Monday 15 October 2018

सफरनामा : बुरे फँसे


आइये आज की बात सीधे ही बिना किसी लाग लपेट के, बिना कोई लम्बी चौड़ी भूमिका बाँधे शरू की जाए | सीधी बात का भी कुछ अलग ही मज़ा होता है | तो आज का किस्सा है दरअसल एक आपबीती का, उस अनुभव का जिससे नवयुवक दोस्तों की चौकड़ी उस हद तक गुज़री कि मौज-मस्ती और फोटोग्राफी के नाम पर जोखिम उठाने के शौक ने उन्हें एक तरह से जिन्दगी के उस भयावह मोड़ पर ला खड़ा किया जहां कुछ भी हो सकता था | अब मैं आपलोगों के बीच में से उठ जाता हूँ जिससे आप सुन सकें यह आपबीती कहानी सीधे उसी मित्र मंडली के एक सदस्य प्रियंक की ज़ुबानी :
मैं प्रियंक हूँ , उम्र लगभग 27 वर्ष , शौक-  फोटोग्राफी,  व्यवसाय- फोटोग्राफी और फिल्म निर्माण,  मेरी सांस में, मेरे ख़्वाब में , मेरी रगों में दौड़ते खून में सिर्फ और सिर्फ एक ही चीज़ – कैमरा और फोटोग्राफी की दुनिया | मेरा मानना है कि जब शौक इस हद तक जुनून बन जाए कि आप उसे व्यवसाय के रूप में भी सफलता पूर्वक अपना लेतें हैं तो आप शायद दुनिया के सबसे खुशनसीब इंसान हैं | मेरे साथ के अधिकतर दोस्त भी इसी फोटोग्राफी के क्षेत्र से जुड़े हुए हैं | फोटोग्राफी और फिल्म निर्माण का  काम बाहर से जितना आकर्षक और मायावी लगता है उससे अधिक इसमें लगी होती है कमरतोड़ पसीना बहाऊ मेहनत |  फोटोग्राफी बस कैमरे का शटर दबाकर क्लिक करने पर ही ख़त्म नहीं हो जाती, पता नहीं कितने-कितने दिन और रातें लग जाती हैं उन फिल्म्स  को कंप्यूटर पर सुधार कर बाहरी दुनिया को दिखाने योग्य बनाने में |  मेरी ही टीम के एक बहुत ही होनहार सदस्य हैं अतुल गुप्ता , उम्र 20  वर्ष , बहुत ही मेहनती, समझदार और अपने काम में हर तरह से माहिर | जाहिर है जब लगातार काम के बोझ से मैं  थक जाता हूँ तो अतुल की भी वही हालत हो जाती है |  मेरे ही हमउम्र तीसरे दोस्त हैं देहरादून निवासी  विवेक रावत | इनका मसूरी के निकट हाथी पाँव में  की हरी-भरी वादियों में भीड़ भाड़ से दूर बहुत ही भव्य और सुन्दर होटलनुमा  रिज़ोर्ट  है - Saiva Hills Resort | होटल व्यवसाय भी पूरी तरह से जिम्मेदारी और मेहनत माँगने वाला काम है | जाहिर है विवेक भाई भी हमारी थकेली टीम के मेम्बर हुए | सो हुआ कुछ यूँ कि जब अपने अपने  कामों से पूरी तरह से थक और ऊब चुके थे तो आपस में कुछ ऐसी सलाह बनी कि अपने अपने दड़बों से बाहर निकल कर ताज़ी हवा में सांस ली जाए जिससे आगे आने वाले समय में फिर से चुस्त दुरस्त  होकर फिर से एक नई हिम्मत, ताकत और  तरोताज़गी से भरपूर होकर फिर से काम धंधे में  जुट जाएं |  प्लान कुछ ऐसा बना कि सड़क मार्ग से श्रीनगर और लेह की यात्रा की जाए और लगे हाथों इस  सफ़र पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी तैयार कर ली जाए | अचानक कहाँ से दिमाग में एक फितूर सा उठा कि भाई यह तीन दोस्तों की तिगड्डी का आँकड़ा कुछ तिरछा सा लग रहा है क्योंकि कहतें हैं तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा | तो सोचा कि किसी चौथे दोस्त को भी शामिल कर लिया जाए | अब यह चौथा दोस्त आ गया अभिषेक बंसल जिसका दिल्ली में ही अपना व्यवसाय है | थोड़े में कहूँ तो हमारी मस्त-मलंगों की चौकड़ी पूरी तरह से तैयार हो चुकी थी अपने 2500 कि.मी. के घुमंतू अभियान पर निकलने के लिए|
प्रियंक 
अतुल गुप्ता 


