Saturday 12 November 2022

भूला -भटका राही

मोहित तिवारी अपने आप में एक जीते जागते दिलचस्प व्यक्तित्व हैं । देश के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं । उनके शौक हैं – साहसिक यात्राओं पर घूमना और उन पर व्लाग बनाना । मानवीय पहलू को दर्शाता उनका एक रोचक संस्मरण आपके लिए प्रस्तुत ।

भूला – भटका राही

                                                                                        मोहित तिवारी

बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है । अपनी भागदौड़ की ज़िंदगी से कुछ पल आराम और चैन के तलाशने के लिए ऑफिस से छुट्टी लेकर अक्सर मैं पहाड़ों का रुख कर लेता हूँ । मेरे साथ होती है मेरी प्यारी जीप थार और उससे भी प्यारी जीवन -साथी विशुमा । विशुमा के बारे इतना बता दूँ कि वह भी मेरी तरह बहुत अच्छी- साहसी बिंदास बाइकर, ट्रेकर और घुमक्कड़ हैं । हम दोनों ने हजारों मील का सफर एक से एक खतरनाक और दुर्गम जंगल और बियाबान पहाड़ों से गुजरते हुए किया है ।

उस बार भी ऐसा ही हुआ । मेरी मंजिल थी लगभग 1500 किलोमीटर का सफर दुर्गम रास्तों को पार करते हुए लेह तक पहुंचना । उस दिन मौसम बहुत ही खराब था । मैं उस समय लगभग 16500 फुट की ऊंचाई पर हिमाचल प्रदेश के शिनगुला दर्रे के पास से गुजर रहा था । बारिश के साथ साथ बर्फबारी भी हो रही थी । ऐसे समय में सड़क के किनारे सेकड़ों फुट गहरी खाई थी और खराब मौसम के कारण कुछ सामने ठीक से कुछ नजर भी नहीं आ रहा था । ड्राइविंग सीट पर लंबे समय तक बैठे- बैठे कमर भी अकड़ चुकी थी । थोड़ी सी राहत पाने के इरादे से जीप सड़क किनारे लगा दी और नीचे उतर कर अपनी सुस्ती उतारने के लिए हवा में गहरी साँसे लेनी शुरू कर दीं । गाड़ी से उतारने के बाद भी लग रहा था जैसे चारों ओर के पहाड़ गोल-गोल घूम रहे हैं । पहाड़ों पर जब भी आप अत्याधिक ऊंचाई पर होते हैं तब आक्सीजन की कमी के कारण दिमाग पर भी असर पड़ता है और अक्सर भ्रमित करने वाले दृश्य दिखते हैं । अभी मैं अपने को संभाल ही रहा था कि अचानक पीछे से एक आवाज सुनाई दी । मुड़ कर देखा तो डर के मारे चीख ही निकल गई । सड़क के किनारे एक जे सी बी मशीन खड़ी थी जिसके नीचे से कीचड़ और धूल – मिट्टी में सना हुआ एक शरीर धीरे -धीरे मेरी ओर रेंगते हुए बढ़ रहा था ।


 पहले मुझे लगा कि इस सुनसान इलाके में यह कोई भूत तो नहीं आ गया । फिर यह भी लगा कि थकान और आक्सीजन की कमी के कारण मेरे दिमाग का वहम भी हो सकता है । अब तक मैं हिम्मत जुटा कर अपने आप को व्यवस्थित कर चुका था। ध्यान से एक बार फिर उस डरावनी आकृति को देखा तो थोड़ी तसल्ली हुई – वह एक इंसान ही था जो बार – बार सहायता की गुहार लगा रहा था ।वह घायल और बीमार लग रहा था और चलने की हालत में भी नहीं था । पीछे खड़ी जे सी बी मशीन के ऊपर एक हेलमेट रखा था । अपनी टूटी -फूटी हिन्दी में जो उसने बताया उसे सुन कर मैं सन्न रह गया । वह एक दक्षिण भारतीय युवक था जिसे मोटर साइकिल पर लंबी-लंबी यात्रा और सैर -सपाटा करने का शौक था । इस रास्ते से गुजरते हुए पिछले दिन के तीन बजे उस की मोटर साइकिल बर्फ में फिसल कर नीचे खड्ड में जा गिरी थी । जैसे-तैसे हिम्मत करके वह ऊपर सड़क तक पहुँचा । उस बारिश और बर्फबारी में हड्डी जमा देने वाली ठंड की पूरी रात उसने भूखे -प्यासे उस जे सी बी मशीन के नीचे बिताई । उसका शरीर बुखार से तप रहा था । उन खतरनाक हालात में उसकी हालत देखते हुए इतनी बात तो पक्की थी कि तुरंत सहायता नहीं मिली तो उस घायल व्यक्ति का बचना मुश्किल था । मुश्किल यह थी कि हमारी गाड़ी पूरी तरह से सामान से भरी हुई थी जिसमें उस घायल युवक को लेजाने की जगह नहीं थी । मैं और विशुमा उस समय जो तुरंत कर सकते थे हमने किया । अपनी गाड़ी में जो टेंट था उसे लगा कर उसके लिए ठंड और बर्फ से बचाव का इंतजाम किया।



बदकिस्मती यही थी कि जिस रास्ते पर हम थे वह सामान्य और चलता हुआ रूट नहीं था । इस पर तो हम एक दोराहे पर भूल से गलत मोड़ काट कर भटक कर आ गए थे । सहायता जुटाने के लिए हम वापिस जिधर से आए थे उधर का ही रुख किया । कुछ दूर जा कर एक दिल्ली की ही फोर्ड एंडेवयर गाड़ी नजर आई । उसमें बैठे दो लड़कों को सारी कहानी बताते हुए सहायता करने का अनुरोध किया । भले लड़के थे , तुरंत तैयार हो गए । पास ही बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन (बी आर ओ ) के कुछ लोग भी ढूंढ लिए । वे भी अपनी गाड़ी ले कर तुरंत घटना स्थल को रवाना हो गए । सबकी मदद से उस घायल युवक को गाड़ी में ले जाते हुए हम सब अस्पताल की खोज में थे जहाँ उसका इलाज हो सके । लगभग एक घंटे की दूरी तय करने के बाद जिप्सा – गेमूर का हेल्थ सेंटर नजर आया । घायल युवक चलने की हालत में तो था ही नहीं और वह डिस्पेंसरी थी सड़क के लेवल से लगभग 50 फुट नीचे जहाँ केवल सीढ़ियों से ही पहुंचा जा सकता था । उसे कमर पर लाद कर बड़ी मुश्किल से नीचे पहुंचे तो वहाँ ताला लगा पाया । खैर...... खोजबीन कर के वहाँ के स्वस्थकर्मी को ढूंढ कर लाए जिसने प्राथमिक उपचार तो कर दिया पर घायल की अवस्था देखते हुए उसे जिला अस्पताल केलॉन्ग में भर्ती कराने की सलाह दी ।

