Monday 27 July 2020

संगीत - शौक - सेवा : दिलीप कुमार राव

मेरे दिवंगत पूज्य पिता श्री रमेश कौशिक बहुत ही विद्वान और प्रख्यात कवि थे । उनसे अक्सर बड़े ज्ञान की नसीहतें सुनने को मिला करती थीं । मैं भी उन्हें गांठ बांध लेता । आज भी उन्हें याद करता हूँ तो जीवन के किसी न किसी मोड़ पर सहारा मिल जाता है । वह कहा करते थे अगर तनाव मुक्त जिंदगी गुजारनी है तो इंसान कम से कम ऐसा एक अच्छा शौक जरूर पाले जिसका उसके काम-धंधे से दूर-दूर तक कोई संबंध ना हो । बागवानी, खेलकूद , सैर सपाटा , फोटोग्राफी , पढ़ना -लिखना , खाना पकाना , समाज सेवा जैसे अनगिनत शौक हैं जिनमें मैंने अपने बहुत से दोस्तों को व्यस्त और मस्त देखा है । जिनका कोई शौक नहीं है उसका नौकरी का समय तो जैसे-तैसे रो-धो कर कट जाता है पर रिटायरमेंट के बाद बुढ़ापे में उनकी हालत भूतपूर्व मंत्री जैसी हो जाती है जिसकी ना तो मूंछ बाकी है और ना ही पूंछ ।
दिलीप कुमार राव : किसी हीरो से कम नहीं 
मेरे एक करीबी दोस्त हैं – दिलीप कुमार राव । फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार की तरह वह भी मुंबई में ही रहते हैं । बड़ा शानदार और प्रभावशाली व्यक्तित्व है उनका । हो सकता है उनके नामकरण के पीछे भी फिल्मी दिलीप साहब का ही प्रभाव रहा हो । उनके प्रशंसकों और दोस्तों की बहुत लंबी लिस्ट है जिनमें मैं भी शामिल हूँ । किसी जमाने में उसी कंपनी – सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया – में काम करते थे जिसमें मैं भी लंबे अरसे तक रहा । बहुत ही मिलनसार हैं – जिसे हम चलती भाषा में कहते हैं – यारों के यार । उन्हें कभी फोन कीजिए तो वर्ष 1956 के मशहूर फिल्मी गाने की मस्त कॉलर ट्यून सुनाई पड़ेगी – ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ , ज़रा हटके -ज़रा बचके – ये है बॉम्बे मेरे जाँ । सुनकर हंसी भी आती है और आश्चर्य भी होता है कि आज से 64 साल पहले भी बॉम्बे के ये हालात थे और आज के दिन भी कोरोना के मारे मुंबई का वही रोना है । हाँ तो मैं बात कर रहा था अपने मित्र दिलीप की । वैसे वह बंदा है गुणा -भाग वाला यानी फाइनेंस डिपार्टमेंट में काम करने वाला । इस लाइन में काम करने वालों को दुनिया अक्सर एक अलग ही नजर से देखती है – बहुत ही रूखे -सूखे , तेज-तर्रार जिन्हे हर छोटी बड़ी चीज़ को नफ़े – नुकसान की तराजू में तोलने की आदत होती है । लेकिन यह दुनिया तो उस भगवान की बनायी हुई है जिसने पाँचों उंगलियों को भी एक समान नहीं बनाया । सबसे हट कर अनोखे लोग हर जगह होते हैं और दिलीप भी उन्हीं में से एक हैं । संगीत का शौक उन्हें जुनून की हद तक है । बहुत तरह के साज़ बड़ी ही निपुणता से बजा लेते हैं जैसे – ढोलक, कीबोर्ड, हारमोनियम , माउथ ऑर्गन । जितनी गंभीरता से नौकरी कर रहे हैं उतनी ही जिम्मेदारी से समय निकाल लेते हैं जगह -जगह होने वाले संगीत कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए।
संगीत -साथियों की टोली 
 हुनर तब और रंग लाता है अगर उसे दुनियादारी से दूर रखा जाए । असली कलाकार एक अलग ही दुनिया के वासी होते हैं और दिलीप भी उसी श्रेणी में हैं । फिल्मी दुनिया के बहुत से प्रसिद्ध कलाकारों में उठना -बैठना है पर खुद किसी भी तरह के दिखावे से बहुत दूर । 
परिचय की जरूरत नहीं : फ़ोटो खुद बोलता है 
दिलीप की मुझे जो सबसे अच्छी बात लगी – जिसने यह छोटी सी कहानी लिखने को मजबूर किया – वह है उनका संगीत के प्रति निस्वार्थ प्रेम । इतनी काबलियत होते हुए भी दिलीप ने संगीत को कमाई का जरिया नहीं बनाया । जगह -जगह जा कर अपने इस हुनर और शौक का इस्तेमाल करता है लोगों का मनोरंजन करने में । केवल जन-साधारण ही नहीं वह अस्पतालों में तकलीफें झेल रहे मरीजों का मन बहलाते हैं , उनके चेहरे पर मुस्कराहट लाते हैं । आप एक बारगी नीचे दी गई तीन मिनिट की वीडिओ क्लिप पूरी देख जाइए । मेरी तरह आपके चेहरे पर होगा एक सुकून, होंठों पर मुस्कराहट और दिल में एक प्यारे से गीत की याद : 
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार , किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार , जीना इसी का नाम है । 