विवेक रावत 

अभिषेक बंसल 

 बरसाती  मौसम शुरू से ही बार-बार अठखेलियाँ ले रहा था | बीच-बीच में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर के ऊँचे पहाड़ी इलाकों में होने वाली बर्फबारी, भूस्खलन और भारी बारिश की भी खबरें अखबारों और टी .वी. में आजाती थीं जिनको सुनकर हम सबके  घर-परिवार वालों की चिंता होना स्वाभाविक ही था | अब हालात ये कि एक ओर घर वालों का समझाना और दूसरी ओर हम सबके काम-धंधे की व्यस्तता और समय की कमीं की मजबूरी, करें तो करें क्या | खैर किसी तरह घर वालों को समझाया-बुझाया और राम का नाम लेकर यात्रा का कार्यक्रम पक्का कर ही डाला |
सारी तैयारियां पूरी करके अगले दिन   15  सितम्बर को सुबह सवेरे  बाकायदा इस यात्रा की देहरादून से  शुरुआत हुई | पहाड़ों पर सफ़र करने के हिसाब से हमारे पास बोलेरो गाड़ी थी  जिसे मैं और विवेक भाई बारी-बारी से चलाते रहते थे | लम्बे सफ़र में अगर गाडी चलाने वाले कम से कम दो शख्स हों तो सफ़र काफी हद तक सुरक्षित हो जाता है | अ नाम राशि के  अतुल और अभिषेक वैसे तो गाड़ी चलाना जानते थे पर शायद रफ़्तार वाले  हाईवे और पहाड़ी  रास्तों के वे इतने अभ्यस्त नहीं थे | आराम से खाते-पीते ( पीने का वो मतलब नहीं जो आप समझ रहें हैं ) चल रहे थे |  दिन गुजर रहे थे , रास्ते में आ रहे थे पावंटा साहिब, अम्बाला, जालंधर, पठानकोट ,पतनीटॉप , श्रीनगर , लेह , हुन्डर , पेंगांग लेक | सब जगह खूब घूमें फिरे , जहां थक गए वहीं   रात को डेरा वहीं डाला और मस्त खर्राटेंदार नींद ली |
पेंगोंग झील में विवेक भाई 
पेंगोंग झील

अब हमें मनाली होकर  वापसी का रास्ता पकड़ना था | पेंगोंग से 21  तारीख को सुबह उस मस्त झील में मस्ती से भरपूर स्नान ध्यान करके दोपहर दो बजे तक करू पहुच गए और  रात को वहीं डेरा जमा लिया | कुछ तो हम थक चुके थे और ऊपर से आगे का रास्ता बहुत ही लंबा और जोखिम भरा होने का पहले से ही कुछ-कुछ अंदाजा था इसलिए अपने को शारीरिक और मानसिक रूप से पूरी तरह से तैयार करना जरूरी था |