अब उस घायल युवक को लेकर हम चल दिए केलॉन्ग की ओर जो लगभग 20 किलोमीटर दूर था । उस अस्पताल में भी स्टाफ की कमी थी इसलिए हम ही स्ट्रेचर पर उस युवक को अंदर ले गए। अब तक दुर्घटना के बाद से ही इतने समय तक तकलीफों को झेलते हुए वह युवक पूरी तरह से मानसिक रूप से टूट चुका था अत: मैं भी उसके परिवार के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं जुटा पाया । हाँ इतना अवश्य था कि अब वह सुरक्षित हाथों में था अत: मेरा भी अब और अधिक केलॉन्ग में रुकने का कोई औचित्य नहीं था। मैं आगे निकल पड़ा ।

इस पूरे प्रकरण ने मेरे भी दिमाग पर इतना असर छोड़ा कि अपनी आगे के यात्रा -कार्यक्रम में काफी बदलाव कर दिए । उस युवक के बारे में अस्पताल से फोन द्वारा खोजखबर लेता रहा । लगभग 15 दिन के बाद वह युवक ठीक होकर अस्पताल से छुट्टी पा गया । इस दौरान बी आर ओ के स्टाफ ने उसकी काफी देखभाल और सहायता की ।

अब मेरी बात ज़रा ध्यान से सुनिए – क्या यह अजीब बात नहीं है कि मुझे तो उस रास्ते पर जाना ही नहीं था जिस पर वह युवक घायल हालत में पिछले 20 घंटे से भारी बर्फबारी के बीच पड़ा था । मैं तो रास्ता भटक गया था । ईश्वर तो राह दिखाते हैं पर क्या किसी असहाय की जीवन-रक्षा के लिए राह से भटका भी देते हैं । सवाल मेरा ...... सोचते रहिए आप ।

( इस आपबीती रोमांचक संस्मरण का वीडिओ यू ट्यूब पर मेरे चेनल पर भी मौजूद है जिसे आप लिंक पर आप देख सकते हैं   )
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प्रस्तुतकर्ता : मुकेश कौशिक

Saturday 15 October 2022

लकीरों का जाल और विधी का विधान

श्री ब्रज महाना सीमेंट प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञ हैं। उन्हें सीमेंट उद्योग में व्यापक अनुभव है। वर्तमान में वह सीमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (भारत सरकार का उद्यम) में महाप्रबंधक (संचालन) है। विज्ञान को आत्मज्ञान से जोड़ता उनका रोमांचक अनुभव, उन्हीं के शब्दों में ।

लकीरों का जाल और विधी का विधान 
                                    -ब्रज महाना



कई बार मैं सोचता हूँ कि हाथों में जो लकीरों का जाल है उसका हमारे जीवन पर कुछ असर है क्या ? हाथ की रेखा से क्या भविष्य पढ़ा जा सकता है ? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जो शायद आपके दिमाग में भी मंडराते होंगें । मेरा मानना है कि यह सब आस्था का सवाल है – ना मानो तो पत्थर , मानो तो भगवान । दरअसल आस्था भी समय के अनुसार बदलती रहती है । कितना भी घोर नास्तिक इंसान हो, उसे भी संकट काल में भगवान की याद आ जाती है। जहाँ तक मेरा प्रश्न है – मैं तो ईश्वर में शुरू से ही आस्था रखता रहा हूँ पर कभी परेशानी के समय उस परम सत्ता पर और अधिक विश्वास करता हूँ । कुछ ऐसा ही विपरीत समय आया था वर्ष 2003 में जिसका जिक्र मैं आपसे करने जा रहा हूँ ।

वर्ष 2003 वह वक्त था जब जिस कंपनी में मैं काम करता था, उसकी हालत बहुत खराब थी । अब एक तरह से देखा जाए तो कंपनी की हालत से ज्यादा उसमें से काम करने वाले बंदों की हालत पतली थी । हालात कुछ इस कदर तक खराब हो चले थे कि पता नहीं कब कंपनी के कारखाने पर ताला लग जाए या बिक जाए । उन दिनों वेतन भुगतान तक के लाले पड़ गए थे । उन्हीं दिनों कंपनी में कर्मचारियों की छटनी के उद्देश्य से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना ( वी. आर. एस) आ गई । फैक्टरी के अफसरों से लेकर मजदूरों तक सभी में खलबली मची हुई थी । मैं भी बहुत परेशान चल रहा था । क्या करूँ – क्या ना करूँ , कुछ समझ ही नहीं पा रहा था । भविष्य के प्रति चिंतित होना स्वाभाविक था । ऐसे समय में किसी ने सलाह दी कि पास के ही कस्बे – विकासनगर के प्रसिद्ध ज्योतिषी- बडोनी जी से मिलो। परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी थीं कि बात जँच गई और मैं अपनी पत्नी – नीता के साथ पहुँच गया पंडित जी के पास । पंडित जी ने मेरी समस्या को ध्यान से सुना, हाथ की रेखाओं का गहन विश्लेषण किया, कुछ देर ध्यान मग्न होने के बाद दो बातें कहीं । पहली – कंपनी बंद होने की चिंता मत करो। तुम्हारी नौकरी यहीं बनी रहेगी । दूसरी बात – गाड़ी ज़रा ध्यान से चलाना । कहीं ऐसा ना हो उसे फुटपाथ पर चढ़ा दो ।

पहली बात सुनकर मैं जितना प्रसन्न और आश्वस्त हुआ, दूसरी से उतना ही डर गया । पंडित जी से सुरक्षा – उपाय सुझाने की याचना की । पंडित जी ने अंगूठी में एक विशेष रत्न- धारण करने की सलाह दी । वह रत्न जिसकी कीमत 1200 या 1500 रुपये थी, पंडित जी के पास उपलब्ध था । उन दिनों के हिसाब से मुझ जैसे नौकरी-पेशा व्यक्ति के लिए वह कीमत अच्छी – खासी थी। साथ बैठी नीता ने सलाह दी कि कुछ दिनों बाद हम दिल्ली तो जा ही रहे हैं वहीं से खरीद लेंगे। वहाँ यह कम कीमत पर मिल जाएगा । पत्नी, जिसे घर भी चलाना होता है, की यह सलाह एक तरह से वाजिब थी पर मुझे उस वक्त चुभ गई । बाहर आकर नीता को मैंने इतना जरूर कहा ” ऐसे मामलों में छोटी-मोटी बचत बेमायने है । जब प्रश्न आस्था का हो तो या तो विश्वास मत करो, अगर करो तो पूरा विश्वास करो।“ नीता को बात समझ आई और जब वह पंडित जी के पास से ही रत्न खरीदने को तैयार हुई तो उसके लाख अनुरोध के बावजूद अब मैंने अड़ियल रुख अपना लिया कि अब तो दिल्ली से ही खरीदेंगें । शायद ईश्वर की यही इच्छा थी।

