Friday, 7 September 2018

अजब दफ्तर की गज़ब कहानी (भाग 1) : मीठी गोली



गाज़ियाबाद में सी०सी०आई (सीमेंट कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया) का किसी समय में रीजनल आफिस हुआ करता था | मेरी पोस्टिंग 1997 के दौरान हिमाचल प्रदेश में थी इस लिए जब मेरा ट्रांसफर गाजियाबाद के लिए हुआ तो बहुत खुश हुआ कि चलो घर ( नोएडा ) के पास पहुँच रहा हूँ | जब आकर आफिस में ज्वाइन किया तो हालात देखकर तोते उड़ गए | आफिस के नाम पर कुल ले देकर दो छोटे-छोटे कमरे थे जिसमें एक कमरा रीजनल मैनेजर यानी मेरे के लिए और दूसरा बाकी स्टाफ के लिए था | अब स्टाफ भी थोड़े बहुत नहीं पूरे 17 बन्दों का था | अब मज़े की बात यह कि जगह की तंगी के कारण कुर्सियां भी बमुश्किल खींच-तान कर 10-12 ही आ पाती थीं और  बची-खुची जगह में अड्डा जमाया हुआ था फाइलों से लदी अलमारियों ने | उन दिनों  सीसीआई के दिन गर्दिश में चल रहे थे इसलिए काम काज भी कोई ख़ास नहीं था | एक दिन हिम्मत करके अपने एक विश्वस्त कर्मचारी से पूछ ही बैठा “भाई ! ये माजरा क्या है ? यह दफ्तर है या सर्कस | कुम्भ का मेला लगा हुआ है | इतने आदमी तो मुझे कभी चलती फेक्ट्री के मार्केटिंग विभाग में नहीं मिले, यहाँ कुछ काम न धाम फिर यह मेहरबानी कैसी ?” उसने मेरे कान में होले से फुसफुसा कर कहा “ साहब ! यहाँ का ज्यादातर स्टाफ सिफारिशी लोगों का है | हर आदमी जैक लगाता है दिल्ली ट्रांसफ़र के लिए | अब ऊपर वाला दिल्ली तो सबको बुला नहीं सकता , इसलिए ऐसे रंगरूटों  की पोस्टिंग ग़ाज़ियाबाद केंट में होती है | अब इन सिफारिशियों की पलटन संभालना आपका काम | रंगरूट आपके,  थानेदार आप और यह थाना आपका | बस यह ध्यान रखियेगा कि तोप जरा संभाल कर चलाइयेगा इन पर , कहीं बेक-फायर ना हो जाए |” सलाह वाजिब थी और वक्त की नजाकत के मद्देनज़र थी क्योंकि मेरे पुराने दोस्त  वाकिफ़ होंगें  उन दिनों बम गिरने से पहले सायरन नहीं बजा करता था |      
अब ऐसे माहोंल में मेरी सुबह सवेरे की पहली सरदर्दी होती मुय्जिकल चेयर कराने की | उपलब्ध कुर्सियों के हिसाब से ही फ़ालतू लोगों को इधर उधर बाहर के फ़ालतू कामों पर बाहर रवाना करना पड़ता , मसलन तुम मार्केट-सर्वे पर जाओ, तुम फलां डिपार्टमेंट में जाओ ( किसलिए ? बस शकल दिखाने ), तुम फलाँ मेनेजर के घर का पानी का बिल भर आओ | अब इतने सब के बाद भी अगर कोई पलटन का रंगरूट बच जाता तो कहना पड़ता कि जा आज तेरे मज़े आ गए , घर जा टी.वी. पर मैच देख | कभी-कभी लगता कि रीजनल मेनेजर हूँ या सुबह-सुबह लेबर चौक पर खड़ा दिहाड़ी मजदूरों को काम बांटने वाला ठेकेदार |

