मशीन से सड़क से बर्फ काटने का काम शुरू किया | शाम को साढ़े छह: बजे से हम और हमारे साथ की दो गाड़ियाँ जो जिंगजिंग बार में फँसी हुई थी उस जे.सी.बी. मशीन के पीछे-पीछे चलते रहे और पूरी  रात यह मशक्कत जारी रही | जब थक जाता तो आपरेटर आराम करने बैठ जाता और एकबारगी तो सुबह के चार बजे उसने हाथ ही खड़े कर दिए कि अब उसके बस का नहीं  है | उसे बंगाली टूरिस्टों ने कैसे रो-धोकर मनाया यह तो हम ही जानते हैं | बस अब इतना समझ लीजिए कि 6 कि.मी की दूरी पूरी करने में सारी रात यानी पूरे 13 घंटे लग गए और हम पहुँच चुके थे पाट्सी के आर्मी केम्प में | इस जगह पर आर्मी की बेरक्स  बनीं हुई थी | यहाँ पहुँच कर हमें पहली बार लगा कि अब हम सुरक्षित हैं |
पात्सू आर्मी केम्प की ओर 

पात्सू आर्मी केम्प  :हमारी शरण-गाह  


पाट्सी के आर्मी केम्प में हमें 25 से 27 सितम्बर तक तीन दिन रहना पड़ा | 70 रुपये में  सुबह का  नाश्ता और दिन और रात का खाना भी मिल जाता था | आर्मी की छत्र –छाया में थे , सर पर मंडराता खतरा दूर जा चुका था अब तो बस यही इंतज़ार था कि कब सड़क खुलें और कब हम अपने घरों को बेलगाम घोड़ों की तरह भागें |आर्मी के  सेटेलाईट फोन के जरिए घर वालों को अपने सुरक्षित होने का सन्देश भेज दिया |  दिन भर का समय या तो फोटोग्राफी करने में बिताते या बर्फ के पुतले बनाने में | इस बीच बचाव कार्य जोरों से शुरू हो चुका था |केम्प में बचाए गए अन्य लोगों का भी आना शुरू हो गया था | हालाँकि हम खुद मुसीबत के मारे शरणार्थी  थे पर इस बचाव कार्य में अपना हर संभव सहयोग दे रहे थे | विवेक भाई ने अपनी बोलेरो गाडी के अन्दर और छत के ऊपर भी लोगों को बैठा कर जिंगजिंग बार से आर्मी केम्प तक पहुँचाया | ऊँचें पहाड़ों पर फँसे ट्रेकर्स और टूरिस्टों को ख़ोज कर लाया जा रहा था | यह अभियान  अब तक सबसे लम्बे समय तक चलने वाले बचाव कार्यों में से एक था जिसमें कुल 4800 बर्फ में फँसे  लोगों को बचाया गया | एयरफोर्स का बचाव दल हेलीकोप्टरों से आ पहुंचा और केम्प में फसें हुए लोगों की निकासी शुरू हो चुकी थी | लोगों को  और सबसे बड़े  हमने इंतज़ार करना ही ठीक समझा क्योंकि हम अपनी गाड़ी छोड़ कर नहीं जा सकते थे |

बचाव कार्य शुरू 
खैर जिस घड़ी का बेसब्री से इंतज़ार था वह आखिर आ ही गई और सड़क पूरी तरह  साफ़ होने से पहले ही हम 28 सितम्बर की  रात को ही पाट्सी केम्प को विदा देकर निकल लिए यह सोच कर कि जहां तक रास्ता मिलेगा वहां तक तो पहुंचें | रात को लगभग 11 बजे किलोंग  तक पहुंचे जोकि एक छोटा सा कस्बा है | इस सारी भयंकर बर्फबारी और टूरिस्टों की आवाजाही बंद होने की वजह से  सारा बाज़ार बंद , कहीं कोई नज़र नहीं आ रहा था | जैसे तैसे एक जगह रात को रुकने का इंतजाम किया | अगले दिन सुबह सवेरे ही निकल पड़े मनाली की ओर | रास्ता रोहतांग पास से होता हुआ जाता है जोकि पहले ही बर्फ के वजह से बंद पड़ा हुआ था |  ऐसी हालत में सरकार ने रोहतांग टनल को एमरजेंसी में इस्तेमाल करने की इजाज़त दे दी हालांकि यह अभी तक पूरी तरह से ट्रेफिक  जाने के लिए तैयार नहीं है |  इस  9 कि.मी लम्बी सुरंग इस टनल के माध्यम से रोहतांग पास से गुजरे बिना सीधे ही मनाली काफी का समय में पहुंचा जा सकता है |
मनाली पहुँच कर जान में जान आयी | पता नहीं कितने दिनों के बाद नहाना हुआ ,दाढी बनवाई और जबरदस्त नींद ली | 
मनाली पहुँचने पर हालत 