इस दुनिया को तुम से बहुत कुछ सीखना बाकी है दिलीप ।


Monday 20 July 2020

दास्ताने टिंकू

बड़ा प्यारा से नाम है टिंकू । सुनते ही दिलो दिमाग में किसी खूबसूरत से शरारती बच्चे की तस्वीर कौंध जाती है । मुझे तो इस नाम से खास ही लगाव है । बारह - तेरह वर्ष की उम्र रही होगी मेरी जब घर पर एक शाम पिता जी प्यारा सा भूरे रंग का पिल्ला ले कर आए । जहाँ तक मुझे याद पड़ता है उसका नामकरण – टिंकू हम तीन सदस्यीय भाई-बहन की टीम द्वारा सर्व सम्मति से ही हुआ होगा । मेरे ज़िंदगी का वह पहला जीता जागता खिलौना आज भी मुझे अक्सर याद आता है । इतिहास के मुगल वंश के शासकों के नाम बेशक मुझे कभी याद ना हो सके लेकिन अपने घर पर समय -समय पर पाले गए पिल्लों के नाम मैं एक ही सांस में उंगलियों पर गिना सकता हूँ – टिंकू – बंटी – शिमलू – टिंकू ( द्वितीय) – केरी – टैडी - चंपू । स्कूल के मास्टर जी अक्सर कहा करते थे कि याद वही चीज रहती है जिसे आप दिल से प्यार करते हैं – अब चाहे वह किताब का पाठ हो या कोई इंसान । ज़ाहिर सी बात है कि मुगलिया सल्तनत के इन बादशाहों में मेरी कोई रुचि नहीं रही , इसीलिए कितने ही रट्टे मारने के बाद आज भी दिमाग से सफाचट है कि कौन किसका बाप था और कौन बेटा । 
टिंकू का इकलौता फ़ोटो - माँ के साथ 

हाँ तो मैं बात कर रहा था टिंकू की – जिसका हमारे घर में पदार्पण इसलिए नहीं हुआ कि उस जमाने में उसे हम बच्चों की ख्वाहिश पूरी करने के लिए लाया गया हो – या हमारे माँ-बाप का शौक हो । हमारा मध्यम वर्ग का बहुत ही साधारण सा ऐसा परिवार था जहाँ कुत्ता -बिल्ली पालने की बच्चों की मनुहार को यह कह कर दरकिनार कर दिया जाता है कि पहले तुम तो पल जाओ । हम लोग उन दिनों दिल्ली शाहदरा – मानसरोवर पार्क में रहा करते थे । भीड़-भाड़ से दूर सुनसान इलाके में बस्ती थी । पिता दफ्तर और माँ स्कूल के लिए सुबह ही निकल जाते । पहली शिफ्ट के स्कूल में पढ़ा कर जब तक दोपहर को माँ वापिस घर आती उससे पहले ही हम अपने स्कूल के लिए रवाना हो जाते । कुल मिलाकर चोरी-चपाटी के डर से घर को सुरक्षा की जरूरत थी और उसके लिए हमारी हैसियत और बजट कुत्ते पर ही आकर रुक जाता था । टिंकू क्योंकि एक साधारण देसी पिल्ला था इसलिए मेरी समझ से वह चाहे जहाँ से भी आया हो , पर आया मुफ़्त में ही । इंसान की सोच यहीं आकर चक्कर खा जाती है जब कहा जाता है कि पैसा बोलता है । अरे भाई – जरूरी नहीं कि हर अच्छी चीज के लिए आपको अंटी ढीली करनी पड़े । कई बार आपको कचरे के ढ़ेर में भी खजाना मिल जाता है । हमारे टिंकू का मामला भी कुछ ऐसा ही था । 