कारू  से 22 सितम्बर को  सुबह 7 बजे ही हम चल दिए | हमारा आज लगभग 319 कि.मी. का सफ़र करके पर केय्लोंग पर  रात्रि पड़ाव करने का इरादा था | मौसम ने अब धीरे-धीरे अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था | बर्फ पड़नी शुरू हो गई थी | अब हमारे अतुल भाई के लिए तो यह सातवे अजूबे  से कम नहीं थी | जिन्दगी में पहली बार इतनी पास से बर्फ जो देखने को मिल रही थी वरना तो अब तक इस सफ़र में भी दूर पहाड़ो की चोटी पर से ही बर्फ देख-देख कर खुश हो लेते थे | बात केवल अतुल की ही नहीं थी, मन ही मन में तो मुझे , विवेक और अभिषेक भी इस बदले हुए मौसम का पूरा आनंद उठा रहे थे | पर यह क्या जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ती जा रही थी वैसे-वैसे बर्फबारी और तेज़ होती जा रही थी | सड़क पर पड़ी बर्फ की परत ड्राइविंग को और अधिक मुश्किल बना रही थी | 

मामला बस कुछ ऐसा ही हो चला था कि सावधानी  हटी और दुर्घटना घटी | बर्फ हटाने के लिए गाड़ी के वाइपर पूरी रफ़्तार पर विंडस्क्रीन की सफाई का काम कर रहे थे | सड़क के किनारे चट्टानों पर भी अब बर्फ के ढेर बढ़ते जा रहे थे | गाड़ी  चलाना भी अब कुछ थोड़ा मुश्किल लग रहा था | अब हालात यह थे कि रास्ते में आगे बढ़ने के सिवाय और कोई चारा भी न था | बीच में कहीं टिकने का ठिकाना भी नहीं था | दोपहर के 1 बजने को आ गए थे पर मौसम में कोई बदलाव नहीं बल्कि और खराब होता जा रहा था | अब तक हम करीब  250  कि.मी. का सफ़र तय कर चुके थे और16000 फीट की ऊंचाई वाले  बारालाचा दर्रे तक पहुंच थे  | 
बदलता मौसम - पर मस्ती में हम 

सड़क से ही दूर पहाड़ की चोटी पर एक आर्मी का वीरान बर्फ से ढका शेल्टर हाउस नज़र आ रहा था जिसमें किसी समय सैनिकों की तैनाती भी रहती थी | एक बार भारी बर्फबारी और हिमस्खलन से वहां कई सैनिक दबकर ज़िंदा दफ़न हो गए | बाद में इस स्थान पर सैनिकों की तैनाती की आवश्यकता नहीं समझी गई और तभी से यह शेल्टर हाउस वीरान पडा है | कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि यह जगह भुतहा है और आने जाने वालों को देर रात उन सैनिकों की परछाइयाँ और दर्द भरी चीखें सुनाई देती हैं | अब सच्चाई तो ऊपर वाला ही जाने पर यह जरूर सच है कि उस जगह से भरी दोपहर में भी गुजरते हुए उस वीरान इमारत को देखने भर से शरीर में डर की एक सिहरन सी दौड़ गई |  
बारालाचा का वीरान भूतहा आर्मी शेल्टर होम 
      
बारालाचा से थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि  आगे ट्रेफिक रुका हुआ था, गाड़ियों की लम्बी कतार लगी हुई थी, आगे भारी बर्फ के कारण रास्ता बंद हो चुका था | हम से आगे कम से कम 250 गाड़ियाँ   तो रहीं ही होंगीं | इनमे कुछ ज्यादातर तेल के टेंकर, रसद और सामन लेजाने वाले ट्रक और टूरिस्टों की गाड़ियाँ थीं | हमने भी काफी देर तक गाड़ियों की लम्बी कतार  में ही इंतज़ार किया जैसे कि और लोग कर रहे थे | अब वहाँ जितने तरह के लोग उतनी ही तरह की बातें | हिम्मत बढ़ाने वाले कम और डराने वाले ज्यादा | एक ट्रक के सरदार ड्राइवर जी ने तो जोर-जोर से शोर मचा कर एक तरह से नौटंकी ही कर रखी थी | हमने तकरीबन 10 घंटे तक तो इंतज़ार किया पर उसके बाद सोचा कि हाथ पर हाथ धर कर बैठने से तो कुछ होगा नहीं इसलिए कुछ न कुछ तो करना ही होगा | रुकी हुई सड़क का आगे तक पैदल ही मुआयना किया तो लगा कि आगे कुछ दूर तक तो जाने का रिस्क लिया ही जा सकता है | इसमें एक फायदा यह भी था कि आगे रास्ते में जाने पर ढलान थी और ऊँचाई कम होती जायेगी जिससे आक्सीजन की कमीं की समस्या से काफी हद तक छुटकारा मिल सकता था | इससे पहले मैं एक बार मोटर साइकिल पर भी लेह तक जा चुका था इसलिए उस जगह से काफी हद तक वाकिफ़ था | सामने से कोई ट्रेफिक आ नहीं रहा था इसलिए खड़ी गाड़ियों की बगल से अपनी गाड़ी सबसे आगे निकाल कर रात के घोर अँधेरे में 10 बजे ही हिम्मत करके उस बर्फीली सड़क पर ही आगे बढ़ा दी |