मुझे भली- भांति याद है, वह दिन था 23 मार्च 2003 का । राजबन ( हिमाचल प्रदेश ) से दिल्ली के लिए अपने पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार कुछ दिन बाद ही अपनी पत्नी नीता और आठ वर्षीया बिटिया श्रेया के साथ अपनी गाड़ी मारुती 800 से निकल लिया । सुहाने मौसम का आनंद लेते हुए 70-80 की सामान्य गति पर गाड़ी जी.टी रोड पर दौड़ रही थी । अभी मैं जैसे ही मुरथल (सोनीपत) के पास से गुजर रहा था , सामने से गलत दिशा में सड़क पर अचानक दूसरी गाड़ी दौड़ती हुई गई। टक्कर को बचाने के लिए मैंने झटके से अपनी गाड़ी का स्टीयरिंग दाहिनी ओर काट दिया । तेज रफ्तार में गाड़ी सड़क के डिवाइडर से टकराई और पूरी तरह से अपना संतुलन खोकर तीन-चार बार पलटी। मेरा सिर कार की छत से टकरा कर बुरी तरह से चोटिल हो गया । मैं बेहोश हो चुका था । नीता का पाँव घायल था । टक्कर की वजह से गाड़ी की खिड़की का शीशा टूट गया और मेरी बिटिया छिटक कर बाहर सड़क पर जा गिरी । उसके जांघ की हड्डी बुरी तरह से टूटने की वजह से वह दर्द से बिलबिला रही थी । अब आप सोच सकते हैं कि कितना भयानक दृश्य रहा होगा जब उस तूफ़ानी रफ्तार से दौड़ने वाली गाड़ियों के महाव्यस्त ट्रेफिक वाले दिल्ली – चंडीगढ़ जी टी रोड पर बीचो-बीच पड़ी वह नन्ही सी जान खतरे में थी । संयोग की बात थी उस दिन भारत और आस्ट्रेलिया का विश्व कप फाइनल क्रिकेट मेच होने के कारण सड़कों पर भी यातायात कम था । सड़क किनारे कुछ भले लोगों ने सहायता जुटाई। गाड़ी के दरवाजे जाम हो चुके थे, जैसे – तैसे मुझे बेहोशी की हालत में ही खींच कर बाहर निकाला । तब तक पुलिस की पी सी आर वेन भी आ चुकी थी । हम सबको मुरथल के सिविल अस्पताल में प्राथमिक उपचार दिया गया । दिल्ली अपने घर पर फोन टेलीफोन से इस दुर्घटना के बारे में सूचित कर दिया । बदहवासी की हालत में घरवाले गाड़ी से भागते -दौड़ते मुरथल अस्पताल पहुंचे और अपने साथ दिल्ली ले आए । यहाँ रात को सीधे चांदी राम अस्पताल में भर्ती करा दिया । मुझे उस समय तो तुरंत छुट्टी मिल गई लेकिन बाद में कुछ गंभीर समस्याओं के कारण गंगा राम अस्पताल में मस्तिष्क की जटिल सर्जरी भी करवानी पड़ी । नीता और श्रेया को गहरी चोटों के कारण लंबे समय तक कष्ट से गुजरना पड़ा ।
आज ईश्वर की कृपा से हम सभी स्वस्थ हैं, प्रसन्न हैं । जान बच गई यह कोई कम बात नहीं । आज सब घटना एक बूरे सपने की तरह यादों में रह गई है । रही बात पंडित जी की पहली भविष्यवाणी की, तो भाई लोगों मैं आज लगभग बीस वर्षों अंतराल के बाद भी उसी कंपनी में कार्यरत हूँ यद्यपि मेरे अधिकांश सहयोगी तत्कालीन वी आर एस छटनी की बाढ़ में बह गए ।
अपने आज के जीवन को मैं ईश्वर की देन मानता हूँ जिसने उस दुर्घटना में मेरी और परिवार की रक्षा की । यही तो मेरी आस्था है ।
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( प्रस्तुतकर्ता : मुकेश कौशिक )

Tuesday 27 September 2022

अजनबी दोस्त

प्रेम एक ऐसा गूढ विषय है जिस पर अनेक दार्शनिक, उपदेशक, धर्मगुरु अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याखा करते हैं । अपनों को तो सभी स्नेह और प्यार करते हैं, मेरे विचार से असली प्रेम तो वही है जब बिना किसी आशा के किसी अजनबी की भी आप मुसीबत में सहायता करते हैं । अगर हम किसी दिन एक भी इंसान के चेहरे पर मुस्कान ला सकें या किसी अजनबी के दिल को जीत सकें तो वही दिन हमारा जीवन सफल करने के लिए पर्याप्त है । इसके लिए आवश्यक नहीं कि कोई लंबी-चौड़ी योजना बनाई जाए या खजाना लुटाना पड़े । सड़क चलते किसी बुजुर्ग को सड़क पार करा दें , बस में किसी विकलांग को अपनी सीट दे दें, किसी रोते हुए बच्चे के साथ बच्चा बन कर उसके चेहरे पर मुस्कराहट ला दें, इतना ही बहुत है । यही है सच्चे प्यार की भावना ।

बात है वर्ष 2007 की जब मेरी पोस्टिंग भारत सरकार के संस्थान के दिल्ली स्थित मुख्यालय में थी । सूचना मिली कि मेरा बोरिया-बिस्तर देहरादून के लिए बांधने हेतु तबादला आदेश जारी हो चुका है । मन में कई तरह के विचार उठे – कुछ अच्छे तो कुछ कष्ट दायक । अच्छी मनमोहक जगह जाने की खुशी एक तरफ़ तो परिवार को साथ नहीं ले जा पाऊँगा इसकी वेदना दूसरी ओर । अगले लगभग 6 वर्षों तक मेरा निवास देहरादून में रहा । इस दौरान उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में काफी आना-जाना लगा रहा और अनगिनत लोगों के गहन संपर्क में आया। उन अनुभवों की यादें आज तक मेरे दिलोदिमाग पर ताज़ा हैं।

आपको प्रसन्न रखने के लिए मुख्य रूप से दो कारक महत्वपूर्ण हैं – पहला आसपास का वातावरण और दूसरा जनमानस । उत्तराखंड में यह दोनों ही प्रचुर मात्रा में आपका दिल मोहने के लिए मौजूद हैं । इस जगह को देवभूमि इसीलिए तो कहा जाता है कि इस पावनभूमि में निवास करने वालों में देव-स्वभाव आज भी मौजूद है। इस संबंध में अपने साथ घटा एक रोचक किस्सा आपको सुनाता हूँ ।
अजनबी दोस्त 

देहरादून में मेरा ऑफिस राजपुर रोड पर सेंट जोजफ़ स्कूल के सामने था । अपनी गाड़ी वहीं सड़क पर पार्क कर दिया करता था । एक दिन शाम के समय ऑफिस से निकल कर घर जाने के लिए निकाला तो देखा कि गाड़ी के ऊपर ट्रेफिक पुलिस का लाल रंग का चालान चिपका था क्योंकि वह नो पार्किंग ज़ोन था । पास से ही गुजरती हुई एक पुलिस की गाड़ी में बैठे सज्जन से मैंने जानकारी मांगी कि इस चालान की राशि को कहाँ जमा करना है। मेरे चेहरे पर उड़ती हवाइयों को देखकर शायद उस पुलिसकर्मी को तरस आ गया। उन्होंने मेरे हाथ से चालान की पर्ची लेकर मेरा पता पूछा और बोले आप चिंता मत करिए, यह काम आप मेरे पर छोड़ दीजिए। जब तक मैं कुछ सोचता तब तक वह पुलिस की गाड़ी आगे बढ़ चुकी थी ।