स्वभाव से बड़ा ही सीधा -सरल प्राणी था टिंकू । सभी से मिलजुल कर प्यार से रहता । इस मामले में कुछ ज्यादा ही मस्त -मौला था । हालत यह कि कोई अजनबी भी घर आता तो बड़े प्यार से पूँछ हिलाते हुए गले मिलने वाला भव्य स्वागत करता । कभी सड़क पर भी जा रहा होता तो वही नजारा पेश हो जाता – जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए । गरीब घर के बच्चे ज्यादातर सभी प्रकार के उद्दंड व्यवहार से दूर बहुत ही अनुशासित और संकोचशील जीवन जीते हैं । टिंकू भी कुछ - कुछ ऐसा ही था । उसकी बस एक ही मनपसंद शरारत होती । गरमी के दिनों में हम सब खुले आँगन में कतार में खाट बिछा कर सोया करते । सुबह सूरज निकलने के बाद देर तक सोने वाले हम बच्चों की खटिया पर ही चढ़ कर वह मुँह के ऊपर से चादर खींच कर अपनी ही भाषा में जय राम जी की कर देता । इस हरकत में उसे परोक्ष रूप से हमारे माता -पिता का ऐसे ही समर्थन मिलता जैसा पाकिस्तान को चीन का – इसलिए उसमें हेकड़ी और हिम्मत दोनों ही आ जातीं । 

उसका एक शौक और भी था – घर में आने वाले मेहमानों की चप्पलों से उसे खास ही प्यार था । इधर मौका लगा और उधर चप्पल ऐसे गायब जैसे बैंक से कर्जा लेकर विजय माल्या । बहुत खोजबीन के बाद जूते -चप्पल मिल तो जाते पर इतनी क्षत -विक्षत और घायल अवस्था में कि पहचान करना ही मुश्किल हो जाता । उन दिनों टिंकू के दांत निकल रहे थे सो दांतों में हो रही खुजली और कसक मिटाने के लिए वह कभी कुर्सियों के पाए कुतर डालता तो कभी अच्छी-खासी ऊंची एड़ी की सैंडिल को नोच-नोच कर हवाई चप्पल में बदल देता । नतीजा यही होता कि इस तरह की करतूतों के लिए उसकी चपत-परेड और कान-खिचाई भी होती । पर उसे भी अपनी इज्जत बहुत प्यारी थी इसीलिए ऐसे मौके पर होने वाली ज़लालत से बचने के लिए वह अक्सर पहले ही बिन लादेन की तरह भाग कर हमारी पहुँच से दूर किसी दुर्गम जगह जैसे तख्त या सोफ़े के नीचे शरण ले लेता । कठिन परिस्थितियों में आत्म-रक्षा के लिए भूमिगत होने का पहला पाठ मुझे टिंकू से ही सीखने को मिला । 

हमारे मकान में काफी खाली जगह भी थी जिसमें पेड़ -पौधे और सब्जियां उगाते रहते थे । वह खाली जगह टिंकू का खेल का मैदान भी था । कई बार टिंकू को उस बगिया से हमने गाजर – मूली उखाड़ कर खाते हुए रंगे हाथों भी पकड़ा । वह उसके मस्ती के दिन थे । 

घर में खुले में रखे खाने -पीने के सामान पर वह कभी मुँह नहीं मारता था । समझदार इतना कि सारे घर में घूमता -फिरता बस रसोई घर को छोड़ कर । रसोई में केवल तभी अंदर घुसता जब गलती से दूध उबल कर नीचे फर्श पर बहने लगता । अपने अनुभव से वह इतना जानता था कि उस जमीन पर बहने वाले दूध पर उसका जन्मसिद्ध अधिकार था जिसे लेने के लिए उसे किसी पासपोर्ट या अनुमति की आवश्यकता नहीं थी । 