  हमने आगे जाते देख कर हमारे पीछे बंगाल से आये टूरिस्टों की 2 गाड़ियाँ भी साथ लग लीं | अब ऐसे चाहे हमारा पागलपन कहिए या बहादुरी पर उस घटाटोप अंधेरे में बर्फबारी के बीच हम करीब 12 कि.मी. तक अपनी गाडी को किसी तरह से खींच ही लाए | रात के 2 बज रहे थे और पहुँच चुके थे जिंगजिंग बार जहाँ से आगे बढ़ना कतई नामुमकिन था | इस जगह पर सड़क किनारे बॉर्डर रोड ओर्गेनाइज़ेशन (बी.आर.ओ ) का छोटा सा लेबर केम्प था | अब हमने उसी जगह पर रुकने में भलाई समझी | पिछली  दो गाड़ियों में बैठे टूरिस्टों में महिलायें भी थी इसलिए उनका इंतजाम वहीं लेबर केम्प के हट में करवा दिया | अब रह गए हम , तो अगर पंगा लिया था तो भुगतना भी पड़ेगा यही सोच कर अपनी गाड़ी में ही सोने का जुगाड़ करने लगे |
अब आप सोच सकते हैं उस बियाबान, अंधेरी बर्फबारी के बीच हड्डियाँ जमा देने वाली कड़कती ठण्ड के बीच फँसे हमलोगों पर क्या बीत रही होगी | मोबाइल फोन के सिग्नल का तो सवाल ही नहीं था | उस गाड़ी में हीटर / ब्लोअर  भी खराब पड़ा था | अबतक जिन स्पोर्ट्स शूज़ को पूरे सफ़र में पहने हुए  था उनमें बर्फ पर चलने की वज़ह से पानी भर चुका था और पहनने के लायक ही नहीं रह गए थे | मजबूरी में सेंडल पहने बैठा हुआ था | आँखों से नींद कोसों दूर थी | गाड़ी में बैठे विवेक भाई , अतुल , अभिषेक और मेरी सभी की ड्यूटी लगी हुई थी | किसी को हर आधे घंटे के बाद गाडी को स्टार्ट करके इंजिन को ज़माने से बचाना था तो किसी को गाडी के बाहर निकल कर जमीं हुई बर्फ को साफ़ करना था |