अगले दो-तीन दिन यूं ही गुजर गए । ऑफिस के कमरे में बैठा हुआ कुछ काम निपटा रहा था कि अचानक वही पुलिस वाले सज्जन कमरे में दाखिल हुए। सामने कुर्सी पर बैठते हुए बोले – “यह थामिए कौशिक जी अपने चालान की रसीद।” कुछ देर तक आपस में आत्मीयता भरी बातचीत के बाद जब वह चलने लगे तो मैंने आभार प्रकट करते हुए चालान राशि को उनके हाथ में थमाने का यत्न किया। मेरे आश्चर्य की सीमा न रही जब उन्होंने उस राशि को वापिस मेरी मेज पर रखते हुए कहा – कौशिक जी, आप क्या सोचते हैं मैं आपके पास यह रुपए लेने आया हूँ ।आप मुझे अच्छे लगे और मेरी इच्छा केवल आपके पास बैठ कर एक प्याला चाय पीने की थी जो पूरी हो चुकी है। मैं पूरी तरह से निरुत्तर और हतप्रभ था । उस अजनबी इंसान की बात मेरे दिल को अंदर तक छू गई । उस व्यक्ति से मेरी फिर कभी मुलाकात नहीं हुई।
वह पुलिस विभाग जिसकी कठोरता, बेईमानी, भ्रष्टाचार और निरंकुशता के किस्से एक सामान्य बात है, वहाँ के कर्मचारी का ऐसे संवेदनशील रूप में दर्शन आपको केवल देवभूमि में ही हो सकते हैं जहाँ इंसानों के रूप मे भी देवता बसते हैं । यही तो है प्रेम की महिमा जहाँ अजनबी भी यादों में बस जाते हैं ।

Friday 16 September 2022

ईश्वर का ध्यान, मिला जीवन दान - (राजकुमार अरोड़ा )

आज की आपबीती  कहानी की संकल्पना है श्री राज कुमार अरोड़ा की जो सीमेंट कार्पोरेशन ऑफ इंडिया के वरिष्ठ पदाधिकारी रह चुके हैं । पेशे से मेकेनिकल इंजीनियर साथ ही साथ योग और ध्यान में गहरी रुचि । वर्तमान में देवभूमि हिमाचल प्रदेश के पाँवटा साहब में निवास। 

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मैं - राजकुमार अरोड़ा 

जीवन की अंधी भागदौड़ में सभी व्यस्त हैं । जिसे देखो कोल्हू के बैल  की तरह चकरघन्नी बना हुआ है । सुबह से कब शाम हुई – रात हुई और फिर से सवेरा , पता ही नहीं चलता । थके हुए शरीर के साथ-साथ परेशान मन को भी आराम चाहिए  । यह तो सभी जानते हैं कि  मानसिक शांति के लिए सहारा होता है आध्यात्म और योग का, पर आज जो मेरी साँसें चल रही हैं  वे भी उसीकी बदौलत हैं । कहने को मेरी  बात आपको सीधी-सादी  लग रही होगी पर इस कहानी में ट्विस्ट है और वह भी बड़ा जबरदस्त । आज भी उस घटना की याद मेरे पूरे शरीर में सिहरन की लहर दौड़ा देती है ।

उन दिनों मेरी  पोस्टिंग सीमेंट कार्पोरेशन ऑफ इंडिया के आसाम राज्य में स्थित बोकाजान प्लांट में थी । मेरा कार्यस्थल  उस सीमेंट प्लांट की चूना पत्थर खदान था जो फेक्टरी से लगभग 17 किलोमीटर दूर पहाड़ी  घने जंगलों में था । वहाँ काम करने वाले सभी कर्मचारियों और अधिकारियों के रहने के लिए उस निर्जन वन में भी एक छोटी सी टाउनशिप बनी हुई थी । उस सुनसान और बियाबान जगह का वातावरण लगभग ऐसा ही था जैसा किसी जमाने में काला पानी का हुआ करता था जिसे आज अंडमान के नाम से जाना जाता है । इतने पर ही बात समाप्त हो जाए तो भी गनीमत है, वहाँ उन दिनों पूरी तरह से आतंक का राज्य था । पूरे आसाम राज्य में ही आतंकवादियों की अलगाववादी गतिविधियां चरम सीमा पर थीं  । चरमपंथी संगठन बहुत ही मज़बूत स्थिति में थे । उनकी अपनी समानांतर सरकार थी ।  भारत सरकार के संस्थानों और उनमें कार्यरत अधिकारियों  पर हमले होना सामान्य बात थी । अब मेरी हालत का आप बखूबी अंदाजा लगा सकते हैं । देश के एक छोर पर बसने वाले पंजाबी पुत्तर को उठा कर फैंक दिया गया था देश के दूसरे कोने पर जो किसी शेर के पिंजड़े से कम नहीं था । ऐसी परिस्थितियों के कारण मैं वहाँ अकेला ही रहता था और अपने परिवार को भी  साथ नहीं रखा था ।

आज भी याद है, वह दिन था 15 जुलाई 2007, शाम का वक्त था । कैलाश नाथ झा जो उस खदान के इंचार्ज थे के साथ बैठ कर मैं गपशप कर रहा था । झा साहब की उम्र भी रही होगी यही कोई 58 वर्ष के आसपास, शरीर अच्छा- खासा स्थूलकाय, बहुत ही जिंदादिल और खुशमिजाज स्वभाव वाले, पान  । उनके पास किस्से-कहानियों की कोई कमी नहीं थी । नतीजा – उनके पास बैठ कर समय का पता ही नहीं चलता था। उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ पर तभी अचानक ध्यान आया कि मेरा नित्य संध्या- अर्चना का समय हो चला है। झा साहब से विदा लेकर अपने क्वाटर पर चला आया और योग-ध्यान में मगन हो गया जो कि  मेरी दिनचर्या का अंग  बन चुकी थी । जिन विषम परिस्थितियों में उन दिनों मुझको जीवन काटना पड़  रहा था उनमें ईश्वर के प्रति आस्था , ध्यान, भक्ति और योग ही मेरी जीवन शक्ति थी । ईश्वरीय ध्यान के क्षणों में, अपने मानसिक अवसादों से मुक्ति पाकर गहन शांति का अनुभव करता था ।  

टाउनशिप के मकान 

जंगल में फेक्टरी की खदान 

अब होनी का कर्म देखिए, इधर मैं ध्यान-मग्न  बैठा था, और उधर झा साहब के पास वहाँ हाथों में मशीनगन लिए सात-आठ आतंकवादी पहुँच गए और उनका अपहरण कर लिया ।  वहाँ और कोई जो भी मजदूर नजर आया उन सबको भी पास में खड़े ट्रक में बिठा कर आगे जंगल की ओर चल दिए । रास्ते में ट्रक कीचड़ में फंस गया तो सबको पैदल चलाना शुरू कर दिया ।