घर में सभी की आँखों का तारा था । मेरी नानी खुर्जा में रहा करती थीं । जब भी हमारे पास मिलने आतीं तो टिंकू के हिस्से के लड्डू अलग से लातीं । उन लड्डुओं को बड़े प्यार से अपने हाथ से उसे सहलाते हुए खिलाती जाती और कहतीं – “खा टिंकू खा । तू मेरे बच्चों की रक्षा करता है ।“ उनकी बात सच भी थी क्योंकि रात के समय घर की चौकीदारी टिंकू पूरी मुस्तैदी से निभाता । 

टिंकू का पालन पोषण भी कुछ हद तक गोकुल की गैया की तरह ही होता था । समय -समय पर उसे घर से बाहर घूमने-फिरने के लिए छोड़ देते । वह आस-पास चहल कदमी कर कुछ देर बाद अपने आप ही घर वापिस लौट आता । एक दिन तो कमाल ही हो गया – वह गया तो ऐसा गया कि देर शाम तक वापिस नहीं आया । चिंता हुई – सारी कॉलोनी छान मारी पर टिंकू नहीं मिला । थक -हार कर घर पर सभी उदास होकर बैठ गए । उस रात परिवार में कोई ढंग से खाना भी नहीं खा पाया । गर्मियों के दिन थे – हमेशा की तरह सभी आँगन में खात बिछा कर सो रहे थे । देर रात अचानक दरवाजे पर आहट हुई । दरवाजा खोला तो सामने टिंकू बैठा था । देखते ही उसने सीधे घर के अंदर दौड़ लगा दी और कूँ -कूँ करते हुए सभी के पाँव से चिपट गया । वह बहुत घबराया हुआ था – उसके गले में एक टूटी हुई रस्सी बंधी हुई थी । उसे कोई अपने साथ जबरदस्ती ले गया था पर मौका देख कर वह उस रस्सी को तुड़ा कर भाग निकला । 

इस कहानी को ब्लॉग पर  पोस्ट करने के बाद एक टिंकू के बारे में एक ऐसा कमेन्ट आया जिसे मैं मूल रूप में उद्धृत  कर रहा हूँ ।  ब्लॉग लेखन के दौरान मेरे साथ ऐसा पहली बार हुआ है जब  प्रकाशन के बाद भी उसमें कहानी में ही  पाठक प्रतिक्रिया / संदेश को समाहित किया हो । यह संदेश था इस कहानी के ही एक पात्र - मेरी छोटी बहन पारुल  का जिसने लिखा :   
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"दास्ताने टिंकू पढ़ते हुए यादों के गलियारों में घूम रही थी ।बचपन की बहुत सी यादें ताज़ा हो गईं ।जब हम तीनों भाई-बहन नींद से जूझते हुए परीक्षा की तैयारी कर रहे होते थे, टिंकू कमरे के बीचों बीच आराम से फैल कर सो रहा होता था । उस समय हमें उससे बहुत ईर्ष्या होती थी । कम से कम मैं तो उस समय यही सोचती थी --अगले जनम मोहे-------।"
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समय पर किसी का ज़ोर नहीं चलता । मैं बचपन से किशोरावस्था में जा रहा था और टिंकू अपने बुढ़ापे की ओर । बुजुर्ग ठीक ही कहते हैं – बुढ़ापा खुद अपने आप में एक लाइलाज बीमारी है । टिंकू को भी धीरे -धीरे बीमारियों ने जकड़ना शुरू कर दिया । वह आज से पचास बरस पहले सत्तर के दशक का वह ज़माना था जब पशु तो दूर , इंसानों के इलाज की व्यवस्था भी आज जितनी उन्नत और सुलभ नहीं थी । ले -देकर घर से चार किलोमीटर दूर एक सरकारी पशु डिस्पेंसरी थी । टिंकू को भी कभी पैदल तो कभी अपनी गोद में बिठा कर रिक्शे में लेजाता । वह बेचारा धीरे -धीरे कमजोर होता जा रहा था । चलने फिरने में उसे दिक्कत होती, खुराक कम हो गई। शरारत तो क्या कर पाता बस घर के एक कोने में पड़ा बस सोता रहता । अब उसे बेहोशी के दौरे भी पड़ने लगे थे । उसको ऐसी हालत में तड़पते हुए देखना भी मेरे लिए अपने आप में बहुत बड़ी सज़ा थी । उसे शायद दमा या ऐसी ही कोई फेफड़ों की बीमारी हो चुकी थी जिसके लिए डिस्पेंसरी का डाक्टर भी हाथ खड़े कर चुका था । 