जैसे तैसे करके सवेरा हुआ | बर्फबारी के बंद होने के अब भी कोई आसार नहीं | बी.आर.ओ  लेबर केम्प की छोटी से हटरी नुमा दुकान में चाय-नाश्ते का बमुश्किल इंतजाम हो पाया | 23 सितम्बर का सारा दिन इधर से उधर भटकती आत्माओं की तरह से घूमते रहे इस आस में कि कहीं से कोई मदद आ जाए |  पर मदद ने न आना था और न ही आई | उधर दिन ढलने पर आ रहा था और इधर  मायूसी थी कि बढ़ती चली जा रही थी | अब जो रात आई यह हमारी सड़क पर गाड़ी  में ही बर्फबारी के बीच  माइनस 12 डिग्री के टेम्प्रेचर पर सोने की दूसरी रात थी | घर वालों से पिछले तीन दिनों से किसी भी तरह से कोई संपर्क ही नहीं था | दिल में तरह तरह के ख्याल आ रहे थे | बर्फ इतनी तेजी से गिर रही थी कि गाडी की छत पर लगे कैरियर पर रखे बेग्स और सूटकेस पर इतनी मोटी बर्फ की चादर चढ़ चुकी थी कि अन्दर से कुछ भी गरम कपड़े  और सामान निकालना नामुमकिन था | एक बारगी तो दिल में यहाँ तक ख्याल आया कि पता नहीं घर  वालों से मिलना हो भी पायेगा कि नहीं | पूरी  रात अपनी गाडी के डेशबोर्ड पर लगे भोले बाबा की तस्वीर को देख-देख कर मन ही मन में गुहार लगा रहे थे कि बाबा तुम्हारी नगरी में तुम्हारे ही  बच्चे संकट  में फँसे हुए हैं, बस हमारी रक्षा करो |  यह रात भी बहुत मुश्किल  से बिताई उसी पिछली रात के रूटीन की तरह | थोड़ी-थोड़ी देर में बाहर निकल कर गाडी के ऊपर से जमीं बर्फ को साफ़ करते हुए और बीच-बीच में गाड़ी को स्टार्ट करते हुए |
बर्फ में फंस गई अपनी सवारी  
जिंगजिंग बार की कड़कती बर्फ में आज सुबह हमारा दूसरा सवेरा था और तारीख हो चुकी थी 24  सितम्बर | बर्फबारी  अभी भी जारी थी लेकिन हाँ पहले से कुछ कम | हमारी गाडी पूरी तरह से टायर तक बर्फ में धँस चुकी थी | दरवाज़े भी खुलने का नाम नहीं ले रहे थे | किसी तरह से थोड़ी बहुत जगह बनाकर बाहर निकल पाए और बेलचे से बर्फ हटा कर गाड़ी  के दरवाज़े खुलने लायक किये | सारा दिन फिर इंतज़ार में ही बिताया और इधर मौसम भी  कुछ खुलना शुरू हो रहा था |  आखिरकार मदद आयी एक जे सी बी मशीन के रूप में | बी.आर.ओ. ने इस मशीन से सड़क से बर्फ काटने का काम शुरू किया | शाम को साढ़े छह: बजे से हम और हमारे साथ की दो गाड़ियाँ जो जिंगजिंग बार में फँसी हुई थी उस जे.सी.बी. मशीन के पीछे-पीछे चलते रहे और पूरी  रात यह मशक्कत जारी रही | जब थक जाता तो आपरेटर आराम करने बैठ जाता और एकबारगी तो सुबह के चार बजे उसने हाथ ही खड़े कर दिए कि अब उसके बस का नहीं  है | उसे बंगाली टूरिस्टों ने कैसे रो-धोकर मनाया यह तो हम ही जानते हैं | बस अब इतना समझ लीजिए कि 6 कि.मी की दूरी पूरी करने में सारी रात यानी पूरे 13 घंटे लग गए और हम पहुँच चुके थे पाट्सी के आर्मी केम्प में | इस जगह पर आर्मी की बेरक्स  बनीं हुई थी | यहाँ पहुँच कर हमें पहली बार लगा कि अब हम सुरक्षित हैं |
पात्सू आर्मी केम्प की ओर 