विवेक भाई की दाढ़ी 

मेरी शकल पर बज गए थे बाराह 

मजेदार  किस्से तो आगे की दिल्ली तक की यात्रा में भी रहे पर वो जोखिम से भरे नहीं थे  इसलिए  उनका जिक्र नहीं |  हाँ लगे हाथों यह भी बता दूँ कि इस खतरों से भरे समय में भी  जब जान के लाले पड़े हुए थे मैंने तब भी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म तैयार कर ही ली , जिसकी एक छोटी सी  झलक जल्द ही आपतक पहुंचाने की कोशिश करूंगा |  
प्रियंक कथा यहीं तक |
लगे हाथों चलते-चलते मैं आपको आपको यह भी बता दूँ  बता दूँ कि श्रीमान प्रियंक के इस तथाकथित लद्दाख यात्रा के दिनों में मेरी भी काफी दिनों तक नींद उड़ गई थी .... आखिर मैं उसका अब्बा हुजूर जो ठहरा |  


Wednesday, 10 October 2018

रहिमन गुस्सा कीजिए.......

फिल्मों का मैं बचपन से ही शौक़ीन रहा हूँ और आप भी रहे ही होंगे | हो सकता है आज भी आपका यह शौक बरकरार हो | चलिए मुझे एक बात का जवाब दीजिए - अगर फिल्म में से खलनायक यानी कि विलेन को निकाल दिया जाए तो कैसा लगे ? आप में से अधिकांश लोगों का जवाब होगा –“अरे आप भी कमाल करते हैं, बस ऐसा लगेगा जैसे बिना मिर्च मसाले की सब्जी, बिना पहिए की साइकिल और बिना इंजिन की रेलगाड़ी | बस समझ लीजिए मामला हर तरह से बेस्वाद, बदरंग और बेमज़ा |” बिल्कुल सही फरमाया आपने | अब ज़रा लगे हाथों यह भी बता दीजिये कि खलनायक की सबसे ख़ास बात क्या होती है ? अब आप तो सीधे से सवाल पर अपना सर खुजलाने लगे जैसे मैंने आपसे पूछ लिया हो कि इस बार सत्ता में मोदी जी दोबारा से सिंहासन पर विराजमान होंगे या नहीं | चलिए मैं ही बता देता हूँ – खलनायक की सबसे बड़ी अदा और खासियत होती है उसका गुस्सा, उसका रौद्र रूप जो अन्य बुराइयों के साथ मिलकर फिल्म की कहानी में मिर्च मसाले का ऐसा तड़का लगाते हैं कि सारे दर्शक चटकारा लेते हुए फिल्म को हिट करवा देते हैं | अब आप ही मुझे जरा ठन्डे दिमाग से सोच कर बताइये – अगर शोले फिल्म से गब्बर को निकाल दें, या गब्बर की डायलाग डिलीवरी अमोल पालेकर के अंदाज़ में हो तो अच्छी भली फिल्म का हश्र बेचारे लालू यादव सरीखा हो जाएगा कि नहीं | तो बंधु सौ बातों की एक बात, फिल्म की आन खलनायक और खलनायक की पहचान उसका गुस्सा | अब आप मेरी बात चाहे मानें या ना मानें पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि आदि काल से आज तक कई लोगों को तो उनके गुस्से के कारण ही जाना जाता है | भूल गए आप आश्रमों में तपस्यारत ऋषि-मुनियों को जो तपस्या भंग होने पर क्रोधित होकर कमंडल से जल छिड़कते हुए तुरंत श्राप देने पर उतारू हो जाते थे और उनके इन्ही श्रापों के कारण ढ़ेरों पौराणिक कथाओं का उद्भव हुआ | और किसी को हम जानें या न जानें पर आदि मुनि परशुराम जी से सभी भली- भांति परिचित हैं केवल दो कारणों से – एक उनका फरसा और दूसरा उनका क्रोध | आज मैं आपको इस गुस्से या क्रोध के बारे में ही कुछ बताने जा रहा हूँ |