उस दिन तब दोपहर के बारह बजे थे । दरवाजे की घंटी बजी – बाहर जो व्यक्ति खड़ा था उसके आने के बारे में पिता जी दफ्तर जाने से पहले मुझे पहले ही बता चुके थे । वह उनके दिल्ली परिवहन निगम के दफ्तर का मेडीकल ऑफीसर था । मुझसे उसने टिंकू के बारे में पूछा और देखने की इच्छा ज़ाहिर की । टिंकू हमेशा की तरह घर में अपने पसंदीदा जगह - तख्त के नीचे बेसुध होकर सो रहा था । मैंने उसे जगाया और घर के पीछे के बरामदे में ले गया जहाँ डॉक्टर उसका इंतजार कर रहा था । डॉक्टर ने अपने बैग से इंजेक्शन निकाला और टिंकू को लगा दिया । इंजेक्शन लगते ही टिंकू बहुत जोर से झटके से छटपटाया , तड़पा और धीरे -धीरे शांत हो गया । डॉक्टर ने धीरे से मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोला – “बच्चे ! इसकी बीमारी का कोई इलाज नहीं था । समय के साथ इसकी तकलीफें बढ़नी ही थी । इसको आराम दिलाने का बस यही एक रास्ता था ।“ डॉक्टर की बातें मेरी बाल -बुद्धि की समझ से बाहर थीं । मैं तो सिर्फ अपनी डबडबाई आँखों में आँसू रोकने की कोशिश करते हुए चिरनिद्रा में सोए अपने उस खिलौने को देख रहा था जो कुछ समय पहले तक बूढ़ा, लाचार और बीमार ही सही पर था तो जीता जागता । 

मुझे पता नहीं उसके बाद कब वह डॉक्टर वापिस गया – कब माँ स्कूल से आयीं । माँ को उस बारे में शायद पहले से ही पता था । वह कमरे में उस तख्त पर बैठीं हुई थी जिसके नीचे सुबह टिंकू आराम कर रहा था । उन्होनें अपनी धीमी आवाज में सिर्फ इतना ही पूछा – वह कहाँ है ? मैं माँ को उस जगह ले गया – माँ ने निश्चल पड़े टिंकू को एक नजर देखा । जब सहन नहीं हुआ तो उस को एक बड़ी सी चादर से ढक कर वापिस कमरे में उसी तख्त पर आकर धम से बैठ गयीं और दोनों हाथों से अपना चेहरा ढाँप लिया । मेरी माँ यूं तो मजबूत दिल वाली है पर उसे सुबकते हुए मैंने तभी देखा था । घर के पास की ही एक खाली जगह पर टिंकू को प्यार और सम्मान के साथ गहरा गड्ढा खोद कर अंतिम संस्कार कर दिया । बूढ़े टिंकू की दर्द और रोग से सदा के लिए मुक्ति का तरीका और औचित्य आज पचास साल बाद भी मुझे परेशान कर देता है – आँखों में आँसू ला देता है । 

टिंकू ने अपनी शरारतों और प्यार से जो हम सबके दिलों में जगह बनायी वह कभी खाली नहीं हो सकती । यद्यपि इतने प्यारे दोस्त की हमेशा के लिए विदाई दिल को चीर कर रख देती है पर उससे मिलने वाला निश्चल स्नेह  उसके  जाने के बाद भी आपको उनकी दुनिया से जोड़े रखता है । यही कारण है टिंकू ही समय समय पर अलग – अलग नाम से मेरे पास आता रहा –शिमलू , टिंकू ( द्वितीय) , केरी , टैडी  , चंपू सब में उसी का ही तो रूप है । उनके साथ खेलते समय मैं फिर से वही छोटा बच्चा बनता रहा हूँ  – टिंकू का नन्हा दोस्त । इस सब के बावज़ूद दिल के किसी अंजान कोने में आज भी एक दबी हुई ख्वाहिश है - काश फिर कभी देर रात दरवाजे पर आहट हो और सामने टूटी रस्सी गले में बांधे टिंकू बैठा मिले ।