इस बीच जब इस सारे कांड की जब उच्च अधिकारियों को खबर लगी तो सारी  सरकारी मशीनरी, पुलिस, सेना हरकत में आई । दबाव पड़ता देख,   बंधक बनाए गए सभी व्यक्तियों को अपहरणकर्ताओं ने  छोड़ दिया। सभी   वापिस लौट आए  थे लेकिन झा साहब का कुछ अतापता नहीं था । बाद में घने जंगलों में उनका मृत शरीर पाया गया । मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था कि जिस इंसान से मैं विदा लेकर आया था वह स्वयं इस दुनिया से इतनी दुखद परिस्थितियों में विदा हो कर चला गया ।

इसमे कोई संदेह नहीं कि आध्यात्म , योग और ध्यान वह सीढ़ियाँ हैं जिन पर चढ़कर ईश्वर से नजदीकी और बढ़ जाती है । हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी में आने वाली समस्याओं को बहादुरी और परिपक्वव ढंग से सामना करने की शक्ति मिलती है । कहने को तो सब कहते हैं कि होनी को कोई नहीं टाल सकता पर क्या मेरे लिए योग और ध्यान से उत्पन्न परम शक्ति का संदेश नहीं था जो मुझे  उस खतरे वाले स्थान से हटने संकेत दे रहा था । यदि ऐसा नहीं होता तो शायद आज मैं आपको यह आपबीती सुनाने को मौजूद नहीं होता ।

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(प्रस्तुतकर्ता - मुकेश कौशिक ) 

Saturday 10 September 2022

राम जी की राम कहानी

 

राम सिंह 

घबराइए मत, शीर्षक देख कर यह मत सोच लीजिएगा कि कोई बहुत अधिक ज्ञान -ध्यान से भरा प्रवचन होने जा रहा है । मैं - राम सिंह, अपनी ज़िंदगी का एक छोटा सा किस्सा सुनाने जा रहा हूँ । अब यह आप पर है कि उसे पढ़ कर आपको हंसी आती है, गुस्सा आता है या फिर कुछ सोच में पड़ जाते हैं । चलिए बात को ज्यादा नया खींचते हुए सीधे आपबीती पर आता हूँ।
तो दोस्तों करीब 25 साल पहले की बात है । मैं दिल्ली में ही एक सरकारी कंपनी में काम करता था । कहने को तो लोग कहते हैं कि सरकारी नौकरी के मज़े ही अलग होते हैं पर भाई लोगों ने मेरी कंपनी का वह वक्त नहीं देखा या सही मायने में कहें तो भुगता था । नाम के लिए ही नौकरी सरकारी थी पर हर समय सिर पर खौफ़ की तलवार लटकती रहती थी । कारण था कंपनी के उच्चतम अधिकारी – जिन्हे आप साहब बहादुर कह सकते हैं – का दिल दहला देने वाला प्रकोप । कान-फोड़ू गाली-गलोज करना, सुदूर इलाकों में ट्रांसफर कर देना, नौकरी से ही बर्खास्त कर देना मामूली बात हुआ करती थी । शायद उन जैसे बददिमाग नमूने के लिए ही कभी मशहूर शायर मिर्जा गालिब ने कहा था :
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है,
तुम्ही कहो कि ये अंदाज़े गुफ़्तगू क्या है ।
अरसा बीत गया राजा साहब को गए पर उनकी दहशत के किस्से आज तक उस कंपनी के गलियारों में लोग चटखारे ले-ले कर बयान करते हैं ।
साहब बहादुर 
उस मनहूस दिन मैं हमेशा की तरह ऑफिस में अपने रोज-मर्रा के काम-काज में व्यस्त था । मेरे विभाग के अफसर के केबिन में रखे फोन की घंटी बजी। क्योंकि वह अधिकारी अपने कमरे में मौजूद नहीं थे अत: मैं खुद ही उस फोन को सुनने के लिए चला गया । फोन उठाते ही दूसरी तरफ़ से कड़कती आवाज ने बड़े ही भद्दे तरीके से मेरे अधिकारी का अता-पता पूछा । मुझे बड़ा अटपटा सा लगा फिर भी मैंने अत्यंत विनम्रता से पूछा – “आप कौन ?” जवाब तो कुछ नहीं मिला लेकिन लाइन जरूर कट गई। अपने अधिकारी के लौटने पर उन्हें मैंने सारी घटना से अवगत कराया और उन्होंने भी इसको सामान्य रूप से लिया ।

अगले दिन ऑफिस पहुंचा तो मेज पर रखा एक लिफाफा मेरा स्वागत कर रहा था । लिफाफा खोला तो पता चला उसके अंदर पत्र नहीं बम था । जी हाँ – मेरे लिए तो वह किसी बम से कम नहीं था क्योंकि मेरे विरुद्ध अनुशासनात्मक कारवाई करते हुए मुझे सस्पेन्ड कर दिया गया था । मेरे पैरों के नीचे से जैसे जमीन निकल गई । लड़खड़ाते- काँपते कदमों से अपने विभाग अधिकारी के पास पहुंचा और कारण जानना चाहा । उन्होंने मुझसे पूरी हमदर्दी जताते हुए इस रहस्य से पर्दा उठाया । उन्होंने कहा “दरअसल वह अजनबी फोन "साहब बहादुर" का था और क्योंकि तुम उनकी आवाज नहीं पहचान पाए यही तुम्हारा सबसे बड़ा कसूर है ।“ अब मैं भारी मन से वापिस लौट चला । दफ्तर में सभी जानते थे कि मैं निर्दोष हूँ पर वे सब भी बेबस थे साहब बहादुर के आगे मुंह खोलने से । सस्पेंड हो कर मैं घर बैठ गया और अक्सर अपने दुर्भाग्य को कोसते हुए सोचता कि जमाने में कैंसर जैसी भयानक बीमारी का इलाज संभव हो सकता है पर साहब बहादुर का कौन करेगा । बुरा वक्त भी सदा के लिए नहीं होता है , मेरे लिए भी नहीं रहा । दस दिनों के बाद मुझे ड्यूटी पर वापिस ले लिया गया । बात आई- गई हो गई पर दिल में अक्सर कुछ खालीपन सा कचोटता रहता – मैं अदना सा निरीह प्राणी जिसने कभी किसी का बुरा नहीं किया फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ । मन को यह कह कर तसल्ली देता – कर भला हो भला, अंत भले का भला ।
अरे चले कहाँ आप ? इंटरवल के बाद की पिक्चर अभी बाकी है दोस्त । कई साल ऐसे ही दफ्तर के आतंक राज में गुजर गए । लेकिन कहते हैं ना कि वक्त किसी का सगा नहीं होता । जैसे सब का समय आता है और जाता है, साहब बहादुर का भी आया भी और गया भी । काफी मुकदमेबाजी , जुगाड़बाजी और मेहनत मशक्कत के बावजूद साहब बहादुर के सेवा काल में सरकार द्वारा बढ़ोत्तरी नहीं दी गई और वे भी आम जनमानस की तरह रिटायर हो गए । दूसरे शब्दों में आप यह भी कह सकते हैं कि साहब बहादुर का साहब निकलने के बाद केवल बहादुर शेष रह गया । अपने भूत काल से चिपके रहने वालों के लिए ऐसे में परेशानी होनी स्वाभाविक है । सुना है आजकल 78 वर्ष के उम्रदराज होने के बावजूद भी अक्सर साहब बहादुर दफ्तर पहुँच जाते हैं । मतिभ्रम की हालत में अभी भी अपने को दफ्तर का मुखिया समझते हैं और लोगों को हड़काने और डपटने की आदत बदस्तूर जारी है । उनकी हरकतों को देखकर कार्यालय में प्रवेश पर रोक लगा दी गई है । किसी समय जहाँ उनका आतंक का साम्राज्य था -वहाँ आज खुद हंसी के पात्र बन चुके हैं । पर मेरी नजर में साहब-बहादुर हँसी के नहीं दया के पात्र हैं । किसी जमाने में दूसरों से जो पूछा करता थे  “ तू कौन है “ उसे आज स्वयं अपना पता नहीं “ मैं कौन हूँ" ।
आपके बारे में तो मैं कुछ नहीं कह सकता पर अपनी आपबीती से मुझे खुद जो सबक मिला उससे कबीर का दोहा  याद आ जाता है :