एक तरह से देखा जाए तो गुस्से की भी कई किस्म होती हैं –

बारूदी गुस्सा 

1. बारूदी गुस्सा : इस प्रकार का गुस्सा धमाके के साथ विस्फोटित होता है और सामने वाले को संभलने का मौक़ा नही नहीं देता | यहाँ पर क्रिया और प्रतिक्रिया में समय का कोई विशेष अंतर नहीं होता | अक्सर निरीह पति गृहयुद्ध में इस प्रकार के बारूदी गुस्से में गंभीर रूप से घायल होते ही रहते हैं | अगर नमूना देखना है तो आप पत्नी से उसकी बनाई चाय की बुराई कर दीजिए या कह दीजिए कि उसका वजन बढ़ रहा है और अगर आपको उच्च शक्ति का विस्फोट कराना है तो सर पर हेलमेट और पाँव में दौड़ने वाले जूते पहन कर बस पत्नी की तुलना उसकी किसी सहेली या पड़ोसन से कर दीजिए| इस बारूदी गुस्से के विस्फोट की आवाज़ से अक्सर आपका आस-पड़ोस भी वाकिफ़ हो जाता है और आमना-सामना होने पर पड़ोसी आपसे खैरियत पूछ लेते हैं | इस गुस्से से बचने का केवल एक ही उपाय है – बारूद से सावधान रहिए , उसे तीली न दिखाइये | बस इतना समझ लीजिए, सावधानी में ही सुरक्षा है | 
साहबी गुस्सा 

2. साहबी गुस्सा : इसे आप एक तरह से नकचढ़ा गुस्सा भी कह सकते हैं | यह होता है साहब लोगों की शान , होता जिससे मुलाजिम परेशान | अब जितना बड़ा साहब, उसकी उतनी बड़ी नाक और उस नाक पर विराजमान उससे भी बड़ा गुस्सा | अब यह गुस्सा भी ऐसा जिसका न कोई सर न कोई पैर | कारण कुछ भी – मेरे कमरे में ये मक्खी कहाँ से आ गई , एसी का टेम्प्रेचर ठीक क्यों नहीं, घंटी बजाने पर चपरासी अलादीन के जिन्न की तरह से तुरंत हाज़िर क्यों नहीं हुआ | जब साहब के इर्द-गिर्द कुछ लोग-बाग़ होते हैं तो इस प्रकार के झुँझलाहट भरे बादलों के गरज के साथ बरसने की संभावना बढ़ जाती है | अब उस माहौल में बन्दा इतना भी नहीं सोच पाता कि अपना तुनक मिजाज़ी साहबी गुस्सा दिखा कर लोगों को एक नया चुटकला खुद अपने हाथों से सौंप देता है | शायद मैंने आपको पहले भी कहीं बताया था कि हमारे एक महा महिम रूपी साहब अपने चेंबर में बैठे मातहतों पर रौब ग़ालिब करने के लिए अपनी बीवी को ही फोन पर हड़का कर गुर्राते थे “ तुम्हें पता है तुम किस से बात कर रही हो |” अब ना रहे वह साहब और ना ही उनका गुस्सा | पहले तो सलाम का जवाब भी नदारत होता था पर अब तो हालात यह हैं कि जब कभी उनको पुरानी सल्तनत के दीदार करने की हुड़क होती है, दफ्तर की बिल्डिंग में घुसते ही खुद ही सिक्योरिटी गार्ड, लिफ्ट मेन, चपरासी, बाबू जो रास्ते में पड़ जाए उसी को रोक रोककर खुद ही सलाम के गोले ठोकते चले जाते हैं | शायद इसी को कहते हैं वक्त की मार, जिसके आगे सब लाचार | इस प्रकार के गुस्से से बचाव का सर्वोत्तम उपाय है – उस वक्त बेशक आपके दिमाग में गाली हो पर मुँह पर हो ताला | और हाँ समय-समय पर साहब पर मख्खन की मालिश करते रहने से उनकी नाक का तापमान ठीक रहता है और भूचाल आने की संभावना कुछ हद तक कम हो जाती है |
पनडुब्बी गुस्सा 