Monday 13 July 2020

मासूम पुकार

आज की आपको जो किस्सा सुनाने जा रहा हूँ वह उसी कहानी का एक तरह से हिस्सा है जो आज से तकरीबन दो साल पहले सुनाई थी ; मैं जिंदा हूँ । इसमें एक जीप दुर्घटना का वर्णन था । अगर आपकी याद के पिटारे से वह कहानी गायब हो चुकी है तो फिर से याद ताज़ा कर सकते हैं दिए गए कहानी के लिंक पर क्लिक करके :  मैं जिंदा हूँ अभी । 

19 अगस्त - वर्ष 1996 – दिन सोमवार – समय लगभग सुबह सवा नौ बजे का – स्थान हिमाचल प्रदेश में सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया की राजबन फैक्ट्री । ड्राइवर कर्म चंद मेरे आफिस में बैठ कर विभाग के कर्मचारियों के साथ बतिया रहा था । कुछ ही देर बाद उसे अपनी जीप में लेडी डॉक्टर – शैल सहगल को 15 किलोमीटर दूर बसे खदान के इलाके में ले जाना था । वहाँ पर भी भरी -पूरी कॉलोनी है जिसमें रहने वाले कर्मचारियों और उनके परिवार के सदस्यों को डिस्पेंसरी में इलाज की सुविधा दी जाती है । कर्म चंद की खिलखिलाती आवाज मेरे कमरे तक आ रही थी । वह अपने कुछ ही महीने बाद होने वाले अपने रिटायरमेंट की योजना बना रहा था । बता रहा था कि इस खटारा जीप को भी कंपनी से खरीद कर अपने साथ ही ले जाएगा । मैं उसकी इन भोली बातों को सुन कर मंद – मंद मुस्करा रहा था । चलते -चलते बोला अभी तो जा रहा हूँ – वापिस लौट कर दोपहर को घर पर लंच में बैंगन की सब्जी बनाई हुई है वही खाऊँगा । अपने आफिस की खिड़की से मैं उसकी बूढ़ी- जर्जर जीप को शोर-मचाते - धुआँ उड़ाते आँखों से ओझल होते देखा । 
अब आगे की आपबीती डॉक्टर शैल सहगल के मुंह से : 
 लाड़ली वसुधा और  माँ  डॉ ० शैल (9  जनवरी 1997)

"मैं कॉलोनी के अपने क्वाटर में बैठी इंतजार कर रहीं थी जीप का जिसे आज की ड्यूटी के लिए माइंस कॉलोनी लेकर जाना था । जीप का हॉर्न सुन कर घर से बाहर निकलने लगीं । जाने से पहले एक बारगी अपनी छ: माह की छोटी से बच्ची -वसुधा को प्यार से पुचकारा और जीप की ओर तेजी से कदम बढ़ा दिए । मेरे पति - डाक्टर संजीव सहगल भी राजबन में ही कार्यरत थे । हम लोगों का मिलनसार व्यवहार की वजह से सभी स्नेह और सम्मान करते थे । ऊबड़ -खाबड़ धूल भरे पहाड़ी रास्तों पर हिचकोले खाती जीप मानल खदान की डिस्पेंसरी की ओर ले चली । वहाँ पहुँच कर लगभग एक घंटे तक मरीजों को देखने का काम चला । काम निपटा कर वापिस राजबन की ओर चल पड़े । 