दुर्बल को नया सताइए , जाकी मोटी हाय ,
मरी खाल की सांस से, लोह भसम हो जाए ।

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(प्रस्तुतकर्ता : मुकेश कौशिक )

Sunday 4 September 2022

एक जैसा अंत, काहे का घमंड

 कहने वाले कह गए हैं कि बदनाम हुए तो क्या हुआ, नाम तो होगा । कुछ – कुछ ऐसा ही हाल मेरे शहर – नोएडा का हुआ । पिछले दिनों  टी०वी, अखबारों में बहुत चर्चा में रहा । जहाँ देखो बस किस्से ट्विन टावर के, बिल्डर सुपरटेक के, टावर के गिराए जाने के और सबसे ऊपर इस सारे कांड में लिप्त भ्रष्टाचार के । नोएडा बुरी तरह से देश – विदेश में बदनाम हो गया ।  अब ले दे कर कुल हालात कुछ इस तरह के कि क्लास में शरारत तो करे बच्चा पर सारा दोष उसके माँ -बाप के मथ्थे । आप तो मन को यही कह कर समझा सकते हैं कि एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है ।  अब क्योंकि मैं भी उसी तालाब में रहता हूँ इसलिए इस ट्विन टावर विध्वंस कांड ने दिमाग में गहरी छाप छोड़ी और तरह-तरह के विचारों का बवंडर उठा डाला ।

धुएं में घमंड 
जुड़वां भाइयों से जुड़े बहुत से किस्से आपने भी पढे – सुने होंगे । एक साथ जन्म  और कभी – कभी दुनिया से विदाई भी एक साथ । कुछ ऐसा ही मामला ट्विन टावर का भी रहा । इसे आप कुछ इस रूप में भी देख सकते हैं कि इस संसार में कभी -कभी जड़ वस्तुएं भी जीवित प्राणियों की तरह व्यवहार करतीं हैं  उनके भी कर्म होते हैं और उसी के अनुरूप उनका भाग्य होता है । ये जुड़वां अधबनी गगनचुंबी इमारतें बेईमानी और भ्रष्टाचार की बुनियाद पर खड़ी थीं । आसपास के क्षेत्र की इमारतों में रहने वाले निवासियों को इस अवैध निर्माण से असुविधा भी हो रही थी । उनके दिल से निकलने वाली बददुआ भी तो उस कोर्ट के निर्णय के रूप में फलीभूत हुई होगी जिसके आधार पर टावर गिराए गए ।

एक कारण और भी हो सकता है । शायद उस आसमान की ऊंचाई को छूने वाले टावर के दिमाग में कहीं कुछ घमंड तो नहीं आ गया था जिसके नशे में चूर ये आसपास की इमारतों को बोना या ठिग्गू कह कर चिढ़ाती हों । अब घमंड तो भाई लोगों रावण का भी नहीं चला तो इनकी तो खैर क्या बिसात थी । जिसे बनाने में वर्षों की मेहनत और समय लगा उस घमंड को मिट्टी में मिलने में मात्र बारह सेकिन्ड लगे । एक और बात दुनियादारी की - जब यह घमंडी इमारत धाराशाही हो रही थी तो ढेरों तमाशबीन ढ़ोल बजा रहे थे, नाच -गा  रहे थे । सीधी सी बात – जब आपका बुरा वक्त आता है तो दुनिया आपके गिरने का केवल इंतजार ही नहीं, स्वागत भी करती है ।

तुम ना जाने किस जहाँ में खो गए 

करोड़ों की लागत से बने ट्विन टावर इस दुनिया से तो विदा ले चुके हैं पर जाते-जाते हम सबको ऐसी अनमोल सीख दे गए जिन्हे रुपये – पैसे में नहीं आँका जा सकता । बेईमानी, लालच और घमंड का देर-सबेर अंत होना ही होता है ।    यही तो है ज़िंदगी की कड़वी सच्चाई जिसे जितनी जल्दी आप स्वीकार कर लें उतना अच्छा ।


Saturday 27 August 2022

सुखमय जीवन : अपनी सोच

ज़रा अपने आसपास नजर घुमाइए । आपको मोटे तौर पर दो तरह के लोग नजर आएंगे । पहले वे –जब भी देखिए रोनी सूरत, माथे पर सिलवटें, परेशान हालत, ऊपर वाले से अपनी किस्मत को लेकर इतनी शिकायतें कि आप भी बोर होकर उनसे किनारा काटना शुरू कर देते हैं । इसके ठीक विपरीत दूसरे वे जिनकी ज़िंदगी का फलसफ़ा ही है – जिस हाल में जिओ – खुश रहो। खुशकिस्मती से मेरे लगभग सभी मित्र इस दूसरी श्रेणी में ही आते हैं और खुशहाल ज़िंदगी व्यतीत कर रहे हैं । यूं तो उन सबसे समय -समय पर फोन पर बातें होती ही रहती हैं । एक दिन बैठे – बिठाए दिमाग में खुजली उठी और उनमें से कुछ से जानना चाहा जीवन के प्रति उनका नजरिया, सुखी जीवन का रहस्य और अनुभव । उन सभी के अनुभव और विचारों के निचोड़ में अद्भुत समानता थी । छोटे छोटे गाँव, कस्बे से लेकर महानगरों तक में रहने वाले ये सीधे-सरल मित्र भी वही कह रहे हैं जो दुनिया – जहान घूम चुके जाने-माने पत्रकार स्व 0 खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा । आप इसे यूं भी समझ सकते हैं कि सच एक ही होता है चाहे वह किसी के मुंह से भी निकले । हो सकता है शायद आपभी जानना चाहें कि मस्त -मौला ज़िंदगी गुजर बसर करने वालों की सोच क्या कहती है ।

मुस्कराहट पर टेक्स नहीं लगता 

सुख की सीढ़ी का पहला पायदान अच्छा स्वास्थ है जिसके बिना सारी दुनिया वीरान और नीरस है । मेरा तो यहाँ तक मानना है कि दांत का दर्द होने पर अडानी और अंबानी जैसे दुनिया के दौलतमंद इंसान भी अपनी सारी हैसियत भूल जाते हैं ।