3. पनडुब्बी गुस्सा : यह एक प्रकार से क्रोध का राजनीतिक रूप होता है और अधिकतर विरोधी नेताओं के बीच पाया जाता है | दफ्तरों भी बड़े–बड़े आला दर्जे के डायरेक्टरों और चेयरमेन के समकक्ष बिरादरी के बीच भी यह पनडुब्बी और तारपीडो का खेल खूब खेला जाता है | इसकी ख़ास बात यही होती है कि इनके व्यवहार रूपी समुद्र की सतह पर सब कुछ शांत दिखता है पर वही पुरानी बात, जो दिखता है वह वास्तव में होता नहीं है | इस प्रकार के गुस्से से ग्रसित प्राणी आपस में साथ-साथ बैठ कर खाना खायेंगे, हँसेंगे, बतियांगें, गल-बहिया डाल कर बहुत जोरदार अभिनय भी करेंगे पर उसी हद तक जब तक कि इनके आपस में स्वार्थों का टकराव न हो | जब कभी भी इन्हें लगता है कि इनका तथाकथित साथी इनके मुकाबले में प्रतिस्पर्धी बन चुका है, तुरंत इनके गुस्से की पनडुब्बी से विनाशकारी तारपीडो निकलने शुरू हो जाते हैं | आगे निकलने की होड़ में अपने ही साथी की इतनी सच्ची-झूठी शिकायतें ऊपर के अधिकारियों और जांच-संस्थाओं तक भिजवाएंगे कि आपको भी एक बारगी लगने लगेगा कि यह बन्दा है या केंकड़ा | पनडुब्बी गुस्सा, खाए खेले खुर्राट किस्म लोगों के बीच ही पनपता है इसलिए कह सकते हैं कि सर्प विष का इलाज़ हो सकता है पर इस गुस्से का इलाज तो लुकमान हकीम के पास भी नहीं है | आप भी इसका इलाज करने का जोखिम मत उठाइएगा, बस दो सांडों की लड़ाई समझ कर, मल्ल युद्ध का मज़ा लेना पर किनारे सुरक्षित स्थान पर बैठ कर , क्योंकि बीच में आ गए तो एक भी हड्डी-पसली साबुत नहीं बचेगी |
बर्फानी गुस्सा 

4. बर्फानी गुस्सा : इस प्रकार के गुस्से को आप अक्सर संभ्रांत वर्ग के उच्च कोटि के लोगों के बीच नोट कर सकते हैं | यह उस प्रकार के थर्मस की भांति है जिसमें अन्दर तो उबलता हुआ पानी है पर बाहर सब कुछ सामान्य | पनडुब्बी गुस्से में तो बाहर से कतई पता नहीं चलता पर बर्फानी गुस्से का थोड़ा सा अंश बाहर खिसक ही आता है | इसका पता तो अंत में तभी चलता है जब मामला तलाक तक पहुँच जाता है | इसका इलाज़ केवल इस गुस्से के घायल मरीजों के ही पास होता है जो कि आपसी बातचीत द्वारा ही संभव है |
नखरीला गुस्सा 