पात्सू आर्मी केम्प  :हमारी शरण-गाह  


पाट्सी के आर्मी केम्प में हमें 25 से 27 सितम्बर तक तीन दिन रहना पड़ा | 70 रुपये में  सुबह का  नाश्ता और दिन और रात का खाना भी मिल जाता था | आर्मी की छत्र –छाया में थे , सर पर मंडराता खतरा दूर जा चुका था अब तो बस यही इंतज़ार था कि कब सड़क खुलें और कब हम अपने घरों को बेलगाम घोड़ों की तरह भागें |आर्मी के  सेटेलाईट फोन के जरिए घर वालों को अपने सुरक्षित होने का सन्देश भेज दिया |  दिन भर का समय या तो फोटोग्राफी करने में बिताते या बर्फ के पुतले बनाने में | इस बीच बचाव कार्य जोरों से शुरू हो चुका था |केम्प में बचाए गए अन्य लोगों का भी आना शुरू हो गया था | हालाँकि हम खुद मुसीबत के मारे शरणार्थी  थे पर इस बचाव कार्य में अपना हर संभव सहयोग दे रहे थे | विवेक भाई ने अपनी बोलेरो गाडी के अन्दर और छत के ऊपर भी लोगों को बैठा कर जिंगजिंग बार से आर्मी केम्प तक पहुँचाया | ऊँचें पहाड़ों पर फँसे ट्रेकर्स और टूरिस्टों को ख़ोज कर लाया जा रहा था | यह अभियान  अब तक सबसे लम्बे समय तक चलने वाले बचाव कार्यों में से एक था जिसमें कुल 4800 बर्फ में फँसे  लोगों को बचाया गया | एयरफोर्स का बचाव दल हेलीकोप्टरों से आ पहुंचा और केम्प में फसें हुए लोगों की निकासी शुरू हो चुकी थी | लोगों को  और सबसे बड़े  हमने इंतज़ार करना ही ठीक समझा क्योंकि हम अपनी गाड़ी छोड़ कर नहीं जा सकते थे |

बचाव कार्य शुरू 
खैर जिस घड़ी का बेसब्री से इंतज़ार था वह आखिर आ ही गई और सड़क पूरी तरह  साफ़ होने से पहले ही हम 28 सितम्बर की  रात को ही पाट्सी केम्प को विदा देकर निकल लिए यह सोच कर कि जहां तक रास्ता मिलेगा वहां तक तो पहुंचें | रात को लगभग 11 बजे किलोंग  तक पहुंचे जोकि एक छोटा सा कस्बा है | इस सारी भयंकर बर्फबारी और टूरिस्टों की आवाजाही बंद होने की वजह से  सारा बाज़ार बंद , कहीं कोई नज़र नहीं आ रहा था | जैसे तैसे एक जगह रात को रुकने का इंतजाम किया | अगले दिन सुबह सवेरे ही निकल पड़े मनाली की ओर | रास्ता रोहतांग पास से होता हुआ जाता है जोकि पहले ही बर्फ के वजह से बंद पड़ा हुआ था |  ऐसी हालत में सरकार ने रोहतांग टनल को एमरजेंसी में इस्तेमाल करने की इजाज़त दे दी हालांकि यह अभी तक पूरी तरह से ट्रेफिक  जाने के लिए तैयार नहीं है |  इस  9 कि.मी लम्बी सुरंग इस टनल के माध्यम से रोहतांग पास से गुजरे बिना सीधे ही मनाली काफी का समय में पहुंचा जा सकता है |
मनाली पहुँच कर जान में जान आयी | पता नहीं कितने दिनों के बाद नहाना हुआ ,दाढी बनवाई और जबरदस्त नींद ली | 
मनाली पहुँचने पर हालत 

विवेक भाई की दाढ़ी 

मेरी शकल पर बज गए थे बाराह 

मजेदार  किस्से तो आगे की दिल्ली तक की यात्रा में भी रहे पर वो जोखिम से भरे नहीं थे  इसलिए  उनका जिक्र नहीं |  हाँ लगे हाथों यह भी बता दूँ कि इस खतरों से भरे समय में भी  जब जान के लाले पड़े हुए थे मैंने तब भी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म तैयार कर ही ली , जिसकी एक छोटी सी  झलक जल्द ही आपतक पहुंचाने की कोशिश करूंगा |  
प्रियंक कथा यहीं तक |
लगे हाथों चलते-चलते मैं आपको आपको यह भी बता दूँ  बता दूँ कि श्रीमान प्रियंक के इस तथाकथित लद्दाख यात्रा के दिनों में मेरी भी काफी दिनों तक नींद उड़ गई थी .... आखिर मैं उसका अब्बा हुजूर जो ठहरा |  


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