अपनी जरूरतें कम और इच्छाएं सीमित रखें । वैसे तो इस मामले में मन को लाख समझाने के बावजूद हाल कुछ ऐसा रहता है कि दिल है कि मानता नहीं । पर जिसने भी इस दिल को काबू कर लिया वही सुखी रहा । इच्छा और लालच का तो कोई अंत ही नहीं । रोज़ समाचारों में बड़े – बड़े घोटालों की खबरें छपती रहती हैं और उन अरबपति घोटालेबाजों का अंत अस्पतालों में अत्यंत दयनीय परिस्थियों में होता है । सब सुविधाएं और रुतबा धरा का धरा रह जाता है ।

तीसरी बात – आत्म-संतुष्टी । ईश्वर ने जो भी आपको दिया है उसी में संतुष्ट रहना सीखिए । दूसरों की उन्नति देखकर मन में द्वेष मत पालें और किसी हीन भावना से ग्रस्त न हों । शायद आपको याद हो किसी जमाने में टीवी पर एक विज्ञापन चला करता था - उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से ज्यादा उजली क्यों । ऐसी सोच से कुछ लाभ नहीं – सोचेंगे तो कमीज तो उजली होने से रही अलबत्ता अपना ही खून जलेगा ।

इसके अतिरिक्त एक समझदार दोस्त और जीवनसाथी भी हो तो जीवन का आनंद ही कुछ और होता है । कहने वाले तो यहाँ तक कह गए कि आपस में झगड़ते रहने की बजाय अलग होकर शांति से जीना बेहतर है। जहाँ तक सवाल है मित्र मंडली का - उनका चुनाव सावधानी से करें । सर खाने वालों से, समय नष्ट करने वालों से, हमेशा रोने-धोने वालों से किनारा करना ही बेहतर रहता है । कंकड़ पत्थर के ढ़ेर इकट्ठा करने के बजाय अपने पास गिने चुने रत्न रखें – चाहे वे नाते रिस्तेदारों के रूप में हों या मित्रों के ।

पाँचवा मंत्र – अपनी रुचि के अनुसार कुछ अच्छे शौक पालें जैसे – संगीत, बागवानी, अध्ययन मनन, समाजसेवा । इस प्रकार के कार्यों का कोई अंत नहीं ।

सबसे महत्वपूर्ण जो मुझे लगता है वह है आप प्रतिदिन कुछ समय आत्मचिंतन और ध्यान के लिए अवश्य निकालें । मानसिक शांति के पौधे के लिए यह खाद का काम करता है ।

चलते- चलते- सुखमय जीवन के लिए इतनी सारी बातों महामंत्र चंद शब्दों में कुछ इस तरह से कह सकते हैं :

मस्त तबीयत , सर पर छप्पर ,
तन पर कपड़ा और दो रोटी ,
सुखमय जीवन बीत जाएगा ,
चाहत रखिए छोटी – छोटी ।

Thursday 18 August 2022

सूखते रिश्ते और परिवार

संकल्पना :सुश्री रेखा शर्मा । लगभग तीन दशकों का अनुभव लिए आप दिल्ली के एक जाने-माने पब्लिक स्कूल मे समाज शास्त्र की वरिष्ठ व्याख्याता हैं । 

अभी कुछ दिन पहले देश की स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगांठ पर अमृत महोत्सव उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा था । सब तरफ़ तिरंगे की बहार रही । टेलीविजन पर जननायकों के भाषण को जनता बड़े ध्यान से सुन रही थी और मैं भी । बहुत सारी बाते थीं – कुछ सर के ऊपर से निकल रहीं थी तो कुछ भीतर तक मार कर रही थीं । जब बात आई परिवारवाद और राष्ट्रीय एकता की तो दिमाग में कुछ हलचल सी हुई । कहा जा रहा था कि देश को जगह-जगह फैले परिवारवाद से मुक्ति चाहिए । अब मैं ठहरी राजनीति से कोसों दूर विचरण करने वाली अध्ययन-मनन के खुले आकाश में उन्मुक्त उड़ान भरने वाली पक्षी । राम चरित मानस की वह चौपाई सुनी तो आपने भी होगी – जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी । अब कहने वालों का आशय चाहे जो भी रहा हो, मुझे लगता है कि हमारे इर्द गिर्द समाज में, देश में परिवारवाद तो है ही नहीं । अगर परिवारवाद होता तो परिवारों, बुजुर्गों की इतनी दुर्दशा नहीं होती । हाँ जिस प्रकार के परिवारवाद की आजकल जगह-जगह चर्चा की जाती है वह वास्तव में परिवारवाद का बिगड़ा हुआ स्वरूप है । हम बात करते हैं राष्ट्रीय एकता की लेकिन स्वयं के परिवार की खोज – खबर नहीं ।

मेरी कल्पना का परिवार तो आज भी वही है जो मैंने बचपन में देखा । गर्मी की छुट्टियों मे नाना -नानी, दादा -दादी के पास जाना । अपने उन भाइयों के साथ – जिन्हें आज की अंग्रेजीयत की भाषा में कजिन – ब्रदर्स कहा जाता है – घुलमिल कर एक अलग ही संसार में खो जाना । घर के लंबे-चौड़े दालान में रात को खटियाओं की कतार ही लग जाती । घर का पालतू शरारती कुत्ता शिमलू हमारी हर शरारत का भागीदार होता । वह बीता हुआ समय जैसे समय के साथ ही खो चुका है । आज का परिवार घर की चारदीवारों से बाहर अस्तित्व नहीं रखता । इसमें केवल पति, पत्नी और बच्चों का ही स्थान है। मकान तो बन जाता है लेकिन वह कभी घर नहीं बन पाता । उस मकान में सभी भौतिक सुख-सुविधाएं तो जुट जाती हैं लेकिन शांति का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं होता । बूढ़े माँ -बाप से ही जब किनारा कर लिया जाता है तो बाकी रिश्तेदार तो सुदूर ग्रहों में बसने वाले प्राणी हो जाते हैं । हालात यहाँ तक हो जाते हैं कि खून के निकटतम संबंधियों के चेहरा देखे भी इतना अरसा हो जाता है कि अगर सड़क पर सामने से गुजर भी जाएं तो पहचान नहीं पाएं । हाँ इन रिश्तों में एक अपवाद अवश्य है कि युवावस्था में मित्रों को वह विशेष दर्ज़ा दिया जाता है जिसके आगे अन्य सभी घरेलू रिश्ते फीके पड़ जाएं । कोई बात नहीं – समय का चक्र सब हिसाब एक बराबर कर देता है । वक्त के साथ -साथ उम्र गुजरती जाती है । जब तथाकथित गोद लिए हुए मित्रगण भी वक्त के साथ अपनी- अपनी विवशताओं के कारण किनारा कर लेते हैं तब याद आती है कहाँ गए मेरे अपने जो सच में अपने थे । जो तब आपके पास आने को व्याकुल थे पर अपनी मनमौजी सोच के कारण आप लगातार उपेक्षा करते रहे । आज हालात ठीक उसके विपरीत हैं । आज आपको उन बिछड़े हुए रिश्तों की आवश्यकता है, आज आप अपनी मजबूरी में दरवाज़ा खटखटा रहे हैं पर जरूरी नहीं कि दूसरी ओर भी आपकी जरूरत महसूस हो रही हो । हम सब इंसान हैं देवता नहीं । बीता हुआ समय और आपबीती सब को याद रहती है जो वक्त पर गुल खिला ही देती । अगर मैंने अपने माता – पिता को उनके बुढ़ापे में उपेक्षित किया है तो भूल जाइए कि मेरी स्वयं की ढलती उम्र सम्माजनक तरीके से गुजरेगी ।