5. नखरीला गुस्सा : यह गुस्से की सब से नाज़ुक किस्म है जिसे आप अक्सर फिल्मों में हीरो-हीरोइन, पार्कों में प्रेमी-प्रेमिका और अडोस-पड़ोस में नव विवाहित जोड़ों के बीच पाते हैं | रूठना-मनाना, मान-मनुहार इसके विशेष गुण हैं | इससे आपको घबराने की कोई आवश्यकता नहीं | यह केवल मियादी बुखार की तरह है जो नियत अवधि के बाद अपने आप चला जाता है | हाँ बाद में यह जब भी यह पुन: अवतरित होता है तो इसका रूप बिगड़ कर बारूदी गुस्सा हो चुका होता है जिसका उपचार मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ | 

सारे महान संत सीख देते देते चले गए कि भाई क्रोध से दूर रहो पर मैं आपको कहता हूँ कि गुस्सा जरुर करो, इसके बिना गुजारा नहीं | हमारे पूज्य पिता जी कहा करते थे कि बेटा जो बेवक्त गुस्सा करता है वह बेवकूफ़ है और जो वक्त पर भी गुस्सा नहीं करता वह महाबेवकूफ होता है | आपको क्रोध के नुक्सान बताने वाले अनगिनत ज्ञानी मिल जायेंगे पर मैं आज आपको गुस्सा करने के लाभ बताता हूँ : 

1. गुस्सा करने से आपका अंदर का ब्लड प्रेशर शांत हो जाता है वरना घुट-घुट कर होते रहिए परेशान | आप खुद देखिए ज्यादातर डिप्रेशन के मरीज वे होते हैं जो किसी के आगे अपनी मन की गाँठ भी नहीं खोलते हैं | अब मोदी जी का स्वास्थ देखिये, भगवान् नज़र न लगाए, कितना उत्तम है , और हो भी क्यों न, अपने अन्दर की सारी भड़ास हर माह मन की बात कह कर निकाल देते हैं, जिसे सुनना है सुने, जिसे नहीं सुनना उसकी मर्जी | 

2. गुस्सा करने से काम के प्रति प्रेरणा जाग्रत होती है | हर व्यक्ति से आप केवल पुचकार कर ही काम नहीं करवा सकते | कुछ ख़ास किस्म के अड़ियल लोगों से काम कराने के लिए आपको गाजर के साथ डंडा भी चाहिए ही |

3. सही समय पर किया गया सही मात्रा में किया गया गुस्सा आपको आने वाली मार-पिटाई की अवस्था से भी बचा लेता है | जब पिस्टल से काम चल रहा है तो तोप की क्या जरुरत | 

अब मुझे लग रहा है कि मेरी इन अनूठी शिक्षाप्रद बातें सुनकर आपका खून भी धीरे-धीरे खौलना शुरू हो गया है और आप शायद अपने आस-पास किसी लाठी डंडे की तलाश करने की सोच रहे हैं | इससे पहले कि आप मेरी ख़ोज में जुट जाएँ , मैं एक मेड इन चाइना दोहे के साथ अपनी बात समाप्त करके भागना चाहूँगा : 

रहिमन गुस्सा कीजिए, चौड़े करके नैन ,
दुष्ट भस्म हो जाएगो, खुद को आए चैन | 

(जनहित में जारी : लेख में दिए गए सुझाव, जानकारी और इलाज का प्रयोग अपने स्वयं की जिम्मेदारी पर करें | अगर लड्डू आप अकेले-अकेले खायेंगे तो कभी- कभी मिलने वाले लट्ठ पर भी आपका ही इकलोता हक़ है, उस समय मेरी तलाश करने का प्रयत्न न करें)

