Friday, 14 September 2018

अजब दफ्तर की गज़ब कहानी ( भाग 2) : सर्कस का शेर


मैं इससे पहले अपने अजीबोगरीब सर्कसनुमा गाज़ियाबाद दफ़्तर की बानगी आपको ‘अजब दफ़्तर की गज़ब कहानी (भाग-1)’ में करा चुका हूँ | यहाँ के ऐसे-ऐसे अनगिनत किस्सों की भरमार है जिन्हें अगर लिखने बैठ जाऊं तो राम कसम लतीफों की एक पूरी किताब ही बन जाएगी | इस दफ्तर में काम कम  और खाली दिमाग की  खुराफातें ज्यादा होती थी | अपने पूरे जीवनकाल में इतने मातहत ( गिनती में पुरे 17 ) कभी नहीं मिले जितने गाज़ियाबाद में मेरी दुम से बाँध दिए गए थे | सारे के सारे सिफारिशी , कोई किसी नेता का चेला, कोई भाई तो कोई भतीजा | सब के ठाट गज़ब  और जलवे निराले जिसे देख- देख हम मन ही मन कुढ़ते रहते और सोचा करते हाय हुसैन हम ना हुए | हाँ कभी कभार हमारे पास सजा-याफ्ता मुजरिम भी भेज दिए जाते थे विशेष हिदायतों के साथ कि इन मरखने सांडों से निपटना कैसे है | कई बार चुपचाप बैठा-बैठा सोचता रहता कि भगवान तूने क्या सोचकर मुझ गरीब को इस पागलों के स्कूल का हेड मास्टर  बना दिया |
एक बार सुना कि किसी स्टेनो को ट्रांसफ़र करके गाज़ियाबाद भेजा जा रहा है | सुनकर पहले तो ऐसा  लगा जैसे मुगलों के अंतिम बादशाह बहादुर शाह ज़फर को ब्रिटिश सरकार ने रंगून से वापिस बुलाकर लाल किले का तख्ते ताउस सौंप दिया हो | सोचा चलो अब खतो किताबत करने में थोड़ी सुविधा हो जाएगी वरना अब तक तो चिट्ठियों को हाथ से ही लिख कर भेजा करता था | पर बाद में  दिमाग में यह ख्याल भी मुझे भी पागल करने लगा कि हिन्दुस्तान की आबादी तो पहले से इतनी विस्फोटक हुई पडी है अब इस नवजात शिशु को किस पालने में पालूँगा | पर कर भी क्या सकता था, बुझे दिल से उस 9 बच्चे वाले बिहारी नेता की तरह खुद को समझाया कि जो  परवर दिगार मुँह देता है वही निवाला भी देगा |  
तो जनाब जिन श्रीमान को हमारे यहाँ भेजा वो कद काठी में स्टेनो कम पर पहलवान ज्यादा लगते थे | मुर्गीखाने में हर आने वाले नए मुर्गे की जैसे पूरी जांच पड़ताल की जाती है ऐसे ही कुछ छानबीन करनी मेरे लिए आवश्यक भी थी | पुराने स्कूल के हेडमास्टर से पता चला कि बन्दा बिगड़ा हुआ नेता है | अब नेता भी ऐसा जिसे हर गर्मी में दिमाग में इतनी गरमी चढ़ जाती है कि इस बन्दे और मरखने सांड में कोई अंतर नहीं रह जाता यानी कि कुल मिलाकर मेडीकल प्रोब्लम भी | हो गई न वही बात : एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा  |  अपराध : दिल्ली ग्राइंडिंग यूनिट में फेक्ट्री गेट पर खड़े होकर सरे आम कंपनी के सर्वेसर्वा उस  चेयरमेन के लिए गालियाँ बरसाना जिसके नाम मात्र से ही अच्छे अच्छों का पेंट में ही सूसू निकल जाता था | सब कुछ जानकार अपने आप को समझाया कि  कोई बात नहीं पंडित जी  जब अपना सर इस गाज़ियाबाद के दफ्तर रूपी ओखली में डला ही हुआ है तो इन सांड रूपी मूसलों से क्या डर, जो होगा देखा जाएगा |
कहने वाले कह गए हैं कि बिगडैल घोड़े पर शुरू में ही हंटर नहीं बरसाने चाहिए | फार्मूला काम कर गया , प्यार से बन्दे ने काम शुरू कर दिया | कोई शिकवा नहीं ,कोई शिकायत नहीं, अपने काम में माहिर था और सोने पे सुहागा बला का मेहनती | सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था | कभी-कभी मज़ाक में मुझे वह कह बैठता कि सर आपने जंगल के शेर को आखिर सर्कस का शेर बना ही दिया | मैं भी उसे उसी हलके फुल्के अंदाज़ में जवाब देता कि बेटा जी यह गाज़ियाबाद दफ्तर के सर्कस और सर्कस के रिंग मास्टर का कमाल हैं |