सूखते रिश्ते - वीरान घर

कुल मिलकर कहने का सार यह कि हम सब परिवारवाद की उसी स्नेहिल डोरी से जुड़े रहें जो हम सब के बचपन की यादों में कहीं खो सा गया है । राष्ट्र को मज़बूत करना है तो पहले अपने घर के सूखे पड़े रिश्तों से करें । अब इसे चाहे आप परिवारवाद कहें या परिवार प्रेम, रिश्तों के वटवृक्ष की जड़ों को मजबूत करने के लिए और हम सब के सुखद भविष्य के लिए बहुत आवश्यक है। मेरी सोच है – आप तक पहुंचा दी कहाँ तक आप सहमत हैं यह आप पर निर्भर है ।
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(प्रस्तुतकर्ता : मुकेश कौशिक)

Tuesday 9 August 2022

शतक और दो वर्षों की दुविधा

एक लंबे अरसे की चुप्पी के बाद आपके सामने प्रस्तुत हूँ ।

हम  सब बचपन से सुनते आ रहे हैं , मेरे मन कछु और है, दाता के कछु और । इंसान सोचता रहता है, बड़े – बड़े मंसूबे पालता है – मैं यह करूँगा , वह करूँगा – पर अंत में जो नतीजा निकलता है वह वही होता जिस पर ऊपर वाले की मंजूरी की मोहर लगती है। बहुत पहले बचपन में फिल्म देखी थी ‘वक्त’ । उसमें बलराज साहनी एक ऐसे सेठ थे जिन्होनें अपने बच्चों के लिए बहुत ऊँचे -ऊँचे सपने पाले थे लेकिन वक्त की मार के आगे सब छिन्न-भिन्न हो गए । आपको यह बात इस लिए बता रहा हूँ कि जीवन से जुड़े छोटे-मोटे कहानी किस्से अपने ब्लाग के माध्यम से आप सबके पास पहुंचाता रहा हूँ । लगभग हर सप्ताह कोई नई कहानी, नया किस्सा आप सब तक पहुँच ही जाता था । यह सब सिलसिला निर्बाध रूप से चलता रहा और ब्लाग की पोटली में किस्सों की गिनती बढ़ती गई – दस .. बीस.. पचास .. अस्सी .. नब्बे और एक दिन जब उस आँकड़े ने 99 की गिनती छू ली तब दिमाग ने कुछ ऐसी खिचड़ी पकानी शुरू करदी कि बस कुछ मत पूछिए। बस हर दम एक ही विचार खोपड़ी में दौड़ लगाता रहता कि शतक बनाने वाले किस्से का नायक कौन होगा, विषय क्या होगा, वगैरा .. वगैरा ।

अब मज़े की बात यह कि जितनी सहजता से अब तक लेपटॉप के कीबोर्ड पर उँगलियाँ दौड़ती रही थी, अचानक उनमें जैसे ब्रेक लग गया । यह ब्रेक भी टेलीविजन पर चलाने वाले कार्यक्रम के बीच दिखाए जाने वाला कोई छोटा-मोटा कमर्शियल ब्रेक नहीं था । दिमाग में दही जमने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी । दिन हफ्तों में, हफ्ते महीनों में और महीने साल का रूप लेने लगे और उस नायक का दूर-दूर तक नामों-निशान नहीं जिसे स्वर्णिम शतक के घोड़े पर सवार होकर आपके पास आना था ।

समय था कि गुजरता जा रहा था । उस ऊपर वाले की कुदरत ने भी अपना कहर बरपाना शुरू कर दिया । कोरोना की महामारी  दैत्याकारी प्रचंड रूप धारण कर चुकी थी । हर आदमी एक तरह से मौत के साये में जी रहा था । कितनों ने अपनी जान गवाईं , अपने प्रिय जन गँवाए, मौत से किसी प्रकार बच भी गए तो बीमारी ने अधमरी हालत में ला पटका ,अपना रोज़गार खोया । शायद ही कोई परिवार हो जो इस महामारी की मार से अछूता रहा हो । अब हालात कुछ ऐसे कि मैं स्वयं दुखी, मेरे निकट संबंधी कष्ट में, मेरे मित्रगण परेशानी में । ऐसी परिस्थितियों में कहानी-किस्सों के बारे में सोचना किसी भी संवेदनशील प्राणी के बस की बात नहीं । यही वजह रही मेरी खामोशी की ।

अब इस सारे घटनाक्रम ने पूरे दो साल निकाल दिए । बकौल मशहूर शायर मिर्ज़ा गालिब “मुश्किलें इतनीं पड़ी मुझ पर कि आसां हो गईं”। कुल मिलाकर हालात अब पहले जैसे बदतर नहीं हैं लेकिन फिर भी मंज़र कुछ-कुछ तो ऐसा ही है जिसके लिए कवि नीरज कह गए - – “कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे” ।

इस तूफान के बाद की खामोशी ने बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया । मानों अंदर से कोई आवाज कह रही हो –“ बेटा ! क्रिकेट में क्रीज़ पर बल्ला लिए अच्छे -अच्छे धुरंधर खिलाड़ी 99 रनों पर ही आउट हो जाते हैं। शतक खिलाड़ी नहीं बनाता, मैं बनवाता हूँ । इस दुनिया का सबसे बड़ा खिलाड़ी मैं हूँ । जिसने भी इस रहस्य को जान लिया, समझ लिया उसीका जीवन सफल है, सुखमय है।“

विगत दो वर्षों में जो कुछ अनुभव हुआ – कुछ आपबीती कुछ जगबीती, उसने इतना तो स्पष्ट इशारा कर दिया कि ‘शतक- कथा’ का नायक, जी नहीं – क्षमा कीजिए – महानायक उस आदि शक्ति, परमपिता परमेश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता जो इस संसार को चलाता है। जबतक यह विचार मेरे दिमाग में नहीं आया तब तक इस ब्लाग की रेलगाड़ी ने स्टेशन पर डेरा ही जमा लिया ।

इतने समय के बाद जबकि आपमें से बहुतों के स्मृतिपटल से शायद मैं गायब भी हो चुका होऊँगा, यह लेख महानायक परमेश्वर को समर्पित इस अर्चना के साथ :

जीवन-चक्र चमत्कार है
साँसें हैं उपहार,
परमपिता को याद रखो
मानो उसका उपकार ।