Monday, 8 October 2018

अंधेर नगरी - चौपट राजा



पता नहीं उस दिन मैं कौन सी अफीम की पिनक में था कि फोन पर अपने एक  सहकर्मी से, जो बी.बी.सी के संवाददाता की भांति दफ्तर की ताजा-तरीन ख़बरों की नवीनतम जानकारी रखने में माहिर थे,   बात कर बैठा | बातों ही बातों में उनसे पूछ बैठा कि भाई जी सुना है कि रिटायर्ड लोगों के लिए   मेडीकल स्कीम का इंतजाम हो रहा है  | वे  बोले जनाब सही सुना है बस ज़रा इंतज़ार कीजिए | हमने पूछा इंतज़ार किस बात का तो बोले आपको पहचान पत्र जारी किया जाएगा | हमने फिर मिमियाँ कर गुहार लगाई कि हुजूर फिर देर किस बात की, अल्लाह का नाम लेकर कर दीजिए बिस्मिल्ला | मित्र गुर्राए और फरमाया “मियाँ किस दुनिया में फाख्ता उड़ा रहे हो | दुनिया में कुछ शर्मो हया, वफ़ादारी और जी हुजूरी भी अभी कुछ बाकी है कि नहीं | लगता है दीनो- दुनिया से कतई अनजान हो और इसीलिए परेशान हो | खुदा सलामत रखे खुशामदी टट्टुओं को जिनके लिए सूफी शायर अमीर खुसरो फरमा गए है – दमादम मस्त कलंदर , अली दा पहला नंबर |  मतलब अपने आला अफसर  अली को हर जगह पहले नंबर पर तजरीह ( priority ) देते रहिए और फिर काम धाम जाए तेल लेने, करो चाहे मत करो, साहब खुश तो छुट्टे मलंग सांड की तरह मस्त कलंदर बनकर कुर्सी के मजे लूटिए | अब हम तुम्हारे बारे में सोचें जो चार साल पहले रिटायर हुए हो या अपने आला हाकिम के बारे में जो एक महीने  बाद रुखसत हो रहे हैं |  तुम्हें  क्या फर्क पड़ता है घर पर पड़े पड़े खटिया तोड़ रहे हो , हमारे अफसरों को अभी अपनी सी. आर भी तो लिखवानी है कि नहीं वरना छोटे मियाँ कैसे बन पायेंगे बड़े मियाँ |”
खुदा कसम,  इस बुढापे में इतनी बेज्जती तौबा तौबा | वो तो खैरियत थी कि हमारा चीरहरण फ़ोन पर ही हुआ वरना द्रौपदी की इज्जत  तो सरे बाज़ार पक्का  उतरती  और रूट की सभी लाइनें व्यस्त होने के कारण कृष्ण भगवान तक तो हमारा मेसेज भी नहीं पहुँच पाता | इतनी शर्मिंदगी तो बचपन में भी स्कूल में भरी क्लास के आगे मुर्गा बनने पर भी नहीं हुई | समझ में आ रहा था कि भतीजे  अखिलेश यादव से इज्ज़त का फालूदा करवा कर चाचा शिवपाल यादव को कैसा लगा था | पर हम भी ठहरे अव्वल दर्जे के  ढीठ, तेरा पीछा न छोडूंगा सोनिये, भेज दे चाहे जेल में | फिर से मित्र से गुजारिश करी “ कुछ खुलासा तो कर दो |” अब दोस्त के तेवर भी कुछ कुछ ढीले पड़ने लगे थे | शायद उन्हें भी अपनी रिटायरमेंट की तारीख याद आ गई थी | बोले “मियाँ अब तुम से क्या छुपाएँ , हकीकत यह है कि बिस्मिल्ला करने के लिए सबसे  पहला पहचान कार्ड तो हमारे हाकिम अली को ही रिटायरमेंट के दिन में जारी किया जायेगा और वो भी पूरे ढ़ोल धमाके की पार्टी के साथ |आशिक़  का जनाजा है धूम से तो निकलेगा ही । भैया फेयरवेल पार्टी में  समोसा चाय  पानी  के बजट में कटौती तो आप लोगों के लिए है न कि साहब लोगों के वास्ते | यह सब इंतजाम करने के बाद फुर्सत मिली तो आप लोगों की हारी-बीमारी के बारे में भी सोच लिया जाएगा | आपलोग लाइन में  लगे रहो, इंतजार करो क्योंकि सब्र का फल मीठा होता है |” 