सरकारी जीप अपनी मंद गति से चली जा रही थी । टूटी-फूटी सड़क के गड्ढे उस जीप को बुरी तरह से झकझोर रहे थे । खड़खड़ाहट की आवाज इतनी तेज हो रही थी कि उसके आगे हॉर्न की आवाज भी बेमानी लग रही थी । ड्राइवर कर्म चंद इस सबका अभ्यस्त था । उस खटारा गाड़ी में रोज-रोज आने वाली दिक्कतों और खराबियों की आला अफसरों से शिकायत करने के अलावा वह कर भी क्या सकता था । वो शिकायतें जो हमेशा अनसुनी रह जातीं । मन मसोस कर वह खुद को दिलासा देता – एनी हाऊ . . . . काम चलाओ । लेकिन आज मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा था । गाड़ी की चाल कुछ ज्यादा ही अजीब तरीके से हो रही थी । ड्राइवर की ओर देखा – वह अपने आप में ही मगन , दीनो-दुनिया से बेखबर । उसकी तरफ का दरवाजा लॉक खराब होने के कारण बार -बार खुल जाया करता था इसलिए तार से ही बांध कर जुगाड़ बना हुआ था । उस खतरनाक जुगाड़ को देख कर मेरे मन में आश्चर्य , खीझ और अनजाने डर की मिश्रित भावनाएं उठ रहीं थी । कई बार हालात इस तरह के बन जाते हैं कि मजबूरी में इंसान को अन्याय भी सहना पड़ जाता है । नौकरी और जिम्मेदारी से बड़ी लाचारी और मजबूरी शायद दूसरी कोई नहीं । जीप जिस रास्ते पर वापिस राजबन की ओर जा रही थी उस मोड़दार सड़क के एक तरफ़ पहाड़ थे और दूसरी ओर गहरी खाई , घाटी और बहती हुई गिरी नाम की नदी । अचानक पता नहीं क्या हुआ मैंने नोट किया– जीप अनियंत्रित होकर सड़क से उतर कर खाई की ओर के कच्चे कटाव पर दौड़ रही हैं । तुरंत ड्राइवर को सचेत भी किया पर कर्म चंद खामोश रहा । शायद वह उस खतरनाक हालात पर काबू करने में व्यस्त था । होनी को कुछ और ही मंजूर था - भरसक कोशिशों के बावजूद जीप पागल हाथी बन चुकी थी जिस पर महावत का कोई भी जोर नहीं चल पा रहा था । उन खतरनाक लम्हों में भी मेरे दिमाग में तब भी अडिग विश्वास था कि कुछ भी अनहोनी नहीं होगी – जो भी होगा सब ठीक ही होगा । इसके बाद कुछ और सोचने का मौका ही नहीं मिला – जीप पूरी तरह से बेकाबू होकर सड़क किनारे की कच्ची मिट्टी को काटते हुए गहरी खाई की ओर बढ़ चली थी । जीप अपना संतुलन खो चुकी थी और लगातार पलटियाँ खाते हुए गहरी खाई में नीचे – और नीचे लुढ़कती जा रही थी । हर पलटी के साथ मैं और ड्राइवर भी अंदर ही चक्कर खा रहे थे । गिरती हुई जीप की छत से सिर टकराया और मैं बेहोश । उसके बाद मुझे कुछ पता नहीं । मौके पर मौजूद चश्मदीदों के अनुसार खाई में गिरने तक जीप ने चार पलटियाँ मारी ।इस दौरान नीचे गिरते हुए जगह -जगह पेड़ों से भी टकराती रही और हर टक्कर पर जीप के परखचे हवा में उड़ते रहे । ऐसी ही किसी पेड़ की टक्कर के जबरदस्त धक्के ने मुझे बेहोशी की हालत में ही जीप के पिछले टूटे दरवाजे के रास्ते हवा में उड़ाते हुए पास की जमीन पर ला पटका । कितनी देर तक उस हालत में रही आज भी पता नहीं । भाग्य साथ दे रहा था – जहाँ मैं खून से लथपथ बेहोश पड़ी थी वहाँ पर पास में ही पहाड़ी झरना बह रहा था । उससे छिटक कर आती पानी की बौछार ने मानों अमृत का काम किया । कुछ ही देर बाद मुझे होश या चुका था । शरीर असहनीय पीड़ा से छटपटा रहा था । शरीर कीचड़ और खून से लथपथ था । कर्म चंद को आवाज दी – पर जीप और उसका कुछ पता नहीं था । शायद वह नीचे खंदक की और गहराइयों में समा चुकी थी । सिर में लगी गहरी चोट की वजह से सोचने – समझने की शक्ति एक तरह से गायब हो चुकी थी । मेरे सिर में गहरे घाव की वजह से लगातार खून रिस-रिस कर चेहरे पर आ रहा था । पाँच जगह से हड्डियाँ टूट चुकी थी ।लेकिन मेरा अवचेतन मन ( subconscious mind) पूरी शक्ति से काम कर रहा था । वह अवचेतन मन जो बार बार मेरे कान में कह रहा था कि तुम्हें अभी और जीना है – तुम्हें किसी भी कीमत पर अपनी जान बचानी है । तुम्हारी मौत किसी भी हालत में इस जगह और इस वक्त नहीं लिखी है । गहरी खाई से ही ऊपर की ओर नजर दौड़ाई - देखा जहाँ से होकर सड़क गुजर रही थी । पता नहीं किस अदृश्य शक्ति ने शरीर में इतनी ताकत भर दी मैंने धीरे -धीरे डगमगाते कदमों से आगे ऊपर चढ़ना शुरू किया । सहारे के लिए पहाड़ पर उगी लंबी घास और पेड़-पौधों की टहनियों पर अपने घायल हाथों की पकड़ बनाते हुए ऊपर चढ़ती जा रही थी । जीवन की उत्कंठा ने शरीर के असहनीय दर्द को मानों गायब ही कर दिया था । जैसे -तैसे करके सड़क तक पहुंची । आती -जाती गाड़ियों को हाथ देकर रोकना चाहा पर मेरे खून और कीचड़ से सने घायल शरीर को देखकर कोई भी गाड़ी रुकने को तैयार नहीं थी । इसी बीच में वहाँ से गुजरते हुए एक ट्रक – ड्राइवर ने मुझे पहचान लिया । वह राजबन के पास के ही किसी इलाके का रहने वाला था । उसने तुरंत ट्रक रोका - उसी ट्रक से मैं राजबन के लिए चल पड़ी । ड्राइवर से पानी मांगा – अपने चेहरे को धोया जो शायद मुझे होश में रखने के लिए जरूरी भी था । राजबन की सीमा पर पहुंचते ही सबसे पहले ड्राइवर को फेक्टरी के मेन गेट पर ट्रक रोकने को कहा । वहीं पर सिक्योरिटी स्टाफ को मैंने उस दुर्घटना के बारे में सूचित किया और बताया कि कर्म चंद के बारे में तुरत पता किया जाए । ट्रक मुझे आगे कॉलोनी में घर पर छोड़ने ले चला । मुझे सहारा देकर नीचे उतार गया और घर पहुंची । वहाँ पहुंचते ही इस हादसे की खबर आग की तरह से फैल गई । दुर्घटना -स्थल पर आपातकालीन सहायता टीम दौड़ाई गई । पता चला कर्म चंद मेरे जितना भाग्यशाली नहीं रहा – उस दुर्घटना में उसके प्राण नहीं बच सके । ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे । 