समय गुज़रता जा रहा था और फिर धीरे-धीरे गर्मियों भरे दिनों ने दस्तक देनी शुरू कर दी  |  अच्छे खासे बन्दे के व्यवहार में भी परिवर्तन आने शुरू हो गए | दफ्तर आने के समय में अनियमितता होने लगी, कभी आये तो कभी नहीं | कभी सुबह सुबह  देखता कि दफ्तर के सामने के गलियारे के फर्श पर ही अखबार बिछा कर गहरी नींद में सोए पड़ा है | एक बार तो भाई मेरा, मेरे कमरे में ही कुर्सियां आपस में जोड़ कर खर्राटें मार मार कर कुम्भकर्ण से कम्पटीशन कर रहा था | कई बार सोचता करूँ तो करूँ क्या | अगर ऊपर शिकायत कर दी तो मेनेजमेंट तो बैठा ही इस ताक में है , बन्दे की नौकरी जाने में देर नहीं लगेगी जिसके लिए मेरा दिल गवाही नहीं दे रहा था |  मानवता के नाते मानसिक समस्या को नज़र अंदाज़ भी तो नहीं किया जा सकता था | अपने पिता की कही एक बात आज तक मुझे याद है , कहते थे ये जो दुनिया है डूबते सूरज की आँखों में ही आँख डालने की गुस्ताखी करती  हैं क्योंकि उगते सूरज को घूरने की हिम्मत तो है नहीं | सो जिस पर पहले से ही भगवान की मार है उसे आप और क्या मारेंगे |
एक दिन का वाकया है वह चुपचाप खामोशी की चादर ओढ़े मायूस सा मेरे ही कमरे की एक कुर्सी पर बैठा था | अचानक धडधडाते हुए चार –पांच मुशटंडो का जत्था कमरे में घुस आया और घेर लिया उस जंगल के शेर को |  हद तो तब हो गई जब उन में से एक गुंडे ने अचानक बंदूक की नली उसकी खोपड़ी पर लगा कर धमकाना शुरू कर दिया | एक तरह से पूरा फ़िल्मी सीन सामने पेश हो गया था, पर उस दिन जिन्दगी में पहली बार जाना कि बेटा बंदूक को सिनेमा के पर्दे पर देखना एक बात है पर जब असल में दुनाली से सामना होता है तो अल्लाह, जीसस और ईश्वर तीनों ही एक साथ प्रकट हो जाते हैं यह पूछने के लिए कि बचुआ तुम्हारे पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार के लिए किसे बुलाना है - पंडित को, मौलवी या पादरी को | पूरे दफ्तर में एक बारगी तो हंगामा मच गया पर उस बंदूक वाले की वजह से  किसी भी शख्स में आकर बीच-बचाव करने की भी हिम्मत नहीं थी| मैंने भी मौके की नजाकत को भांपते हुए उस बंदूकची के पारे को नीचे आने का इंतज़ार किया | खैर जैसे तेसे हालात काबू में आए और पता लगा कि दफ्तर आते समय हमारा शेर पता नहीं किस पिनक में रास्ते के कुछ बदमाशों से किसी बात पर उलझ बैठा था बिना यह जाने बूझे कि यह जगह कायदे की दिल्ली नहीं गुंडों का गाज़ियाबाद है | अब बंदूक के सामने तो वह भी कतई पत्थर की खामोश मूर्ती बना उस तूफ़ान के गुज़र जाने का इंतज़ार कर रहा था | दफ्तर के दूसरे कमरे से भी अब लोग आकर जमा हो गए थे और बीच-बचाव के बाद लंका काण्ड जैसे-तेसे सम्पूर्ण हुआ |
उस वाकये के बाद मैंने उस शख्स को फिर कभी नहीं देखा | उसने दफ्तर आना छोड़ दिया, वजह क्या रही पता नहीं, शायद उस दिन की फजीयत के कारण उत्पन्न लज्जा, कुंठा या कुछ और जो केवल वही जानता था | कंपनी में आई वी०आर०एस (Voluntary Retirement Scheme) के तहत उसने नौकरी छोड़ दी | बाद में किसी ने बताया उसकी तबियत  ज्यादा  ही खराब हो चली | आँखों से दिखना भी बंद हो गया था | एक दिन पता चला बीमारी में ही मेरा जंगल का शेर इस दिल्ली के कंक्रीट जंगल को छोड़ ब्रह्माण्ड के विराट जंगल में विलुप्त हो गया | अगर मैं ठीक से याद कर पा रहा हूँ तो वह वर्ष 2005 था |            

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