अब आप ही सोचिए, बूढ़े व्यक्ति के पास सब कुछ हो सकता है , नहीं हो सकता तो केवल एक चीज़ जिसे कहते हैं वक्त | अपने सहकर्मी दोस्त की बात सुनकर मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि यह खासम-ख़ास लोगों के लिए तेल मालिश- बूट पालिश और चिलम भरने की खानदानी आदत से कब छुटकारा मिलेगा | मंदिर में जाईये, रेल  में, आम सड़क पर या अस्पताल में  भी ( याद करिए जय ललिता को ) , हर जगह इनके लिए अलग ख़ास अलग इंतजाम | अरे बाकी सब तो छोड़िए, जब परम पिता परमेश्वर के पास जाना है तो भी भाई लोगों को शमशान भूमि - निगम बोध घाट में सबसे अलग ऊँचा सा ख़ास चबूतरा ही चाहिए | इन सब के बावजूद भी , मैं बहुत कोशिश करने के बाद भी  आज तक इनके पार्थिव अवशेष जिसे आप राख का नाम भी दे सकते हैं में कोई अंतर नहीं देख पाया | उसका रंग वही, गंध वही और ऐसा भी कुछ नहीं कि गंगा में प्रवाहित होने के बाद कोई विशेष चमत्कार होता हो |
अभी किस्सा ख़त्म नहीं हुआ क्योंकि हमारे दोस्त ने सबसे अंत में दे डाला एक ओर जोर का झटका धीरे से | कहने लगे “एक बात और सुन लीजिए इस शिनाख्ती कार्ड को हासिल करने के लिए भी आपको हमारे दफ्तर के दरो- दरवाजे पर सज़दा तो करना ही पड़ेगा | अपना और अपनी पत्नी का फोटो, अपना आधार कार्ड , अपना रिटायरमेंट लेटर वगैरा वगैरा के साथ अपनी तशरीफ़ का टोकरा तो इस तुगलकाबाद में लाना ही पडेगा |” जानम समझा करो की तर्ज़ पर मैंने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश करी कि भाई यह कंप्यूटर और इन्टरनेट की ऑन लाइन दुनिया का ज़माना है फिर जब सारे काम नेट के द्वारा हो सकते हैं तो क्यों हम लोगों की बुढापे में मट्टी पलीद करने पर तुले हो | आज आप घर बैठे अपना पेन कार्ड बनवा सकते हो, बैंक का खाता खोल सकते हो, बिजली, पानी , गैस , फोन, इंश्योरेंस के बिल भर सकते हो  और तो और खुद के जिन्दा होने का सबूत यानी जीवन प्रमाण पत्र भी हासिल कर सकते हो  | आप जिस जगह बैठे हैं वहां तक की राज्य  सरकार आम लोगों के घरों तक विभिन्न सर्टिफिकेट और योजनाओं का फ़ायदा पहुँचा रही है फिर यह हम पर क़यामत का डंडा क्यों बरसा रहे हो | हम पर नहीं तो कम से कम हमारे उन साथियों के बारे में सोचो जो आज इस दुनिया में नहीं रहे| उनकी उम्रदराज विधवाओं पर तो तरस खाएं और इस परेशानी के आलम से बचाएं | ज़वाब मिला “हाकिमों का मानना है कि आप लोग  कंप्यूटर के मामले में अनपढ़ हैं इसलिए आपलोगों के लिए यही वाजिब है | जरुरत आपकी है, हमारी नहीं |"  मैं भी आखिर कितनी बहस कर सकता था , थक  हारकर  अपना सर पीट कर रह गया क्योंकि पुरानी देसी कहावत याद आ गई थी कि ना मानूं की कोई दवा नहीं होती है |

अब हाकिम अली के रिटायरमेंट पर एक नंबर का कार्ड जारी होने तक , मेडीकल के लिए शिनाख्ती कार्ड योजना के उदघाटन का इंतज़ार कर रहे हैं सब सभी बुड्ढे – ठुड्डे और  मुझे याद आ रहा है वो किस्सा जब एक गाँव में लोगों को नए शमशान घाट के लिए काफी इंतज़ार करना पडा था क्योंकि नेता जी का हुक्म था कि इस नए शमशान भूमि में सबसे पहले उन्हीं को फूंका जाए |

एक ही उल्लू काफी है , बर्बाद गुलिस्ता करने को,
हर शाख पे उल्लू बैठा है , अंजामें गुलिस्ता क्या होगा |