 मेरा लंबा इलाज चला । मन की शक्ति ने तन की शक्ति वापिस लाने में पूरा साथ दिया । आज मैं उस ईश्वर पर पूरी आस्था रखते हुए उस हादसे की डरावनी यादों से पूरी तरह से मुक्त हूँ । डॉक्टर के रूप में जो भी सेवा इस समाज की कर सकती हूँ वह आज भी कर रही हूँ ।" 
आज : सुखी  सहगल परिवार 
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डॉक्टर शैल ने तो अपनी कहानी कह दी पर चलते -चलते उनकी इस आपबीती पर मैं अपना नज़रिया जरूर रखना चाहूँगा । जहाँ तक दिवंगत कर्म चंद ड्राइवर का प्रश्न है – वह भी बहुत ही भला और प्यारा इंसान था पर जीवन और मृत्यु उस विधाता के द्वारा ही निश्चित है । फिर भी आपके शुभ कर्म और लोगों से मिली शुभकामनाएं भी रक्षा कवच बन कर विपत्ति में साथ निभाती हैं । डॉक्टर शैल के साथ उनके मरीजों की दुआएं तो थी हीं , उसके अलावा उस 6 माह की छोटी बिटिया – वसुधा की मासूम पुकार भी थी जो उस संकट की घड़ी में सुरक्षा प्रदान कर रही थी । अब आप मानो या ना मानो – मैंने अपनी बात कह दी क्योंकि नजरिया अपना -अपना होता है । हैं ना ?
                                        🌺श्रद्धांजली 🌺


दिवंगत कर्म चंद