अलबत्ता उस दफ्तर की एक ख़ास जिम्मेदारी थी गाज़ियाबाद स्थित बिक्री कर विभाग से सेल्स टेक्स के फ़ार्म जारी करवाने जोकि एक टेढ़ी खीर था | दरअसल कमज़ोर वित्तीय स्थिति के कारण बिक्री कर विभाग का भारी बकाया था जिसके कारण वहां के अधिकारियों की खरी खोटी भी सुननी पड़ती थी | यहाँ एक बात बता दूँ कि इन फामों के अभाव में फेक्ट्री से सीमेंट का डिस्पेच नहीं हो सकता था अत: येन केन प्रकारेण इन का जुगाड़ करना पड़ता था | इस काम में माहिर थे हमारे तत्कालीन एकाउंटेंट एन.सी सरकार जिन्हें हम सभी प्यार से दादा बोला करते थे |  रंग गौरा चिट्टा, प्रभावशाली व्यक्तित्व , स्वभाव से अत्यंत मृदु भाषी, गुस्सा उन से कोसों दूर और सोने पर सुहागा यह कि बातों के धनी | हम तो आज तक मानते थे कि मार्केटिंग वाले बातों के उस्ताद होते हैं पर इस मामले में सरकार दादा ने सब को पीछे छोड़ रखा था | एक तरह से उन्हें आप हरफनमौला कह सकते हैं | होम्योपथी की भी अच्छी खासी जानकारी रखते थे |  मैं और सरकार दा सेल्स टेक्स के काम के लिए साथ ही जाया करते थे | अब सेल्स टेक्स डिपार्टमेंट में सम्बंधित असिस्टेंट कमिश्नर   थे श्री ए.के दरबारी जोकि थोड़े में कहें तो गब्बर का दूसरा रूप थे | कोई रहम नहीं, कोई दया नहीं | एक दिन हमने जरा चतुरता दिखाते हुए डिप्टी कलेक्टर को बताया कि हमारे सी.एम.डी भी दरबारी ही हैं | हमारी मंशा थी कि इस बहाने से उनका रवैया हमारे प्रति थोडा नरम हो जाएगा | पर यह क्या, यहाँ तो लगा जैसे तोप बेक फायर कर गई | सुनते ही वो तो गुस्से से उबल पड़े,  जोर से बोले मैं अच्छी तरह से जानता हूँ तुम्हारे चेयरमेन को , मेरे ही कुनबे का ख़ास है , पर हर तरह से बकवास है | अब हालत यह कि  आयें-बायें–शायें जो मुंह में आ रहा था वो बोले जा रहे थे | लगा जैसे बर्र का छत्ता छेड़ दिया हो | वो जो कहावत होती है न कि चौबे जी छब्बे बनने चले थे, दूबे ही  रह गए , का मतलब सही मायने में समझ में आ रहा था | हम भी मन में समझ चुके थे कि इन्हें  कोई पुराने  दर्दे जिगर का ग्रेनेड रहा होगा जिसका सेफ्टी पिन हमने गलती से निकाल दिया, अब धमाका तो होना ही था, पर करें तो करें क्या | चुपचाप कान दबाए ज्वालमुखी के शांत होने का इंतज़ार करते रहे | रेलगाड़ी के स्टेशन पर रुकने पर होले  से सरकार दा ने मुस्कराते हुए परशुराम से पुरानी बीमारियों के बारे में पूछना शुरू कर दिया | लगा जैसे तपते तंदूर पर हलवाई ने पानी के छीटें डाल दिए| कमरे का तापमान अब सामान्य के स्तर पर आने लगा था | शेर और मेमने की कहानी के पात्र अब बदल कर डाक्टर और मरीज का रूप लेने लगे थे | मरीज का सारा हाल जानकार अब हमारे एकाउंटेंट उर्फ़ डाक्टर साहिब ने अपना ब्रीफकेस खोला और होम्योपेथी की मीठी गोलियों की छोटी से शीशी उन्हें पकड़ा दी | दादा ने चुपके से मुझे आँख मारकर चलने का इशारा किया और हम दोनों ही उन्हें एक विनम्र नमस्कार करके  वापिस चलने का अभिनय शुरू कर दिया | अभी हम दरवाज़े की चौखट तक ही पहुचे होंगे कि पीछे से गरजदार आवाज़ आई “साथ के कमरे से बाबू से 100 फ़ार्म इशू करवा लेना | फिलहाल के लिए काफी होंगे |” इतने सारे काण्ड के बाद भी सरकार दादा की  मीठी गोली ने  सहारा रेगिस्तान में भी चेरापूंजी की बरसात करवा दी यह याद करके मैं आज भी बेसाख्ता हँस पड़ता हूँ |                            
  


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